Saturday, 12 October 2024

समुद्र में डूबते देश की अर्थ व्यवस्था का आधार

समुद्र में डूबते देश की अर्थ व्यवस्था का आधार


किसी भी देश का जनजीवन और लोगों की खुशहाली वहां की अर्थव्यवस्था पर निर्भर करती है। यद्यपि प्रति व्यक्ति आय जैसे आंकड़े का भी बहुत महत्व होता है बल्कि कुछ अधिक ही होता है। सकल घरेलू आय का समान वितरण आबादी के बीच समान रूप से नही होने से समाज में निर्धन और संपन्न वर्गों के खांचे बन जाते हैं तो बड़े देशों में खुशहाली में भी असमानता दिखाई देती है।  लेकिन जब देश बहुत छोटे हों तो अमीरी  गरीबी के बीच की यह खाई उतनी गहरी दिखाई नहीं दे पाती। जिनकी अर्थव्यस्था कमजोर है तो गरीब होते ही हैं। जिन छोटे देशों की अर्थ व्यवस्था बेहतर होगी तो लोगों में खुशहाली भी बेहतर हो जाती है।
यदि क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व के चार सबसे छोटे देशों की बात करें तो मात्र 0.44 वर्ग किलोमीटर वाला वेटिकन सिटी सबसे छोटा देश है, इसके बाद मीनाको 2.10 वर्ग किलोमीटर, नाउरू 21 वर्ग किलो मीटर के बाद तुवालू 26 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ चौथा सबसे छोटा देश है। तुवालू की अर्थ व्यवस्था में जिस चीज का महत्वपूर्ण योगदान है वह हमारी सामान्य समझ को चौंका देती है।

तुवालु दक्षिण प्रशांत महासागर में नौ छोटे द्वीपों का एक समूह है, जिसने 1978 में यूनाइटेड किंगडम से स्वतंत्रता प्राप्त की थी। इनमें से पांच द्वीप प्रवाल द्वीप हैं, जबकि अन्य चार समुद्र तल से ऊपर उठी भूमि से बने हैं। पूर्व में एलिस द्वीप के नाम से जाने जाने वाले ये सभी द्वीप निचले इलाके में हैं, और तुवालु की समुद्र तल से ऊंचाई 4.5 मीटर से अधिक नहीं है। ग्लोबल वार्मिक के कारण समुद्र का जल स्तर ऊपर उठ रहा है, ऐसे में यह खतरा भी यहां पैदा हुआ है कि कुछ ही वर्षों बाद ये द्वीप डूबकर विलुप्त हो सकते हैं। ट्रेवल व्लॉगरों को तुवालू की यात्रा करने में काफी दिलचस्पी रहती है। पिछले दिनों पैसेंजर परमवीर और डॉक्टर यात्री व्लाग के परमवीर और नवांकुर के यूट्यूब वीडियो हमने देखे और यहां के जनजीवन को जाना समझा है।

तुवालू की राजधानी फुनाफ़ुटि है जहां एक मात्र अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है जहां प्रति सप्ताह दो तीन फ्लाइट का संचालन होता है, एयर कनेक्टिविटी केवल फिजी के जरिए ही होती है। बाकी समय यहां के रन वे का उपयोग खेल के मैदान के रूप में होता है। बच्चे और अन्य लोग इसका आनंद उठाते हैं। परिवहन के रूप में एक सिरे से दूसरे सिरे तक बस सड़क बनी हुई है, लोग पैदल ही यात्रा कर लेते हैं, कुछ दुपहिया वाहन भी हैं। सरकारी अधिकारियों के पास कुछ कारें भी हैं किंतु उनका उपयोग बहुत कम किया जाता है। यहां की आबादी ही केवल 11,500 है जो 26 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैली है तो यहाँ की आवश्यकताओं को आसानी से समझा जा सकता है।
हमने देखा कि इन द्वीपों पर जीवन सरल किंतु बहुत कठिन होता है। यहां कोई नदी या अन्य जल स्रोत नहीं हैं, इसलिए बारिश के पानी के संग्रहण से ही लोगों का काम चलता है। नारियल तथा ताड़ के पेड़ ज़्यादातर द्वीपों पर फैले हुए हैं, खोपरा,सूखे नारियल की गिरी आदि ही व्यावहारिक रूप से निर्यात करने योग्य उपज है। यहां की मिट्टी में बढ़ती हुई लवणता के कारण पारंपरिक खेती करना जोखिमपूर्ण है।

तुवालू ने आय के अन्य नवोन्मेषी स्रोत का दोहन करके चतुराई दिखाई है। हम सब जानते हैं कि आधुनिक विश्व एक ग्लोबल समाज बन गया है, जिसकी सारी संरचनाएं, एकजुटता इंटरनेट जैसी आधुनिकतम तकनीक पर निर्भर है। दुनिया की रक्तवाहिनियों में इंटरनेट के प्रवाह से धड़कने बनी हुई हैं। हर संस्था, कंपनी,व्यक्ति या सरकारों की अपनी अलग अलग वेब साइट होती हैं, जो अपने डोमेन के जरिए अंतरराष्ट्रीय रूप से संजाल से जुड़ पाती हैं। ईमेल, वेब सर्च और अन्य कई गतिविधियों के लिए टॉप लेवल डोमेन बनाया जाता है। यह वह हिस्सा होता है जो डोमेन नेम के बिलकुल आखिर में होता है। जिसे हम डॉट कॉम या डॉट इन आदि से जानते हैं।

डॉट कॉम का मतलब होता है यह वेब साइट कमर्शियल उपयोग के लिए है। डॉट ओआरजी का मतलब है यह संस्थागत वेब साइट है।  डॉट जीओवी का मतलब है यह गवर्नमेंट साइट है।
इसी तरह देश का कोड भी होता है। कंट्री कोड टॉप लेवल डोमेन। इससे पता चल जाता है कि यह किस देश का डोमेन है। जैसे भारत के लिए डॉट इन, अमेरिका के लिए डॉट यू एस और ब्रिटेन के लिए डॉट यू के। इसी तरह तुवालू का डोमेन बनता है डॉट टीवी।  जोकि टेलीविजन शब्द का लघु रूप हो जाने से महत्वपूर्ण हो गया है। तुवालू में न तो इंटरनेट है न ही ऑनलाइन कोई संरचना, उसने अपने इंटरनेट कंट्री कोड डोमेन डॉट टीवी को (.tv ) कैलिफोर्निया की एक कंपनी को कई मिलियन डॉलर प्रति वर्ष की निरंतर आय के लिए बेच दिया है। कंपनी इस डोमेन को टेलीविजन प्रसारकों को बेचती है। तुवालू की आय का यह बड़ा स्रोत बन गया है। तुवालू की अर्थ व्यवस्था का यही वह राज है जिससे वहां का जीवन थोड़ा सुगम हुआ है। 

द्वीप के डूबने के खतरे को लेकर ऑस्ट्रेलिया सरकार ने बड़े उपाय किए हैं, अपने यहां तुवालू के नागरिकों को बसने के लिए काफी सुविधाएं और स्थान उपलब्ध कराने के बहुतेरे प्रयास जारी हैं।
तुवालू के बारे में इतनी अनजानी जानकारी जुटाने की प्रेरणा में यूट्यूब के ट्रेवल व्लॉगरों के योगदान को हम भुला नहीं सकते। किताबों की तरह घुमक्कड़ों के कैमरों से दुनिया को देखने का भी अपना एक सुख है। 

ब्रजेश कानूनगो    

Tuesday, 1 October 2024

हाट बाजार में घुमक्कड़

हाट बाजार में घुमक्कड़


गत दिनों हमने नोमेडिक टूर व्लॉग में तोरवशु के एक यात्रा वीडियो को देखा। इसमें वह सूरीनाम देश में यात्रा कर रहे हैं। और भी कई ट्रेवलर्स और घुमक्कड़ों ने इस देश की यात्राएं की है। 
सुरीनाम  दक्षिण अमरीका महाद्वीप के उत्तर में स्थित एक गणराज्य है। सूरीनाम के पूर्व में फ्रेंच गुयाना और पश्चिमी गयाना स्थित है। देश की दक्षिणी सीमा ब्राज़ील और उत्तरी सीमा अंध महासागर से मिलती है।  यह देश दक्षिण अमरीका में क्षेत्रफल और आबादी की दृष्टि से सबसे छोटा संप्रभु देश है। यह पश्चिमी गोलार्ध पर एकलौता डच भाषी क्षेत्र है, जो नीदरलैंड साम्राज्य का हिस्सा नहीं रहा है। सूरीनाम का समाज बहुसांस्कृतिक है, जिसमें अलग-अलग जाति,भाषा और धर्म वाले लोग निवास करते हैं। बरसों पहले दक्षिणी एशिया के देशों से खासतौर से भारत से कई लोगों को मजदूरी के लिए  यहां लाया गया था, वे यहां बसे तो उनकी अनेक पीढ़ियां यहां की होकर रह गईं किंतु उनमें भारत की संस्कृति, परंपराएं और भाषाएं भी बनी रहीं। यद्यपि स्थानीयता का थोड़ा प्रभाव तो बढ़ता गया। 

तोरवशु के वीडियो में हम देखते हैं कि जब वे एक स्थानीय बस में बैठते हैं तो उस बस पर भारतीय देवी देवताओं के चित्र और उनके प्रति श्रद्धा के पद लिखे होते हैं। जय शिवशंकर, हर हर महादेव के अलावा बस कंपनियों के नाम भी इसी तरह के लिखे दिखाई देते हैं। इसके अलावा कई यात्री बसों के आगे बॉलीवुड के कलाकारों के चित्र भी खूबसूरती से पेंट किए नजर आते हैं। ड्राइवर और यात्री हिंदी फिल्मों के पुराने गाने तोरवशु को सुनाने लगते हैं।  हमने देखा कि वहां हिंदुस्तानी लोग जो बरसों पहले भारत से गए थे उनकी संतानों में आज भी भारतीयता नजर आती है, वे लोग अपने मूल स्थान को भारत जाकर देखना चाहते हैं, जहां उनकी कभी जड़ें रही होंगी।  ज्यादातर घुमक्कड़ स्थानीय बाजारों में घूमना फिरना, खरीददारी करना बहुत पसंद करते हैं। चाहे दीपांशु सांगवान हो या दावूद अखुनजादा, यह लोग वहां के स्थानीय सब्जी बाजार में अवश्य जाते हैं। दुकानदारों और ग्राहकों से दिलचस्प बातचीत करते हैं। तोरवशु भी ऐसे ही एक बाजार में घूमते हैं, सब्जी विक्रेताओं से बातचीत करते हैं, भारत के बारे में पूछते हैं।  बहुत दिलचस्प है इसको देखना। उनकी सांस्कृतिक, धार्मिक परंपराओं और राजनीतिक चेतना देख सुनकर हमें बहुत सुख मिलता है।  

अनेक व्लागर्स के हमने बाजार भ्रमण के कई विडियोज देखें हैं, यूरोप, अरब देशों, अफगानिस्तान आदि के पारंपरिक बाजारों को देखना अद्भुत होता है। पूर्व सोवियत देशों और पश्चिम देशों के शीतकालीन बाजारों की विशिष्ठता भी बहुत अलग तरह से मुग्ध करती है। लेकिन  हम यहां उन हाट बाजारों पर अपनी बात केंद्रित रखना चाहते हैं जिनकी दक्षिण एशियाई देशों में खास पहचान और महत्व होता है। कुछ इसी तरह के हाट बाजार हमने अफ्रीका के कुछ देशों में भी कुछ व्लागर्स के माध्यम से देखे हैं जो आदिवासी इलाकों के गांवों और कस्बों में लगते हैं। उनके दृश्य देखकर हमें अपने 50 साल पुराने भारत के ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों की याद आ जाती है। तंजानिया, युगांडा,केन्या,नाइजीरिया आदि जैसे अनेक देशों के ग्रामीण और परंपरागत बाजारों के नजारे ठीक    हाट बाजारों की तरह ही होते हैं। 
इसी तरह हमने ताइवान के कुछ वीडियो भी देखे हैं।  वहां के लोकल किस तरह से सब्जी उगाते हैं, उसकी देखभाल करते हैं, ग्राहकों को विक्रय हेतु तैयार करते हैं, बाजार ले जाते हैं, ज्यादातर देशों में हम इन बाजारों पर महिलाओं का आधिपत्य देखते हैं। हाट बाजारों का अधिकतम कामकाज महिलाएं संभालती हैं। हमारे देश के उत्तर पूर्वी याने सेवन सिस्टर राज्यों में यह सहजता से देखा जा सकता है। नोमेडिक इंडियन के दीपांशु सांगवान के विडियोज के साथ हमने इन क्षेत्रों का खूब आनंद लिया है। 

जो हम बचपन से देखते आए उससे कहा जा सकता है कि गांवों और कस्बों में लगने वाले स्थानीय बाज़ार को हाट बाज़ार कहते हैं। यहां सब्ज़ी, फल, खाद्यान्न, और परचून सामग्री मिलती है। गाँव के लोगों की रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करने में हाट बाज़ार की अहम भूमिका होती है। कुछ दैनिक तो कुछ बाजार साप्ताहिक रूप से भरते हैं, अब हम हमारे शहर की बात करें तो हमारे यहां एक सोमवारिया हाट लगता था, इसी तरह शुक्रवार के दिन किसी और जगह पर हाट भरता था, दिन के आधार पर ही इन हाटों का नाम ख्यात हो जाता है। दिल्ली जैसे महानगर में जनकपुरी की सड़कों पर हमने इसी तरह का शनिवारी बाजार लगते देखा है। उस दिन वहां जाम जैसा लग जाता है, लेकिन उसका भी अपना आनंद है।
  
बहुत से बाजारों में सेकंड हैंड सामान की दुकानें लगती हैं, इन बाजारों को दक्षिण एशिया में, टर्मिनल बाज़ार या सेकेंड हैंड सामान का बाज़ार , लांडा बाज़ार भी कहते हैं। गैर लाभकारी संस्थानों के उत्पादों या सेवा कार्यों को रेखांकित करने के लिए जो प्रदर्शनी लगती है उसे मीना बाज़ार कहा जाता है लेकिन हाट बाजार की झलक भी इन मीनाबाजारों में मिल जाती है। मलेशिया, इंडोनेशिया और सिंगापुर जैसे कुछ देशों में शाम को खुलने वाले रात्रि कालीन बाज़ार को पासार मालम कहते हैं। सुबह के बाजारों को  पासार पागी कहते हैं। ये आमतौर पर आवासीय इलाकों की सड़कों पर लगते हैं, खाने पीने के भी स्टाल लगते हैं। सुबह से दोपहर तक इनमें खरीदारी की जा सकती है। कई बार बाजारों की सड़कें वाहनों के आवागमन के लिए बंद रहती हैं। 

