Tuesday, 24 September 2024

क्यों होता है ऐसा अनजान पर्यटकों के साथ

क्यों होता है ऐसा अनजान पर्यटकों के साथ

जब मैंने जीवन में पहली बार अकेले लंबी यात्रा की थी, उस यात्रा का एक कटु अनुभव मेरे भीतर अभी तक बसा हुआ है। जब तब वह मुझे दुखी करता रहता है। खासतौर से घुमक्कड़ों के ट्रेवल वीडियो देखते हुए जब उनके साथ कोई स्कैम होता देखता हूं, अपना वह बुरा अनुभव पुनः मन को खिन्न बना जाता है। मैं सोचता हूं कि काश मेरे साथ वैसा ना हुआ होता , उस वक्त मेरे किशोर उम्र मन पर जो गहरी छाप अंकित हो गई थी वह अब तक कायम है, अफसोस है समय की धारा भी उसे धो नहीं सकी।  

वर्ष 1977 के आसपास की बात है, हमारी पढ़ाई समाप्त हुई ही थी।  हमने यह सोच कर एमएससी कर लिया था कि हमारे नगर के आसपास बड़े पैमाने पर औद्योगिकरण हो रहा था, नए-नए संस्थान खुल रहे थे, नौकरी मिलने की संभावनाएं बनने लगीं थीं। अगर हम केमिस्ट्री में एमएससी कर लेते हैं तो हमें तुरंत कहीं ना कहीं किसी फैक्ट्री में, किसी प्रयोगशाला में नौकरी मिल जाएगी।  एमएससी तो हो गया था उसका परिणाम नहीं आया था फाइनल ईयर का।  लेकिन डाक तार विभाग में उन दिनों मैट्रिक और हायर सेकेंडरी के अंकों के आधार पर चयन नौकरी के लिए हो जाया करता था। हमारे अंक अच्छे ही आते थे परीक्षाओं में, मैट्रिक और हायर सेकेंडरी में भी जिले में प्रथम विद्यार्थियों में रहे थे। अंकों के आधार पर हमारा चयन हो गया और एमएससी का परिणाम आने के पहले ही हमको डाक विभाग में क्लर्क के पद के लिए चुन लिया गया।  प्रशिक्षण के लिए हमें उत्तर प्रदेश के सहारनपुर प्रशिक्षण केंद्र पर जाना था तीन महीनों के लिए। वहां एक बहुत बड़ा प्रशिक्षण केंद्र हुआ करता था जो सहारनपुर शहर से थोड़ा ग्रामीण क्षेत्र में दूर स्थित था, यह परिसर संभवतः पहले सैन्य विभाग के पास रहा था तो वहां उसी तरह का अनुशासन होता था। अब तो बहुत बदल गया होगा , हमने तो फिर पीछे मुड़ के देखा ही नहीं।  बहरहाल 3 महीने का हमारा प्रशिक्षण होना था, उसके बाद पोस्टिंग होनी थी।  हम कभी घर से निकले नहीं थे मात्र 21 बरस की हमारी उम्र थी, पहली अकेले लंबी रेल यात्रा थी, इंदौर से सहारनपुर तक की। 

लेकिन जो मैं बताना चाहता हूं वह सहारनपुर स्टेशन पर उतरने के बाद का प्रसंग है। हमने एक ऑटो रिक्शा लिया, उसको बताया कि हमको ट्रेनिंग सेंटर पर पहुंचा दे,  कितने पैसे लेंगे, हमको तो यह भी पता नहीं था कि कितने लगते हैं, कितना किराया होता है, उसने हमको जो बताया हम तैयार हो गए। ट्रेनिंग सेंटर बहुत दूर था, शहर से काफी दूर था, हमको कुछ भी पता नहीं था। उस समय ना तो कोई गूगल मैप होता था ना कोई ऐसी जानकारी लेकर घर से निकले थे। नौकरी मिल जाने की ख़ुशी में हम बस निकल गए थे। रिक्शा हमने बुक कर लिया और उसमें बैठ गए डरते डरते। सुन भी रखा था कि यह क्षेत्र बड़ा बदनाम है, और यहां लूट पाट की बड़ी घटनाएं होती रहती हैं।  शहर से बाहर निकलते ही हाइवे जैसा मार्ग आया तो रिक्शा वाले ने रिक्शा से उतारकर पूरा किराया वसूल करने के बाद कहा कि अब आप यहां से कोई अन्य सवारी ले लें।  राजा बाबू टाइप जीवन रहा था हमारा, दुनियादारी कुछ समझते नहीं थे, अब क्या करें, भीतर ही भीतर हम घबराते रहे। 

पता नहीं रिक्शा वाले पर हमारी परेशान शक्ल का असर हुआ या हमारी मासूमियत के कारण थोड़ी बहुत दया आ गई।  तो उसने हाइवे पर गुजर रही एक बैल गाड़ी को रुकवा कर उससे कुछ बात की। बैलगाड़ी में बोरियां लदी थीं और गाड़ी में कार के टायर लगे थे, एक ऊंचा पूरा मजबूत बैल उसे खींच रहा था। उसने गाड़ीवान को कहा कि इस लड़के को वह ट्रेनिंग सेंटर छोड़ दे। मान गया बैलगाड़ी वाला, जो सामान लेकर शहर से बाहर किसी गांव में जा रहा होगा।  उस गाड़ी पर हम सवार हो गए।  रास्ते में उस गाड़ी वाले ने बताया कि यहां इसी तरह से बाहर से आने वालों को परेशान किया जाता है। रिक्शा वाले ने भी दो तीन गुना किराया मुझसे वसूल कर लिया था। बैलगाड़ी वाले ने रास्ते में पड़ने वाले ट्रेनिंग सेंटर के गेट पर हमे उतार दिया। थोड़ी सी राशि उसे भी हमने देने की कोशिश की किंतु वह लेने को राजी नहीं हुआ। 

