क्यों होता है ऐसा अनजान पर्यटकों के साथ
जब मैंने जीवन में पहली बार अकेले लंबी यात्रा की थी, उस यात्रा का एक कटु अनुभव मेरे भीतर अभी तक बसा हुआ है। जब तब वह मुझे दुखी करता रहता है। खासतौर से घुमक्कड़ों के ट्रेवल वीडियो देखते हुए जब उनके साथ कोई स्कैम होता देखता हूं, अपना वह बुरा अनुभव पुनः मन को खिन्न बना जाता है। मैं सोचता हूं कि काश मेरे साथ वैसा ना हुआ होता , उस वक्त मेरे किशोर उम्र मन पर जो गहरी छाप अंकित हो गई थी वह अब तक कायम है, अफसोस है समय की धारा भी उसे धो नहीं सकी।
वर्ष 1977 के आसपास की बात है, हमारी पढ़ाई समाप्त हुई ही थी। हमने यह सोच कर एमएससी कर लिया था कि हमारे नगर के आसपास बड़े पैमाने पर औद्योगिकरण हो रहा था, नए-नए संस्थान खुल रहे थे, नौकरी मिलने की संभावनाएं बनने लगीं थीं। अगर हम केमिस्ट्री में एमएससी कर लेते हैं तो हमें तुरंत कहीं ना कहीं किसी फैक्ट्री में, किसी प्रयोगशाला में नौकरी मिल जाएगी। एमएससी तो हो गया था उसका परिणाम नहीं आया था फाइनल ईयर का। लेकिन डाक तार विभाग में उन दिनों मैट्रिक और हायर सेकेंडरी के अंकों के आधार पर चयन नौकरी के लिए हो जाया करता था। हमारे अंक अच्छे ही आते थे परीक्षाओं में, मैट्रिक और हायर सेकेंडरी में भी जिले में प्रथम विद्यार्थियों में रहे थे। अंकों के आधार पर हमारा चयन हो गया और एमएससी का परिणाम आने के पहले ही हमको डाक विभाग में क्लर्क के पद के लिए चुन लिया गया। प्रशिक्षण के लिए हमें उत्तर प्रदेश के सहारनपुर प्रशिक्षण केंद्र पर जाना था तीन महीनों के लिए। वहां एक बहुत बड़ा प्रशिक्षण केंद्र हुआ करता था जो सहारनपुर शहर से थोड़ा ग्रामीण क्षेत्र में दूर स्थित था, यह परिसर संभवतः पहले सैन्य विभाग के पास रहा था तो वहां उसी तरह का अनुशासन होता था। अब तो बहुत बदल गया होगा , हमने तो फिर पीछे मुड़ के देखा ही नहीं। बहरहाल 3 महीने का हमारा प्रशिक्षण होना था, उसके बाद पोस्टिंग होनी थी। हम कभी घर से निकले नहीं थे मात्र 21 बरस की हमारी उम्र थी, पहली अकेले लंबी रेल यात्रा थी, इंदौर से सहारनपुर तक की।
लेकिन जो मैं बताना चाहता हूं वह सहारनपुर स्टेशन पर उतरने के बाद का प्रसंग है। हमने एक ऑटो रिक्शा लिया, उसको बताया कि हमको ट्रेनिंग सेंटर पर पहुंचा दे, कितने पैसे लेंगे, हमको तो यह भी पता नहीं था कि कितने लगते हैं, कितना किराया होता है, उसने हमको जो बताया हम तैयार हो गए। ट्रेनिंग सेंटर बहुत दूर था, शहर से काफी दूर था, हमको कुछ भी पता नहीं था। उस समय ना तो कोई गूगल मैप होता था ना कोई ऐसी जानकारी लेकर घर से निकले थे। नौकरी मिल जाने की ख़ुशी में हम बस निकल गए थे। रिक्शा हमने बुक कर लिया और उसमें बैठ गए डरते डरते। सुन भी रखा था कि यह क्षेत्र बड़ा बदनाम है, और यहां लूट पाट की बड़ी घटनाएं होती रहती हैं। शहर से बाहर निकलते ही हाइवे जैसा मार्ग आया तो रिक्शा वाले ने रिक्शा से उतारकर पूरा किराया वसूल करने के बाद कहा कि अब आप यहां से कोई अन्य सवारी ले लें। राजा बाबू टाइप जीवन रहा था हमारा, दुनियादारी कुछ समझते नहीं थे, अब क्या करें, भीतर ही भीतर हम घबराते रहे।