कुछ हाटबाजार विशेष अवसरों और पर्वों पर भी लगते हैं। कुछ हाट गांवों और आदिवासी क्षेत्रों में भी होते हैं जिनका काफी सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व होता है, ये कई पुरानी परंपराओं और रीति रिवाज का हिस्सा बन चुके होते हैं। जैसे हमारे मध्य प्रदेश में झाबुआ जिले में होली के अवसर पर लगने वाले हर्षोल्लास से परिपूर्ण भगोरिया हाट।  इन हाटों मेलों में आदिवासियों के रिश्ते बनते हैं। ऐसे ही पर्वों पर लगने वाले हाट बाजार और मेले जिन्हे जतरा भी बोला जाता है पर्यटकों की खास रुचि का हिस्सा बन जाते हैं।  मध्य प्रदेश के देवास शहर में  आषाढ़ी पूर्णिमा पर तीन दिवसीय मेला या जतरा लगती है जिसमे आसपास के ग्रामीण स्त्री पुरुष, बच्चे बड़े उत्साह से शामिल होकर आनंद उठाते हैं। मेले की यह सतरंगी छटा और गहमा गहमी देखते ही बनती है।  कहीं शिवरात्रि पर लगता है तो कहीं दशहरे पर। ये मेले भी कहीं न कहीं ग्रामीण हाट का ही विस्तृत रूप होते हैं। 

अब इन बाजारों का महत्व सरकारों द्वारा भी समझ लिया गया है और इनका उपयोग क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए भी होने लगा है। हाट बाजारों का अपना सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक महत्व है।  सरकारों ने अपनी गतिविधियों को भी जोड़ दिया है।  मेलों  में आसपास के ग्रामीण लोग एक साथ इकट्ठा होते हैं, अपने परंपरागत परिधानों में आते हैं, वहां लोक कलाएं, लोकगीत के आयोजन होते हैं।   हाट बाजारों में हर समाज के हर क्षेत्र के हर वर्ग के ग्रामीण लोग, स्थानीय लोग, आसपास के लोग एक दूसरे के संपर्क में आते हैं। व्यापारी किसान से मिल रहा है, किसान दिहाड़ी मजदूर से। शिल्पकार, कारीगर, श्रमिक, पुजारी, शिक्षक, सरकारी आदमी, पटवारी सब एक दूसरे से मिल रहे हैं। पशुपालक है यहां तो पशु चिकित्सक भी मिल जाता है।  सामाजिक समरसता और एकजुटता की राह इधर से बनने की गुजाईश निर्मित होती है। 

स्थानीय व्यापारियों, छोटे दुकानदारों, किसानों के बीच खरीद बेच से स्थानीय स्तर पर पूंजी का प्रवाह स्थानीय समाज में ही होता है। यहीं की अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ होने में आसानी होने लगती है। स्थानीय हुनरमंद कलाकारों ,उद्यमियों, बुनकरों, शिल्पकारों कारीगरों को स्थानीय स्तर पर बाजार उपलब्ध हो पाता है।  इस तर्ज पर अब शिल्पग्राम, क्राफ्ट बाजार, हाथ कराघा बाजार, बांस की टोकरियों बनाने वाले लोगों के उत्पादों, लोहे के शिल्प और औजार  बनाने वालों के उद्योगों को भी इन हाट बाजार के जरिए महत्व दिया जा रहा है। 

हमारे देश में स्वयं सहायता समूह अवधारणा का जो व्यापक माध्यम आया है, जिसमें समूह बनाकर ग्रामीण महिलाएं अपनी उत्पाद गतिविधियों में जुटी हैं, विशेष कर ग्रामीण महिलाओं के समूह है जो गृह उद्योगों में आगे बढ़ी हैं, मसलन मसाला उद्योग, लघु उद्योग में प्रोडक्ट बनाती हैं, साबुन, अगरबत्ती या अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं, इन सब चीजो के विक्रय के लिए इन बाजारों का भी उपयोग होने लगा है।   कहीं कहीं इनके लिए  अलग से हाट बाजार बनाए गए हैं, सुविधाएं दी गई हैं। हाट बाजार का एक अपना अलग महत्व होता है और एक तरह से देखा जाए तो सारे ही बाजार एक दूसरे पर अब निर्भर करते हैं।  
 
दुनिया के विभिन्न बाजारों को घुमंतुओं के यूट्यूब वीडियो में देखने पर एक अलग ही आनंद आता है। हमे लगता है दुनिया को घर बैठे देखने का यह भी एक अच्छा तरीका हो सकता है।  विचार करें! 

ब्रजेश कानूनगो 

Tuesday, 24 September 2024

क्यों होता है ऐसा अनजान पर्यटकों के साथ

क्यों होता है ऐसा अनजान पर्यटकों के साथ

जब मैंने जीवन में पहली बार अकेले लंबी यात्रा की थी, उस यात्रा का एक कटु अनुभव मेरे भीतर अभी तक बसा हुआ है। जब तब वह मुझे दुखी करता रहता है। खासतौर से घुमक्कड़ों के ट्रेवल वीडियो देखते हुए जब उनके साथ कोई स्कैम होता देखता हूं, अपना वह बुरा अनुभव पुनः मन को खिन्न बना जाता है। मैं सोचता हूं कि काश मेरे साथ वैसा ना हुआ होता , उस वक्त मेरे किशोर उम्र मन पर जो गहरी छाप अंकित हो गई थी वह अब तक कायम है, अफसोस है समय की धारा भी उसे धो नहीं सकी।  

वर्ष 1977 के आसपास की बात है, हमारी पढ़ाई समाप्त हुई ही थी।  हमने यह सोच कर एमएससी कर लिया था कि हमारे नगर के आसपास बड़े पैमाने पर औद्योगिकरण हो रहा था, नए-नए संस्थान खुल रहे थे, नौकरी मिलने की संभावनाएं बनने लगीं थीं। अगर हम केमिस्ट्री में एमएससी कर लेते हैं तो हमें तुरंत कहीं ना कहीं किसी फैक्ट्री में, किसी प्रयोगशाला में नौकरी मिल जाएगी।  एमएससी तो हो गया था उसका परिणाम नहीं आया था फाइनल ईयर का।  लेकिन डाक तार विभाग में उन दिनों मैट्रिक और हायर सेकेंडरी के अंकों के आधार पर चयन नौकरी के लिए हो जाया करता था। हमारे अंक अच्छे ही आते थे परीक्षाओं में, मैट्रिक और हायर सेकेंडरी में भी जिले में प्रथम विद्यार्थियों में रहे थे। अंकों के आधार पर हमारा चयन हो गया और एमएससी का परिणाम आने के पहले ही हमको डाक विभाग में क्लर्क के पद के लिए चुन लिया गया।  प्रशिक्षण के लिए हमें उत्तर प्रदेश के सहारनपुर प्रशिक्षण केंद्र पर जाना था तीन महीनों के लिए। वहां एक बहुत बड़ा प्रशिक्षण केंद्र हुआ करता था जो सहारनपुर शहर से थोड़ा ग्रामीण क्षेत्र में दूर स्थित था, यह परिसर संभवतः पहले सैन्य विभाग के पास रहा था तो वहां उसी तरह का अनुशासन होता था। अब तो बहुत बदल गया होगा , हमने तो फिर पीछे मुड़ के देखा ही नहीं।  बहरहाल 3 महीने का हमारा प्रशिक्षण होना था, उसके बाद पोस्टिंग होनी थी।  हम कभी घर से निकले नहीं थे मात्र 21 बरस की हमारी उम्र थी, पहली अकेले लंबी रेल यात्रा थी, इंदौर से सहारनपुर तक की। 

लेकिन जो मैं बताना चाहता हूं वह सहारनपुर स्टेशन पर उतरने के बाद का प्रसंग है। हमने एक ऑटो रिक्शा लिया, उसको बताया कि हमको ट्रेनिंग सेंटर पर पहुंचा दे,  कितने पैसे लेंगे, हमको तो यह भी पता नहीं था कि कितने लगते हैं, कितना किराया होता है, उसने हमको जो बताया हम तैयार हो गए। ट्रेनिंग सेंटर बहुत दूर था, शहर से काफी दूर था, हमको कुछ भी पता नहीं था। उस समय ना तो कोई गूगल मैप होता था ना कोई ऐसी जानकारी लेकर घर से निकले थे। नौकरी मिल जाने की ख़ुशी में हम बस निकल गए थे। रिक्शा हमने बुक कर लिया और उसमें बैठ गए डरते डरते। सुन भी रखा था कि यह क्षेत्र बड़ा बदनाम है, और यहां लूट पाट की बड़ी घटनाएं होती रहती हैं।  शहर से बाहर निकलते ही हाइवे जैसा मार्ग आया तो रिक्शा वाले ने रिक्शा से उतारकर पूरा किराया वसूल करने के बाद कहा कि अब आप यहां से कोई अन्य सवारी ले लें।  राजा बाबू टाइप जीवन रहा था हमारा, दुनियादारी कुछ समझते नहीं थे, अब क्या करें, भीतर ही भीतर हम घबराते रहे। 

पता नहीं रिक्शा वाले पर हमारी परेशान शक्ल का असर हुआ या हमारी मासूमियत के कारण थोड़ी बहुत दया आ गई।  तो उसने हाइवे पर गुजर रही एक बैल गाड़ी को रुकवा कर उससे कुछ बात की। बैलगाड़ी में बोरियां लदी थीं और गाड़ी में कार के टायर लगे थे, एक ऊंचा पूरा मजबूत बैल उसे खींच रहा था। उसने गाड़ीवान को कहा कि इस लड़के को वह ट्रेनिंग सेंटर छोड़ दे। मान गया बैलगाड़ी वाला, जो सामान लेकर शहर से बाहर किसी गांव में जा रहा होगा।  उस गाड़ी पर हम सवार हो गए।  रास्ते में उस गाड़ी वाले ने बताया कि यहां इसी तरह से बाहर से आने वालों को परेशान किया जाता है। रिक्शा वाले ने भी दो तीन गुना किराया मुझसे वसूल कर लिया था। बैलगाड़ी वाले ने रास्ते में पड़ने वाले ट्रेनिंग सेंटर के गेट पर हमे उतार दिया। थोड़ी सी राशि उसे भी हमने देने की कोशिश की किंतु वह लेने को राजी नहीं हुआ। 

यह वही घटना थी जिसमे रिक्शा चालक ने गंतव्य तक के पूरे पैसे लेकर वहां तक पहुंचाने का वादा किया था, उसने हमारे साथ धोखा किया था, पर्यटकों की आज की भाषा में मेरे साथ स्कैम हुआ था। आज तक नहीं भूल पाया हूं और मुझे लगता है कि यह लोग अजनबी और मासूम  यात्रियों के साथ ऐसा क्यों करते हैं? थोड़ा सा ख्याल करना चाहिए, उनके साथ हमदर्दी से पेश आना चाहिए। जब भी मैं किसी ट्रैवलर को या विदेशी ब्लॉगर को या अन्य भाषा भाषी ट्रैवलर को किसी दूसरे इलाके में ठगा जाता देखता या मूर्ख बनाए जाते देखता हूं तो बड़ी वेदना और ग्लानि भी महसूस होने लगती है। 

दिल्ली में जो भी ट्रैवलर आते हैं, यहां के बाजारों, स्ट्रीट फूड चौपाटियों, गलियों आदि का खूब मजा लेते हैं। लाल किले के सामने के बाजार और जामा मस्जिद के आसपास के बाजार, चांदनी चौक जैसे इन इलाकों में बहुत रुचि से घूमते हैं और वहां के खान-पान को और वहां की चहल पहल, भीड़ भाड़ को भी एंजॉय करते हैं।  यहां के लोगों से उत्साह से बातचीत करते हैं और बहुत अच्छा चित्रण करते हैं। कनॉट प्लेस पर भी ये लोग बहुत घूमते हैं।

एक वीडियो हमने देखा था पिछले दिनों।  दिल्ली घूमने आया ऐसा ही एक विदेशी पर्यटक खरीददारी कर रहा है और अपने यूट्यूब चैनल के लिए वीडियो बनाते हुए व्लोगिंग भी कर रहा है।

हिंदी में बातचीत करने के लिए उसके पास मात्र कुछ वाक्य हैं। नमस्कार,सलाम वालेकुम,कैसे हो? आपका नाम क्या है? आप कहां से हो? इसके अलावा उसे हिंदी में कुछ समझ नहीं आता। संकेतों और मोबाइल के ट्रांसलेट एप से काम चलाने की कोशिश करता है।  चाय और लस्सी जरूर पीता है बीच बीच में। बहुत आत्मीयता दिखाई देती है स्थानीय लोगों और पर्यटक के बीच। देखते हुए दर्शक भी भाव विह्वल हो उठते हैं। बड़े सुखद दृश्य होते हैं सामने, जब वह हमारी परंपराओं और खान पान में रुचि दिखाता है। मन गदगद हो उठता है।

पर्यटक जानता है कि दिल्ली के बाजारों में मोल भाव (बार्गेनिंग) काफी होता है। पांच छह गुनी कीमत लेकर विदेशी पर्यटक को सामान बेचते हम अपने सामने देखते हैं। फिर भी पर्यटक वह चीजें खरीदता है। कोशिश करता है कम कीमत पर खरीदने की। विराट कोहली जैसी जर्सी खरीदता है, रेबेन ब्रांड जैसा गॉगल और ब्रांडेड जूते भी। सभी कुछ असली नहीं होते, उनकी नकल होते हैं,उसे भी पता है लेकिन खरीदने के लिए खरीददारी करता है। पहनकर घूमता फिरता है। अन्य स्थानीय ग्राहकों से बाद में पूछता है कि इन जूतों की क्या कीमत होगी? आठ हजार रुपयों के जूते उसने मोल भाव के बाद तीन हजार में खुशी खुशी पहन लिए थे। यह जानकर उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है कि जूतों की वास्तविक कीमत मात्र पंद्रह सौ रुपए है। उसके पास अपने काम की खुशी है। स्थानीयता और लोगों को जानने और उनसे संवाद करने का सुख और आनंद है।

नए खरीदे महंगे जूते उसे आरामदायक नहीं लग रहे। एक जगह रुककर फिर से पुराने जूते पहन लेता है। अब वह ठीक से घूमने का मजा ले रहा है। सामने एक मोची दिखाई देता है। वह अपने पुराने जूतों को पॉलिश करवाता है। सौ रुपयों में बिल्कुल नए हो जाते हैं पर्यटक के जूते। हुनरमंद मोची टूटी फूटी अंग्रजी बोलता है। समझ भी लेता है। पर्यटक मजदूरी के सौ रुपए देता है उसे और अपने नए खरीदे जूतों की जोड़ी भी उसी मोची को दे देता है उपहार में। कहता है इनका जो उपयोग करना हो, कर लेना।

इस बीच व्लॉगर पर्यटक के कुछ स्थानीय फोलोवर भी वहां इकट्ठा हो गए होते हैं। एक लड़की अचरज से पूछती है ये नए जूते आपने मोची को क्यों दे दिए? ये तो बहुत महंगे हैं।

वह बोलता है, ये मेरे किसी काम के नहीं हैं अब। इन्हे पहनने के बाद मैं अपना काम ही नहीं कर पा रहा। इनके काम आ जाएंगे। इन्होंने मेरे पुराने जूते सही दाम लेकर नए कर दिए हैं।

नए जूते की खरीददारी में ठगे जाने पर विदेशी पर्यटक को कोई अफसोस नहीं है। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। अपना कैमेरा थामे विडियो बनाता हुआ वह आगे बढ़ जाता है।

टीवी स्क्रीन के सामने बैठा मैं ग्लानि से पानी पानी हो जाता हूं। माथे पर तनाव की लकीरें कुछ और गहरा जाती हैं।

यह विडंबना ही है कि अजनबियों को ठगे जाने की ये घटनाएं वर्षों पहले भी होती थीं और आज इतनी प्रगति और विकास होने के बाद भी हमारी यह प्रवृत्ति बनी हुई है। जरा सोचिए, ऐसा क्यों है? 