यह वही घटना थी जिसमे रिक्शा चालक ने गंतव्य तक के पूरे पैसे लेकर वहां तक पहुंचाने का वादा किया था, उसने हमारे साथ धोखा किया था, पर्यटकों की आज की भाषा में मेरे साथ स्कैम हुआ था। आज तक नहीं भूल पाया हूं और मुझे लगता है कि यह लोग अजनबी और मासूम  यात्रियों के साथ ऐसा क्यों करते हैं? थोड़ा सा ख्याल करना चाहिए, उनके साथ हमदर्दी से पेश आना चाहिए। जब भी मैं किसी ट्रैवलर को या विदेशी ब्लॉगर को या अन्य भाषा भाषी ट्रैवलर को किसी दूसरे इलाके में ठगा जाता देखता या मूर्ख बनाए जाते देखता हूं तो बड़ी वेदना और ग्लानि भी महसूस होने लगती है। 

दिल्ली में जो भी ट्रैवलर आते हैं, यहां के बाजारों, स्ट्रीट फूड चौपाटियों, गलियों आदि का खूब मजा लेते हैं। लाल किले के सामने के बाजार और जामा मस्जिद के आसपास के बाजार, चांदनी चौक जैसे इन इलाकों में बहुत रुचि से घूमते हैं और वहां के खान-पान को और वहां की चहल पहल, भीड़ भाड़ को भी एंजॉय करते हैं।  यहां के लोगों से उत्साह से बातचीत करते हैं और बहुत अच्छा चित्रण करते हैं। कनॉट प्लेस पर भी ये लोग बहुत घूमते हैं।

एक वीडियो हमने देखा था पिछले दिनों।  दिल्ली घूमने आया ऐसा ही एक विदेशी पर्यटक खरीददारी कर रहा है और अपने यूट्यूब चैनल के लिए वीडियो बनाते हुए व्लोगिंग भी कर रहा है।

हिंदी में बातचीत करने के लिए उसके पास मात्र कुछ वाक्य हैं। नमस्कार,सलाम वालेकुम,कैसे हो? आपका नाम क्या है? आप कहां से हो? इसके अलावा उसे हिंदी में कुछ समझ नहीं आता। संकेतों और मोबाइल के ट्रांसलेट एप से काम चलाने की कोशिश करता है।  चाय और लस्सी जरूर पीता है बीच बीच में। बहुत आत्मीयता दिखाई देती है स्थानीय लोगों और पर्यटक के बीच। देखते हुए दर्शक भी भाव विह्वल हो उठते हैं। बड़े सुखद दृश्य होते हैं सामने, जब वह हमारी परंपराओं और खान पान में रुचि दिखाता है। मन गदगद हो उठता है।

पर्यटक जानता है कि दिल्ली के बाजारों में मोल भाव (बार्गेनिंग) काफी होता है। पांच छह गुनी कीमत लेकर विदेशी पर्यटक को सामान बेचते हम अपने सामने देखते हैं। फिर भी पर्यटक वह चीजें खरीदता है। कोशिश करता है कम कीमत पर खरीदने की। विराट कोहली जैसी जर्सी खरीदता है, रेबेन ब्रांड जैसा गॉगल और ब्रांडेड जूते भी। सभी कुछ असली नहीं होते, उनकी नकल होते हैं,उसे भी पता है लेकिन खरीदने के लिए खरीददारी करता है। पहनकर घूमता फिरता है। अन्य स्थानीय ग्राहकों से बाद में पूछता है कि इन जूतों की क्या कीमत होगी? आठ हजार रुपयों के जूते उसने मोल भाव के बाद तीन हजार में खुशी खुशी पहन लिए थे। यह जानकर उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है कि जूतों की वास्तविक कीमत मात्र पंद्रह सौ रुपए है। उसके पास अपने काम की खुशी है। स्थानीयता और लोगों को जानने और उनसे संवाद करने का सुख और आनंद है।

नए खरीदे महंगे जूते उसे आरामदायक नहीं लग रहे। एक जगह रुककर फिर से पुराने जूते पहन लेता है। अब वह ठीक से घूमने का मजा ले रहा है। सामने एक मोची दिखाई देता है। वह अपने पुराने जूतों को पॉलिश करवाता है। सौ रुपयों में बिल्कुल नए हो जाते हैं पर्यटक के जूते। हुनरमंद मोची टूटी फूटी अंग्रजी बोलता है। समझ भी लेता है। पर्यटक मजदूरी के सौ रुपए देता है उसे और अपने नए खरीदे जूतों की जोड़ी भी उसी मोची को दे देता है उपहार में। कहता है इनका जो उपयोग करना हो, कर लेना।

