Sunday, 1 June 2025

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान 


पिछले दिनों हुए घटनाक्रम ने लोगों का ध्यान परमाणु ऊर्जा के विनाशकारी खतरों की ओर आकर्षित किया है। यद्यपि जब भी इस ऊर्जा के साधनों के विकास की बात होती है तब सदैव शांतिपूर्ण उपयोग का आश्वासन और संकल्प की सफेद पताका फहराई जाने लगती है। इसके बावजूद विश्व में संयुक्त राज्य अमेरिका,रूस, चीन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, भारत, पाकिस्तान,इसराइल और उत्तर कोरिया नौ ऐसे देश हैं जिनके पास परमाणु अस्त्र हैं।  परमाणु शक्तियों के रूप में इनका दबदबा दुनिया में बना हुआ है। इन देशों के पास लगभग बारह हजार परमाणु हथियार उपलब्ध हैं। 
जब जब विश्व में युद्ध शुरू होता है या उसकी  संभावनाएं पैदा होती हैं, या तब तब प्रबुद्ध समाज की सांसे रुकने लगती हैं। कहीं कोई परमाणु शक्ति संपन्न देश जल्दबाजी में परमाणु हथियारों का उपयोग करके तबाही को आमंत्रण ना देदे।  युद्ध के विचार से ही मानव जाति और सभ्यता के विनाश की आशंका से घबराहट का वातावरण बनने लगता है।  

आणविक प्रदूषण अन्य प्रदूषणों से बहुत अलग होता है। धूल,धुँआ ,कचरा आदि दिखाई देते हैं, इनके प्रभाव के लक्षण हमें महसूस होते हैं लेकिन परमाणु विकिरण निराकार है इसे महसूस नहीं किया जा सकता। यह प्रवेश करता है और युगों तक बना रहता है। मानव जींस में पहुँचकर आनुवँशिक रोगों के रूप में परिवर्तित हो कर अनेक पी़ढियों की त्रासदी बन जाता है। लगभग अमरता का वरदान प्राप्त परमाणु कचरा मनुष्य और अपने ही निर्माता को नष्ट करने पर उतारू हो जाता है। जीवन से जुड़ी हरेक वस्तु को विकिरण प्रभावित करके मुश्किलें पैदा कर देता है। कचरे का प्रबंधन इतना कठिन होता है कि स्टील के कनटेनरों में बंद कर सीमेंटीकरण करके जमीन में गाड़ देने के बावजूद विकिरण होना जारी रहता है। 

परमाणु बमों के व्यापक दुष्प्रभाव और विध्वंस के परिणाम अत्यधिक विनाशकारी और दीर्घकालिक होते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमबारी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। विश्वयुद्ध के दौरान 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा और 9 अगस्त 1945 को नागासाकी पर परमाणु बम गिराए गए थे। इन हमलों में हजारों लोग मारे गए थे और शहरों का बड़ा हिस्सा नष्ट हो गए थे।  बचे हुए लोगों में विकिरण बीमारी, कैंसर और अन्य स्वास्थ्य समस्याएं देखी गईं। विकिरण के कारण पर्यावरण और जीव-जन्तुओं पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा।  परमाणु बमों के उपयोग ने वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा किया तो परमाणु निरस्त्रीकरण की आवश्यकता पर भी समय समय पर बात होती रही। 
 
यद्यपि हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों के गिराए जाने के बाद युद्ध के दौरान इतना बड़ा परमाणु हमला तो नहीं हुआ किंतु कुछ दुर्घटनाएं अनेक कारणों से विश्व में अवश्य होती रहीं जिन्होंने परमाणु ऊर्जा के विवेकशील और सावधानीपूर्ण उपयोग को प्राथमिकता में लाने को बाध्य किया। एक बड़ी दुर्घटना चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना सोवियत संघ के युक्रेनी सोवियत समाजवादी संघ के उत्तरी नगर प्रीप्यत के पास 26 अप्रैल 1986 को चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र के चौथे रिएक्टर में हुई थी। दूसरी है जापान की फूकूशीमा डाईची परमाणु दुर्घटना। 
फुकुशिमा के ओकुमा में फुकुशिमा दाइची परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुई परमाणु दुर्घटना भी एक बड़ी दुर्घटना थी, जो 11 मार्च 2011 को शुरू हुई थी। दुर्घटना का कारण 2011 का तोहोकू भूकंप और सुनामी था, जिसके परिणामस्वरूप विद्युत ग्रिड फेल हो गया और बिजली संयंत्र के लगभग सभी बैकअप ऊर्जा स्रोत क्षतिग्रस्त हो गए । शटडाउन के बाद रिएक्टरों को पर्याप्त रूप से ठंडा करने में असमर्थता ने नियंत्रण को प्रभावित किया और इसके परिणामस्वरूप आसपास के वातावरण में रेडियोधर्मी संदूषक फैल गए थे। चाहे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में हुई दुर्घटनाएं हों या  परमाणु बमों का युद्ध में प्रयोग इनके दुष्प्रभाव और विध्वंस के परिणाम अत्यधिक विनाशकारी होते हैं। हिरोशिमा और नागासाकी की घटनाएं हमें परमाणु हथियारों के उपयोग के खतरों की याद दिलाती हैं और शांति और निरस्त्रीकरण की दिशा में काम करने की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।

हिरोशिमा में हुए विध्वंस की घटना के लगभग 80 वर्ष बाद हमने हमारे प्रिय ट्रैवलर ब्लॉगर बंसी बिश्नोई के जापान यात्रा के यूट्यूब वीडियोस के माध्यम से आज के हिरोशिमा शहर और घटनास्थल का अवलोकन किया। हमने देखा तो एक तरफ मन करुणा से भर गया तो दूसरी तरफ जापानी लोगों की जीवटता और उनके हौसलों के कायल भी हो गए। हिरोशिमा आज जापान का एक बड़ा नगर है, जिसकी आबादी लगभग 11,96,274 है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान परमाणु बम हमले से तबाह होने के बाद, हिरोशिमा ने पुनर्निर्माण और विकास की लंबी यात्रा तय की है। आज यह शहर शांति और मानवता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।

ट्रैवलर बंसी बिश्नोई वर्तमान हिरोशिमा शहर का आभासी टूर हमें बड़ी जीवंतता से देते हैं। खास स्थलों की सैर कराते हुए भावुकता के साथ कुछ जानकारियां भी देते हैं।  हिरोशिमा पीस मेमोरियल पार्क शहर के केंद्र में स्थित है, जो परमाणु बम हमले के पीड़ितों की याद में बनाया गया है। पार्क में कई स्मारक और मूर्तियां हैं, एक सारस की मूर्ति है,जो शांति और आशा का प्रतीक है। शहर में कई संग्रहालय और स्मारक हैं जो परमाणु बम हमले के इतिहास और इसके प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं। 
खासतौर से एक संग्रहालय हिरोशिमा पीस मेमोरियल पार्क में स्थित है और परमाणु बम हमले के इतिहास और इसके प्रभावों को प्रदर्शित करता है। संग्रहालय में कई प्रदर्शन हैं, यहां एक क्षत विक्षत गेनबाकु डोम दिखाई देता है, जो परमाणु बम हमले के बाद भी खड़ा रहा था। मलबे से निकले लोगों के कपड़े, जूते, उपकरण,उनके अवशेष देखकर मन रो पड़ता है। दो बच्चे साइकिल चलाते हुए शिकार हो गए थे, अब जंग लगी साइकिल के पास उनके बुत रखे हैं। किसी बच्चे का टिफिन खुला पड़ा है जिसमें रखा भोजन अब फफूंद बन गया है, कहीं स्कूल बैग के साथ कोई किताब है तो कहीं एक बंद पड़ी हाथ घड़ी विध्वंस का ठीक ठीक समय इतिहास में दर्ज कर चुकी है। ट्रैवलर का बोलते बोलते गला भर आता है, वह बाहर निकल कर अपनी आँखें पोंछता हुआ संग्रहालय से निकलकर बाहर आ जाता है। बाहर अनेक पर्यटक उदास हैं, आँखें मलते दिखाई देते हैं। हमारे स्मार्ट टीवी का स्क्रीन धुंधलाने लगता है। हमारी आंखों में आंसू की बूंदे हैं, गला रूंध गया है।  

संग्रहालय का उद्देश्य लोगों को परमाणु बम हमले के भयानक परिणामों के बारे में जागरूक करना और शांति और मानवता के महत्व को बढ़ावा देना है। क्या हम इस महत्व को पूरी तरह समझ पाए हैं? यह सवाल हमारे सामने अब भी खड़ा है, जब दुनिया में कई युद्ध चल रहे हैं, कुछ स्थगित दिखाई देते हैं, कहीं कहीं शब्द युद्ध जारी हैं, उम्मीद करें ये अस्त्र शस्त्र धारित युद्धों में नहीं बदल सकेंगे। सचमुच जापान के हिरोशिमा शहर के पुनरुद्धार की कहानी एक प्रेरणादायक उदाहरण है कि कैसे एक शहर विनाश के बाद पुनर्निर्माण और विकास का लक्ष्य हासिल कर सकता है और शांति और मानवता के प्रतीक के रूप में उभर सकता है।

ब्रजेश कानूनगो 

Monday, 26 May 2025

सफेद महाद्वीप की रोमांचक सैर

सफेद महाद्वीप की रोमांचक सैर

अंटार्कटिका, जिसे 'सफेद महाद्वीप' भी कहा जाता है, पृथ्वी का पाँचवाँ सबसे बड़ा महाद्वीप है, जो दक्षिणी ध्रुव के पास स्थित है।  यह दुनिया का सबसे ठंडा, शुष्क और हवादार महाद्वीप है, जो दक्षिणी महासागर से घिरा हुआ है।  अंटार्कटिका में गर्मियों के दौरान, सूर्य कभी नहीं डूबता है, और सर्दियों के दौरान, सूर्य कभी नहीं उगता है।अंटार्कटिका में कई झीलें हैं, जिनमें से कुछ बर्फ के नीचे भी हैं।  अंटार्कटिका का लगभग 98% हिस्सा मोटी बर्फ की चादर से ढका हुआ है, जिसमें पृथ्वी के ताजे पानी का लगभग 75% हिस्सा मौजूद है। यहां औसत वार्षिक वर्षा लगभग 2 इंच से भी कम होती है, दरअसल यह एक बर्फीला रेगिस्तान है।  अंटार्कटिका पृथ्वी पर सबसे ऊंचा महाद्वीप है, जिसकी औसत ऊंचाई 8,200 फीट (2500 मीटर) है।  यहां विशिष्ट वन्यजीव प्रजातियां पाई जाती हैं, जैसे पेंगुइन, सील और व्हेल। 

अंटार्कटिका के निर्माण की भी एक जटिल और लंबी प्रक्रिया है, जो लगभग 4.5 अरब वर्ष पूर्व से शुरू हुई थी। पृथ्वी पर लगभग 550 मिलियन वर्ष पूर्व, गोंडवाना नामक एक महाद्वीप का निर्माण हुआ था, जिसमें अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, और अंटार्कटिका आदि का भूभाग शामिल था।
बाद में लगभग 180 मिलियन वर्ष पूर्व, गोंडवाना का टूटना शुरू हुआ, और अंटार्कटिका धीरे-धीरे खिसकता हुआ सुदूर दक्षिण में पहुँच गया। लगभग 25 मिलियन वर्ष पूर्व, अंटार्कटिका पूरी तरह से अन्य महाद्वीपों से अलग हो गया और अपनी वर्तमान स्थिति में पहुँच गया। 34 मिलियन वर्ष पूर्व, अंटार्कटिका में बर्फ का निर्माण शुरू हुआ, जिसने धीरे-धीरे पूरे द्वीप को ढक लिया। आज, अंटार्कटिका का लगभग 98% भाग बर्फ से ढका हुआ है।