ब्रजेश कानूनगो

Friday, 20 September 2024

लॉस्ट चांस टूरिज्म : कितना अंतिम है यह

लॉस्ट चांस टूरिज्म : कितना अंतिम है यह


पयर्टन के क्षेत्र में ' लॉस्ट चांस टूरिज्म ' जैसे नए ट्रेंड के बहाने एक नया रास्ता मिला है। इससे इस उद्योग को नया बाजार भी मिला है। अंतिम अवसर पर्यटन, जिसके तहत यात्री उन स्थलों पर जाते हैं जो बदलते पर्यावरण, क्षरण और जलवायु परिवर्तन के कारण खतरे में हैं। यह एक ऐसी बढ़ती हुई प्रवृत्ति है जिसमें पर्यटक इन स्थानों के संभावित रूप से बदलने या पूरी तरह से गायब होने से पहले इनका दर्शन लाभ उठाने और सैर सपाटे की इच्छा से प्रेरित हुई है। 

जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे इन संवेदनशील स्थानों में पर्यटक की रुचि भी बढ़ती जाती है। इसमें होता है यह है कि टूर प्रबंधन कंपनियां उन स्थानों की पर्यटकों को सैर कराते हैं जो दृश्य या चीजें इस पृथ्वी से या इस दुनिया से गायब होने के खतरों से गुजर रहीं हैं। अब इस गायब होने की अवधि कितनी लंबी होगी इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होगा। यह समय इतना लंबा भी होना संभव है कि हमारी कई पीढ़ियां गुजर जाएं या इतना छोटा भी हो सकता है कि कुछ वर्षों में ही यह चीजें विलुप्त हो जाएं। उनके समाप्त होने के पहले लोगों को उन तक पहुंचा देने की सारी जद्दोजहद को अंतिम अवसर पर्यटन या लास्ट चांस टूरिज्म के रूप में इन दिनों काफी चर्चा में है और एक पूरी पीढ़ी में अदृश्य होने के पहले मनोहारी और अद्भुत चीजों को देखने के प्रति रुचि बढ़ाई जा रही है या बढ़ गई है। 

बहरहाल, हमारी असली चिंता यह है कि ये खूबसूरत नजारे और उनका आनंद हमारी दुनिया से गायब आखिर क्यों होते जा रहा है। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं।  इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण पृथ्वी के तापमान में निरंतर वृद्धि होना माना गया है। जलवायु में जो परिवर्तन हो रहे हैं उसका असर व्यापक रूप से दिखाई दे रहा है। बहुत सी चीजें  समाप्त हो रही हैं, अदृश्य हो रही है या उनमें बदलाव आता जा रहा है। परंपरागत जनजीवन, पर्यावरण , जीव जंतु और प्रकृति पर इस परिवर्तन का असर बढ़ता दिखाई देने लगा है। 

वस्तुतः ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है। कहीं सूखा पड़ रहा है तो कहीं बाढ़ आ रही है। यह जलवायु असंतुलन ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण गर्मी और नमी के पैटर्न में बदलाव आ रहा है। कई नए वायरस और बीमारी फैलाने वाले कीट और मच्छरों की आवाजाही बढ़ रही है। बाढ़, सुनामी और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि के कारण, जन धन का बड़ा नुकसान पर्वतीय और तटीय क्षेत्रों में बढ़ता गया है जिसकी वजह से सहज मानव जीवन बाधित हो जाता है। 

जलवायु में वैश्विक बदलाव के कारण कई पौधों और जानवरों के आवास नष्ट हो जाते हैं। इस स्थिति में, जानवरों को अपने प्राकृतिक आवास से पलायन करना पड़ता है और उनमें से कई धीरे धीरे विलुप्त भी हो जाते हैं। यह पृथ्वी की जैव विविधता पर ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा प्रभाव है। 

पृथ्वी के निरंतर बढ़ते तापमान को हम लोग जिस ग्लोबल वार्मिंग के नाम से जानते हैं, इन दिनों काफी चर्चा में भी है।  तापमान के बढ़ने से वर्तमान परिस्थितियों में, जलवायु में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं और उन परिवर्तनों के कारण   पर्यटन के उद्देश्य से जिनका महत्व होता है उन चीजों में भी बदलाव हो रहे हैं, या वे विलुप्त हो रही हैं। मसलन आर्कटिक और अंटार्कटिक ध्रुवीय क्षेत्र यहां सबसे ज्यादा बदलाव हो रहा है। यहां जो पशु पक्षी रहते हैं, खास तौर से जो ध्रुवीय भालू हैं, वह सब समाप्त हो रहे हैं।  ग्लेशियर और विशाल आइस बर्ग हैं वे भी जल्दी पिघलने लगे हैं। उनका सौंदर्य अनुभव करने में पर्यटक को अब धीरे धीरे निराश होने की आशंका सताने लगी है।   

समुद्रों में खास तौर से ऑस्ट्रेलिया के ग्रेड बैरियर रीफ़ में बढ़ते तापमान के कारण वहां पर्यटकों के खास आकर्षण खूबसूरत कोरल्स और शैवालों में भारी कमी आई है। अनेक सुंदर जल जीवों की प्रजातियों में कमी और तादाद में कमी होती जा रही है।   इटली का खूबसूरत शहर वेनिस जो अपनी वास्तुकला के साथ-साथ अपनी सुंदर जल धाराओं में पर्यटकों को मनोहारी और रोमांटिक नौकायन का सुख देता है, अपनी क्षमता खोता जा रहा है। वह समुद्र स्तर में बदलाव और बार-बार बाढ़ आने से उनकी वास्तु कला और शिल्प प्रभावित हो रहा है। इसके सौंदर्य के घटने की आशंका बलवती होती जा रही है।
  
पर्यटकों के आकर्षण के कई ऐसे द्वीप पृथ्वी पर मौजूद हैं जो समुद्र तल से थोड़ा सा ही ऊपर हैं। जैसे-जैसे बदलाव आ रहा है, इनके समुद्र में समा जाने की संभावना पैदा हो गई है। समुद्र किनारों पर जो खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं, बीच हैं, सैरगाह हैं, जहां सर्व सुविधायुक्त कॉटेज बनाए गए हैं, ये सब खतरे में घिर रहे हैं। अनेक छोटे छोटे पर्यटन द्वीप हैं लुप्त होते जा रहे हैं या जल्दी ही समुद्र में डूब सकते हैं।  विशेष रूप से मालदीव जो बहुत बड़ा आकर्षण का केंद्र है और लाखों पर्यटक यहां पर प्रतिवर्ष सैर सपाटे के लिए जाते हैं, वह समुद्र तल से बहुत थोड़ा सा ऊपर है, उसके अद्भुत समुद्र तट धीरे-धीरे सौंदर्य खोते जा रहे हैं, समाप्त होते जा रहे हैं।  लास्ट चांस टूरिज्म ट्रेंड में इन सब स्थानों के पर्यटन का महत्व और बढ़ता जा रहा है। 
  
इस ग्लोबल वार्मिंग के कई मानव जनित कारण भी हैं। बढ़ता औद्योगीकीकरण और शहरीकरण भी कुछ हद तक जिम्मेदार होता है।  जिस तरह से शहरीकरण बढ़ता जा रहा है पर्यटन स्थलों की ओर जो बसाहट हो रही है, उससे प्राकृतिक स्थितियों में बदलाव हुआ है, पर्वतीय और तटीय पर्यटन स्थलों का सौंदर्य ही नहीं बल्कि जीवन पर भी खतरा पैदा हुआ है।  

औद्योगिकरण से वायुमंडलीय प्रदूषण बढ़ा ही है, स्वास्थ्य के अलावा धरोहरों के भी क्षरण की स्थितियां देखी गईं हैं। हमने कुछ समय पहले पढ़ा था कि ताजमहल की संगमरमर पर भी प्रदूषित यायु का असर देखा गया है। ग्रीन हाउस गैसेस, कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें वायुमंडल में बढ़ती गईं हैं। धरती की मिट्टी में मौजूद पिघलता हुए परमाफ्रास्ट के क्षरण से जो गैसों का विस्फोट होता है वह भी वायुमंडल में ही अंततः प्रवेश कर जाता है। उससे भी हमारी पृथ्वी का तापमान गड़बड़ा रहा है।   

अफसोस है कि  अनेक सुंदर प्राकृतिक दृश्य, सुंदर द्वीप, सुंदर स्थान, सुंदर ध्रुव प्रदेश, समुद्रीय सौंदर्य और प्राकृतिक छटाएं और मानव निर्मित संरचनाएं अपने पर संकट के बादल घिरे पाते हैं और इस संकट का लाभ पर्यटन इंडस्ट्री को मिला है।  अंतिम अवसर पर्यटन के हिसाब से टूर बनाए  जाने लगे हैं। इससे रोजगार भी मिला है।  

आखरी कब तक पर्यटन क्षेत्र में यह अंतिम अवसर रहेगा?  यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन यह चिंता बेहद वाजिब है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हमारी दुनिया धीरे-धीरे बदलती जा रही है। जो खूबसूरती आज है, जो दृश्य हम आज देखते हैं, हो सकता है कि कल हम उन्हें नहीं देख पाएं। अंततः सबसे बड़ी चिंता और जिम्मेदारी तो हमें इस पृथ्वी को खूबसूरत बनाए रखने की है। यह लास्ट चांस टूरिज्म, अंतिम अवसर पर्यटन कितना ही प्रचलित होता रहे लेकिन हमारा अंतिम लक्ष्य यही होगा कि इस पृथ्वी की खूबसूरती हमेशा कायम रहे, हम इसमें पूरी तरह से रुचि लेते रहें, लोगों में जागरूकता बढ़ाते रहें और प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी को बचाने के हर प्रयास करते रहे।  

ब्रजेश कानूनगो 

Monday, 16 September 2024

स्लम्स और झुग्गियों में घूमता घुमक्कड़

स्लम्स और झुग्गियों में घूमता घुमक्कड़


किसी भी देश की मलिन और झुग्गी बस्तियों को ढंक देने के प्रयास अक्सर उस वक्त होते रहते हैं जब वहां अंतरराष्ट्रीय महत्व का कोई आयोजन हो रहा होता है। स्लम या झोपड़पट्टियों का होना किसी भी सरकार और वहां के नागरिकों के लिए अपमान जनक बात कही जा सकती है। इनकी उपस्थिति चांद जैसे खूबसूरत शहरों पर बदनुमा धब्बे की तरह माना गया है। 

दरअसल, झुग्गी बस्ती या झोपड़पट्टी या स्लम ऐसे घने रहवासी क्षेत्र होते हैं, जहां जीर्ण शीर्ण घरों के छोटे छोटे से कमरों में कई लोग बड़ी कठिनाइयों के साथ रहते हैं, यहां कई बार धूप भी बमुश्किल से दिखाई देती है, स्वच्छता का अभाव होता है, शुद्ध हवा का प्रवाह नही रहता, पेय जल की अस्वास्थकर व्यवस्थाएं होती हैं। ये तमाम ऐसी स्थितियां होती हैं बस्तियों में जिन्हे मानव जीवन के विकास के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता। कई जगह कचरा, गंदगी का साम्राज्य होता है, सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति बदतर होती जाती हैं। स्कूलों की दशा और वहां के साधन बदहाल होते हैं। 

अनेक प्रयासों के बावजूद कई बड़े देशों के बड़े महानगरों के सौंदर्य के बीच इनकी उपस्थिति आज भी बनी हुई है। यह अलग बात है कि सरकारें और कई स्वैच्छिक संगठन इन बस्तियों के उद्धार और यहां के निवासियों के कल्याण के लिए काम करते हैं। किंतु स्लम्स या झुग्गियों का होना आधुनिक समाज में एक कड़वी सच्चाई है। 

दिलचस्प बात यह है कि प्राकृतिक और मानव निर्मित रमणीय स्थलों की सैर करना विश्व के पर्यटक बहुत पसंद करते हैं, वहीं दुनिया के बड़े स्लम्स और झुग्गी बस्तियां भी घुमक्कड़ों को आकर्षित करती रहती हैं। कई घुमक्कड़ों को हमने यूट्यूब पर दुनिया की घनी बस्तियों और झोपड़पट्टियों में भ्रमण करते, वहां के जनजीवन और स्थितियों पर ब्लागिंग करते देखा है। कई तरह की जोखिमपूर्ण स्थितियों के बावजूद ये घुम्मकड़ हम दर्शकों को भी वहां का आभासी मुआयना करवा देते हैं।  