इस बीच व्लॉगर पर्यटक के कुछ स्थानीय फोलोवर भी वहां इकट्ठा हो गए होते हैं। एक लड़की अचरज से पूछती है ये नए जूते आपने मोची को क्यों दे दिए? ये तो बहुत महंगे हैं।

वह बोलता है, ये मेरे किसी काम के नहीं हैं अब। इन्हे पहनने के बाद मैं अपना काम ही नहीं कर पा रहा। इनके काम आ जाएंगे। इन्होंने मेरे पुराने जूते सही दाम लेकर नए कर दिए हैं।

नए जूते की खरीददारी में ठगे जाने पर विदेशी पर्यटक को कोई अफसोस नहीं है। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। अपना कैमेरा थामे विडियो बनाता हुआ वह आगे बढ़ जाता है।

टीवी स्क्रीन के सामने बैठा मैं ग्लानि से पानी पानी हो जाता हूं। माथे पर तनाव की लकीरें कुछ और गहरा जाती हैं।

यह विडंबना ही है कि अजनबियों को ठगे जाने की ये घटनाएं वर्षों पहले भी होती थीं और आज इतनी प्रगति और विकास होने के बाद भी हमारी यह प्रवृत्ति बनी हुई है। जरा सोचिए, ऐसा क्यों है? 


ब्रजेश कानूनगो

Friday, 20 September 2024

लॉस्ट चांस टूरिज्म : कितना अंतिम है यह

लॉस्ट चांस टूरिज्म : कितना अंतिम है यह


पयर्टन के क्षेत्र में ' लॉस्ट चांस टूरिज्म ' जैसे नए ट्रेंड के बहाने एक नया रास्ता मिला है। इससे इस उद्योग को नया बाजार भी मिला है। अंतिम अवसर पर्यटन, जिसके तहत यात्री उन स्थलों पर जाते हैं जो बदलते पर्यावरण, क्षरण और जलवायु परिवर्तन के कारण खतरे में हैं। यह एक ऐसी बढ़ती हुई प्रवृत्ति है जिसमें पर्यटक इन स्थानों के संभावित रूप से बदलने या पूरी तरह से गायब होने से पहले इनका दर्शन लाभ उठाने और सैर सपाटे की इच्छा से प्रेरित हुई है। 

जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे इन संवेदनशील स्थानों में पर्यटक की रुचि भी बढ़ती जाती है। इसमें होता है यह है कि टूर प्रबंधन कंपनियां उन स्थानों की पर्यटकों को सैर कराते हैं जो दृश्य या चीजें इस पृथ्वी से या इस दुनिया से गायब होने के खतरों से गुजर रहीं हैं। अब इस गायब होने की अवधि कितनी लंबी होगी इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होगा। यह समय इतना लंबा भी होना संभव है कि हमारी कई पीढ़ियां गुजर जाएं या इतना छोटा भी हो सकता है कि कुछ वर्षों में ही यह चीजें विलुप्त हो जाएं। उनके समाप्त होने के पहले लोगों को उन तक पहुंचा देने की सारी जद्दोजहद को अंतिम अवसर पर्यटन या लास्ट चांस टूरिज्म के रूप में इन दिनों काफी चर्चा में है और एक पूरी पीढ़ी में अदृश्य होने के पहले मनोहारी और अद्भुत चीजों को देखने के प्रति रुचि बढ़ाई जा रही है या बढ़ गई है। 

बहरहाल, हमारी असली चिंता यह है कि ये खूबसूरत नजारे और उनका आनंद हमारी दुनिया से गायब आखिर क्यों होते जा रहा है। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं।  इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण पृथ्वी के तापमान में निरंतर वृद्धि होना माना गया है। जलवायु में जो परिवर्तन हो रहे हैं उसका असर व्यापक रूप से दिखाई दे रहा है। बहुत सी चीजें  समाप्त हो रही हैं, अदृश्य हो रही है या उनमें बदलाव आता जा रहा है। परंपरागत जनजीवन, पर्यावरण , जीव जंतु और प्रकृति पर इस परिवर्तन का असर बढ़ता दिखाई देने लगा है। 

वस्तुतः ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है। कहीं सूखा पड़ रहा है तो कहीं बाढ़ आ रही है। यह जलवायु असंतुलन ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण गर्मी और नमी के पैटर्न में बदलाव आ रहा है। कई नए वायरस और बीमारी फैलाने वाले कीट और मच्छरों की आवाजाही बढ़ रही है। बाढ़, सुनामी और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि के कारण, जन धन का बड़ा नुकसान पर्वतीय और तटीय क्षेत्रों में बढ़ता गया है जिसकी वजह से सहज मानव जीवन बाधित हो जाता है। 

जलवायु में वैश्विक बदलाव के कारण कई पौधों और जानवरों के आवास नष्ट हो जाते हैं। इस स्थिति में, जानवरों को अपने प्राकृतिक आवास से पलायन करना पड़ता है और उनमें से कई धीरे धीरे विलुप्त भी हो जाते हैं। यह पृथ्वी की जैव विविधता पर ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा प्रभाव है। 