अंटार्कटिका महाद्वीप इस पृथ्वी पर एक मात्र ऐसी जगह है जहां शायद ही कोई भी मनुष्य स्थाई रूप से निवास करता हो। यहां जो भी व्यक्ति पहुंचता है वह या तो किसी अनुसंधान के उद्देश्य या फिर अब जब दुनिया के इस बिरले हिस्से पर पर्यटकों की रुचि जागृत हो गई है, तब बड़ी राशि खर्च कर किन्हीं टूर ऑपरेटरों के माध्यम से कुछ दिनों में यहां के नजारों को देखता है। यहां के हिमशैलों और जीवों को बहुत नजदीक से देखकर रोमांचित होता है। अंटार्कटिका की ये पर्यटन यात्राएँ मुख्य रूप से दर्शनीय स्थलों के आनंद और वन्यजीवों के अवलोकन के साथ साथ मनोरंजक एवं ऐश्वर्यपूर्ण व सुकूनभरे सुविधाजनक पर्यटन पर केंद्रित होती हैं। 

इस सुदूर महाद्वीप की यात्रा, जिसने 1966 में पहले आधुनिक पर्यटक अभियान के बाद लोकप्रियता हासिल की, आमतौर पर दिसंबर से फरवरी तक दक्षिणी गोलार्ध के गर्मियों के महीनों के दौरान होती है। पर्यटक कई तरह की गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं, जैसे कि कयाकिंग, स्कीइंग और कैंपिंग, जिनका नेतृत्व अक्सर अनुभवी गाइड करते हैं, जिनमें पूर्व शोधकर्ता भी शामिल हैं। अंतर्राष्ट्रीय अंटार्कटिका टूर ऑपरेटर्स एसोसिएशन (IAATO) द्वारा प्रबंधित नियम लागू हैं, जो जहाजों के आकार और लोकप्रिय स्थलों पर आगंतुकों की संख्या को सीमित करके जिम्मेदार पर्यटन प्रथाओं को सुनिश्चित करते हैं।

हाल के वर्षों में, अंटार्कटिक पर्यटन में रुचि बढ़ी है, 2022-2023 सीज़न में 105,000 से अधिक आगंतुकों ने रिकॉर्ड दौरा किया है, जो साहसिक और पारिस्थितिक पर्यटन की ओर बढ़ते रुझान को दर्शाता है। ट्रैवल ब्लॉगर नवांकुर चौधरी ( डॉक्टर यात्री) के ट्रैवल वीडियो श्रृंखला के माध्यम से हमने उनके साक्षात अनुभवों को अपने को आभासी रूप से महसूस करने की कोशिश की है। 

नवांकुर ने अपनी यह यात्रा अर्जेंटीना के उशआइया पोर्ट से वर्ल्ड ट्रैवल कंपनी के बड़े क्रूज से की। इस संपूर्ण यात्रा के लिए उन्हें कुल साढ़े आठ लाख रुपयों का भुगतान करना पड़ा। हालांकि इस में कुछ खास गतिविधियों के अलावा सारी व्यवस्थाएं और पर्यटन गाइड व साधन शामिल थे। इस बड़े जहाज में सात मंजिलें थी जिनमें रेस्टोरेंट, पुस्तकालय, इनडोर गेम्स, स्वीमिंगपूल , जिम,बार, ऑडिटोरियम आदि के अलावा छत पर एक हेलीपेड भी स्थित था। कमरों में सभी आधुनिक सुविधाओं के साथ एक खुली गैलरी भी थी जहां बैठकर समूची यात्रा का आनंद उठाया जा सकता था। नवांकुर के साथ एक अन्य सिख ट्रैवलर भी थे जो पंजाबी में वीडियो बनाते हैं। 

अंटार्कटिका तक पहुंचने के लिए क्रू यात्रा का भी बड़ा रोमांच है। जहाज के भीतर का अनुभव जहां आधुनिक विकसित जीवन शैली से रूबरू होने का मौका देता है, वहीं प्रबंधन द्वारा पल पल दी जाने वाली सूचनाएं, नियमित ऑडिटोरियम में बैठकों के जरिए यात्रा की तैयारियों, सावधानियों, क्या करना है, क्या नहीं करना है, निर्देशित करना बड़ा दिलचस्प और जरूरी हिस्सा होता है। जहाज में यात्रा कर रहे लगभग 200 पर्यटकों को छोटे छोटे समूहों में बाटकर उन्हें एक साथ अन्य गतिविधियों से जोड़ना, छोटी नावों से स्थलों पर ले जाकर प्रकृति से परिचित कराना, जल जीवों और थल जीवों से साक्षात्कार कराना। यह सब देखना बहुत रोमांचित करता है। सबसे ध्यान रखने वाली बात यह कि पर्यटक के कपड़ों से लेकर उनके शरीर को वेक्यूम क्लीन और सेनेटाइज करना ताकि किसी भी प्रकार के संक्रमण से खुद को और अंटार्कटिका के पर्यावरण को नुकसान न हो सके। 

जहाज याने क्रूज प्रबंधन प्रतिदिन की कार्यसूची प्रत्येक समूह को देता है, दूरबीन, जैकेट आदि भी दिए जाते हैं। प्रतिदिन सेफ्टी ड्रिल सुरक्षा अभ्यास करवाया जाता है। समुद्र में ड्रेक पैसेज जहां समुद्रों के मिलन से खरनाक गतिविधियाँ भारी तबाही का खतरा उत्पन्न करते हैं, ऐसी स्थितियों में यात्री को सचेतक उपाय बताए जाते हैं। जहाज जमे हुए समुद्र की बर्फ काटकर अपना रास्ता बनाते हुए हिमशैलों और धरती के निकट तक पहुंचता है। समूह में बांटे गए पर्यटकों को छोटी छोटी रबर की बोटों में बैठाकर किनारे पर पहुंचाया जाता है। कभी पेंग्विन समूह तो कभी  सील,व्हेल जैसी विभिन्न प्रजातियों के वन्यजीव साक्षात देखे जाते हैं। अंटार्कटिका के बर्फीले परिदृश्य, ग्लेशियर, और हिमशिखर, टूटते , बनते नए हिम खंडों को देखना बहुत ही मनोरम और भव्य होता है। अदभुत होती है  यह सुंदरता। अंटार्कटिका के वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र  भी पर्यटकों को विज्ञान और अनुसंधान के बारे में जानने का अवसर प्रदान करते हैं। पर्यटन का यह अनुभव मूल पर्यावरण और दुर्लभ वन्य जीवन के लुभावने दृश्य प्रस्तुत करता है।  

अंटार्कटिका पर किसी भी देश का स्वामित्व नहीं है, बल्कि यह अंटार्कटिक संधि के तहत एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते द्वारा शासित है, जो अंटार्कटिका को केवल शांति और वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए उपयोग करने का प्रावधान करता है।  अंटार्कटिका वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, और विभिन्न देशों के कई शोध स्टेशन यहां स्थित हैं। भारत के भी दो सक्रिय अनुसंधान केंद्र मैत्री और भारती यहां स्थापित हैं। 

बढ़ती पर्यटन गतिविधियों से अंटार्कटिका में संभावित मिट्टी के कटाव और प्रदूषण जैसी पर्यावरणीय चिंताओं को भी बढ़ाता है। टूर ऑपरेटर पर्यटकों को जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में शिक्षित करने पर हर संभव जोर देते हैं, जिसका उद्देश्य इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण को बढ़ावा देना है। जैसे-जैसे उद्योग का विस्तार जारी है, पर्यटन और संरक्षण के बीच संतुलन बनाना अंटार्कटिका के भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है। आज के दौर में पर्यटन प्रसार और पर्यावरण संरक्षण के उपाय संभवतः एक ही क्रूज पर सवार हैं। अंततः दुनिया की यह रीत भी है। सब साथ साथ चलता रहता है। अंटार्कटिका का पर्यावरण बढ़ते पर्यटन के बावजूद अपने मूल स्वरूप में बना रहेगा ऐसे उपाय हम अवश्य करेंगे, इसी उम्मीद तो की ही जा सकती है। 

ब्रजेश कानूनगो 

Saturday, 24 May 2025

अद्वितीय इंजीनियरिंग की मिसाल पनामा नहर

अद्वितीय इंजीनियरिंग की मिसाल पनामा नहर

 
अक्सर मन में विचार आता रहता है कि मानव जाति के हौसलों और इरादों ने जैसे समूचे ब्रह्मांड पर विजय का संकल्प ले लिया हो। क्या कुछ नहीं पा लिया है मनुष्य ने।  यहां तक कि जीवों के क्लोन और मनुष्य के कृत्रिम अंगों तक को अपने बलबूते बना लेने के प्रयोग सफल हुए हैं। नदियों को आपस में जोड़ देने और विशाल महाद्वीपों के विशाल भूभाग को खोदकर दो समुद्रों तक को मिला देने में अपनी मेहनत और हुनर से सफलता पाई है। विज्ञान और तकनीक ने इतनी प्रगति कर ली है कि चांद सितारों तक पहुंचने की बात तो अब बिल्कुल अविश्वसनीय नहीं लगती, बल्कि अब तो वहां हम कॉलोनियां बनाने के उपाय सोचने लगे हैं।
 मनुष्य के अदम्य साहस और संघर्ष से जो दुनिया के लोगों ने पाया है उनमें से बहुत सी उपलब्धियां हमें चमत्कृत कर देती हैं। उनमें से एक है मानव निर्मित पनामा नहर और उसका मेकेनिज्म। 
उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका के मिलन भूभाग को चीरकर नहर बना देना और दुनिया के जलमार्ग परिवहन को सुगम बना देना, सचमुच जानने समझने का विषय है। 

हमारे बहुत से प्रिय घुमक्कड़ विश्व पर्यटन करते हुए पनामा देश और पनामा नहर की यात्रा कर चुके हैं। परमवीर सिंह (पैसेंजर परमवीर) और नवांकुर चौधरी (डॉक्टर यात्री) के पनामा ट्रैवल वीडियोस हमने देखे। इन वीडियो को देखते हुए इस महत्वपूर्ण नहर को महसूस करने और उसकी प्रक्रिया के प्रति जिज्ञासा जब बहुत बढ़ गई तो संबंधित जानकारी जुटाते हुए चकित होना स्वाभाविक था। 

पनामा नहर दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण जलमार्गों में से एक है, जो अटलांटिक महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ती है। यह नहर पनामा देश में स्थित है और इसका निर्माण 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुआ था। यद्यपि पनामा नहर से पहले कई प्रमुख जलमार्ग नहरें बनाई गई थीं, जिनमें से प्रमुख हैं:, बीजिंग-हांग्जो ग्रैंड कैनाल जो विश्व की सबसे लंबी मानव निर्मित नहर है, जिसकी लंबाई 1,776 किमी है। इसका निर्माण 5 वीं सदी ईसा पूर्व में हुआ था और यह चीन में स्थित है। सूएज नहर मिस्र में स्थित एक महत्वपूर्ण नहर है, जो भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है। इसका निर्माण 1869 में पूरा हुआ था। इन नहरों के निर्माण के अनुभवों से निश्चित ही पनामा नहर निर्माण को आगे बढ़ाने का साहस भी मिला होगा हमारे इंजीनियरों को। 