पिछले दिनों हमने ऐसे ही कई वीडियो देखे। नोमेडिक टूर चैनल के तोरवशु के साथ दक्षिणी अमेरिका के ब्राजील में रियो डी जेनेरो के सबसे बड़े स्लम जिसे फावेला कहा जाता है की आभासी सैर की। इससे पहले कुछ अन्य व्लॉगरो के अलावा डॉक्टर यात्री के नवांकुर का भी वीडियो हमने देखा था। दरअसल ब्राजील, रूस,कनाडा,चीन, यू एस ए के बाद विश्व का पांचवा सबसे बड़ा देश है। इसके बाद ऑस्ट्रेलिया और भारत का क्रम आता है। 

ब्राजील के स्लम पर्यटन के संदर्भ में यहां कुछ बातें जान लेना भी दिलचस्प होगा।  यहां पूर्व में पुर्तगालियों का साम्राज्य रहा था। पुर्तगाली भाषा में रियो डी जेनेरियो का अर्थ है,जनवरी की नदी। यह शहर  गुआंडू नदी के पास बसा है। दरअसल यह शहर अटालंटिक महासागर का तट है जिसे जनवरी की नदी कह दिया गया था।  
ब्राज़ील में शहरी केंद्रों के पास जो झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं उन्हें ही फावेला कहा जाता है। ये अनौपचारिक अवैध बस्तियाँ तब बनीं जब बेघर लोग रियो डी जेनेरियो और साओ पाओलो जैसे बड़े शहरों के नज़दीक खाली ज़मीन के भूखंडों पर आकर बसने लगे। झुग्गी झोपड़ी की यह बसाहट लगभग सन 1930 के आसपास शुरू हो गई थी। इन इलाकों में बसने वाले लोग अपने घरों का निर्माण उन सामग्रियों से करते हैं जिन्हें वे सहजता से जुटा सकते हैं। नालीदार पतरे, कार्डबोर्ड बॉक्स, प्लास्टिक शीट और प्लाईवुड आदि जैसा कबाड़ की तरह निकलने वाली सामग्री इनके निवासियों के लिए बड़ी उपयोगी हो जाती है। यहां की एक विशेष वनस्पति से भी फावेला शब्द की उत्पत्ति का संबंध बताया जाता है। शायद उसी तरह जिस तरह कुछ लोग गाजरघास शब्द का प्रयोग हमारे यहां की झोपड़पट्टियों की बसाहट के संदर्भ में करते रहते हैं। 

एक जानकारी के अनुसार 2010 की जनगणना के अनुसार, ब्राज़ील में लगभग 11 मिलियन लोग, या कुल आबादी का लगभग 6%, फावेला में रहते हैं। विश्व के लोगों ने 2002 की फ़िल्म सिटी ऑफ़ गॉड के माध्यम से भी यहां की अनूठी बसाहट और अपराध और हिंसा को थोड़ा बहुत जाना है। तोरवशु ब्लॉगर के वीडियो को देखते हुए हमने जाना कि इन बस्तियों में कई जगह तो सूर्य की किरणे तक नहीं पहुंच पाती। भूलभुलैया सी तंग गलियों से बाहर निकलना भी बेहद कठिन हो जाता है।

रियो डी जेनेरियो जैसे बेहद खूबसूरत शहर और विश्व के सात आश्चर्यों में शामिल कारकोवादो  पर्वत के शिखर पर स्थित ईसा मसीह की विशाल प्रतिमा के लिए विख्यात रियो यहां की हिंसात्मक और अपराधिक गतिविधियों के लिए भी कुख्यात है। फावेला बस्तियों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनो पक्ष हैं किंतु पर्यटकों को अकेले वहां जाने की सलाह नहीं दी जाती। किसी स्थानीय व्यक्ति या गाइड को साथ लेकर ही यहां पर्यटक जा पाते हैं। 

ब्राजील की इन बस्तियों को देखते हुए भारत में मुंबई महानगर में बसी धारावी की बसाहट और जनजीवन का दृश्य भी सामने आने लगता है। इस बस्ती में भी बड़ी संख्या में पर्यटकों का आना बना रहता है। धारावी दुनिया के पर्यटकों की सूची में स्लम पर्यटन की दृष्टि से सबसे ऊपर क्रम की ख्वाहिश रहती है।  यह दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गियों में से एक है। एक जानकारी के अनुसार भौगोलिक क्षेत्र का आकार सिर्फ़ 2.39 वर्ग किलोमीटर है, लेकिन इसकी आबादी लगभग 3 से दस लाख लोगों तक आकलित की गई है। इसका मतलब है कि धारावी दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले रिहायशी इलाकों में से एक कहा जा सकता है।

माना जाता है कि 1884 से  जब शहर में ग्रामीण इलाकों से शहरी मुंबई की ओर लोगों का भारी पलायन हुआ था तो वे धारावी इलाके में बसते गए। यह शहर का वह इलाका था जहाँ आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों की सबसे ज़्यादा आबादी रहती थी। जैसे-जैसे उद्योगों की संख्या बढ़ी, झुग्गी-झोपड़ियों का आकार भी बढ़ता गया।

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि अपनी तंग बस्तियों और चुनौतीपूर्ण  स्थितियों के बावजूद, यहां के निवासियों ने एक संपन्न सूक्ष्म अर्थव्यवस्था, रीसाइक्लिंग उद्योग का निर्माण करने में कामयाबी हासिल की है। मुंबई के लगभग 60% प्लास्टिक कचरे को धारावी में रीसाइकिल किया जाता है।  धारावी का चमड़ा उद्योग एक और फलता-फूलता व्यवसाय है, जिस पर यहां की अर्थ व्यवस्था निर्भर करती है। कुशल कारीगर उच्च गुणवत्ता वाले चमड़े के सामान बनाने से लेकर उन्हें ठीक करने तक के काम में लगे हुए हैं। अनेक पर्यटक तो यहां के इन उद्योगों की कार्यप्रणाली देखने समझने के लिए ही आते रहते हैं। 

धारावी की संभवतः सबसे बड़ी ताकत है यहां की  सांप्रदायिक विविधता और बेहतरीन सामाजिक समभाव और भाईचारा। धारावी का अविश्वसनीय रूप से मिलजुला समुदाय यह सब संभव बना देता है। मुंबई का यह इलाका संस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों का एक सुखद मेल है। भारत के विभिन्न हिस्सों से आए लोग इस जगह को अब अपना घर कहते हैं और वे इसे बेहतरीन बनाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहते हैं।

अगर हम सहजता से जानना चाहें कि स्लम टूरिज्म क्या है, तो बस धारावी पर थोड़ी जानकारी इकट्ठी करें। हर साल 15,000 से अधिक पर्यटक धारावी आते हैं। ट्रेवलर्स चॉइस एक्सपिरिएंस की एशियाई सूची में वर्ष 2019 में इसका स्थान पहले दस स्थानों में रहा था। स्लम डॉग मिलेनियर जैसी प्रसिद्ध फिल्म की शूटिंग यहां की गई थी। 

इसके अलावा भारत में दिल्ली की भलस्वा,चैनई की नोचिकुप्पम, बैंगलुरू की राजेंद्रनगर बस्ती, कोलकाता की बसंती झुग्गी बस्तियां भी बड़े स्लम्स हैं।  सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कोई 6.5 करोड़ आबादी झुग्गियों में रहती हैं जिनमे से लगभग 1.8 करोड़ महाराष्ट्र में निवास करती हैं। एक आकलन यह भी है कि भारत के 6 शहरी व्यक्तियों में से 1 झोपड़पट्टी में रहता है। जिन के विकास और कल्याण के लिए प्रयास होते रहते हैं। 

स्लम पर्यटन के जरिए भी जनसंख्या के एक ऐसे बड़े वर्ग पर व्लोगर ध्यान आकर्षित करते हैं जिनके कल्याण और विकास के लिए समाज और सरकारों को अभी बहुत कुछ करना शेष है। 

ब्रजेश कानूनगो  

Tuesday, 10 September 2024

जागरूक घुम्मकड़ के बहाने फिटनेस की बातें

जागरूक घुम्मकड़ के बहाने फिटनेस की बातें


घुमक्कड़ी का जुनून लिए दुनिया की सैर को निकले घुम्मकड़ व्लॉगरों के लिए सबसे जरूरी होता है अपनी सेहत का खयाल रखना। अपनी यात्राओं के दौरान इन्हे अनेक प्राकृतिक और पारिस्थितिक स्थितियों से गुजरना होता है। समय चक्र में परिवर्तन के अलावा मौसम और तापमान में बदलाव, खान पान की भिन्नता के अलावा स्थानीय जन जीवन की जीवन शैली का भी घुम्मकड़ों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर  विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में  अपनी सेहत का पर्याप्त ध्यान रखना भी इनके लिए बेहद जरूरी हो जाता है। आमतौर पर घुम्मकड़ ऐसा करते भी हैं और तन और मन को सक्रिय व स्वस्थ बनाए रखने के उपाय भी करते हैं। जरूरी विश्राम और मनोरंजन के साथ कसरत अर्थात व्यायाम या आज की भाषा में शारीरिक वर्क आउट को भी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लेते हैं। कुछ यात्री योगाभ्यास को भी दिन की शुरुआत का हिस्सा बना लेते हैं।

घुमक्कड़ी के दौरान फिटनेस की चर्चा से पहले उचित होगा कि हम फिटनेस के इतिहास पर भी थोड़ी नजर डाल लें। सच तो यह है कि मनुष्य और उसके जीवन के विकास के साथ ही आदिम काल में ही फिटनेस की अवधारणा भी फलीफूत होती गई है। शारीरिक बलिष्ठता को लक्ष्य में न रखते हुए भी आदिम काल का इंसान केवल अपनी जान बचाने के प्राथमिक उद्देश्य से अनायास ही फिटनेस की ओर उन्मुख हुआ। खतरों से बचने के लिए उसके सामने एक ही उपाय था, भागो, दौड़ते जाओ। इस उपक्रम में अपनी जान बचाने के लिए वह पेड़ पर चढ़ जाता, पहाड़ों और चट्टानों पर चढ़ता, छलांग लगाता, भारी पत्थरों को उठाता, शत्रु की ओर फेंकता वही सब करता जो आज बलिष्ठता के लिए व्यायाम शालाओं, खेल के मैदानों में या आधुनिक जीमों की मशीनों पर किया जाता है, या करवाया जाता है किसी प्रशिक्षक द्वारा।

और जब मनुष्य ने खेती करना शुरू की तो कृषि और उससे जुड़े कार्यों में उसे श्रम करना जरूरी हो गया। खेत जोतने से लेकर खेती कार्यों में मेहनत करके अपना पसीना बहाने लगा, उसकी बलिष्टता और फिटनेस का आधार शारीरिक श्रम  बन गया।  आगे चलकर समूह बने, अपनी सीमाओं का निर्माण हुआ, राज्य,देश बने तो आधिपत्य के संघर्ष हुए, युद्ध होने लगे। तब सैन्य बलों और सैनिकों को तंदुरुस्त और शक्तिशाली बनाने की दृष्टि से प्रशिक्षणों में फिटनेस के उपाय किए जाने लगे। प्राचीन एथलेटिक खेलों की शुरुआत भी यूनान में इसी उद्देश्य से हुई।
लगभग 14 वीं 16 वीं सदी के आसपास पुनर्जागरण काल में समाज में मनुष्य के शरीर, शरीर विज्ञान, शारीरिक प्रशिक्षण में रुचियां पैदा हुईं। पुस्तकें लिखीं गईं, स्कूल खुले मिस्र के साथ साथ स्पेन,जर्मनी, इंग्लैंड, आदि में भी इस अवधारणा की दिशा में अध्ययन और उपाय आगे बढ़ते गए।
सन 1796 में पहली आधुनिक फिटनेस मशीन का आविष्कार हो गया। वजन आधारित और ताकत उन्मुख जिमों में व्यक्ति की बलिष्ठता और तंदुरुस्ती को केंद्र में रखते हुए बीसवीं सदी में तो फिर फिटनेस उपकरणों का उपयोग बढ़ता ही चला गया।

घुम्मकड़ों के यूट्यूब वीडियो देखते हुए हमने यह भी देखा कि  बहुत से ट्रेवलर आधुनिक जिम में जाकर कसरत करते हैं, अपना पसीना बहाते हैं। लेकिन जिन लोगों को हमने प्रायः ऐसा करते देखा उनमें हरियाणा के परमवीर सिंह बेनीवाल ने हमे बहुत प्रभावित किया। पैसेंजर परमवीर नाम से वे अपने ट्रेवल वीडियो बनाते हैं। लगभग सौ देशों में पर्यटन कर चुके हैं। छब्बीस सताइस वर्ष के युवा हैं, ऊंची कद काठी है, देखने से ही बॉडी बिल्डर लगते हैं। समझदार हैं और घुम्मकड़ी के जुनून में ज्यादातर जोखिम वाली जगहों की यात्रा करने में इन्हे बहुत आनंद आता है। अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के कुछ खतरनाक इलाकों और देशों के अलावा सीरिया, इसराइल, फिलिस्तीन, गाजा, यूक्रेन,सोमालिया आदि जैसे देशों में जहां की कई तस्वीरें हम जैसे दर्शकों को विचलित कर देती हैं, वहां भी हर स्थिति में हमे उनका उत्साह और मुस्कुराहट कम होती दिखाई नहीं देती। हमारे लिए विडियो बनाते हैं और अखबारों में पढ़ी खबरों को स्क्रीन पर हमारे लिए जीवंत कर देते हैं। हाल ही में म्यांमार की उन्होंने रोमांचक यात्रा की है।

बहरहाल, यहां हम उनकी ब्लागिंग की बजाए उनके वर्क आउट याने कसरत के प्रति गहन लगाव की चर्चा करना चाहते हैं। परमवीर ऐसे ट्रेवलर हैं जिनके लिए जिम जाए बगैर ट्रेवलिंग को आगे बढ़ाना शायद संभव ही नहीं है। अजनबी शहर में भी वे कसरत के लिए जिम खोजते रहते हैं। इसके लिए खर्च की वे परवाह भी नहीं करते। जिम भले कितनी ही दूर हो, टैक्सी का ज्यादा किराया देना पड़े, लंबी पैदल दूरी तय करना पड़े, वे जिम पहुंच ही जाते हैं और भारी शुल्क चुकाकर भी अपना पसीना बहा आते हैं। अपनी फिटनेस के प्रति उनकी यह चेतना सचमुच प्रेरक है।

परमवीर सिंह को यदि कहीं आधुनिक जिम नहीं मिल पाता तो उन्हे सड़क किनारे के या जुगाड के जिम के साधनों का उपयोग करने में कोई गुरेज नहीं होता। उद्देश्य यही रहता है कि कोई दिन बिना व्यायाम किए नहीं गुजरे। जिस दिन वे कसरत नहीं कर पाते उनके चेहरे की उदासी वीडियो में भी नजर आ ही जाती है।