पता नहीं रिक्शा वाले पर हमारी परेशान शक्ल का असर हुआ या हमारी मासूमियत के कारण थोड़ी बहुत दया आ गई। तो उसने हाइवे पर गुजर रही एक बैल गाड़ी को रुकवा कर उससे कुछ बात की। बैलगाड़ी में बोरियां लदी थीं और गाड़ी में कार के टायर लगे थे, एक ऊंचा पूरा मजबूत बैल उसे खींच रहा था। उसने गाड़ीवान को कहा कि इस लड़के को वह ट्रेनिंग सेंटर छोड़ दे। मान गया बैलगाड़ी वाला, जो सामान लेकर शहर से बाहर किसी गांव में जा रहा होगा। उस गाड़ी पर हम सवार हो गए। रास्ते में उस गाड़ी वाले ने बताया कि यहां इसी तरह से बाहर से आने वालों को परेशान किया जाता है। रिक्शा वाले ने भी दो तीन गुना किराया मुझसे वसूल कर लिया था। बैलगाड़ी वाले ने रास्ते में पड़ने वाले ट्रेनिंग सेंटर के गेट पर हमे उतार दिया। थोड़ी सी राशि उसे भी हमने देने की कोशिश की किंतु वह लेने को राजी नहीं हुआ।
यह वही घटना थी जिसमे रिक्शा चालक ने गंतव्य तक के पूरे पैसे लेकर वहां तक पहुंचाने का वादा किया था, उसने हमारे साथ धोखा किया था, पर्यटकों की आज की भाषा में मेरे साथ स्कैम हुआ था। आज तक नहीं भूल पाया हूं और मुझे लगता है कि यह लोग अजनबी और मासूम यात्रियों के साथ ऐसा क्यों करते हैं? थोड़ा सा ख्याल करना चाहिए, उनके साथ हमदर्दी से पेश आना चाहिए। जब भी मैं किसी ट्रैवलर को या विदेशी ब्लॉगर को या अन्य भाषा भाषी ट्रैवलर को किसी दूसरे इलाके में ठगा जाता देखता या मूर्ख बनाए जाते देखता हूं तो बड़ी वेदना और ग्लानि भी महसूस होने लगती है।
दिल्ली में जो भी ट्रैवलर आते हैं, यहां के बाजारों, स्ट्रीट फूड चौपाटियों, गलियों आदि का खूब मजा लेते हैं। लाल किले के सामने के बाजार और जामा मस्जिद के आसपास के बाजार, चांदनी चौक जैसे इन इलाकों में बहुत रुचि से घूमते हैं और वहां के खान-पान को और वहां की चहल पहल, भीड़ भाड़ को भी एंजॉय करते हैं। यहां के लोगों से उत्साह से बातचीत करते हैं और बहुत अच्छा चित्रण करते हैं। कनॉट प्लेस पर भी ये लोग बहुत घूमते हैं।
एक वीडियो हमने देखा था पिछले दिनों। दिल्ली घूमने आया ऐसा ही एक विदेशी पर्यटक खरीददारी कर रहा है और अपने यूट्यूब चैनल के लिए वीडियो बनाते हुए व्लोगिंग भी कर रहा है।