पनामा नहर के निर्माण से पहले, पोत परिवहन में कई दिक्कतें आती थीं। अटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर तक जाने के लिए जहाजों को दक्षिण अमेरिका के दक्षिणी सिरे के चारों ओर जाना पड़ता था, जिसे केप हॉर्न कहा जाता है। यह रास्ता बहुत लंबा और खतरनाक था। इस लंबे रास्ते के कारण, जहाजों को अधिक समय और ईंधन की आवश्यकता होती थी, जिससे परिवहन की लागत बढ़ जाती थी। केप हॉर्न के आसपास का समुद्र बहुत अशांत और खतरनाक था, जिससे जहाजों को दुर्घटना का खतरा रहता था। पनामा नहर बन जाने से अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी तटों के बीच की दूरी इस नहर से होकर गुजरने पर तकरीबन 8000 मील (12,875 कि॰मी॰) घट जाती है क्योंकि इसके न होने की स्थिति में जलपोतों को दक्षिण अमेरिका के हॉर्न अंतरीप से होकर चक्कर लगाते हुए जाना पड़ता था। पनामा नहर को पार करने में जलयानों को अब 8 घंटे का समय लगता है। नहर के माध्यम से जहाजों की आवाजाही से समय और ईंधन की बचत होती है, जिससे परिवहन की लागत कम हो जाती है। जहाजों की आवाजाही अधिक सुरक्षित हुई है, क्योंकि यह रास्ता खतरनाक समुद्रों की हलचलों से भी बचाता है। इसके साथ ही जहाजों की जल्दी आवाजाही से व्यापार और वाणिज्य में वृद्धि हुई है, क्योंकि यह माध्यम दुनिया के विभिन्न हिस्सों के बीच कम समय में सीधा संपर्क प्रदान करता है।

दरअसल पनामा नहर का विचार 16वीं शताब्दी में आया था, जब स्पेनिश खोजकर्ताओं ने इस क्षेत्र का अन्वेषण किया था। हालांकि, नहर का निर्माण 1881 में फ्रांस ने शुरू भी किया किंतु परियोजना कई कारणों से असफल हो गई, जिनमें हजारों मजदूरों की मलेरिया जैसी बीमारी से मर जाना प्रमुख था, उस वक्त मच्छरों से होने वाली इस भयानक बीमारी की पहचान और इलाज खोजा नहीं जा सका था। बाद में अमेरिका ने 1904 में इस परियोजना को अपने हाथ में लिया और 1914 में नहर का निर्माण पूरा किया।

पनामा नहर का निर्माण एक जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य था। नहर की लंबाई लगभग 80 किमी है और इसमें तीन जोड़ी तालाब या झीलें हैं जो जहाजों को एक महासागर से दूसरे में जाने में मदद करती हैं। नहर के निर्माण में लगभग 2.7 करोड़ घन मीटर मिट्टी और पत्थर का उत्खनन किया गया था।

पनामा नहर की कार्यप्रणाली में इन्हीं तालाबों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जब एक जहाज नहर में प्रवेश करता है, तो उसे तालाबों के जल स्तर को ऊपर नीचे उठाकर एक महासागर से दूसरे में ले जाया जाता है। जहाजों को पूरी तरह नहर प्रबंधन को सौंप दिया जाता है। 
समूचा प्रबंधन पनामा नहर प्राधिकरण (Panama Canal Authority) द्वारा किया जाता है, जो पनामा सरकार की एक एजेंसी है। यह प्राधिकरण नहर के संचालन, रखरखाव और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार होती  है। ये ही नहर पार करवाने में संपूर्ण तकनीकी प्रक्रिया पूरी करते हैं। बड़े जहाजों को जल सतह से हम स्वयं ऊपर नीचे होते देख पाते हैं। समुद्र तल से ऊपर उठाकर फिर उसे दूसरे समुद्र के तल पर पहुंचा दिया जाता है। यह बहुत रोमांचक दृश्य होता है, जिसमें कुछ घंटों का समय लगता है। 
पनामा नहर स्थल पर एक ऑडिटोरियम में पर्यटकों को इसके इतिहास, निर्माण आदि के बारे में एक फिल्म प्रदर्शन द्वारा जानकारी भी उपलब्ध कराई जाती है। 
पनामा नहर का निर्माण 1881 में शुरू हुआ था और 1914 में पूरा हुआ था जिसकी
लंबाई 82 किमी, औसत चौड़ाई 90 मीटर और न्यूनतम गहराई 12 मीटर है। जो वर्तमान की स्थितियों में विस्तार की जरूरत महसूस करने लगी है।  नहर के विस्तार की परियोजना चल रही है, जिसमें नए लॉक सिस्टम का निर्माण शामिल है ताकि बड़े जहाजों को समाहित किया जा सके। इसी के साथ निकारागुआ में भी एक नई नहर की योजना है, जो प्रशांत महासागर और अटलांटिक महासागर को जोड़ेगी। यह परियोजना अभी निर्माणाधीन है।

इन नहरों का निर्माण और विस्तार वैश्विक समुद्री परिवहन और व्यापार को सुविधाजनक बनाने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इंजीनियरों की मेहनत और उनके ज्ञान विज्ञान और संघर्षों के लिए संसार उनका सदैव कृतज्ञ रहेगा। 

ब्रजेश कानूनगो 

Friday, 23 May 2025

पदयात्राएं : शब्द वीणा और प्रकृति का सौंदर्य

पदयात्राएं : शब्द वीणा और प्रकृति का सौंदर्य   

एक जानकारी के अनुसार वर्ष 2024 में, भारत में 4.78 मिलियन विदेशी पर्यटकों का आगमन हुआ, जो 2023 के 4.38 मिलियन से अधिक है, लेकिन 2019 के 5.29 मिलियन से कम है. 2024 में घरेलू पर्यटन की संख्या 56.2 करोड़ रही, जो 2023 के मुकाबले 610.22 मिलियन कम है.  2024 की पहली छमाही में, भारत में 4.78 मिलियन विदेशी पर्यटकों का आगमन हुआ, जो 2023 के 4.38 मिलियन से सुधार दर्शाता है.हालांकि, यह संख्या 2019 के 5.29 मिलियन आंकड़ों से कम है, जो कोविड-19 महामारी के पूर्व की स्थिति थी. 2024 में, भारत में घरेलू पर्यटकों की संख्या 56.2 करोड़ थी. यह संख्या 2023 में 610.22 मिलियन थी, जो कोविड-19 महामारी के दौरान हुई थी, जबकी कई पर्यटन स्थल बंद थे। इसका सीधा अर्थ यही है कि 2024 में, विदेशी पर्यटकों के आगमन में सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी 2019 के स्तर से कम है। घरेलू पर्यटन में वृद्धि देखी गई है, लेकिन यह 2023 के स्तर से भी कम है।  

भारत के विशेष संदर्भ में घरेलू पर्यटकों की बात करें तो इसमें सर्वाधिक संख्या उन धार्मिक और आस्थावान पर्यटकों या तीर्थ यात्रियों की रहती है जो हमारे तीर्थों, धार्मिक महत्व और आस्था के स्थलों पर पहुंचते हैं। बारह वर्षों के अंतराल पर होने वाले कुंभों, सिंहस्थों और महाकुंभों के अलावा पवित्र नदियों, पर्वतों और धार्मिक स्थलों की लंबी पदयात्राओं को भी एक तरह से धार्मिक पर्यटन के रूप में भी स्वीकार किया जाना भी सर्वोचित ही है। 

पर्यटन के क्षेत्र में अब सोशल मीडिया और घुमक्कड़ों के ट्रैवलॉग वीडियोस ने भी नए पर्यटकों और आम व्यक्तियों को यात्राओं की ओर आकर्षित किया है। जो किन्हीं कारणों से यात्राएं कर पाने में असमर्थ होते हैं वे घर बैठे भी इन घुमक्कड़ों, यायावरों के कैमरों की नजर से यूट्यूब माध्यम से साक्षात स्क्रीन पर पर्यटन और तीर्थाटन का आभासी आनंद तो एक सीमा तक उठा ही लेते हैं। 

पिछले दिनों इसी तरह ब्लॉगरों के साथ विश्व की आभासी यात्राएं करते हुए हमने भी धार्मिक यात्राओं का सुख घर बैठे उठाया। हमारा माध्यम बने इंदौर के रंगकर्मी और मीडिया कर्मी ओम द्विवेदी के वीडियोस जो उन्होंने अपने ओम दर्शन यूट्यूब चैनल पर साझा किए हैं। इनके वीडियोस की अनेक विशेषताएं हैं जो अन्य घुमंतुओं से इन्हें विशिष्टता प्रदान करती हैं। दो दशक तक हिंदी रंगमंच में एकल अभिनय के अलावा मीडिया के क्षेत्र में प्रतिष्ठित पदों पर रहे  ओम द्विवेदी को कुछ वर्ष पहले नर्मदा से जुड़े साहित्य पढ़ने के साथ नर्मदा परिक्रमा वासियों को करीब से जानने का मौका मिला। इसके बाद वह अपने आप ही उनसे प्रेरित हो गए. उन्होंने भी नर्मदा की पैदल परिक्रमा करने का निर्णय लिया। इसके बाद उन्होंने 5 महीने की कठिन 3600 किलोमीटर की नर्मदा परिक्रमा पूरी की।  जिसके बाद वे नर्मदा तट के प्राकृतिक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जीवन में रम गए। इसी दरमियान कुछ साधु-संतों और प्रकृति प्रेमियों से भी उनकी भेंट हुई। 

जिसके बाद उन्होंने उत्तराखंड चार धाम यात्रा के रोमांचक प्रसंग सुने।  तब उन्होंने देवभूमि की यात्रा करने का भी संकल्प लिया.  उत्तराखंड से जुड़े कई अनजाने क्षेत्रों और रहस्य की पहचान हुई. इसके बाद उन्होंने खुद पैदल चलते हुए ऋषिकेश, यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ बदरीनाथ होते हुए पुनः ऋषिकेश तक यात्रा की. इसी बीच उन्हें पांच केदार, सप्त बदरी और पंच प्रयाग के दर्शन किये। 

दरअसल धार्मिक पर्यटन इस दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है जो कि लोगों को न सिर्फ अपने धर्म के बारे में जानने का मौका देता है बल्कि व्यापक आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने और विभिन्न संस्कृतियों, क्षेत्र विशेष के लोगों की जीवनशैली और रीति-रिवाजों के बारे में जानने का अवसर और समझ प्रदान करता है।  दुर्गम और पर्वतीय वन आच्छादित इलाकों, कलकल करती नदियों, प्रपातों सहित धरती के सौंदर्य और प्रकृति के संगीत को आत्मसात करना तब और सुगम हो जाता है जब आभासी यात्रा ओम द्विवेदी जैसे संत प्रवृत्ति पद यात्री यायावर के कैमरे से प्रांजल वाणी से देखा सुना जा रहा हो।  