यदि भारत के संदर्भ में फिटनेस के इतिहास और वर्तमान की बात करें तो यहां की धार्मिक सांस्कृतिक मान्यताओं ने हमेशा से आध्यात्मिकता पर जोर दिया। हमारे यहां फिटनेस की यात्रा मन से शरीर की ओर रही है। पहले मन फिर तन की स्वस्थता। हालाँकि, चीनी कांग फू जिम्नास्टिक के समान एक व्यायाम कार्यक्रम विकसित हुआ, जो सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप था, जिसे योग के रूप में जाना जाता है। माना जाता है योग कम से कम पिछले 5000 वर्षों से अस्तित्व में है। योग का अर्थ है मिलन, और यह भारतीय दर्शन की क्लासिक प्रणालियों में से एक को संदर्भित करता है जो शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने और व्यक्तिगत रूप से विकसित करने का प्रयास करता है। योग मूल रूप से धर्माचार्यों द्वारा विकसित किया गया था जो अनुशासन और ध्यान की विशेषता वाली मितव्ययी जीवन शैली जीते थे। विभिन्न जीवों की गतिविधियों और पैटर्न को देखने और अनुकरण से, योगाचार्यों को प्रकृति के साथ वही संतुलन हासिल करने की उम्मीद थी जो अन्य प्राणियों के पास था। योग का यह पहलू , हठ योग के रूप में जाना जाता है। प्रकृति के साथ संतुलन के अलावा, प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने उचित अंग कार्य और संपूर्ण कल्याण सहित योग के स्वास्थ्य लाभों को मान्यता दी। इन स्वास्थ्य लाभों को आधुनिक संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य कई देशों में भी स्वीकार किया गया है। वहां भी बड़ी संख्या में लोग नियमित रूप से योग में भाग लेते रहते हैं। भारत सरकार ने 21 जून का दिन अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में घोषित किया है। जो विश्व में प्रतिवर्ष स्वास्थ्य चेतना में भारतीय योग के महत्व और योगदान को रेखांकित करता है।  

भारत में स्वास्थ्य के प्रति अब आम लोगों में काफी जागरूकता दिखाई देती है। हर व्यक्ति अपनी फिटनेस के लिए उपाय करता नजर आता है। महंगे और आधुनिक साधनों वाले महंगे जिमों के अलावा कस्बों, शहरों में कॉलोनी के पार्कों में सामुदायिक फिटनेस क्लब और योग केंद्र संचालित हैं। लोग जुटते हैं और अपने तन और मन की फिटनेस के लिए पसीना बहाते नजर आते हैं। 

ब्रजेश कानूनगो

 

Friday, 30 August 2024

ट्रैकिंग की बातें

ट्रैकिंग की बातें


हमारे गृह नगर देवास में एक पहाड़ी है जिसको माताजी की पहाड़ी कहते हैं।  यहां देवी चामुंडा और तुलजा भवानी के अतिरिक्त अन्य भी बहुत सारे मंदिर हैं। ब्रिटिश इतिहासकार ईएम फास्टर ने अपनी पुस्तक हिल आफ देवी में इसका उल्लेख भी किया है। ऊपर एक परिक्रमा मार्ग भी है। पहाड़ी पर जाकर देवास के लोग नित्य व्यायाम की दृष्टि से सुबह की सैर करते हैं। जिनकी आस्था होती है उन्हे देवी के दर्शन भी हो जाते हैं। जिन्हे  केवल व्यायाम की दृष्टि से जाना होता है तो उनको सुबह की ताजी हवा के अलावा थोड़ी सी कसरत का लाभ भी मिल जाता है। 

पहाड़ी के ऊपर तक जाने के लिए करीब पांच सौ सीढ़ियां रही होंगी। एक रपट मार्ग भी रहा है जिस पर जीप जैसी गाड़ियां उचित अनुमति के बाद ऊपर ले जाई जा सकती थीं। यह मैं अपने बचपन की स्मृति बता रहा हूं। अब तो वहां रोप वे बन गया है और श्रद्धालु टिकिट खरीद कर भी पहाड़ी के ऊपर जाने लगे हैं। बचपन में सीढ़ियों और रपट पर दौड़ते हुए मिनटों में ऊपर चढ़ जाया करते थे।  इन दिनों घुम्मकड़ों के ट्रेवल वीडियो देखते हुए उनको ट्रेकिंग करते हुए भी कई रोमांचक वीडियो देखे हैं। हमे लगा कि बचपन में जब हम गृहनगर की पहाड़ी पर चढ़ा करते थे वह भी एक मायने में ट्रेकिंग ही तो था। सीढ़ी मार्ग होने के बावजूद लोगों ने कुछ ऐसे दुर्गम रास्ते खोज लिए थे जिनसे होकर हम लोग ऊपर पहुंचा करते थे। इसे खड़े पहाड़ चढ़ना कहते थे। ट्रेकिंग की परिभाषा भी यही है कि कटीले, गिट्टियों, झाड़ियों भरे दुर्गम कठिन रास्तों से होते हुए पहाड़ों के ऊपर चढ़ते जाना। 

हमारे बुजुर्ग लोग हमसे कहा करते थे कि आप नित्य थोड़ा पहाड़ी पर घूम आया करें, एक दो चक्कर लगा लिया करें सुबह शाम। किंतु यह हिदायत देना भी न भूलते कि खड़े पहाड़ न चढ़ना। पर उत्साह और जोश से भरा एक ट्रैकर  कहां ऐसी चेतावनियों को सुनता है, हम खड़े पहाड़ चढ़ने का जोखिम उठा ही लेते। अब समझ में आया कि हम भी बचपन में छोटे मोटे ट्रैकर रहे  हैं। 

स्कूल कॉलेज के दिनों में एनसीसी (राष्ट्रीय छात्र सेना) का कैडेट रहते हुए भी कैंपिंग और ट्रैकिंग के कुछ अनुभव हुए थे। तब उसमें जो कुछ सिखाया जाता था उसमे दशहरा दिवाली की छुट्टी में कैंपिंग होता था, हम खूब आनंद उठाते थे, ट्रैकिंग भी होता था और नकली युद्ध भी लड़ा जाता था।  दो ग्रुप बना दिए जाते, जो एक दूसरे ग्रुप पर अटैक के लिए  दो तीन किलोमीटर दूर विपरीत दिशाओं से ट्रैकिंग करते आगे बढ़ते रात को निकलते। घमासान युद्ध का अभ्यास होता। आज जब यूट्यूब पर हम घुम्मकड़ों के ट्रैकिंग वीडियो को देखते हैं तो असली ट्रैकिंग के रोमांच से भर उठते हैं। 

बहुत सारे ऐसे ट्रेवलर्स हैं जिनको ट्रैकिंग करते देखकर बहुत अच्छा लगता है। मुझे कुछ ब्लॉगर्स के नाम याद आते हैं जिनके वीडियो देखकर मन प्रसन्न हो जाता है, जैसे डेल फिलिप (Dale Phillip ) एक ब्लॉगर हैं, स्कॉटलैंड के हैं, अंग्रेजी में अपने वीडियो बनाते हैं। श्रीलंका में वह दो-तीन बार गए हैं।  श्रीलंका के सारे बड़े शहरों में तो घूमते ही हैं लेकिन कुछ ट्रैकिंग में श्रीलंका के पहाड़ों में अकेले निकल जाते हैं, ना तो उनको तमिल आती है न सिंहली, न वहां के पहाड़ी लोगों को अंग्रेजी समझती है। गूगल ट्रांसलेट से भी बात करते हैं लेकिन गूगल ट्रांसलेट भी ऐसी जगह पर काम नहीं करता। हम जानते हैं मुस्कुराहट और सद्भाव की अपनी अलग वैश्विक भाषा होती है, किसी तरह काम निकल ही जाता है।  तो वहां इसी तरह से कुछ बच्चो के साथ वे श्रीलंका की पहाड़ियों पर ट्रैकिंग करते हैं। बहुत अच्छा दिलचस्प वीडियो उन्होंने बनाया है।  उसमें प्रकृति का वास्तविक सौंदर्य हमको बहुत नजदीक से दिखाई देने लगता है। दरअसल ट्रैकिंग ही एक ऐसा माध्यम है जिसमें हम प्रकृति से सीधे जुड़ जाते हैं, इस दरम्यान हवा, चट्टान, वनस्पति, आकाश, मिट्टी, पानी, बादल, एक दूसरे से गले लगते हैं। मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे से आत्मीय संवाद करने लगते हैं।  ट्रैकर के माथे और देह को भिगोता संघर्ष का पसीना हम दर्शकों को रोमांचित करने लगता है।  वीडियो देखते हुए प्रकृति सीधे हमसे बातचीत करने लगती है और सीधे दिल में उतरती चली जाती है।  

ऐसे ही डेल फिलिप एक बार जंगलों में ट्रैकिंग करते हुए रेलवे पटरी के साथ साथ आगे बढ़ रहे होते हैं तो उनका पांव थोड़ा मुड़ जाता है, पांव में चोट आ जाती है। लेकिन यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि चोटिल परदेसी ब्लॉगर को एक स्थानीय उनके चाहने वाले ने अपने परिवार के साथ घर में अतिथि की तरह स्थान देकर उनकी सेवा सुश्रा की।  उनको कोई 15 दिन वहां रहना पड़ा।  पांव में काफी सूजन रही। चलने फिरने में दिक्कत आई। इस घटनाक्रम का भी डेल ने वीडियो बनाया। हमें कई बार चिंता होती है कि ये ब्लॉगर अकेले अकेले अपरिचित क्षेत्रों में भटकते रहते हैं, दुर्भाग्य से कल कहीं कुछ दुर्घटना या अनहोनी घट जाए तो क्या होगा?  लेकिन यह दुनिया बहुत खूबसूरत है, यहां के लोग बहुत खूबसूरत हैं, प्रेम, सम्मान और सौहार्द्र की भाषा और आचरण सबसे महत्वपूर्ण होता है, सब एक दूसरे का दुख दर्द जान लेते हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि कहीं कोई मनुष्य अकेला पड़ जाए, समय आने पर बहुत लोग उनके साथ होते हैं, शुभचिंतक हो जाते हैं, सहयोग करते हैं। और फिर हम दर्शकों की शुभकामनाएं तो उनके साथ होती ही हैं जिनके लिए वे जोखिम उठाकर हमारे लिए अपने अनुभव साझा करते हैं।  
 
ट्रैकिंग के और भी अनेक व्लॉगरों के वीडियो हमने देखे हैं खासतौर पर नेपाल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश सहित अन्य देशों में  पहाड़ी इलाकों में ग्रेब्रियल ट्रेवलर, दाउद अकुंजादा, बैग्स पैकर्स फैमिली के परिवार के साथ ट्रैकिंग का मानस आनंद लेते रहे हैं। 
उधर पाकिस्तान के भारत से लगे हिमालय क्षेत्र भी काफी सुंदर हैं। गिलगिट आदि क्षेत्रों के मनोरम दृश्य को देखते हुए लगता ही नहीं कि यह भारत नहीं है। दाउद अकुंजादा उस खूबसूरत स्थल की यात्रा में सुंदर फिल्मांकन करते हैं।
 
एक ब्लॉगर के वीडियो में हमने देखा कि कुछ ऐसे नव विकसित कैंपिंग स्थल तो ऐसे भी हैं जहां से पर्यटक पाकिस्तान से भारत के दृश्यों और हलचल को निहार सकते हैं और पाकिस्तान से भारत के मनोरम दृश्य का आनंद उठा पाते हैं। कुछ स्थान ऐसे भी हैं जिनके बीच एक खूबसूरत नदी होती है और दोनों किनारों पर खड़े पर्यटक एक दूसरे का अभिवादन कर सकते हैं।  

ट्रैकिंग के बारे में यह सब लिखने पर कुछ मित्र पूछ सकते हैं कि हम ऐसा कैसे कर पा रहे? कई बार यह होता है कि जिस क्षेत्र में हमने कुछ नहीं किया हो उस विषय पर भी हम लिखने की कोशिश करते हैं। हमारे इधर एक कहावत है, शादी नहीं की तो क्या, बारात में तो गए ही हैं।   बारात में जाकर भी शादी का अनुमान लगाया जाता रहा है। समझ लीजिए कि हम घुमक्कड़ ना सही परंतु घुम्मकड़ों के बनाए वीडियो तो देखते हैं, उनके अनुभव से एकाकार होकर अनुमान लगाते हैं। कुछ यात्राएं हुईं हैं, भारतीय और पश्चिम की संस्कृति और परिवेश को भी थोड़ा बहुत अपने कनाडा प्रवास से जाना समझा है, इसी से अनुमान लगाने में अधिक कठिनाई नहीं आती। यह बहुत सारे जो हमारे ब्लॉगर मित्र हैं, जो इतने खूबसूरत वीडियो बनाते हैं कि देखते हुए हम उसमें डूब से जाते हैं और हमको लगता है कि बस हम ही घूम रहे हैं। अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की आकांक्षा इसे शब्दों में बदलने लगती है। वीडियो बनाने वाले हमारे इन मित्रों को हम बहुत धन्यवाद देते हैं और शुभकामनाएं भी कि वे खूब यात्राएं करें और घर बैठे दुनिया की सैर हमें भी नित्य करवाते रहें।

ब्रजेश कानूनगो 

Wednesday, 28 August 2024

माखन मिश्री का आभासी आनंद

माखन मिश्री का आभासी आनंद

घुम्मकड़ो द्वारा बनाए विडियोज को यूट्यूब पर देखते हुए अक्सर कई ब्लॉगरों से गहरी आत्मीयता हो जाती है। इस जुड़ाव के कई कारण होते हैं। कभी उनकी बातचीत अच्छी लगती है तो कभी उनका संवेदनशील व्यवहार और उदारता। हर व्लॉगर की अपनी विशिष्टता होती है। जो क्रमशः उसके प्रति हमारे लगाव का कारण बनती जाती है।

अमरीकन व्लॉगर क्रिस लेविस ( Chris Lewis) उनकी सहजता, सरलता तथा अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू बोलने वाले घुम्मकड़ के तौर पर हमें बहुत पसंद हैं। भारत के शहरों में घूमते हुए वे खानपान के अनुभव के भी वीडियो बनाते रहते हैं। खासतौर से दिल्ली के चांदनी चौक और मुंबई, गुजरात आदि के उनके ऐसे वीडियो अलग सुख देते हैं। कई जगह डेल मैक्स जैसे अपने मित्र व्लॉगर के साथ भी वे दिखाई दे जाते हैं।