पृथ्वी के निरंतर बढ़ते तापमान को हम लोग जिस ग्लोबल वार्मिंग के नाम से जानते हैं, इन दिनों काफी चर्चा में भी है।  तापमान के बढ़ने से वर्तमान परिस्थितियों में, जलवायु में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं और उन परिवर्तनों के कारण   पर्यटन के उद्देश्य से जिनका महत्व होता है उन चीजों में भी बदलाव हो रहे हैं, या वे विलुप्त हो रही हैं। मसलन आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवीय क्षेत्र यहां सबसे ज्यादा बदलाव हो रहा है। यहां जो पशु पक्षी रहते हैं, खास तौर से जो ध्रुवीय भालू हैं, वह सब समाप्त हो रहे हैं।  ग्लेशियर और विशाल आइस बर्ग हैं वे भी जल्दी पिघलने लगे हैं। उनका सौंदर्य अनुभव करने में पर्यटक को अब धीरे धीरे निराश होने की आशंका सताने लगी है।   

समुद्रों में खास तौर से ऑस्ट्रेलिया के ग्रेड बैरियर रीफ़ में बढ़ते तापमान के कारण वहां पर्यटकों के खास आकर्षण खूबसूरत कोरल्स और शैवालों में भारी कमी आई है। अनेक सुंदर जल जीवों की प्रजातियों में कमी और तादाद में कमी होती जा रही है।   इटली का खूबसूरत शहर वेनिस जो अपनी वास्तुकला के साथ-साथ अपनी सुंदर जल धाराओं में पर्यटकों को मनोहारी और रोमांटिक नौकायन का सुख देता है, अपनी क्षमता खोता जा रहा है। वह समुद्र स्तर में बदलाव और बार-बार बाढ़ आने से उनकी वास्तु कला और शिल्प प्रभावित हो रहा है। इसके सौंदर्य के घटने की आशंका बलवती होती जा रही है।
  
पर्यटकों के आकर्षण के कई ऐसे द्वीप पृथ्वी पर मौजूद हैं जो समुद्र तल से थोड़ा सा ही ऊपर हैं। जैसे-जैसे बदलाव आ रहा है, इनके समुद्र में समा जाने की संभावना पैदा हो गई है। समुद्र किनारों पर जो खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं, बीच हैं, सैरगाह हैं, जहां सर्व सुविधायुक्त कॉटेज बनाए गए हैं, ये सब खतरे में घिर रहे हैं। अनेक छोटे छोटे पर्यटन द्वीप हैं लुप्त होते जा रहे हैं या जल्दी ही समुद्र में डूब सकते हैं।  विशेष रूप से मालदीव जो बहुत बड़ा आकर्षण का केंद्र है और लाखों पर्यटक यहां पर प्रतिवर्ष सैर सपाटे के लिए जाते हैं, वह समुद्र तल से बहुत थोड़ा सा ऊपर है, उसके अद्भुत समुद्र तट धीरे-धीरे सौंदर्य खोते जा रहे हैं, समाप्त होते जा रहे हैं।  लास्ट चांस टूरिज्म ट्रेंड में इन सब स्थानों के पर्यटन का महत्व और बढ़ता जा रहा है। 
  
इस ग्लोबल वार्मिंग के कई मानव जनित कारण भी हैं। बढ़ता औद्योगीकीकरण और शहरीकरण भी कुछ हद तक जिम्मेदार होता है।  जिस तरह से शहरीकरण बढ़ता जा रहा है पर्यटन स्थलों की ओर जो बसाहट हो रही है, उससे प्राकृतिक स्थितियों में बदलाव हुआ है, पर्वतीय और तटीय पर्यटन स्थलों का सौंदर्य ही नहीं बल्कि जीवन पर भी खतरा पैदा हुआ है।  

औद्योगिकरण से वायुमंडलीय प्रदूषण बढ़ा ही है, स्वास्थ्य के अलावा धरोहरों के भी क्षरण की स्थितियां देखी गईं हैं। हमने कुछ समय पहले पढ़ा था कि ताजमहल की संगमरमर पर भी प्रदूषित यायु का असर देखा गया है। ग्रीन हाउस गैसेस, कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें वायुमंडल में बढ़ती गईं हैं। धरती की मिट्टी में मौजूद पिघलता हुए परमाफ्रास्ट के क्षरण से जो गैसों का विस्फोट होता है वह भी वायुमंडल में ही अंततः प्रवेश कर जाता है। उससे भी हमारी पृथ्वी का तापमान गड़बड़ा रहा है।   

अफसोस है कि  अनेक सुंदर प्राकृतिक दृश्य, सुंदर द्वीप, सुंदर स्थान, सुंदर ध्रुव प्रदेश, समुद्रीय सौंदर्य और प्राकृतिक छटाएं और मानव निर्मित संरचनाएं अपने पर संकट के बादल घिरे पाते हैं और इस संकट का लाभ पर्यटन इंडस्ट्री को मिला है।  अंतिम अवसर पर्यटन के हिसाब से टूर बनाए  जाने लगे हैं। इससे रोजगार भी मिला है।  