अचानक एक दिन ओम द्विवेदी जी के फेसबुक पेज पर हमारी नजर पड़ी जहां उन्होंने नेपाल भ्रमण के कुछ चित्र पोस्ट किए थे, हमने अनुरोध किया कि आप इन्हें वीडियो के रूप में भी साझा कर दें तो  हम भी इसका लाभ लेते रहे घर बैठे।  जवाब में उन्होंने लिखा था कि मैं यात्रा से लौटने पर वीडियो बनाता हूं और यूट्यूब चैनल पर साझा करता हूं। मुझे तब तक पता नहीं था कि उनकी एक चैनल भी है ओम दर्शन के नाम से। मैने तब जाना कि ओम द्विवेदी जी कई यात्राएं कर चुके हैं और उनके कई वीडियो ओम दर्शन चैनल पर उपलब्ध है।  हमने धीरे-धीरे नियमित देखना शुरू कर दिया। बहुत अद्भुत है सारे वीडियोस। अन्य ट्रैवलरों से बहुत अलग भी हैं लेकिन यात्रा वीडियोस की सारी खूबियों के साथ।  हमने उनकी इन वीडियो श्रृंखलाओं में बहुत सी नई बातें अनुभव की। इसको देखते हुए असीम आनंद का अनुभव होता है। दरअसल ओम द्विवेदी जी ने हिमालय क्षेत्र में अनेक यात्राएं की है जिसमें चार धाम यात्रा,  यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ, ये दुर्गम यात्राएं उन्होंने पैदल की। इन सभी वीडियो को देखते हुए हम उनमें डूबते जाते हैं, अपने अस्तित्व को खोते हुए प्रकृति से एकाकार होते चले जाते हैं। हिमालय दर्शन पदयात्राओं के वीडियो में मुझे सबसे महत्वपूर्ण बात यह लगी कि उनकी जो प्रांजल भाषा है, जो हिंदी वे बोलते हैं, वह बहुत सुंदर है।  लगा कि हम तो वह भाषा शायद भूल ही चुके हैं।  लेखन के क्षेत्र में होते हुए भी मुझे अफसोस हुआ कि इतनी सुंदर प्रांजल हिंदी को हम कैसे भूलते चले गए।  जब वह सामान्य चलन से दूर होते गए खूबसूरत और अर्थवान शब्द बोलते लगते हैं तो पश्चाताप होता है, हम अपनी भाषा के सामर्थ्य और सटीकता से कितने भटक गए हैं।  वे अपने को तीर्थयात्री या सैलानी नहीं कहते यायावर बोलते हैं।  कितनी मधुर है कितनी शुद्ध और परिभाषिक है हमारी भाषा, बिना दूसरी भाषाओं का सहारा लिए भी काम चल सकता है।  

महाकुंभ के एक वीडियो में ओम द्विवेदी सभी भाषाओं के सम्मान और हिंदी की उदारता की बात करते हैं, शाही, मुकाम, खालसा आदि जैसे अनेक शब्दों की व्याख्या और औचित्य बताते हैं, वे हिंदुस्तानी की बात करते हैं, ओम जी इसी उदार भाषा का प्रयोग करते हैं।  जो बोलते हैं उनके उच्चारण और प्रवाह इतना प्रभावशाली होता है जैसे कोई संत बोल रहा हो। वैसे लगभग उन्होंने संत का स्वरूप अपना भी लिया है, संत का जीवन ही वह जी रहे हैं यात्राओं के दौरान। इन दिनों उनका पहनावा उनका रहन-सहन सब कुछ एक संत की तरह है।  जब उनके साथ आभासी यात्रा करते हैं तो लगता है कि हम किसी संत की टोली के साथ ही भ्रमण कर रहे हैं। प्रकृति की हरीतिमा में खोते जा रहे हैं, उसकी खुशबू को महसूस कर रहे हैं। 

उत्तराखंड के प्रमुख तीर्थ जो हमारे धाम है वहां तक पैदल यात्रा तो वे करते ही हैं लेकिन जो निकट में कुछ ऐसे दुर्गम स्थल होते हैं उन पर भी वे कठिन चढ़ाई चढ़ जाते हैं।  तब सच में उनके पत्रकार रूप, लेखक रूप और उसके दृष्टिकोण के दर्शन होते हैं। वे बोलते हैं तो लगता है हम कोई आध्यात्मिक प्रवचन सुन रहे हैं, कोई दार्शनिक हमारे सामने बोल रहा है। यही दार्शनिक की भाषा है उसमें कई अर्थ होते हैं, उसमें अनेक बिंब भी होते हैं।  मुझे याद है ऐसे ही हिमालय के पहाड़ों में घूमते हुए जब वह एक स्थान पर जाते हैं, शायद उसको चंद्रशिला कहा गया है।  कठिन चढ़ाई चढ़ते हुए वे ऊपर तक जाते हैं और वहां उसका वर्णन करते हैं, लगता है सचमुच एक प्रबुद्ध भारतीय ट्रैवलर जो आध्यात्मिकता और दर्शन से भरा हुआ है,  उसकी नजर से उसके सार्थक शब्दों से हम उस स्थल को साक्षात अपने सामने स्क्रीन पर देख पाते हैं। एक जगह एक वन में गुजरते हुए, वह एक पेड़ देखते हैं, जिस पेड़ पर किसी चित्रकार ने एक किसी नारी का चित्र उकेर दिया था। दरअसल पेड़ की छाल उखड़ गई थी किसी कलाकार ने उसमें पेंट कर एक स्त्री का चित्र बना दिया था।  इस तरह का रूप दे दिया था कि वह वनदेवी सी लगती है। ओमजी पूरे एपिसोड में केवल उस चित्र को स्थिर करके जो व्याख्यान देते हैं, जो चर्चा करते हैं, जो विश्लेषण करते हैं वह अद्भुत है।  पूरे एक एपिसोड में लगभग बीस मिनट तक एक चित्र को देखते हुए हमें लगता ही नहीं कि यह स्थिर चित्र फ्रेम है। अहा! कितनी अच्छी स्क्रिप्ट, सटीक वक्तव्य। वह कितनी मेहनत से लिखा गया होता है।  

यह भी मन को भाता है कि किस तरह से वे संतों से बात करते हैं किस तरह से उनके अनुभव सुनते हैं, कितने भी रोमांचक प्रसंग और अनुभव सुनते हैं।  किस तरह से वह जब नदियों को देखते हैं, पहाड़ों को देखते हैं, तो किस तरह से उनसे बात करते हैं, स्वयं से बात करते हैं, हम दर्शकों से बात करते हैं, जैसे हम भी उनके और प्रकृति के साथ बह रहे हैं। कलकल करती नदी बहती है  तो लगता है वीणा बज रही है और वादक ओम द्विवेदी होते हैं जो वीणा बजाते हैं शब्दों की।  प्रकृति का राग बजता है, मौसम की जुगलबंदी होती है। सुबह का कोहरा राग, मध्यान्ह की तपिश, शीतल हवा तो कभी पसीना पसीना देह सब कुछ बजता रहता है शब्द वीणा के साथ साथ। जब चढ़ते हैं तो बात करते हैं उतरते हैं तो बात करते हैं, बीमार होते हैं उसकी बात करते हैं, बुखार आता है तो बात करते हैं, किस तरह से कहां आश्रय लेते हैं बात करते हैं, बताते जाते हैं।  मसूरी जैसे बड़े व्यावसायिक पर्यटन स्थल पर पहुंचकर कहते हैं, कि यहां तो रहना हमारे बस की बात नहीं है, कहीं और चलते हैं।  थोड़ा आगे चलकर किसी कुटिया में, आम आदमी के साथ झोपड़ी में विश्राम करते हैं, भोजन भी वहीं मिल जाता है। एक संत की तरह यात्रा करते हैं।  उनके  वीडियो को जो तथ्य खास बनाते हैं, सबसे अलग रखते हैं  निसंदेह इसके पीछे उनका लेखक पत्रकार होना, उनका वृहद धार्मिक, पौराणिक ज्ञान,दार्शनिक नजरिया और उनका एक कुशल रंगकर्मी होना भी है। 

उन्होंने कई एकल अभिनय किए हैं, उनके बड़े प्रसिद्ध नाटक भी हैं जो लोकप्रिय हुए।  वह कई जगह वे महाभारत की बात करते हुए अश्वत्थामा का अभिनय करते हैं।  हिमालय की बात करते हैं। पांडव अपने को गलाने को ही, समाप्त करने के लिए ही  हिमालय की बाहों में अपने को समर्पित कर दिया था। पग पग पर पांडवों का जिक्र होता है, भीम के घमंड और बजरंग बली की पूंछ की चर्चा होती है। पहाड़ों में पौराणिक प्रसंग जीवंत होते रहते हैं। लोक साहित्य और लोकरूचि की बातें मनुष्य के मन की गहराई से स्क्रीन पर उभरती रहती हैं। 

कहा जाता है कि पहाड़ों में कोई साथ हो ना हो कुत्ते हमेशा हमेशा हमारे साथ हो जाते हैं।  ओम जी के साथ भी ऐसा ही होता है, कभी कभी कोई कुत्ता उनके साथ चलने लगता है, अपने क्षेत्र तक उनके साथ जाता है और फिर लौट आता है, वहां से दूसरा कुत्ता उनके साथ हो जाता है अगले चरण तक। वे कहते हैं  हमारे साथ एक भैरव महाराज चल रहे हैं। श्वानों को हमारे यहां भैरव महाराज का स्वरूप भी माना गया है। कभी एक तो कभी दो दो भैरव उनके साथ हो लेते हैं। यही कठिन समय में आस्था का ईश्वर है। कभी कोई राहगीर, कभी कोई किसान, मजदूर,घोड़े वाले, अगले पड़ाव तक पथ प्रदर्शक बन जाते हैं।  राह में एक श्याम श्वान उनके आगे आगे पथ प्रदर्शक बन जाता है, उसके पिछले दोनों पांवों में पोलियो है, लंगड़ा लंगड़ा के ओम जी के साथ आगे आगे चल रहा था। ओम जी कहते हैं जब लक्ष्य सामने हो तो शरीर नहीं, हौसलों से काम होता है। श्वान अपने कष्टों और विकलांगता के बावजूद आगे बढ़ रहा था। अपनी दैहिक सीमाओं के साथ अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए ओम जी का संकल्प नया हौसला पा लेता है। 

हिमालय दर्शन पदयात्रा में ओम  द्विवेदी देवभूमि के चारों धामों के अलावा पंच केदार और सप्त बद्री और अनेक दुर्गम स्थानों तक पदयात्राएं करते हैं।   पुजारियो की कुटिया ,सामान्य बसेरों, मंदिरों और आश्रमों में  उन्हें आश्रय मिला, भोजन प्रसादी और लोगों के स्नेह ने उन्हें ऊर्जा दी। सुबह-सुबह तीन चार बजे उठकर फिर आगे की यात्रा के लिए पांव पांव वे आगे बढ़ते, चढ़ते उतरते गए। 

ये पदयात्राएं आध्यात्मिक और धार्मिक होते हुए भी जिस तरह से प्रकृति के सौंदर्य के दर्शन कराती है, जीवन के दर्शन कराती है, जन और वनजीवन के दर्शन कराती है वह अद्भुत है। हम जान पाते हैं कि किस तरह से सादगी और अभाव के बीच भी हम खूबसूरत और शांत जीवन जी सकते हैं।  ओम द्विवेदी जी की वीडियो श्रृंखलाओं को देख कर सहज समझा जा सकता है। शुभकामनाएं। 

ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, 6 May 2025

पर्यटकों को लुभाते अनोखे पेड़

पर्यटकों को लुभाते अनोखे पेड़


गत दिनों हमने ट्रैवलर बंसी विश्नोई के कुछ ट्रैवलॉग वीडियोस को यूट्यूब पर देखा। वे दक्षिण अफ्रीका महाद्वीप के नजदीक स्थित द्वीप देश मेडागास्कर में भ्रमण करते हुए वहां के जनजीवन और खास विशेषताओं और दृश्यों को बहुत नजदीक से फिल्माते हुए भारत में हम जैसे दर्शकों के लिए वहां का लुत्फ उठाना संभव कर रहे थे।

मेडागास्कर गणराज्य हिन्द महासागर में विश्व का चौथा सबसे बड़ा द्वीप है। यहाँ विश्व की पाँच प्रतिशत पादप वनस्पति और जीव प्रजातियाँ मौजूद हैं। इनमें से 80 प्रतिशत केवल मेडागास्कर में ही पाई जाती हैं।
दरअसल पादप या पौधे जीवित प्राणियों का एक समूह है, जो अपना भोजन सूर्य की ऊर्जा से बनाते हैं। ये जीवित प्राणी मिट्टी से पानी और पोषक तत्व लेते हैं और हवा से कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं। पौधे हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं और हमारे जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु ने सिद्ध किया था कि वनस्पति में भी जीवन प्राण होते हैं। ये पादप उन्हीं प्राणवान वनस्पतियों का ही रूप कहा जा सकता है। 

ट्रैवलर बंसी वैष्णव अपनी यात्रा में एक ऐसे क्षेत्र में जाते हैं जहां ऐसी ही अनोखी वनस्पति और पेड़ों की बहुतायत थी। पर्यटकों के लिए उस क्षेत्र में खासतौर से व्यवस्थाएं की गईं थीं। अपने अनोखे और दुनिया में अन्य जगह दुर्लभ बाओ बाब पेड़ की प्रजातियों को यहां देखना बहुत रोमांचित करता है। यह पेड़ अपने मोटे तनों और अनोखे आकार के लिए प्रसिद्ध हैं। ये पेड़ अपने विशाल आकार और लम्बी उम्र के लिए जाने जाते हैं, कुछ बाओबाब पेड़ों की उम्र 1000 साल से भी अधिक होती है।
बाओबाब पेड़ों के अलावा रफ़िया पाम जो एक प्रकार का पाम पेड़ है और इसके पत्तों का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है। टमाल पेड़ एक ऐसा पेड़ है, जो  जिसके बीजों का उपयोग मसाले के रूप में किया जाता है। मेडागास्कर में ऑर्किड की भी कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो अपनी सुंदरता और विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं।

मेडागास्कर में बंसी विश्नोई के कैमरे से दैत्याकार बाओ बाब पेड़ों को देखकर सहज जिज्ञासा हुई कि क्या ये पेड़ हमारे देश में भी कहीं पाए जाते हैं ? मैने कई बार ऐतिहासिक और पर्यटन केंद्र मांडू (मध्यप्रदेश) की सैर की थी, तब मुझे वहां एक खास प्रकार के बड़े फल को खाने का मौका मिला था, जिसे स्थानीय भाषा में मांडू की इमली कहा जाता है। कबीट या नारियल जैसे इस फल के भीतर से खट्टा मीठा गुदा निकलता है। इसके विशालकाय पेड़ भी वहां देखे थे। बाओ बाब पेड़ों  को बंसी जी के ट्रैवल वीडियो में देखकर लगा कि मांडू की इमली के पेड़ भी संभवतः इसी प्रजाति के हैं। थोड़ी जानकारी जुटाई तो यह सच भी निकला कि खुरासानी इमली के ये पेड़ उसी प्रजाति के हैं। कुछ ऐसे ही पेड़ सिवनी के वनों में भी पहचाने गए थे। 

बाओ बाब के अलावा भी दुनिया में ऐसे कई अद्भुत पेड़ हैं जो अपनी अनूठी विशेषताओं और प्राकृतिक सुंदरता के लिए पर्यटकों को आकर्षित करते रहे हैं। जैसे ड्रैगन ब्लड ट्री (यमन), बॉटल ट्री (नामीबिया), और रेनबो यूकेलिप्टस (अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया)। 
यमन के सोकोट्रा द्वीप पर पाए जाने वाले ड्रेगन ब्लड ट्री की छाल का रंग खून के समान लाल होता है। इस पेड़ का रस भी लाल रंग का होता है और इसे पारंपरिक रूप से एक दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।  
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया के ब्लू माउंटेन्स में पाए जाने वाले  वालामी पाइन पेड़ को जीवित जीवाश्म माना जाता है क्योंकि यह 200 मिलियन साल से भी अधिक पुराना है।  
बहरीन के जियाज द्वीप पर स्थित ट्री ऑफ लाइफ पेड़ अपने अजीब और अनोखे रूप के लिए जाना जाता है। यह पेड़ बिना किसी पानी के स्रोत के जीवित रहने में सक्षम है। दक्षिण पूर्व एशिया और अमेरिका के रेनबो यूकेलिप्टस पेड़ की छाल विभिन्न रंगों के साथ आती है, जिससे यह एक सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है। साउथ कैरोलिना के जॉन्स आइलैंड पर स्थित एंजल (यूएसए) ओक पेड़ 1,500 वर्षों से अधिक पुराना है। यह पेड़ अपनी विशाल छतरी के लिए प्रसिद्ध है।   न्यूज़ीलैंड की वानाका झील के पास स्थित वानका एक अकेला विलो पेड़ अपने घुमावदार स्वरूप और शांत झील के पानी पर मोहक प्रतिबिंब के लिए बहुत प्रसिद्ध है।  कंबोडिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया का सिल्क कॉटन ट्री पेड़ की छाल और पत्तियां रेशम की तरह नरम होती हैं। इसलिए इसे सिल्क कॉटन ट्री कहा जाता है। बहुत लोकप्रिय पेड़ हैं। 

भारत का सबसे बड़ा वट वृक्ष कोलकाता के आचार्य जगदीश चंद्र बोस बॉटनिकल गार्डन में स्थित है, जिसे द ग्रेट बयाइन ट्री के नाम से जाना जाता है।  यह बरगद का पेड़ 250 साल से अधिक पुराना है और 14,500 वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है।  यह वट वृक्ष दुनिया का सबसे चौड़ा बड़ा बरगद का पेड़ माना जाता है। इसकी 3,372 से अधिक जटाएं हैं जो जमीन में जड़ें डाल चुकी हैं। एक जंगल की तरह दिखता है यह पेड़ और 87 से अधिक प्रजातियों के पक्षियों का बसेरा है। इसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी शामिल किया गया है  लोग इसे 'वॉकिंग ट्री' भी कहते हैं। 1884 और 1987 में आए चक्रवाती तूफानों ने इस पेड़ को नुकसान पहुंचाया था, लेकिन यह फिर भी जीवित है।

वनस्पति और वृक्षों के गुणों के कारण भारत में उनका औषधीय, धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व हमेशा से रहा है। पेड़ों में आस्था व्यक्त करते हुए उनकी पूजा करना भारतीयों के संस्कार में शामिल हैं। बरगद को भारत का राष्ट्रीय वृक्ष माना जाता है, जबकि पीपल को धार्मिक महत्व दिया जाता है, और नीम को अपने औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है।

जब हम घर बैठे घुमंतुओं के यूट्यूब ट्रैवल वीडियो देखते हैं तो न सिर्फ दुनिया के लोगों, प्राणियों और वनस्पति को जानते हैं बल्कि कुदरत के करिश्में और प्रकृति का अप्रतिम सौंदर्य भी हमें अभिभूत कर देता है। धन्यवाद प्रिय विश्व यात्रियों। शुभकामनाएं!

ब्रजेश कानूनगो  
  

Thursday, 1 May 2025

सड़क मार्ग से लंदन का सफर

सड़क मार्ग से लंदन का सफर 


मार्च महीने में हमारे यहां गेहूं की फसल लगभग पकने को आई थी, हम लोग ड्रीम चेसर यूट्यूब चैनल के विलोगर अंकित के नार्वे, स्वीडन और स्विट्जरलैंड की यात्रा के वीडियो देख रहे थे। कहीं बरसात थी तो कहीं भारी बर्फबारी के बीच से वे अपनी मोटर बाइक से रोमांचक यात्रा कर रहे थे। मौसम और बर्फबारी से रास्ते बंद हो जाने पर कभी कभी अपनी बाइक उन्हें किसी ट्रेलर पर लाद कर अगले गंतव्य तक ले जानी पड़ी। शायद कुछ जगह फैरी पर भी चढ़ाना पड़ा ताकि समुद्र का हिस्सा पार किया जा सके। अंडर वाटर कैनल और रास्तों से तो वे ही बाइक चलाकर रोमांचित करते रहे। 

भारत में जब गेहूं की फसल और चने की फसल आती है, गर्मियों का मौसम आने को होता है तब दुनिया के दूसरे देशों में इस वक्त क्या हो रहा होगा?  वहां कौन सी फैसले आ रही होगी? कैसा मौसम होगा?  यह सब बातें अब हमको इंटरनेट के माध्यम से, सोशल मीडिया के माध्यम से पता चलती रहती है।  एक तरह से देखा जाए हमारे यहां जो वसुधैव कुटुंबकम का सूत्र बार-बार दोहराया जाता है कि पूरी दुनिया एक परिवार है, सोशल मीडिया के ट्रैवल वीडियो देखते हुए महसूस होने लगता है। 
 
दरअसल पिछले दिनों वर्ल्ड बाइक ट्रैवलर अंकित (डीम चेज़र) ने अपने महत्वाकांक्षी स्वप्न इंडिया टू लंदन यात्रा अपनी बाइक (चार्ली ) के साथ वर्ष 2024 के नवंबर माह की 24 तारीख को पूर्ण कर लिया। हमने इस यात्रा के लगभग उनके सारे वीडियोस हाल ही में देखे हैं। जो अब उनके चैनल पर लोड किए जा चुके है। यूरोप और ब्रिटेन के लगभग 24 देशों से गुजरते हुए 110 दिनों में 20000 किलोमीटर लंबी इस यात्रा को लंदन के प्रसिद्ध टावर ब्रिज पर समाप्त करते हुए उनके चेहरे पर असीम खुशी और सुख को देखा जा सकता है।

हम जैसे दर्शकों ने भी उनकी इस संघर्षपूर्ण और रोमांचक यात्रा को घर बैठे सीधे आत्मसात कर अनुभव किया।  खासतौर से नार्वे, स्वीडन,इटली, नीदरलैंड, बेल्जियम और स्विट्जरलैंड के वीडियो तो अप्रतिम हैं। वहां बिखरा सौंदर्य अद्भुत है।  उनके कैमरे से जब पहले देखा स्विट्जरलैंड देख रहे हैं तो ऐसा नहीं लगता है कि एक बार देख लिया तो अब क्या देखना। हर व्यक्ति का अपना स्वीटजरलैंड होता है, हर व्यक्ति का अपनी दृष्टि और प्रस्तुति की अलग स्टाइल होती है। हर बार दर्शक को एक अलग नया सुख मिलता है।  

संयोग से स्विट्जरलैंड में अंकित जिस परिवार के यहां रुकते हैं उन्होंने बरसों पहले सड़क मार्ग से लंदन से भारत की यात्रा की थी। जिस दौर में न इंटरनेट था न गूगल मैप, न पर्याप्त साधन और सुविधाजनक सड़क मार्ग थे, तब यात्रा की कठिनाइयों और संघर्षों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे में भारत से लंदन की सड़क यात्रा के बारे में जानना कम दिलचस्प नहीं होगा। अंकित की ट्रैवल वीडियो सीरीज ने जब हमारी उत्सुकता जगा दी है तो कुछ जानकारियां जुटाने की इच्छा हो गई। 