मूलतः लेविस ऐसे घुम्मकड़ व्लॉगर हैं जिसमे वे लोक जीवन का चित्रण स्थानीय निवासियों से गहरी संवेदनाओं के साथ करते चले जाते हैं। एकत्रित लोग उनकी टूटी फूटी हिंदी और उर्दू सुनकर काफी प्रभावित होते हैं और अपनेपन की एक अदृश्य स्नेह डोर सबको जोड़े रखती है। उनके वीडियो से ही पता चला कि क्रिस लेविस ने अपनी कामचलाऊ हिंदी उर्दू ताइवान में उनके एक पाकिस्तानी मित्र से सीखी है, दिलचस्प यह है कि कई बार उनका वार्तालाप स्थानीय आम लोगों से बेहद घरेलू और आत्मीय हो जाता है।

कई बार वीडियो देखते हुए जब लगता है कि हमारे प्रिय व्लॉगर के साथ कुछ गलत हो रहा है या उसके कहे को कोई समझ नहीं रहा, भ्रम और असमंजस की स्थिति बन रही है तो एक दर्शक के रूप में हम कोई सहायता उनकी नहीं कर पाते। जैसे मुंबई में कोई क्रिस के साथ ठगी का प्रयास करता है या मथुरा जैसी जगह पर माखन मिश्री के स्वाद के आनंद की उनकी इच्छा अधूरी रह जाती है। एक दर्शक के रूप में हम मात्र बेबस व्यक्ति की मनःस्थिति से भर जाने और व्यथित होने के अलावा क्या कर सकते हैं।

जब एक विदेशी पर्यटक और व्लॉगर यूट्यूब के लिए विडियो बनाता है। हिंदी सीखकर हिंदुस्तान को समझने के लिए हिंदुस्तान आया है। वह हिंदी बोलता है तो हर व्यक्ति के मन में खुशी और गौरव की लहर दौड़ जाती है। मुस्कुराहटें बिखर जाती हैं। और जब कोई असहज करने वाली बात दिखाई देने लगती है तो मन का दुखी हो जाना  स्वाभाविक है।

व्लॉगर बाजार में चहलकदमी करते हुए दर्शकों को श्रीकृष्ण और कंस की कहानी सुनाता हुआ कृष्ण की प्रिय वस्तु 'माखन मिश्री' की बात भी करता है। उसका स्वाद लेना चाहता है  किंतु उसे पता नहीं है कि यह क्या चीज होती है। हर दुकान पर वह इसके बारे में पूछता जाता है। एक जगह वह इसे मांगता है तो उसे मिश्री पकड़ा दी जाती है। दुकानवाला मक्खन के लिए आगे की किसी दुकान का पता बता देता है। व्लॉगर वहां पहुंचकर माखन मांगता है। यह दूध की दुकान है। माखन मांगने पर दूधवाला आधा किलो गर्म दूध पॉलिथीन की थैली में पैक कर दे देता है। पर्यटक इसे मक्खन ही समझता है। वीडियो देखते हुए हमें बहुत दुख और अफसोस होता है। कैसे व्लॉगर की मदद करें?

होटल पहुंचकर व्लॉगर क्रिस लेविस किसी तरह मिनरल वाटर की खाली बोतल में तथाकथित माखन (दूध) भरता है। मिश्री के कुछ टुकड़े उसमें घोलने की कोशिश करता है। हम दुखी होते जा रहे हैं। विदेशी व्लॉगर असीम उत्साह और खुशी से भरा है। उसके चेहरे पर संतुष्टि का भाव है। बोतल से मुंह लगाकर सारा दूध मिश्री एक सांस में गटक जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की मनपसंद वस्तु का सेवन करने का सुख सहज उसके चेहरे पर देखा जा सकता है।

विडियो देखते हुए हमे आत्मग्लानि सी होने लगती है। काश कोई उसे वहां बता पाता कि 'माखन मिश्री' क्या होती है। मन को दिलासा देते हैं,भगवान तो बस भाव को ग्रहण करते हैं। हो सकता है उस व्लॉगर को दूध मिश्री में भी वही स्वाद और आनंद मिला होगा जो सचमुच श्रीकृष्ण को मिलता था।

विडियो खत्म हो जाता है। पर्यटक महंगे होटल के बिस्तर में चादर तान कर सो जाता है। इधर स्मार्ट टीवी बंद करने के बाद भी हमारी आंखों में नींद नहीं उतर पा रही। भीतर कुछ भीगता रहता है।

घुम्मकड़ो के ऐसे वीडियो लंबे समय तक हमे झकझोरते रहते हैं।

ब्रजेश कानूनगो

Saturday, 24 August 2024

हज्जाम की दुकान पर घुम्मकड़

हज्जाम की दुकान पर घुम्मकड़

निर्माण कार्य और सृजन प्रक्रिया को निहारने का अपना अलग सुख होता है। बात चाहे वैज्ञानिक प्रक्रिया की हो, किस्सागोई की हो, भवन निर्माण की हो या सड़क निर्माण के लिए भूमि समतलीकरण की, लोग जमा होकर पल पल में घटने वाली गतिविधि को जानने को उत्सुक हो जाते हैं। ठीक उसी तरह केश कर्तनालय में हेयर कटिंग प्रक्रिया को देखना भी हमेशा से सबको मोहता रहा है। यूट्यूब पर घुम्मकड़ो द्वारा बनाए विडियोज में बारबर शॉप या सैलून में उनको अपने केश कटवाते देखना भी बड़ा आनंददायी होता है।

जिन लोगों ने घुम्मक्कड़ी को ही अपने जीवन का मुख्य ध्येय बना लिया है, उनके बनाए यूट्यूब वीडियो ब्लॉग्स को देखकर महसूस किया है कि वे कई कई महीनों तक अपने घर या अपने वतन से दूर रहते हैं। एक देश से दूसरे देश की यात्राएं करते हुए ही उनका जीवन आगे बढ़ता रहता है। यही उनका प्रोफेशन हो जाता है,और प्रायः विडियो निर्माण या यूट्यूब आदि पर उनके ब्लॉग्स से होने वाली आय ही उनका आर्थिक सहारा हो जाता है।

सामान्य दर्शकों और अपने फॉलोअर्स को दुनिया भर की मानस यात्रा और पर्यटन का आभासी सुख देने वाले इन युट्यूबर्स की रोजमर्रा की अनेक गतिविधियों, उनकी जरूरतों, कठिनाइयों को भी हम इनके विडियोज के जरिए महसूस कर  पाते हैं। इनका होस्टलों, गुरुद्वारों, महंगी होटलों से लेकर किसी मेहमान या काउच सरफर के घर रुकना,ठहरना, खाना बनाना, खाना पीना भी पूरक रूप से हमारा खूब मनोरंजन करता है। 

लंबे समय तक जब केवल घुम्मकड़ी करते हुए भटकते रहते हैं, तब अचानक इन्हे एक दिन परदेस के अजनबी शहर में इस बात का भान होता है कि इनके विडियोज की तरह इस दौरान सिर और दाढ़ी के बाल भी बढ़ते चले गए हैं तो ये लोग भी किसी स्थानीय बारबर या सैलून की तलाश करते नजर आते हैं। हमने महसूस किया है कि लगभग सभी ट्रेवल ब्लॉगर्स बारबर शॉप पर जाकर अपने बालों को कटवाने, हजामत बनवाने, मसाज करवाने के विडियोज बहुत रुचि से बनाते हैं। ये विडियोज भी बहुत दिलचस्प होते हैं, इनको देखना भी बहुत अच्छा लगता है। अनावश्यक को हटा देना ही सौंदर्य की प्राथमिक शर्त होती है। एक दो घंटे सैलून में बिताकर ये घुम्मकड़ पुनः बाहर निकलते हैं तब उनकी आभा देखते ही बनती है।

यों देखा जाए तो आम आदमी के जीवन और समाज में हज्जाम, बारबर या नाई की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जिन कलाकारों के बगैर हमारी दैनंदिनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती, उनमें हमारे व्यक्तित्व की सज्जा करने वाला यह भी एक प्रमुख प्राणी होता है।  कई फिल्मों, नाटकों, टीवी शो में भी बारबर या नाई को केंद्र में रखकर कई दृश्य रचे गए हैं। ख्यात फिल्म शोले की जेल  के खबरी हरिराम नाई को याद कीजिए, जो जेलर को पल पल की खबरें पहुंचाता रहता है। ख्यात हास्य चरित्र मिस्टर बीन के उस दिलचस्प दृश्य को याद कीजिए जहां खुद हजामत बनवाने जाते हैं और सैलून में हज्जाम की अनुपस्थिति में अन्य लोगों के अजीबो गरीब हरकतों के साथ बाल काटते हुए दर्शकों को खूब हंसाते हैं। घुम्मकड़ो द्वारा बारबर शॉप या सैलून में बाल कटवाने और मसाज के ये विडियो भी बहुत दिलचस्प और रुचिकर होते हैं।

कई बार ब्लॉगर और हज्जाम दोनों ही एक दूसरे की भाषाएं नहीं जानते। तब बड़ी मुश्किल से यूट्यूबर अपनी पसंद बता पाता है। कई बार बड़ी हास्यास्पद कटिंग और हेयर स्टाइल बन जाती है।  कई सैलून में घंटो प्रतीक्षा के बाद मुख्य नाई ग्राहक के सिर को संवारता है, इसके पूर्व अन्य कई नौसिखिया स्त्री पुरुष सिर का खेत जोत चुके होते हैं। लेकिन शानदार फेस मसाज और हेड मसाज के बाद हर यूट्यूबर के चेहरे पर खुशी चमकने लगती है। एक शानदार और रोचक कंटेंट वाला वीडियो हमारे लिए बनकर तैयार हो चुका होता है।

घुमक्कड़ी में बाल कटवाने वाले विडियोज में मुझे अजरबैजान के दाऊद अकुंदजादा के ब्लॉग्स सबसे अलग और संवेदनाओं से भरपूर लगे। उनकी प्रस्तुतियों में कई बार बड़ी मार्मिकता और उदारता के दर्शन होते हैं।  दाऊद बहुत उदार, दयालु और संवेदनशील प्रकृति के घुम्मक्कड़ हैं।  दाढ़ी रखते हैं, कई विडियोज में उन्हें बारबर शॉप पर जाकर बाल कटवाते, दाढ़ी संवरवाते, मसाज करवाते देखा जा सकता है।

विकासशील देश के एक कस्बे के भ्रमण के दौरान वे हेयर कट करवाने बेहद खस्ताहाल शॉप में पहुंचते हैं। बारबर को अंग्रेजी भाषा नहीं आती, दाऊद को स्थानीय बोली नहीं आती। किंतु इशारों और मुस्कुराहटों से बात बन ही जाती है। दाढ़ी की मात्र स्ट्रीमिंग कराने गए दाऊद उसके काम से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि न सिर्फ हेड मसाज कराते हैं बल्कि फेस मसाज और बॉडी मसाज भी उस बेहद साधारण से सैलून में करवाकर प्रफुल्लित हो जाते हैं। बाद में उस कलाकार को मेहनताना तो देते ही हैं किंतु इससे आगे बढ़कर एक बहुत बड़ी राशि उसकी शॉप के नवीनीकरण के लिए भी भेंट कर देते हैं। इस बार दाउद के चेहरे की ताजगी से कहीं अधिक चमक बारबर की आंखों में दिखाई पड़ती है। यूट्यूबर की दयालुता देखकर हम जैसे भावुक दर्शकों की आंखे भर आती हैं। ऐसे ही सड़क किनारे किसी पेड़ की छांव में दुकान लगाए एक आम और गरीब नाई से दाढ़ी संवारने पहुंचने में उन्हें कोई झिझक नहीं होती। जरा सी लाइनिंग करवाने के बहाने वे अफगानिस्तान, बांग्ला देश, श्रीलंका,भारत आदि देशों में शहरों की सड़कों की पटरी पर बैठे कारीगर, कलाकारों की मदद करते हैं, उन्हे प्रेम से गले लगाते हैं, परिवार के दुख दर्द जानने की आत्मीयता दिखाते हैं। मन भाव विभोर हो उठता है। वीडियो किसी सार्थक और मार्मिक कविता में बदलता जाता है। एक आम यूट्यूबर किसी रचनाकार में रूपांतरित हो जाता है। सृजनात्मकता की यही उपस्थिति हमारे वीडियो ब्लॉग्स अवलोकन को संतुष्टि से भर जाती है।

ब्रजेश कानूनगो

Monday, 5 August 2024

देवदूत जैसे उदार घुम्मकड़

देवदूत जैसे उदार घुम्मकड़ 

अजरबैजान मूल के घुम्मकड़ और ब्लॉगर दावुद अकुंजादा को पहली बार उनके अमृतसर यात्रा के वीडियो में देखा था। कद काठी में पूरे पठान लगते हैं, भारतीय वस्त्रों की दुकानों पर बड़ी मुश्किल उनके नाप का कुर्ता, शूज या जूता मिल पाता है। जहां जाते हैं दुकान में सबसे बड़े नाप का परिधान मांगते हैं।  

बहरहाल, जब वे अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में गए तो अपने सिर पर पगड़ी बंधवाई। गुरु गोविंदसिंह द्वारा स्थापित सिद्धांतों के अनुसार खालसा सिक्खों द्वारा धारण किए जाने वाले पांचों ककार चीजों याने  केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कच्छा के बारे में जानकारी ली, उन्हे रुचिपूर्वक देखा समझा भी।    

कई ब्लॉगरों को हमने पवित्र स्वर्ण मंदिर दर्शन के लिए जाने के पूर्व सिक्ख पुरुषों द्वारा बांधी जाने वाली पगड़ियां बंधवाने की प्रक्रिया को देखा है। इसका वीडियो देखना भी बहुत दिलचस्प होता है। परिसर से पहले कारिडोर में अनेक ऐसी दुकानें हैं जहां से पगड़ी हेतु मनपसंद रंगीन कपड़े खरीद कर वहीं अपनी सेवाएं देते कर्मियों से अपने सिर पर उसे बंधवा सकते हैं। प्रक्रिया का वीडियो बना सकते हैं। दावुद का व्यक्तित्व बहुत प्रभावी है और जब वे अपने सिर पर पगड़ी धारण करते हैं तो पूरे सरदार लगते हैं। उनकी शानदार दाढ़ी उनके इस अवतार को आकर्षण और पूर्णता प्रदान कर देती है। 