आखरी कब तक पर्यटन क्षेत्र में यह अंतिम अवसर रहेगा?  यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन यह चिंता बेहद वाजिब है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हमारी दुनिया धीरे-धीरे बदलती जा रही है। जो खूबसूरती आज है, जो दृश्य हम आज देखते हैं, हो सकता है कि कल हम उन्हें नहीं देख पाएं। अंततः सबसे बड़ी चिंता और जिम्मेदारी तो हमें इस पृथ्वी को खूबसूरत बनाए रखने की है। यह लास्ट चांस टूरिज्म, अंतिम अवसर पर्यटन कितना ही प्रचलित होता रहे लेकिन हमारा अंतिम लक्ष्य यही होगा कि इस पृथ्वी की खूबसूरती हमेशा कायम रहे, हम इसमें पूरी तरह से रुचि लेते रहें, लोगों में जागरूकता बढ़ाते रहें और प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी को बचाने के हर प्रयास करते रहे।  

ब्रजेश कानूनगो 

Monday, 16 September 2024

स्लम्स और झुग्गियों में घूमता घुमक्कड़

स्लम्स और झुग्गियों में घूमता घुमक्कड़


किसी भी देश की मलिन और झुग्गी बस्तियों को ढंक देने के प्रयास अक्सर उस वक्त होते रहते हैं जब वहां अंतरराष्ट्रीय महत्व का कोई आयोजन हो रहा होता है। स्लम या झोपड़पट्टियों का होना किसी भी सरकार और वहां के नागरिकों के लिए अपमान जनक बात कही जा सकती है। इनकी उपस्थिति चांद जैसे खूबसूरत शहरों पर बदनुमा धब्बे की तरह माना गया है। 

दरअसल, झुग्गी बस्ती या झोपड़पट्टी या स्लम ऐसे घने रहवासी क्षेत्र होते हैं, जहां जीर्ण शीर्ण घरों के छोटे छोटे से कमरों में कई लोग बड़ी कठिनाइयों के साथ रहते हैं, यहां कई बार धूप भी बमुश्किल से दिखाई देती है, स्वच्छता का अभाव होता है, शुद्ध हवा का प्रवाह नही रहता, पेय जल की अस्वास्थकर व्यवस्थाएं होती हैं। ये तमाम ऐसी स्थितियां होती हैं बस्तियों में जिन्हे मानव जीवन के विकास के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता। कई जगह कचरा, गंदगी का साम्राज्य होता है, सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति बदतर होती जाती हैं। स्कूलों की दशा और वहां के साधन बदहाल होते हैं। 

अनेक प्रयासों के बावजूद कई बड़े देशों के बड़े महानगरों के सौंदर्य के बीच इनकी उपस्थिति आज भी बनी हुई है। यह अलग बात है कि सरकारें और कई स्वैच्छिक संगठन इन बस्तियों के उद्धार और यहां के निवासियों के कल्याण के लिए काम करते हैं। किंतु स्लम्स या झुग्गियों का होना आधुनिक समाज में एक कड़वी सच्चाई है। 

दिलचस्प बात यह है कि प्राकृतिक और मानव निर्मित रमणीय स्थलों की सैर करना विश्व के पर्यटक बहुत पसंद करते हैं, वहीं दुनिया के बड़े स्लम्स और झुग्गी बस्तियां भी घुमक्कड़ों को आकर्षित करती रहती हैं। कई घुमक्कड़ों को हमने यूट्यूब पर दुनिया की घनी बस्तियों और झोपड़पट्टियों में भ्रमण करते, वहां के जनजीवन और स्थितियों पर ब्लागिंग करते देखा है। कई तरह की जोखिमपूर्ण स्थितियों के बावजूद ये घुम्मकड़ हम दर्शकों को भी वहां का आभासी मुआयना करवा देते हैं।  

पिछले दिनों हमने ऐसे ही कई वीडियो देखे। नोमेडिक टूर चैनल के तोरवशु के साथ दक्षिणी अमेरिका के ब्राजील में रियो डी जेनेरो के सबसे बड़े स्लम जिसे फावेला कहा जाता है की आभासी सैर की। इससे पहले कुछ अन्य व्लॉगरो के अलावा डॉक्टर यात्री के नवांकुर का भी वीडियो हमने देखा था। दरअसल ब्राजील, रूस,कनाडा,चीन, यू एस ए के बाद विश्व का पांचवा सबसे बड़ा देश है। इसके बाद ऑस्ट्रेलिया और भारत का क्रम आता है। 

ब्राजील के स्लम पर्यटन के संदर्भ में यहां कुछ बातें जान लेना भी दिलचस्प होगा।  यहां पूर्व में पुर्तगालियों का साम्राज्य रहा था। पुर्तगाली भाषा में रियो डी जेनेरियो का अर्थ है,जनवरी की नदी। यह शहर  गुआंडू नदी के पास बसा है। दरअसल यह शहर अटालंटिक महासागर का तट है जिसे जनवरी की नदी कह दिया गया था।  
ब्राज़ील में शहरी केंद्रों के पास जो झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं उन्हें ही फावेला कहा जाता है। ये अनौपचारिक अवैध बस्तियाँ तब बनीं जब बेघर लोग रियो डी जेनेरियो और साओ पाओलो जैसे बड़े शहरों के नज़दीक खाली ज़मीन के भूखंडों पर आकर बसने लगे। झुग्गी झोपड़ी की यह बसाहट लगभग सन 1930 के आसपास शुरू हो गई थी। इन इलाकों में बसने वाले लोग अपने घरों का निर्माण उन सामग्रियों से करते हैं जिन्हें वे सहजता से जुटा सकते हैं। नालीदार पतरे, कार्डबोर्ड बॉक्स, प्लास्टिक शीट और प्लाईवुड आदि जैसा कबाड़ की तरह निकलने वाली सामग्री इनके निवासियों के लिए बड़ी उपयोगी हो जाती है। यहां की एक विशेष वनस्पति से भी फावेला शब्द की उत्पत्ति का संबंध बताया जाता है। शायद उसी तरह जिस तरह कुछ लोग गाजरघास शब्द का प्रयोग हमारे यहां की झोपड़पट्टियों की बसाहट के संदर्भ में करते रहते हैं। 