अनेक ट्रैवलर्स और ओम द्विवेदी जैसे आध्यात्मिक पदयात्री और डॉ राज (साइकिल बाबा) जैसे विश्व साइकिल यात्री आज भी कठिनाइयों का सामना करते हुए जमीनी यात्रा करते रहे हैं। अतीत में कई बार दो भिन्न देशों के बीच तथा भारत और लंदन के बीच अनेक देशों से गुजरता हुआ बसों का भी संचालन दुर्गम और लंबे सड़क मार्गों से होता रहा है। 

सन् 1957 में ओसवाल्‍ड-जोसेफ गैरो फिशर ने 'इंडियामैन' नाम से एक बस सर्विस शुरू की थी। यह बस 15 अप्रैल 1957 को लंदन के विक्‍टोरिया कोच स्‍टेशन से कोलकाता के लिए रवाना हुई थी। बस 5 जून को कोलकाता पहुंची थी और 2 अगस्‍त 1957 को लंदन के लिए वापसी के लिए रवाना हुई। 
लंदन से कोलकाता तक जाने का किराया उस वक्त 85 पाउंउ था और वापसी का किराया 65 पाउंड तय किया गया था। ये बस फ्रांस, इटली, युगोस्‍लाविया, बुल्‍गारिया, तुर्की, ईरान और पाकिस्‍तान से होती हुई भारत आई थी। बस 16 दिन देरी से भारत पहुंची थी। कहते हैं कि ट्रिप के दौरान यात्रियों को होटल या फिर कैंप में रुकना होता था। बस को भारत आने में देर इसलिए हो गई थी क्‍योंकि एशिया में फ्लू महामारी फैली थी और इसकी वजह से इसे पाकिस्‍तान-ईरान बॉर्डर पर रोक दिया गया था। लाहौर, रावलपिंडी, काबुल, कंधार, तेहरान, विएना और ऐसे कई खूबसूरत देशों का रास्‍ता तय करती हुई ये भारत पहुंचती थी। हालांकि वापसी में सिर्फ 7 यात्री ही भारत से लंदन गए।
ये बस गंगा, ताज महल, राजपथ, राइन घाटी और पिकॉक थ्रोन से गुजरती थी। उस समय यात्रियों को नई दिल्‍ली, तेहरान, साल्‍जबर्ग, इस्‍तानबुल और विएना में फ्री शॉपिंग करने का मौका भी मिला था। बस में स्‍लीपिंग कंपार्टमेंट्स तो थे ही साथ ही साथ पंखे और यहां तक कि म्‍यूजिक का भी इंतजाम था। उस सेवा को आज तक सबसे सुविधाजनक करार दिया जाता है क्‍योंकि उस समय पूरी दुनिया में सड़कों की हालत बेहद खराब थी।

बस में सवार एक यात्री पीटर मॉस, जिनकी उम्र उस समय 22 साल थी, वो लंदन वापस नहीं गए थे। उन्‍होंने समुद्र के रास्‍ते अपना सफर पूर्व में मलेशिया में जारी रखा। उन्‍होंने एक डायरी भी लिखा जिसका टाइटल था, 'द इंडियामैन' और इसमें उन्‍होंने सफर की काफी अच्‍छी जानकारी दी थी। इस सफर के पूरा होने के बाद ये बस तीन और सफर पर निकली थी। सन् 1960 तक इस तरह की रोड ट्रिप्‍स हिप्‍पीस के बीच काफी लोकप्रिय हो गई थीं। वो ऐसे ही सफर पर भारत आने लगे थे। सन् 1970 में कई राजनीतिक और सैन्‍य संघर्षों ने रास्‍तों को काफी खतरनाक बना दिया था। इसलिए इसे बंद करना पड़ गया था। 

कुछ समय पूर्व कहीं पढ़ने में आया था कि अब फिर से ये सफर शुरू होने वाला है। भारत के एक टूरिज्‍म ऑपरेटर एडवेंचरस ओवरलैंड ने दिल्‍ली से लंदन तक की 70 दिनों की यात्रा शुरू करने का ऐलान किया है। ये बस पोलैंड, रूस, कजाख्‍स्‍तान, चीन और म्‍यांमार के रास्‍ते लंदन पहुंचेगी। दिल्‍ली से लंदन अक्‍सर लोग फ्लाइट से जाते हैं ऐसे में सड़क के रास्‍ते दिल्‍ली से लंदन जाना शायद अब उतना जोखिम भरा और कष्टदायक नहीं रहे जो पहले के समय में हुआ करता था। उम्मीद करें कि विश्व के देशों के बीच कोई तनाव न रहे, शांति और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा हमेशा बनी रहे! आमीन!

ब्रजेश कानूनगो 

मृतदेह की खिदमत में इंडोनेशिया का तोराज समुदाय

मृतदेह की खिदमत में इंडोनेशिया का तोराज समुदाय

कुछ समय पहले समाचार पढ़ा था कि उत्तराखंड में  नेपाल भारत सीमा पर एक गुफा में बहुत सारे नर कंकाल मिले हैं।  बताया गया कि ये कंकाल आठवीं शताब्दी से पहले के हो सकते हैं। अब इनका अध्ययन होगा और इतिहास के रहस्य से पर्दा हट सकेगा। यद्यपि पूर्व में भी उत्तराखंड में ऐसी कुछ गुफाएं मिली थीं।  प्रारंभिक तौर पर कहा गया है कि बौन धर्म मानने वाले लोगों के यह कंकाल हो सकते हैं। 

खबर पढ़ कर नोमेडिक शुभम चैनल के ट्रैवलर शुभम का वह वीडियो याद आया जिसमें वे इंडोनेशिया में एक समुदाय के गांव में गए थे। वीडियो में देखा था कि वहां परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता बल्कि उनको अपने घर में ही लंबे समय तक रखा जाता है। उसकी इस तरह से देखभाल की जाती है जैसे वह जीवित ही हो। उनकी मान्यता यह है कि व्यक्ति अभी समाप्त नहीं हुआ है बल्कि वह बीमार है और वह उनके साथ है। शव की रोज साफ सफाई करते हैं, नए कपड़े पहनाते हैं और यह तब तक किया जाता है जब तक कि पारंपरिक अंतिम अनुष्ठान के लिए उनके पास पर्याप्त धन इकट्ठा नहीं हो जाता। 

अलग-अलग देशों के समुदायों में अंतिम संस्कार के लिए अपनी अलग-अलग मान्यताएं, परंपराएं और प्रथाएं होती हैं।  उनका रहन-सहन और जीवन जीने का तरीका भी काफी अलग होता है। आमतौर पर जब भी किसी व्यक्ति की मौत होती है तब या तो उसे अग्नि के हवाले किया जाता है या दफनाया जाता है। लेकिन इंडोनेशिया एक ऐसा देश है, जहां के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले कुछ समुदाय मरने वाले अपनों के शवों को ममी बनाकर सुरक्षित रखते हैं।    

तोराजा जनजाति के लोगों को बहुत छोटी उम्र से ही मृत्यु का सामना करने के लिए तैयार कर दिया जाता है। शुभम के वीडियो में हमने देखा कि घर के लोग डेड बॉडी को रोजाना खाना खिलाते हैं और  एक कमरे में तब तक सुरक्षित रखते हैं, जब तक अंतिम संस्कार के लिए उनके पास पैसे इकट्ठे न हो जाएं। जब अंतिम संस्कार का वक्त आता है तो लोग डेड बॉडी को पत्थर की कब्र में दफनाते हैं।  हालांकि ऐसा नहीं है कि वह दफनाकर अपनों को भूल जाते हैं।  वह Ma’nene मानेने नाम के एक अनुष्ठान के लिए कुछ समय के बाद मृत शरीर को कब्र से बाहर निकालते हैं और उसे अच्छे से साफ करते हैं।  मृत शरीर को धोकर उसे साफ कपड़े पहनाए जाते हैं और कुछ देर के लिए धूप में सूखने के लिए रखा जाता है।  

शुभम के वीडियो में हमने देखा कि एक मृत व्यक्ति के शव को तो उसकी मृत्यु के करीब 40 साल बाद भी निकाला गया और उसकी साफ सफाई की गई, उसके कपड़े बदले गए।  यह सब उनकी परंपराओं का हिस्सा है लेकिन ट्रैवलर ब्लॉगर शुभम जैसे युवा भारतीय व्यक्ति के लिए यह सब देखना और वीडियो बनाना कितना कठिन रहा होगा समझा जा सकता है। उन्हें कई बार उबकाई सी आती रही, रात की नींद उनकी आंखों गायब रही,मन में अजीब से डर को वे महसूस करते रहे।

मृतक के ताबूत को पहाड़ों की शिलाओं के बीच में खोद कर बनाए केबिनों में सहेजा जाता है।   प्रति 3 वर्ष में या जब उनकी श्रद्धा होती है या जब भी रस्म का समय आता है उन्हें बाहर निकालकर परंपरागत अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। 

भारत नेपाल सीमा पर नरकंकालों वाली गुफा मिलने के समाचार से याद आया कि  इंडोनेशिया में भी जब शुभम पहाड़ी गांव में जाते हैं तो वहां भी वे ऐसी कई गुफाएं दिखाते हैं। हजारों की संख्या में कंकाल वहां दिखाई देते हैं। एक जगह दो कंकाल एक साथ रखे हुए थे तो गाइड उनको एक किंवदंती सुनाता है कि यह दोनों कभी प्रेमी थे और आपस में शादी करना चाहते थे, लेकिन जीते जी उनकी शादी नहीं हो पाई,  दोनों के समुदाय और उनके परिवार इस संबंध के लिए तैयार नहीं हुए तो एक दिन दोनों ने अपनी जान दे दी।  बाद में लोगों को इस बात का पता चला और जब उनका अंतिम संस्कार किया गया तो दोनों शवों एक साथ वहां पर रखा गया था। 

पहाड़ों में बॉक्स खोदने और आवश्यक अनुष्ठान के लिए धन इकट्ठा होने तक लंबे समय तक जैसा पहले उल्लेखित किया कि मृतक के शव की परिवारजन एक जीवित व्यक्ति की तरह सेवा करते रहते हैं। पहाड़ में ताबूत के लिए बने स्थान को अपनी हैसियत के अनुसार सजाया संवारा जाता है।  उसके बाहर गेट लगते हैं, डेकोरेशन होता है।   

एक जमाने में कभी हमारे यहां तेरहवीं की रस्म बड़ी शान ओ शौकत के साथ मनाई जाती थी। रस्म में कितने गांवों के लोग शामिल हुए, कितनी बड़ी संख्या में लोगों ने नुक्ता भोज ग्रहण किया, यह सब संपन्नता और समर्पण भाव का परिचायक समझा जाता था। इंडोनेशिया के इन समुदायों में भी अंतिम अनुष्ठानों का भी कुछ ऐसा ही महत्व दिखाई देता है। यह बहुत खर्चीला भी होता है। अनुष्ठान में सभी रिश्तेदारों और परिचितों को बुलाया जाता है और दावत रखी जाती है। युवा लोग अपने पूर्वजों से मिलते हैं और उनकी डेड बॉडी के साथ तस्वीरें लेते हैं। जब अनुष्ठान पूरा हो जाता है तो शव को वापस ताबूत में रख दिया जाता है। अनुष्ठान की यह प्रथा यहां सदियों से चली आ रही है।  ऐसा कहा जाता है कि पोंग रुमासेक नामक एक शिकारी तोराजा की पहाड़ियों पर भ्रमण किया करता था।  एक दिन उसे एक पेड़ के नीचे किसी की लाश पड़ी हुई मिली।  उसने लाश की हड्डियों को अपने पास मौजूद कपड़े में रखा और उसे जमीन में दफना दिया।  माना जाता है कि ऐसा करने के बाद उस शिकारी को जीवन भर भाग्यशाली और धनवान रहने का आशीर्वाद मिला।  तोराजा जनजाति के लोग यह मानते हैं कि अगर वे अपने पूर्वजों का ख्याल रखेंगे और उनकी देखभाल करेंगे तो उन्हें भी आशीर्वाद मिलेगा। 