हिंदी में बातचीत करने के लिए उसके पास मात्र कुछ वाक्य हैं। नमस्कार,सलाम वालेकुम,कैसे हो? आपका नाम क्या है? आप कहां से हो? इसके अलावा उसे हिंदी में कुछ समझ नहीं आता। संकेतों और मोबाइल के ट्रांसलेट एप से काम चलाने की कोशिश करता है। चाय और लस्सी जरूर पीता है बीच बीच में। बहुत आत्मीयता दिखाई देती है स्थानीय लोगों और पर्यटक के बीच। देखते हुए दर्शक भी भाव विह्वल हो उठते हैं। बड़े सुखद दृश्य होते हैं सामने, जब वह हमारी परंपराओं और खान पान में रुचि दिखाता है। मन गदगद हो उठता है।
पर्यटक जानता है कि दिल्ली के बाजारों में मोल भाव (बार्गेनिंग) काफी होता है। पांच छह गुनी कीमत लेकर विदेशी पर्यटक को सामान बेचते हम अपने सामने देखते हैं। फिर भी पर्यटक वह चीजें खरीदता है। कोशिश करता है कम कीमत पर खरीदने की। विराट कोहली जैसी जर्सी खरीदता है, रेबेन ब्रांड जैसा गॉगल और ब्रांडेड जूते भी। सभी कुछ असली नहीं होते, उनकी नकल होते हैं,उसे भी पता है लेकिन खरीदने के लिए खरीददारी करता है। पहनकर घूमता फिरता है। अन्य स्थानीय ग्राहकों से बाद में पूछता है कि इन जूतों की क्या कीमत होगी? आठ हजार रुपयों के जूते उसने मोल भाव के बाद तीन हजार में खुशी खुशी पहन लिए थे। यह जानकर उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है कि जूतों की वास्तविक कीमत मात्र पंद्रह सौ रुपए है। उसके पास अपने काम की खुशी है। स्थानीयता और लोगों को जानने और उनसे संवाद करने का सुख और आनंद है।
नए खरीदे महंगे जूते उसे आरामदायक नहीं लग रहे। एक जगह रुककर फिर से पुराने जूते पहन लेता है। अब वह ठीक से घूमने का मजा ले रहा है। सामने एक मोची दिखाई देता है। वह अपने पुराने जूतों को पॉलिश करवाता है। सौ रुपयों में बिल्कुल नए हो जाते हैं पर्यटक के जूते। हुनरमंद मोची टूटी फूटी अंग्रजी बोलता है। समझ भी लेता है। पर्यटक मजदूरी के सौ रुपए देता है उसे और अपने नए खरीदे जूतों की जोड़ी भी उसी मोची को दे देता है उपहार में। कहता है इनका जो उपयोग करना हो, कर लेना।
इस बीच व्लॉगर पर्यटक के कुछ स्थानीय फोलोवर भी वहां इकट्ठा हो गए होते हैं। एक लड़की अचरज से पूछती है ये नए जूते आपने मोची को क्यों दे दिए? ये तो बहुत महंगे हैं।
वह बोलता है, ये मेरे किसी काम के नहीं हैं अब। इन्हे पहनने के बाद मैं अपना काम ही नहीं कर पा रहा। इनके काम आ जाएंगे। इन्होंने मेरे पुराने जूते सही दाम लेकर नए कर दिए हैं।
नए जूते की खरीददारी में ठगे जाने पर विदेशी पर्यटक को कोई अफसोस नहीं है। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। अपना कैमेरा थामे विडियो बनाता हुआ वह आगे बढ़ जाता है।
टीवी स्क्रीन के सामने बैठा मैं ग्लानि से पानी पानी हो जाता हूं। माथे पर तनाव की लकीरें कुछ और गहरा जाती हैं।
यह विडंबना ही है कि अजनबियों को ठगे जाने की ये घटनाएं वर्षों पहले भी होती थीं और आज इतनी प्रगति और विकास होने के बाद भी हमारी यह प्रवृत्ति बनी हुई है। जरा सोचिए, ऐसा क्यों है?
ब्रजेश कानूनगो