एक जानकारी के अनुसार 2010 की जनगणना के अनुसार, ब्राज़ील में लगभग 11 मिलियन लोग, या कुल आबादी का लगभग 6%, फावेला में रहते हैं। विश्व के लोगों ने 2002 की फ़िल्म सिटी ऑफ़ गॉड के माध्यम से भी यहां की अनूठी बसाहट और अपराध और हिंसा को थोड़ा बहुत जाना है। तोरवशु ब्लॉगर के वीडियो को देखते हुए हमने जाना कि इन बस्तियों में कई जगह तो सूर्य की किरणे तक नहीं पहुंच पाती। भूलभुलैया सी तंग गलियों से बाहर निकलना भी बेहद कठिन हो जाता है।

रियो डी जेनेरियो जैसे बेहद खूबसूरत शहर और विश्व के सात आश्चर्यों में शामिल कारकोवादो  पर्वत के शिखर पर स्थित ईसा मसीह की विशाल प्रतिमा के लिए विख्यात रियो यहां की हिंसात्मक और अपराधिक गतिविधियों के लिए भी कुख्यात है। फावेला बस्तियों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनो पक्ष हैं किंतु पर्यटकों को अकेले वहां जाने की सलाह नहीं दी जाती। किसी स्थानीय व्यक्ति या गाइड को साथ लेकर ही यहां पर्यटक जा पाते हैं। 

ब्राजील की इन बस्तियों को देखते हुए भारत में मुंबई महानगर में बसी धारावी की बसाहट और जनजीवन का दृश्य भी सामने आने लगता है। इस बस्ती में भी बड़ी संख्या में पर्यटकों का आना बना रहता है। धारावी दुनिया के पर्यटकों की सूची में स्लम पर्यटन की दृष्टि से सबसे ऊपर क्रम की ख्वाहिश रहती है।  यह दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गियों में से एक है। एक जानकारी के अनुसार भौगोलिक क्षेत्र का आकार सिर्फ़ 2.39 वर्ग किलोमीटर है, लेकिन इसकी आबादी लगभग 3 से दस लाख लोगों तक आकलित की गई है। इसका मतलब है कि धारावी दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले रिहायशी इलाकों में से एक कहा जा सकता है।

माना जाता है कि 1884 से  जब शहर में ग्रामीण इलाकों से शहरी मुंबई की ओर लोगों का भारी पलायन हुआ था तो वे धारावी इलाके में बसते गए। यह शहर का वह इलाका था जहाँ आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों की सबसे ज़्यादा आबादी रहती थी। जैसे-जैसे उद्योगों की संख्या बढ़ी, झुग्गी-झोपड़ियों का आकार भी बढ़ता गया।

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि अपनी तंग बस्तियों और चुनौतीपूर्ण  स्थितियों के बावजूद, यहां के निवासियों ने एक संपन्न सूक्ष्म अर्थव्यवस्था, रीसाइक्लिंग उद्योग का निर्माण करने में कामयाबी हासिल की है। मुंबई के लगभग 60% प्लास्टिक कचरे को धारावी में रीसाइकिल किया जाता है।  धारावी का चमड़ा उद्योग एक और फलता-फूलता व्यवसाय है, जिस पर यहां की अर्थ व्यवस्था निर्भर करती है। कुशल कारीगर उच्च गुणवत्ता वाले चमड़े के सामान बनाने से लेकर उन्हें ठीक करने तक के काम में लगे हुए हैं। अनेक पर्यटक तो यहां के इन उद्योगों की कार्यप्रणाली देखने समझने के लिए ही आते रहते हैं। 

धारावी की संभवतः सबसे बड़ी ताकत है यहां की  सांप्रदायिक विविधता और बेहतरीन सामाजिक समभाव और भाईचारा। धारावी का अविश्वसनीय रूप से मिलजुला समुदाय यह सब संभव बना देता है। मुंबई का यह इलाका संस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों का एक सुखद मेल है। भारत के विभिन्न हिस्सों से आए लोग इस जगह को अब अपना घर कहते हैं और वे इसे बेहतरीन बनाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहते हैं।

अगर हम सहजता से जानना चाहें कि स्लम टूरिज्म क्या है, तो बस धारावी पर थोड़ी जानकारी इकट्ठी करें। हर साल 15,000 से अधिक पर्यटक धारावी आते हैं। ट्रेवलर्स चॉइस एक्सपिरिएंस की एशियाई सूची में वर्ष 2019 में इसका स्थान पहले दस स्थानों में रहा था। स्लम डॉग मिलेनियर जैसी प्रसिद्ध फिल्म की शूटिंग यहां की गई थी। 