ट्रैवल वीडियो देखते हुए सचमुच रोमांच होता है कि दुनिया के कुछ लोग जीते जी  ही नहीं मरने पर भी मृत देह पर अपना स्नेह और आदर समर्पित करते हुए खिदमत करते रहते हैं, आशीर्वाद पाते हैं। 

ब्रजेश कानूनगो

Friday, 25 April 2025

इथियोपिया की अनोखी जनजातियाँ

 इथियोपिया की अनोखी जनजातियाँ 

गत दिनों हमने इथियोपिया के जनजातीय क्षेत्रों की मानस यात्रा की। यूट्यूब के कुछ ट्रैवल विडियोज हमारी इस यात्रा के माध्यम बने। 

दक्षिण अफ्रीका का इथियोपिया काफी जैसे लोकप्रिय पेय पदार्थ का जनक रहा है। यहां काफी सेवन को आमतौर पर परंपरागत रूप से सेलिब्रेट भी किया जाता है। ट्रैवलर दावूद अखुंदजादा Davud Akhundzada  के साथ हमने सड़क किनारे इथोपियाई महिलाओं द्वारा संचालित स्टाल पर इसकी संपूर्ण प्रक्रिया या रस्म को कुतुहल से देखा। कॉफी बीजों को तवे पर सेका जाना, उसको मूसल से कूटकर पावडर बनाना, परंपरागत केतली में काफी को धीरे धीरे उबाला जाना, कॉफी बीज की धूप देकर उसके धुएं से वातावरण को महकाना, फिर परंपरागत चीनी प्याले में गर्म कॉफी में खुशबूदार वनस्पति डाल के पेश करना। यह सब देखना अद्भुत आनंद और जायके से भर देता है। शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में दावूद के संग वहां के जीवन का डिजिटल आनंद लेना सचमुच इथियोपिया पहुंच जाने जैसा ही था। हमने विकसित होते आधुनिक इलाकों, परंपरागत छोटे बड़े बाजारों के अलावा इथियोपिया के जनजातीय क्षेत्रों की भी मानस यात्रा की। दावूद के विडियोज के अलावा एक और प्रिय ट्रैवलर बंसी विश्नोई Bansi Bishnoi vlog के भी कुछ विडियोज का अवलोकन किया। बात आज इथियोपिया की जनजातियां की कर लेते हैं, जो हमने अनेक ट्रैवल विडियोज और इंटरनेट की कुछ वेबसाइटों से जुटाई है। 


विश्वभर में जनजातियां पर्यटकों को सदैव आकर्षित करती रहीं हैं। जनजाति पर्यटन, संस्कृति और इतिहास के प्रति जागरूकता बढ़ाने के साथ-साथ स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देता है।  कई जगहें और बस्तियों को विशेष रूप से इस विशेष पर्यटन के लिए विकसित किया गया है, जहाँ पर्यटक जनजातीय जीवनशैली, कला, नृत्य, संगीत और रीति-रिवाजों का अनुभव कर सकते हैं। 


इथियोपिया इस जनजातीय दृष्टिकोण से भी अनुभवों और सांस्कृतिक परंपराओं का खजाना है। यह दुनिया के सबसे पुराने देशों में से एक है, जहाँ मानव गतिविधि लाखों साल पुरानी है। जहां अभी भी बड़ी संख्या जनजातियां अपनी पुरानी परंपराओं और परंपरागत जीवनशैली में निवास करती हैं। जनजातियाँ सदियों से इथियोपियाई परिदृश्य का हिस्सा रही हैं, जहाँ उन्होंने अपने चुनौतीपूर्ण परिवेश के अनुकूल ढलने के लिए अपने साधन और उपाय विकसित किए हैं।

इथियोपिया में 80 से अधिक अलग-अलग जातीय समूह हैं, जो विभिन्न जनजातियों के रूप में जाने जाते हैं। अनेक पर्यटन कंपनियों, टूर एजेंसियों सहित स्थानीय स्तर पर भी अनेक गाइड पर्यटकों को इस लोक संस्कृति और इस परिदृश्य से रूबरू करवाने में संलग्न हैं। 

खासतौर से ओमो घाटी की गहराई में ये परंपराएँ और समुदाय जीवंत हो उठते हैं। रंग-बिरंगी पृष्ठभूमि, आदिवासी समारोह और कुछ शानदार कला रूपों ने इथियोपिया के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र को आकर्षक बना दिया है। मुर्सी, बोडी,सूरी,हमार,दासानाच,कारा आदि कई ऐसी जनजातियां हैं जिनकी अपनी अनूठी संस्कृति और जीवन शैली है। लगभग सभी जनजातियाँ भाषा, कपड़े, भोजन और परंपराओं में भिन्न हैं, जो इथियोपिया में कई सदियों से विद्यमान हैं। 

मुर्सी ओमो घाटी की सबसे प्रसिद्ध जनजातियों में से एक है, जिसकी आबादी लगभग 8,000 है। उन्हें पारंपरिक रूप से प्रवासी या घुमंतू समुदाय के रूप में जाना जाता है, ये केवल शुष्क मौसम में ओमो के किनारों को छोड़कर बरसात के मौसम में घास के मैदानों में जाते हैं। मुर्सी मवेशियों को काफी महत्व देते हैं, जिनकी संख्या के आधार पर संपन्नता और आदान-प्रदान से अधिकांश रिश्ते, जैसे विवाह, आदि निर्धारित होते हैं और उनका आहार भी मवेशियों पर ही आधारित होता है। ये लोग सुरमिक भाषा बोलते हैं, जो नीलो-सहारन भाषा परिवार से आती है। 


मुर्सी महिलाओं के पहनावे से उनकी पहचान सुनिश्चित होती है। सबसे खास और पहचानी जाने वाली विशेषता उनके निचले होठों में सजावटी मिट्टी की डिस्क (देभिन्या) पहनना है, जो सुंदरता और वयस्कता का प्रतीक है। जब कोई लड़की अपनी किशोरावस्था में होती है, तो उसके निचले होंठ को काट दिया जाता है और मिट्टी की डिस्क के साथ तब तक खुला रखा जाता है जब तक कि यह ठीक न हो जाए। फिर इस कट को हर बार नई और अधिक मिट्टी की डिस्क डालकर कई महीनों तक धीरे-धीरे खींचा जाता है,प्रत्येक महिला यह तय करती है कि उसे अपने होंठ को कितना फैलाना है। पुरुष और महिलाएं अपनी सामर्थ्य और शक्ति सिद्ध करने के लिए द्वंद्व युद्ध जैसी कई पारंपरिक रूढ़ खेल प्रतियोगिताओं का सामना करते हैं। इसमें पुरुष लाठियों और महिलाएं धातु के कंगनों का हथियारों के रूप में उपयोग करती हैं। 


बोडी जनजाति मुर्सी जनजाति के पड़ोसी हैं, और दोनों समूह अक्सर व्यापार करते हैं। वे चरवाहे लोग हैं जो मवेशियों को बहुत महत्व देते हैं और आम तौर पर खेती की प्रथाओं में भाग नहीं लेते हैं, इसके बजाय आदिवासी बाजारों में मक्का और अन्य कृषि उत्पादों के लिए व्यापार करना पसंद करते हैं। वे खानाबदोश समुदाय हैं, जो भूमि की कमी को रोकने और अपने मवेशियों के लिए नए चरागाह क्षेत्र खोजने के लिए आगे बढ़ते हैं। उनके जीवन में मवेशियों के महत्व के कारण, बोडी का मुख्य आहार भी मवेशियों पर केंद्रित है। इस जनजाति के लोग छह महीने तक एक कमरे में रहकर खून और दूध का सेवन करते हैं। यहां के आदिवासी लोग जानवर का खून और दूध एक साथ मिलाकर पीते हैं, जिससे यह कम से कम समय में अधिक मोटे हो सके। यह प्रक्रिया पूरे छह महीने तक दोहराई जाती है, जिससे शख्स की अच्छी सेहत बन सके। वहीं, इसके अलावा भी यह अन्य चीजों का सेवन करते हैं। बोडी पुरुष कपड़े की स्कर्ट पहनते हैं, जबकि महिलाएं बकरी की खाल से बने कपड़े पहनती हैं। पुरुष और महिला दोनों ही विशिष्ट रस्म में हिस्सा लेते हैं, जिसका इस्तेमाल व्यक्तियों की सुंदरता और साहस दिखाने के लिए किया जाता है। ये लोग मोटा होना अच्छा मानते हैं और इसके लिए कई उपाय करते हैं। छह माह वसायुक्त भोजन कर शारीरिक श्रम बंद करके अपना वजन बढ़ाते हैं। इस जनजाति में, मोटा होना बहुत आकर्षक माना जाता है और इसलिए महिलाएँ भी संभावित पतियों की तलाश के लिए इस उद्देश्य से आयोजित एक समारोह का उपयोग करती हैं


कारा एक अर्ध-खानाबदोश जनजाति है, कारा पहले चरवाहे थे जो मवेशियों पर निर्भर थे, बाद में परिस्थितियों वश उन्होंने मकई, सेम और कद्दू उगाने के लिए कृषि तकनीक विकसित की।   उनके पास मछली पकड़ने का एक अनूठा तरीका भी है, जिसमें मछलियों को छेदने के लिए लंबे भाले का इस्तेमाल किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि केवल अविवाहित युवा पुरुष ही मछली पकड़ सकते हैं, और उन्हें बाद में शुद्धिकरण अनुष्ठान करना होगा क्योंकि मछली पकड़ना पहले वर्जित माना जाता था।


इनके गांव शंकु के आकार की झोपड़ियों से बने हैं, जो लकड़ी के खंभों को आपस में बुनकर बनाई गई हैं और मिट्टी से ढकी हुई हैं, और छतें पुआल की हैं। झोपड़ियों में लकड़ी के खंभों से बने 'दरवाजे' हैं, जहाँ वे घर के प्रतीकात्मक प्रवेश द्वार के रूप में भैंस के कान या खुर जैसी वस्तुएँ लटकाते हैं। कपड़े साधारण होते हैं। केश सज्जा कारा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें पुरुषों के बालों को लट में बांधा जाता है, रंगा जाता है और मोतियों, पंखों और फूलों से भिन्न शैलियों में सजाया जाता है।

कारा अपने शरीर को सफेद चाक, काले कोयले और पीले और लाल खनिजों का उपयोग करके डिज़ाइनों से रंगते हैं। वे निशान बनाने की प्रथा भी अपनाते हैं, जिसमें त्वचा को जानबूझकर काटा जाता है ताकि एक उभरा हुआ निशान प्रभाव पैदा हो जो महिलाओं के लिए एक सौंदर्य अपील के रूप में देखा जाता है, और पुरुषों की उपलब्धियों का संकेत देता है जैसे कि किसी दुश्मन या खतरनाक जानवर को मारना।