अपने विडियोज में उन्होंने स्वर्ण मंदिर की पूरी सैर कराई। लंगर की रसोई का गहनता से दर्शन कराया। लंगर की पंगत में बैठकर भोजन किया। सबसे अंत में दान काउंटर पर जाकर एक बड़ी राशि वहां भेंट की। इन्ही वीडियो को देखते हुए ज्ञात हुआ कि दावुद जहां की सैर करते हैं और वीडियो बनाते हैं उससे होने वाली आय को उसी स्थान के लोगों में या कल्याण कार्यों में दान स्वरूप खर्च कर देते हैं। उनकी यह उदारता उनकी हर यात्रा के विडियोज में देखी जा सकती है। 

अजरबैजान में बहुसंख्यक आबादी इस्लाम धर्म को मानने वालों की है लेकिन वह एक धर्म निरपेक्ष देश है तथा वहां समाज का एक बड़ा वर्ग किसी धर्म का अनुयाई नहीं है। एकाध वीडियो में दावुद भी इसी बात को स्वीकारते दिखाई देते हैं। दावुद मनुष्यता को धर्म मानते हैं। सभी धर्मों,समुदायों का सम्मान उनके मन में है। सब जगह जाते हैं, सम्मान व्यक्त करते हैं और वीडियो में यह सब सहजता से देखा जा सकता है। अपनी उदारता से वे दर्शकों का मन जीत लेते हैं। किसी सांता क्लाज या देवदूत की तरह वे वृद्ध,  बच्चों, कमजोर और जरूरतमंद के लिए अकस्मात देवदूत की तरह प्रकट हो जाते हैं।  

दावुद ने भी यूट्यूब माध्यम में पूर्णतः ट्रवेलर ब्लॉगर के रूप में प्रवेश अपनी नौकरी छोड़कर किया है। वे सामान्यतः अच्छी होटलों में ठहरते हैं। कई बार उस जगह की सबसे लग्जरी होटल में रुकते हैं। वीडियो टूर देते हैं। नाश्ता, लंच, डिनर, स्विमिंग पूल, टेरेस, जिम आदि सभी पक्षों का आस्वाद अपने दर्शकों को कराते हैं। लेकिन यह केवल एक पक्ष है, बड़ा महत्वपूर्ण दूसरा पक्ष यह है कि वे सामान्य लोगों के बीच अपना अधिकांश समय सामान्य परिदृश्य में गहरे से उतरते जुड़ते हुए बिताते हैं। 

ज्यादातर वे खाना बाजार में स्थानीय रेस्टोरेंट में करते हैं और उसमें भी स्ट्रीट फूड और छोटे छोटे स्टाल्स उनकी प्राथमिकता में होते हैं। बाजार में घूमते हुए जब देखते हैं कि कोई बहुत अच्छा स्थानीय शरबत मिल रहा है तो वह अवश्य उसका आनंद उठाएंगे। ऐसे में उनके आसपास लोगों की भीड़ जुट जाती है तो  दुकानदार से बोलते हैं कि इन सबको भी यह दे दीजिए, उसका पूरा पेमेंट वही कर देते हैं। 

किसी दुकानदार की कमजोर स्थिति देखकर वे भावुक भी हो जाते हैं ,पूछते हैं, भाई आप दिन भर में कितना कमा लेते हैं?  मान लीजिए वह व्यक्ति  बता देता है कि मैं दिन भर में  500 रुपए कमा लेता हूं तो दाऊद उससे उसके स्टाल का पूरा सामान फ्री लोगों में वितरित करने का कह देते हैं,  सब लोगों को आप मेरी तरफ से फ्री बांट दीजिए, और आप आज के लिए कुछ नहीं करें, आप घर जाकर आराम करें।  यह दया भाव एक जरूरतमंद छोटे कारोबारी व्यक्ति के लिए देखकर बहुत अच्छा लगता है। 

एक बार शायद कोलकाता या बांग्लादेश में कहीं घूम रहे थे।  सब्जी मंडी में एक बूढ़ी महिला अपनी छोटी सी बास्केट में लहसुन रखकर सड़क किनारे बैठी थी। वे उससे स्नेहपूर्वक बातें करते हैं, खैरियत पूछते हैं, उसकी सारी लहसुन खरीद लेते हैं। वह लहसुन आगे जाकर उन्होंने और किसी गरीब जरूरतमंद परिवार को भेंट कर दी।  लहसुन के पूरे दाम चुका के कुछ और राशि अतिरिक्त देकर उन्होंने कहा कि आज आप आगे काम नहीं करेंगे, आप घर जाइए आराम करिए।  

दावुद अकुंजादा की उदारतापूर्ण मार्मिक अनुभूतियों से गुजरना चाहते हैं तो उनकी श्रीलंका सीरीज के विडियोज को अवश्य देखा जाना चाहिए। स्कूटर से उनको ग्रामीण क्षेत्रों में घूमते, ग्रामीणों, खेत में काम करते मजदूरों से वार्तालाप करना, छोटे छोटे ग्रामीण स्टालों, टापरियों पर जाकर खाना पीना, आत्मीयता से सुख दुख की बातें करना फिर उन सबकी मदद करना। निर्धन परिवारों और बच्चों की संस्थाओं में जाकर उनसे मेल मुलाकात, सहयोग का हाथ बढ़ाना और आर्थिक सहयोग करना, बहुत अद्भुत और मानवीय संवेदनाओं का प्रेरक गुलदस्ता सा बन जाते हैं ट्रेवल ब्लॉगर दावुद अकुंजादा।

ट्रेवल वीडियो देखते हुए यदि ब्लॉगर की अनुभूतियां हमारी अनुभूति में रूपांतरित होकर  संवेदनाओं और नैतिक मूल्यों का थोड़ा भी प्रस्फुटन करती हैं तो क्यों न हमें इनका भरपूर स्वागत और आभार व्यक्त करना चाहिए ! साधुवाद दावुद!

ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, 30 July 2024

भोजन वही जो हम चाहें, कीमत वही जो तुम चाहो

भोजन वही जो हम चाहें, कीमत वही जो तुम चाहो


बहुत से ट्रेवल व्लॉगर्स पूर्व तैयारियों के साथ अपने वीडियो बनाते हैं। अपने हाथों में कैमेरा या मोबाइल स्टिक थामें हुए दृश्य का फिल्मांकन नहीं करते, बल्कि उनके साथ उनकी एक टीम होती है, कैमरामैन होता है, ड्रोन कैमेरा सहित आधुनिक तकनीक वाले अन्य उपकरण अपने साथ लेकर वे पूर्व निर्धारित डेस्टिनेशन या विशिष्ठ महत्व के स्थलों की सैर करते हैं।  जिन ऐसे व्लॉगरों के वीडियो हम यूट्यूब माध्यम पर नियमित देखते हैं उनमें पहला नाम वीजा टू एक्सप्लोर के हरीश बाली का लिया जा सकता है। 

हरीश बाली की विशेषता यह है कि वह जिस क्षेत्र में जाते हैं वहां के समूचे परिवेश पर उनकी नजर रहती है। वहां के स्थानीय खानपान के अलावा वहां के ऐतिहासिक महत्व, वहां की लोककलाएं, प्राकृतिक सौंदर्य, इतिहास और पर्यटन को वे समग्रता से शामिल करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए आवश्यकता होने पर गाइड की सेवाएं लेकर भी वीडियो को असंदिग्धता और प्रामाणिकता मिल जाती है। प्रायः हरीश बाली पर्यटन विभागों के गेस्ट हाउसों या उनके द्वारा संचालित होटल में ठहरने को प्राथमिकता देते हैं। अन्यथा अन्य होटलों का चयन भी वे सूझबूझ के साथ करते हैं। 

जिस क्षेत्र में वे जाते हैं तो वहां के स्थानीय भोजन का जरूर आनंद उठाते हैं।  छत्तीसगढ़ जाएंगे तो  वहां का भोजन करना पसंद करेंगे, उड़ीसा में जाएंगे तो उड़ीसा के स्थानीय परंपरागत, वहीं का बना, उन्हीं से बनवाया हुआ भोजन खाएंगे।  मध्यप्रदेश के पचमढ़ी और कान्हा अभ्यारण्य की यात्रा में उन्होंने इसी तरह का भोजन किया।  स्थानीय ग्रामीणों के हाथों का बना भोजन किया। अपने दर्शकों को वे उस भोजन के जायके और उसमें प्रयुक्त सामग्री से भी बखूबी परिचित करवाते जाते हैं। स्थानीय स्ट्रीट फूड का जायका तो हरेक पर्यटक या व्लॉगर लेता ही है। बाली भी ऐसे वीडियो बनाते हैं। जोधपुर की कचोरी प्रसिद्ध है तो वहां कचोरी खाएंगे अगर कहीं का गुलाब जामुन या पेठा मशहूर है तो उसका आनंद भी उठाना ही है।  इंदौर का पोहा जलेबी, गराडू और भुट्टे का कीस कैसे छोड़ा जा सकता है। 

ट्रेवल व्लॉगरों के वीडियो में खानपान के दृश्यों को देखने में भी बड़ा आनंद आता है।  इसी तरह से डेली मैक्स जैसे विदेशी ब्लॉगर तो मुंबई या अहमदाबाद से केवल इंदौर में रात्रिकालीन सराफा बाजार के खाऊ बाजार के स्वादिष्ट स्वाद के लोभ में ही उड़े चले आते हैं। फिर छप्पन दुकान और इंदौर के अनेक खाऊ ठिए उन्हें तीन चार दिनों तक बांधे रखते हैं।   हालांकि ये लोग ट्रेवल ब्लॉगर हैं  लेकिन अपने वीडियो में खान-पान को भी बहुत महत्व देते हैं। यह सब देखते हुए  दर्शक न सिर्फ भारतीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यंजन संस्कृति से परिचित हो पाते हैं।  

राजस्थान के बंसी बिश्नोई जो बहुत अच्छे ट्रेवल ब्लॉगर हैं, जब चीन का दौरा करते हैं, तो उनको दो दिन तो समझ में ही नहीं आता है कि शाकाहारी भोजन कहां व कैसे मिलेगा।  उन्हे बहुत परेशानी होती है तो मुंह से शब्द निकल जाते हैं, घर से जो भाभी ने लाडू (लड्डू) बनाकर साथ में रखे हैं उनसे ही काम चलाऊंगा। देखते हुए अच्छा लगा कि ये लोग भी घर की बनी चीजें अपने साथ रखकर चलते हैं। हमारे यहां तो यह परंपरा रही है कि  लंबी यात्रा पर जाने से पूर्व लिट्टी, परांठे, थेपले, पूरियां साथ में मां अवश्य बांध ही दिया ही करतीं थीं। कुछ ब्लॉगर लोग अपने दो-तीन दिन के नाश्ते का सामान घर से साथ में ले कर निकलते हैं। मुझे याद है हमारी दादी दूध में गूंथे आटे की रोटियां और कैर सांगली की सब्जी यात्राओं के समय साथ लेकर चलती थीं, ये चीजें अधिक समय तक खराब नहीं होती हैं। भारतीय व्लॉगरों को भी ऐसा करते देख हम अतीत में पहुंच जाते हैं। नीदरलैंड के हमारे प्रिय सौरव और मेघा (देसी कपल ऑन द  गो ) भी वेजिटेरियन हैं और खानपान के मामले में  कई बार इनको बहुत दिक्कत आती हमने देखी है। ये लोग सबसे पहले सर्च करते हैं कि भारतीय रेस्टोरेंट कहां है, शाकाहारी खाना कहां मिलता है।  तो वहां जाकर खाते हैं, और जब वहां भी कुछ नहीं मिलता है तो मैंने उन्हें यह भी कहते सुना कि अब तो हॉस्टल जाकर अपने को थेपले ही निकालना पड़ेंगे। गुजराती थेपला, और उसके साथ दही और दूध तो हर जगह मिल ही जाता है। तो इससे काम चलाते हैं।  

वैसे समूची दुनिया में जितने रेस्टोरेंट है उनमें थोड़े प्रयास से हमको भारतीय खाना मिल ही जाता है, भारतीय कुक और खानसामें  मिल जाते हैं। भारतीय भोजन और रेस्टोरेंट काफी लोकप्रिय भी हैं।  कई वीडियो में देखा कि ज्यादातर शाकाहारी भोजन बनाने वाले कुक उत्तराखंड से आते हैं, कुछ नेपाल, बांग्ला देश और पाकिस्तान के भी मिल जाते हैं, हमारे साउथ इंडियन भाई  भी वहां भारतीय भोजन पकाते खिलाते मिलते हैं। 

विदेशी धरती पर भूख से व्याकुल किसी भारतीय को दाल मखानी, राजमा चावल, पालक पनीर, पकौड़ा कड़ी और छोला पूरी मिल जाए तो और क्या चाहिए! भोजन जो हम चाहें,कीमत जो तुम चाहो। 

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ब्रजेश कानूनगो 

 

साइकिल पर सवार घुमक्कड़ का खानपान

साइकिल पर सवार घुमक्कड़ का खानपान 


हर व्यक्ति की कुछ नैसर्गिक जरूरतें होती हैं। वह आप हम जैसा सामान्य व्यक्ति हो या सार्वजनिक क्षेत्र का कोई विशिष्ठ व्यक्ति, नेता, अभिनेता ही क्यों न हो, रोजमर्रा के कुछ कार्य तो करना ही होते हैं। घुम्मकड़ और पर्यटक भी इनसे अलग नही होते बल्कि इन्हे तो थोड़ी अधिक ही परेशानियों का सामना करना पड़ता है।   

जीवन का अधिकतम समय यात्रा, घुम्मकड़ी और पर्यटन में गुजार देने वाले दुस्साहसी ट्रैवल व्लॉगर इन सबके बीच हमारे लिए वीडियो भी बनाते हैं और दुनिया के खूबसूरत नजारों, जनजीवन के दृश्यों को हमारे टीवी, मोबाइल स्क्रीन तक पहुंचा देने का कार्य करते रहते हैं।  उन्हे देखते हुए उनके अनुभव हमारे अनुभव में बदलते जाते हैं।यह एक तरह से ब्लॉगर का रचनात्मक योगदान ही कहा जाएगा।  