इसके अलावा भारत में दिल्ली की भलस्वा,चैनई की नोचिकुप्पम, बैंगलुरू की राजेंद्रनगर बस्ती, कोलकाता की बसंती झुग्गी बस्तियां भी बड़े स्लम्स हैं।  सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कोई 6.5 करोड़ आबादी झुग्गियों में रहती हैं जिनमे से लगभग 1.8 करोड़ महाराष्ट्र में निवास करती हैं। एक आकलन यह भी है कि भारत के 6 शहरी व्यक्तियों में से 1 झोपड़पट्टी में रहता है। जिन के विकास और कल्याण के लिए प्रयास होते रहते हैं। 

स्लम पर्यटन के जरिए भी जनसंख्या के एक ऐसे बड़े वर्ग पर व्लोगर ध्यान आकर्षित करते हैं जिनके कल्याण और विकास के लिए समाज और सरकारों को अभी बहुत कुछ करना शेष है। 

ब्रजेश कानूनगो  

Tuesday, 10 September 2024

जागरूक घुम्मकड़ के बहाने फिटनेस की बातें

जागरूक घुम्मकड़ के बहाने फिटनेस की बातें


घुमक्कड़ी का जुनून लिए दुनिया की सैर को निकले घुम्मकड़ व्लॉगरों के लिए सबसे जरूरी होता है अपनी सेहत का खयाल रखना। अपनी यात्राओं के दौरान इन्हे अनेक प्राकृतिक और पारिस्थितिक स्थितियों से गुजरना होता है। समय चक्र में परिवर्तन के अलावा मौसम और तापमान में बदलाव, खान पान की भिन्नता के अलावा स्थानीय जन जीवन की जीवन शैली का भी घुम्मकड़ों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर  विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में  अपनी सेहत का पर्याप्त ध्यान रखना भी इनके लिए बेहद जरूरी हो जाता है। आमतौर पर घुम्मकड़ ऐसा करते भी हैं और तन और मन को सक्रिय व स्वस्थ बनाए रखने के उपाय भी करते हैं। जरूरी विश्राम और मनोरंजन के साथ कसरत अर्थात व्यायाम या आज की भाषा में शारीरिक वर्क आउट को भी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लेते हैं। कुछ यात्री योगाभ्यास को भी दिन की शुरुआत का हिस्सा बना लेते हैं।

घुमक्कड़ी के दौरान फिटनेस की चर्चा से पहले उचित होगा कि हम फिटनेस के इतिहास पर भी थोड़ी नजर डाल लें। सच तो यह है कि मनुष्य और उसके जीवन के विकास के साथ ही आदिम काल में ही फिटनेस की अवधारणा भी फलीफूत होती गई है। शारीरिक बलिष्ठता को लक्ष्य में न रखते हुए भी आदिम काल का इंसान केवल अपनी जान बचाने के प्राथमिक उद्देश्य से अनायास ही फिटनेस की ओर उन्मुख हुआ। खतरों से बचने के लिए उसके सामने एक ही उपाय था, भागो, दौड़ते जाओ। इस उपक्रम में अपनी जान बचाने के लिए वह पेड़ पर चढ़ जाता, पहाड़ों और चट्टानों पर चढ़ता, छलांग लगाता, भारी पत्थरों को उठाता, शत्रु की ओर फेंकता वही सब करता जो आज बलिष्ठता के लिए व्यायाम शालाओं, खेल के मैदानों में या आधुनिक जीमों की मशीनों पर किया जाता है, या करवाया जाता है किसी प्रशिक्षक द्वारा।

और जब मनुष्य ने खेती करना शुरू की तो कृषि और उससे जुड़े कार्यों में उसे श्रम करना जरूरी हो गया। खेत जोतने से लेकर खेती कार्यों में मेहनत करके अपना पसीना बहाने लगा, उसकी बलिष्टता और फिटनेस का आधार शारीरिक श्रम  बन गया।  आगे चलकर समूह बने, अपनी सीमाओं का निर्माण हुआ, राज्य,देश बने तो आधिपत्य के संघर्ष हुए, युद्ध होने लगे। तब सैन्य बलों और सैनिकों को तंदुरुस्त और शक्तिशाली बनाने की दृष्टि से प्रशिक्षणों में फिटनेस के उपाय किए जाने लगे। प्राचीन एथलेटिक खेलों की शुरुआत भी यूनान में इसी उद्देश्य से हुई।
लगभग 14 वीं 16 वीं सदी के आसपास पुनर्जागरण काल में समाज में मनुष्य के शरीर, शरीर विज्ञान, शारीरिक प्रशिक्षण में रुचियां पैदा हुईं। पुस्तकें लिखीं गईं, स्कूल खुले मिस्र के साथ साथ स्पेन,जर्मनी, इंग्लैंड, आदि में भी इस अवधारणा की दिशा में अध्ययन और उपाय आगे बढ़ते गए।
सन 1796 में पहली आधुनिक फिटनेस मशीन का आविष्कार हो गया। वजन आधारित और ताकत उन्मुख जिमों में व्यक्ति की बलिष्ठता और तंदुरुस्ती को केंद्र में रखते हुए बीसवीं सदी में तो फिर फिटनेस उपकरणों का उपयोग बढ़ता ही चला गया।