ओमो घाटी की अधिकांश जनजातियों में  कपड़े और अलंकरण महत्वपूर्ण सांस्कृतिक मूल्य रखते हैं। महिलाओं के लिए, सामाजिक स्थिति उनके द्वारा पहने जाने वाले मोतियों के हार की संख्या और रंग से प्रदर्शित होती है, लड़कियों को उनका पहला हार उनके पिता द्वारा दिया जाता है और फिर हर साल नए जुड़ते जाते हैं, जिन्हें कभी नहीं उतारा जाता है।  पुरुषों के लिए, नुकीले धातु के छल्ले और कटे हुए किनारों वाले कंगन रक्षात्मक हथियार के रूप में उपयोग के लिए पहने जाते हैं, और निशान योद्धा के रूप में उनकी उपलब्धियों को दर्शाते हैं। 


हमारे ट्रैवल विलोगरों के हम जैसे दर्शक हमेशा शुक्रगुजार रहेंगे जिनकी बदौलत घर बैठे इस अनोखी दुनिया के लोगों, रीति रिवाजों और जीवन शैली को जानने समझने का मौका मिल जाता है। शुभकामनाएं है कि वे खूब यात्राएं करें, उनके कैमरों से हमें नई दृष्टि और रचनात्मक समझ भी मिलती रहे। 


ब्रजेश कानूनगो

Sunday, 20 April 2025

पर्यटन क्षेत्रों के बाद लोक परिवहन में केबल कार प्रणाली

पर्यटन क्षेत्रों के बाद लोक परिवहन में केबल कार प्रणाली

पिछले दिनों नोमेडिक टूर यूट्यूब चैनल के तोरवशु का एक ट्रैवल विलॉग देखा जिसमें वे दक्षिण अमेरिका के बोलिविया देश के कैपिटल टाउन ला पॉज  में घूम रहे थे, वहां के दृश्यों को निहार रहे थे।  यह दुनिया के समुद्र तल से लगभग चार हजार मीटर ऊपर  बसे शहरों में पहले नंबर पर है।  


बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, यहाँ की एक केबल कार लाइन हर 24 घंटे में 65,000 लोगों को ले जाती है। ला पाज़ में दुनिया की सबसे लंबी मेट्रो केबल कार प्रणाली है, जो 16 किलोमीटर से अधिक लंबी है। 


इस केबल प्रणाली का संजाल कोई आठ नौ लाइनों के जरिए फैला हुआ है। हर लाइन की कारों का अपना अलग रंग है, हर लाइन का अपना अलग रंग है। कोई ब्लू लाइन है तो कोई रेड लाइन, येलो, ग्रीन लाइन आदि।  शहर के आसमान में हवा में तारों पर केबल कारों का एक पूरा नेटवर्क चलता है जिस पर हजारों यात्री एक स्थान से दूसरे स्थान आते जाते हैं। मेट्रो ट्रेन स्टेशनों की तरह इन लाइनों पर कई आधुनिक सुविधाओं से सज्जित साफ सुथरे जंक्शन स्टेशन हैं।   


यह शहर पहाड़ों से घिरा हुआ है ,चारों तरफ  बड़ा सौंदर्य बिखरा पड़ा है। पहाड़ों से घिरे इस दुर्गम शहर में मेट्रो रेल चलाना संभव नहीं था, तो वहां इस केबल कार नेटवर्क का विचार आया था तब दुनिया की यह सबसे और लंबी केबल प्रणाली अस्तित्व में आई।  तोरवाशु के ट्रैवल वीडियो को देखकर बड़ा आनंद आया। हमें लगा कि पर्यटन और परिवहन में उपयोगी इस प्रणाली के बारे में थोड़ी और जानकारी प्राप्त करना दिलचस्प होगा। 


पर्यटन क्षेत्र के साथ साथ अब शहरी परिवहन के लिए यह प्रणाली एक बहुत लोकप्रिय साधन के रूप में उभर रही है। केबल कारें शहरी परिवहन के एक लोकप्रिय साधन के रूप में उभरी हैं, और कई शहरों में अब इनकी अपनी प्रणाली है, उदाहरण के लिए, मेडेलिन (कोलंबिया), जेरूसलम (इजराइल), तस्मानिया (ऑस्ट्रेलिया), गोथेनबर्ग (स्वीडन), मोम्बासा (केन्या), और शिकागो (संयुक्त राज्य अमेरिका) में केबल कारें या उनके लिए योजनाएं चल रही हैं। 


केबल कारें न केवल परिवहन का एक सुगम साधन हैं, बल्कि वे पर्यटकों के लिए आनंददायी और दिलकश आकर्षण भी हैं। वे अक्सर शानदार प्राकृतिक दृश्यों के साथ एक अद्वितीय अनुभव प्रदान करती हैं, जैसे कि ला पाज़ में केबल कार प्रणाली, जो शहर और आसपास के पहाड़ों के अद्भुत दृश्य प्रदान करती है। 


कई जगह अनेक निजी केबल कार प्रणालियाँ भी अस्तित्व में आती गई हैं मसलन दुबई में पाम जुमेराह मोनोरेल दुबई के तटीय इलाके में स्थित एक निजी केबल कार प्रणाली है। लास वेगास, यूएसए में स्थित लास वेगास एरियल ट्रामवे एक अन्य प्रमुख केबल कार प्रणाली है। स्विट्जरलैंड में मैटरहॉर्न ग्लेशियर राइड एक प्रसिद्ध केबल कार प्रणाली है जो पर्यटकों को आकर्षित करती है। हांगकांग में ओशिनिया केबल कार एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। कुछ शहरों में शहरी परिवहन के लिए केबल कार प्रणालियों का उपयोग किया जाता है, जैसे कि पुर्तगाल में लिस्बन केबल कार।


ये प्रणालियाँ शहरों और पहाड़ी क्षेत्रों में विशेष रूप से उपयोगी होती हैं जहां पारंपरिक परिवहन प्रणालियों का उपयोग करना मुश्किल हो जाता है। यही कारण है कि भविष्य में इन प्रणालियों का विकास देखा जा रहा है। शहरी गतिशीलता में सुधार और पर्यटन को बढ़ावा मिलने का रास्ता आसान हो रहा है।  


विश्व में कई शहरों में अब इसकी अपनी अपनी प्रणालियाँ हैं।  कोलंबिया, जेरूसलम इज़राइल, तस्मानिया ऑस्ट्रेलिया, मोंबासा केन्या और शिकागो संयुक्त राज्य अमेरिका में इन केबल कारों के लिए कई बड़ी-बड़ी योजनाएं चल रही हैं।  


भारत में, पर्यटन स्थलों तक पहुँच के लिए रोपवे (रोपवे) का उपयोग बढ़ रहा है। मेरे गृह नगर देवास में बहुत दिनों का सपना था कि यहां रोप  वे बनाया जाए, देवास टेकरी जो केवल 300 मीटर ऊंची है, ऊपर मंदिरों तक पहुंचाने के लिए अब रोप वे और केबल कारों की सुविधा उपलब्ध हो गई है। मैहर की माताजी है, मनसा देवी सहित कई धार्मिक तीर्थ स्थल हैं जहां श्रमसाध्य चढ़ाई की बजाए श्रद्धालुओं, दर्शनार्थियों को आसानी हो गई है।  दार्जिलिंग के रंगीत वैली पैसेंजर रोपवे, जिसे दार्जिलिंग रोपवे के नाम से भी जाना जाता है, भारत का सबसे पुराना और सबसे प्रसिद्ध रोपवे है। यह समुद्र तल से 7,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और यात्रियों को दार्जिलिंग और आसपास के इलाकों का एक अद्भुत दृश्य प्रदान करता है। इसके अलावा, अन्य पहाड़ी पर्यटन स्थलों में भी रोपवे मौजूद हैं, जैसे कि गुलमर्ग (कश्मीर) में दो-स्टेज गोंडोला और शिमला में रोपवे।उत्तराखंड के ओली,  वैष्णो देवी जम्मू कश्मीर, और शिमला हिमाचल प्रदेश में यह बहुत सफल,पुरानी और बहुत लोकप्रिय केबल प्रणाली सिद्ध हुई है।  सबसे उल्लेखनीय पक्ष इस प्रणाली का यह है कि  इसमें कार्बन का उत्सर्जन बहुत कम होता है तो यह पर्यावरण हितैषी है, अन्य साधनों की बजाए यह कम खर्चीली  और सुगम है। दो स्थानों की दूरी भी कम हो जाती है क्योंकि अन्य रास्ते घुमावदार और लंबे हो जाते हैं। 


आगे की केबल प्रणाली योजनाओं के बारे में बात करें तो सरकार द्वारा ' पर्वतमाला परियोजना ' के तहत कई रोपवे परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है, जिनमें केदारनाथ, माता वैष्णो देवी और शंकराचार्य मंदिर जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक और पर्यटन स्थल शामिल हैं। इन परियोजनाओं का उद्देश्य है तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए यात्रा को आसान और सुरक्षित बनाना है।  सोनप्रयाग-केदारनाथ रोपवे लगभग 12.9 किलोमीटर लंबा रोपवे त्रिकुटी तकनीक से बनाया जाएगा और इसकी क्षमता प्रति घंटे प्रति दिशा में 1,800 यात्रियों की होगी। आमेर किला-नाहरगढ़ किला रोपवे जो 6.45 किलोमीटर लंबा  होगा राजस्थान में आमेर किले को नाहरगढ़ किले से जोड़ेगा। सोनमर्ग-थजीवास ग्लेशियर रोपवे 1.6 किलोमीटर लंबा होगा जो जम्मू-कश्मीर में सोनमर्ग को थजीवास ग्लेशियर से जोड़ेगा। मसूरी-केम्प्टी फॉल्स रोपवे 3.21 किलोमीटर लंबा रहेगा उत्तराखंड में मसूरी को केम्प्टी फॉल्स से जोड़ेगा। 


इसके अलावा भी कई अन्य योजनाएं भी है जिनमें गंगटोक रोपवे सिक्किम में स्थित यह रोपवे कंचनजंगा पर्वत का अद्भुत दृश्य प्रदान करता है। मनाली रोपवे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू मनाली में स्थित है। वैष्णो देवी रोपवे जम्मू-कश्मीर में स्थित है। वाराणसी रोपवे उत्तर प्रदेश के वाराणसी में यह पहली शहरी सार्वजनिक परिवहन रोपवे परियोजना है। 


कुछ समय पूर्व ही पढ़ने में आया था कि मध्यप्रदेश के हमारे शहर इंदौर में भी शहर की घनी बस्तियों के ऊपर से रोप वे अर्थात केबल नेटवर्क शुरू करके परिवहन को सुगम बनाने की योजना पर विचार किया जा रहा है। यद्यपि यहां अभी देश की श्रेष्ठ सिटी बस सेवा के अलावा मेट्रो ट्रेन का चरणबद्ध निर्माण भी गति पर है। लेकिन भविष्य में केबल कार को धरातल पर लाने की इस पर्यावरण हितैषी पहल का स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए। 


ब्रजेश कानूनगो

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान  पिछले दिनों हुए घटनाक्रम ने लोगों का ध्यान परमाणु ऊर्जा के विनाशकारी खतरों की ओर आकर्षित किया है...