घुम्मकड़ों के यूट्यूब वीडियो देखते हुए हमने यह भी देखा कि  बहुत से ट्रेवलर आधुनिक जिम में जाकर कसरत करते हैं, अपना पसीना बहाते हैं। लेकिन जिन लोगों को हमने प्रायः ऐसा करते देखा उनमें हरियाणा के परमवीर सिंह बेनीवाल ने हमे बहुत प्रभावित किया। पैसेंजर परमवीर नाम से वे अपने ट्रेवल वीडियो बनाते हैं। लगभग सौ देशों में पर्यटन कर चुके हैं। छब्बीस सताइस वर्ष के युवा हैं, ऊंची कद काठी है, देखने से ही बॉडी बिल्डर लगते हैं। समझदार हैं और घुम्मकड़ी के जुनून में ज्यादातर जोखिम वाली जगहों की यात्रा करने में इन्हे बहुत आनंद आता है। अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के कुछ खतरनाक इलाकों और देशों के अलावा सीरिया, इसराइल, फिलिस्तीन, गाजा, यूक्रेन,सोमालिया आदि जैसे देशों में जहां की कई तस्वीरें हम जैसे दर्शकों को विचलित कर देती हैं, वहां भी हर स्थिति में हमे उनका उत्साह और मुस्कुराहट कम होती दिखाई नहीं देती। हमारे लिए विडियो बनाते हैं और अखबारों में पढ़ी खबरों को स्क्रीन पर हमारे लिए जीवंत कर देते हैं। हाल ही में म्यांमार की उन्होंने रोमांचक यात्रा की है।

बहरहाल, यहां हम उनकी ब्लागिंग की बजाए उनके वर्क आउट याने कसरत के प्रति गहन लगाव की चर्चा करना चाहते हैं। परमवीर ऐसे ट्रेवलर हैं जिनके लिए जिम जाए बगैर ट्रेवलिंग को आगे बढ़ाना शायद संभव ही नहीं है। अजनबी शहर में भी वे कसरत के लिए जिम खोजते रहते हैं। इसके लिए खर्च की वे परवाह भी नहीं करते। जिम भले कितनी ही दूर हो, टैक्सी का ज्यादा किराया देना पड़े, लंबी पैदल दूरी तय करना पड़े, वे जिम पहुंच ही जाते हैं और भारी शुल्क चुकाकर भी अपना पसीना बहा आते हैं। अपनी फिटनेस के प्रति उनकी यह चेतना सचमुच प्रेरक है।

परमवीर सिंह को यदि कहीं आधुनिक जिम नहीं मिल पाता तो उन्हे सड़क किनारे के या जुगाड के जिम के साधनों का उपयोग करने में कोई गुरेज नहीं होता। उद्देश्य यही रहता है कि कोई दिन बिना व्यायाम किए नहीं गुजरे। जिस दिन वे कसरत नहीं कर पाते उनके चेहरे की उदासी वीडियो में भी नजर आ ही जाती है।

यदि भारत के संदर्भ में फिटनेस के इतिहास और वर्तमान की बात करें तो यहां की धार्मिक सांस्कृतिक मान्यताओं ने हमेशा से आध्यात्मिकता पर जोर दिया। हमारे यहां फिटनेस की यात्रा मन से शरीर की ओर रही है। पहले मन फिर तन की स्वस्थता। हालाँकि, चीनी कांग फू जिम्नास्टिक के समान एक व्यायाम कार्यक्रम विकसित हुआ, जो सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप था, जिसे योग के रूप में जाना जाता है। माना जाता है योग कम से कम पिछले 5000 वर्षों से अस्तित्व में है। योग का अर्थ है मिलन, और यह भारतीय दर्शन की क्लासिक प्रणालियों में से एक को संदर्भित करता है जो शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने और व्यक्तिगत रूप से विकसित करने का प्रयास करता है। योग मूल रूप से धर्माचार्यों द्वारा विकसित किया गया था जो अनुशासन और ध्यान की विशेषता वाली मितव्ययी जीवन शैली जीते थे। विभिन्न जीवों की गतिविधियों और पैटर्न को देखने और अनुकरण से, योगाचार्यों को प्रकृति के साथ वही संतुलन हासिल करने की उम्मीद थी जो अन्य प्राणियों के पास था। योग का यह पहलू , हठ योग के रूप में जाना जाता है। प्रकृति के साथ संतुलन के अलावा, प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने उचित अंग कार्य और संपूर्ण कल्याण सहित योग के स्वास्थ्य लाभों को मान्यता दी। इन स्वास्थ्य लाभों को आधुनिक संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य कई देशों में भी स्वीकार किया गया है। वहां भी बड़ी संख्या में लोग नियमित रूप से योग में भाग लेते रहते हैं। भारत सरकार ने 21 जून का दिन अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में घोषित किया है। जो विश्व में प्रतिवर्ष स्वास्थ्य चेतना में भारतीय योग के महत्व और योगदान को रेखांकित करता है।  

भारत में स्वास्थ्य के प्रति अब आम लोगों में काफी जागरूकता दिखाई देती है। हर व्यक्ति अपनी फिटनेस के लिए उपाय करता नजर आता है। महंगे और आधुनिक साधनों वाले महंगे जिमों के अलावा कस्बों, शहरों में कॉलोनी के पार्कों में सामुदायिक फिटनेस क्लब और योग केंद्र संचालित हैं। लोग जुटते हैं और अपने तन और मन की फिटनेस के लिए पसीना बहाते नजर आते हैं। 

ब्रजेश कानूनगो

 

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