घुम्मकड़ को भी अपनी यात्रा और प्रवास के दौरान भूख सताती है, अपने को स्वच्छ और स्वस्थ बनाए रखना होता है। विदेशों में घुम्मकड़ी के दौरान खासतौर से शाकाहारी लोगों को समस्याएं आना बहुत स्वाभाविक है। चीन और कई साउथ एशियन देशों में तो हमारे यहां का सामिष याने नॉन वेजिटेरियन व्यक्ति भी मुश्किल में पड़ जाता है। अनेक जीवों से बनाए भोजन की कल्पना से ही सिहरन होने लगती है। अनेक घुम्मकड़ भारतीय रेस्टोरेंट ढूंढते हैं सर्च करते नजर आते हैं।  

जो साइकिल से घुम्मकड़ी करते हैं वे खाने का प्रबंध कैसे करते हैं,  उसके बारे में चर्चा करना बड़ा दिलचप होगा।  विश्व साइकिल यात्री साइकिल बाबा जिनका वीडियो हम देखते हैं अब तक 109 देशो की यात्रा साइकिल से कर चुके हैं। साइकिल चलाते हुए अगर रास्ते में कुछ साधन नहीं मिलता है तो सामान्यतः वे सड़क के किनारे अपना कैंपिंग कर लेते हैं, चाहे पेट्रोल पंप पर हो या कोई कैंपिंग एरिया अपना तंबू तान लेते हैं। अपने साथ में एक छोटा सा फोल्डिंग स्टोव रखते हैं, जो गैस के छोटे से गैस सिलेंडर से जुड़ जाता है। ट्रेवलर्स इसे अच्छी तरह जानते हैं, बहुत आम है। इस पर आप अपना खाना पकाना कर सकते हैं। साइकिल बाबा भी एक बर्तन रखते हैं,  कुछ ऐसी सामग्री अपने साथ रखते हैं जो रेडी टू ईट होती हैं। सब्जियां, चाय,काफी पाउच,मैगी कुछ फल भी साथ होते हैं उनके। उनकी साइकिल पर पानी की बोतलें लगाने के लिए व्यवस्था होती है। रास्ते के पेट्रोल पंप से जहां स्टोर होता है या किसी सुपरमार्केट से अपने खाने पीने का सामान थोड़ा-थोड़ा खरीद कर रखते हैं, अगले पड़ाव तक के लिए उतना ही होता है यह सब। किसी ओट के सहारे हवाओं से बचते हुए वहीं सड़क किनारे या कैंपिंग स्थान पर वहीं पर अपना खाना पकाते हैं, और खा लेते हैं। यह सब उन्हे करते हुए देखना भी बड़ा अच्छा लगता है।  थोड़े आराम के बाद या अगली सुबह फिर आगे की यात्रा पर निकल पड़ते हैं, अपनी धन्नो साइकिल पर तिरंगा लहराते हुए। 

वे कभी होटल में भी ठहर जाते हैं, कोई होम स्टे भी मिल जाता है, हॉस्टल की डोरमेट्री का भी उपयोग कर लेते हैं। सबसे दिलचस्प तो यह होता है कि पूरे विश्व में उनके भारतीय प्रशंसक और सब्सक्राइबरों का आतिथ्य उन्हे मिल जाता है। कई बार वे उन भारतीयों के परिवारों, दोस्तों के साथ भी खूबसूरत लम्हों को जीते हैं। दोस्तों के घर पर चार-पांच दिन भी रह लेते हैं। उनके साथ स्थानीय भ्रमण करते हैं, उन्ही लोगों के घर उनके साथ ही भोजन करते हैं।  यह देखकर बहुत अच्छा लगता है कि जब वह वहां से अगले पड़ाव के लिए यात्रा शुरू करते हैं तब मेजमान परिवार उनके साथ यथोचित भोजन भी साथ पैक करके देता है। वही पराठे,खिचड़ी या अन्य पकवान जब रास्ते में कहीं रुककर खोलते हैं तब जिस आत्मीयता से मेहमान परिवार को याद करते हैं तो बड़ी मार्मिक अनुभूति होती है।  बहुत अच्छा लगता है यह देखना कि भारतीय लोग पूरे विश्व में किस तरह से फैले हुए हैं और किसी भारतीय साइकिल यात्री का जिस प्रकार स्वागत सम्मान करते हैं, वह सचमुच देखने लायक होता है, मन को भिगो देता है।  

अफगानिस्तान, ईरान या इस तरह के अन्य देशों में जब विश्व साइकिल यात्री अपनी साइकिल से किसी हाईवे से गुजर रहे होते हैं तो अनेक कार या ट्रक चालक अपने वाहन रोक कर उनके पास चले आते हैं। बहुत से ट्रक चालक साउथ एशियन देशों के हमारे बंधु भी होते हैं जो थोड़ी थोड़ी हिंदी, उर्दू और भारतीय भाषाओं को समझते हैं, धन्नों पर तिरंगा लहराते देख साइकिल यात्री के स्वागत में प्रफुल्लित इन अजनबियों से मुलाकात गदगद कर देती है।  कोई अफगानिस्तान का होता है, कोई पाकिस्तान का होता है, बांग्लादेश का होता है कोई म्यामार का भी। जो एक दूसरे की भाषा नही जानते समझते वे भी बड़ी आत्मीयता से मिलते हैं। 

सबसे दिलचस्प तो तब होता है वे ट्रक ड्राइवर साइकिल यात्री को अपने ट्रक के पास ले जाते हैं, ट्रक में बने एक विशेष दराज को खोलते हैं तो पूरा किचन टेबल बाहर निकल आता है जहां पूरी रसोई का सामान सजा होता है। उसी पर खाना पकाना होता है और साइकिल बाबा को भी पेश किया जाता है। 

सड़क से गुजरते सद्भाव से भरे कार चालक और शुभचिंतक पानी की बोतलें और स्वल्पाहार उन्हे ऑफर करते हैं। जरूरत होती है तो वे स्वीकार लेते हैं, जरूरत नहीं होती तो धन्यवाद और मुस्कुराते हुए शुभकामनाएं व्यक्त कर देते हैं।
 
मुस्कुराहट, सद्भाव और सौहार्द्र की भाषा तो समूची पृथ्वी पर सब जानते ही हैं, साइकिल बाबा को जो निश्छल प्रेम मिलता है यह देखना सचमुच अद्भुत आनंद से हमें लबालब कर देता है। यूट्यूब पर साइकिल बाबा के नाम से उनका ट्रेवलॉग चैनल है जिसको देखते हुए हम भी कुछ हद तक उनके हमसफर बन जाते हैं और दुनिया के खूबसूरत लोगों और नजारों के  मानस साक्षी बन जाते हैं।  

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ब्रजेश कानूनगो

Monday, 22 July 2024

जीवित ज्वालामुखी और लावा पर कैंपिंग

जीवित ज्वालामुखी और लावा पर कैंपिंग 

स्कूल के शुरुआती दिनों में याने प्राथमिक, माध्यमिक कक्षाओं के समय हर साल भूगोल विषय की किताबों में पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर इसकी संरचना,वनस्पति, महासागरों, नदियों,पहाड़ों, प्राकृतिक  घटनाओं आदि के बारे में पढ़ाया जाता था। सातों महाद्वीपों के आकार प्रकार, विभिन्न महासागरों की विशालता और गहराई के बारे में समझाया जाता था। हरेक की जलवायु और उनकी भिन्न प्रकृति की जानकारी दी जाती थी। इसके लिए हम लोग पुस्तक विक्रेता से एक एटलस याने मानचित्रों की एक पुस्तक भी खरीद लाते थे, जिसमे इन्ही सब बातों को सचित्र दर्शाया गया होता है।

इसी दौर में हमने भूगर्भीय हलचलों के बारे में पढ़ा। भूकंप और ज्वालामुखियों के बारें में पढ़ते हुए बहुत रोमांचित हो जाते थे। ऐसी घटनाएं हमारे लिए उस वक्त अजूबा होती थीं। किस तरह धरती कांपती है और किस तरह जनजीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। समाचार पत्रों में कभी कुछ पढ़ने को मिल जाता था तो अनुमान लगाकर काल्पनिक ताल मेल बैठाने की कोशिश करते थे। लेकिन जब से दूरदर्शन या टीवी आया तब से नई पीढ़ी ने उसके जीवंत दृश्यों को स्क्रीन पर साक्षात देखा है। ज्वालामुखी कैसे होते हैं, किस तरह वे लावा उगलते हैं, यह सब नई पीढ़ी के साथ साथ उम्रदराज लोग भी अब इंटरनेट के माध्यम से साक्षात देख पाते हैं।

प्राकृतिक प्रकोप से सुरक्षित भूभाग के आम लोगों के लिए भी भूकंप, सुनामी और ज्वालामुखी की भयानक घटनाएं अब कल्पना और अनुमान की बातें नहीं रहीं।  आधुनिक टेक्नोलोजी की बदौलत इनसे हुआ विध्वंस, प्रभाव और खौफनाक मंजर अब सबकी आंखों के सामने घटित होता नजर आता है। अब तो मनुष्य समाज को इतनी सुविधाएं प्राप्त हो गईं है कि वह ज्वालामुखी फटने जैसी खौफनाक घटना को भी भौतिक रूप से घटना स्थल के सामने खड़े होकर अपनी आंखों से देख सकता है। ज्वालामुखी तक पहुंचने के लिए अब पर्यटन व्यवस्थाएं भी काफी चलन में आ गईं हैं।

जीवित ज्वालामुखी पर्यटन कोई नई बात नहीं रही है। कई शताब्दियों से सक्रिय ज्वालामुखियों की कष्ट साध्य यात्रा करते रहे हैं। वर्तमान समय में भी हर साल लाखों पर्यटक सक्रिय और निष्क्रिय ज्वालामुखियों को देखने जाते हैं। वे इनकी भयानकता के बावजूद इसके शानदार नज़ारे देखना चाहते हैं। वे ज्वालामुखी पर्वतों के पास के खूबसूरत सूर्योदय और सूर्यास्त का आनंद लेना चाहते हैं। विस्फोटों और धधकते लावा के बहाव को अनुभव करते हुए उसकी शानदार तस्वीरें दुनिया के अन्य लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।

कई देसी विदेशी घुम्मकड़ों,पर्यटकों  को ऐसा करते हमने यूट्यूब पर अनेक ट्रेवल विडियोज में देखा है कि वे किस तरह ऐन ज्वालामुखी की तलहटी तक पहुंचते हैं, कैंप में सोते हैं और विस्फोटों के समय उन दृश्यों को देखते हैं और कैमरों में कैद कर लेते हैं। विडियोज बनाते हैं। 

इसी वर्ष (2024) के मार्च की एक खबर पढ़ी थी कि आइसलैंड के दक्षिणी हिस्से में ज्वालामुखी फटने के बाद वहां आपातकाल की घोषणा कर दी गई। इससे पहले इस यूरोपीय देश के रेकजेन्स प्रायद्वीप में बीते साल दिसंबर 2023 के बाद यह चौथा ज्वालामुखी विस्फोट था। इसी बात से इसकी भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है कि ज्वालामुखी से निकला लावा पास के कस्बे ग्रिंडाविक  तक पहुंच गया और उसको खाली करवा लिया गया। इसके अलावा पर्यटकों की पसंदीदा जगह ब्लू लगून के पास मौजूद लोगों को भी वहां से हटाकर सुरक्षित जगह पहुंचाया गया। ज्वालामुखी से निकलने वाला लावा दो या अधिक धाराओं में अलग-अलग दिशाओं में बहने लगता है। स्थानीय प्रशासन को हमेशा अपने नागरिकों और पर्यटकों की चिंता बनी रहती है।

सामान्य जानकारी हेतु यहां बताना उचित होगा  कि आइसलैंड में 33 सक्रिय ज्वालामुखी हैं। यह देश मिड-एटलांटिक रेंज पर है जहां पृथ्वी की दो सबसे बड़ी टेक्टोनिक प्लेट्स मिलती हैं। पूरी पृथ्वी पर लगभग 1500 से ज़्यादा सक्रिय ज्वालामुखी हैं। हर साल लगभग 50-70 ज्वालामुखी फटते हैं। यूरोप में 82 ज्वालामुखी हैं और इनमें से 33 आइसलैंड में हैं। भारतीय भूभाग में दो ज्वालामुखी हैं, पहला, बैरन ज्वालामुखी जो बैरन द्वीप अंडमान निकोबार दीप समूह में मध्य अण्डमान के पूर्व में स्थित है तथा दूसरा, नारकोंडम ज्वालामुखी जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह के उत्तर अण्डमान के पूर्व में है। बैरन ज्वालामुखी को सक्रिय या जागृत ज्वालामुखी माना गया है।

बहरहाल, यहां बात ज्वालामुखी पर्यटन की ही करते हैं। इन क्षेत्रों में कई ट्रेवल कंपनियां हैं जो पर्यटकों को ज्वालामुखी पर्यटन कराती हैं, जिनमें उनको वहां तक ले जाना, खाने पीने की व्यवस्था करना, गाइड के नेतृत्व में ट्रेकिंग करवाना आदि शामिल होता है। यह सुरक्षित तो होता है लेकिन बहुत थका देने वाला भी। यूट्यूब माध्यम से हमने आइसलैंड और इथोपिया के कुछ जीवित ज्वालामुखियों पर दीपांश, शुभम, बंसी वैष्णव तथा कुछ अन्य विदेशी पर्यटकों के व्लॉगरों के वीडियो से यहां की रोमांचक यात्रा का मानस अनुभव लिया है। 

इथोपिया के ट्रेवल एजेंसी के लोग इन पर्यटकों को शक्ति शाली एस यू वी गाड़ियों से रेतीले मरुस्थल से होकर एर्टा ऐल ज्वालामुखी की तलहटी तक ले जाते हैं। यहां गिट्टियों की तरह का पुराना काला लावा बिखरा होता है जिसे समतल करके ट्रेवल एजेंसियों ने यहां खाने पीने की व्यवस्था लगाई होती है। रात को यहीं पर गाड़ियों पर लाद कर लाए गए गद्दों को बिछा दिया जाता है। हरेक पर्यटक की अलग रजाई, कंबल, बिस्तर होता है। ठंडे लावे के फर्श पर किसी धर्मशाला में ठहरे बारातियों की तरह सेवाएं की जाती हैं। कैंप क्षेत्र से रात भर विस्फोटों की आवाजें अवश्य सुनाई देती हैं किंतु ज्वाला और आग के दर्शन नहीं होते यहां से।

सुबह तड़के कोई चार बजे ज्वालामुखी के मुहाने के करीब पहुंचने का ट्रेकिंग शुरू हो जाता है। थोड़ी देर में ताजा निकला लावा दिखाई देने लगता है। यह कोई एकाध महीने पूर्व का लावा है। पैर रखने पर चटकने लगता है। कुछ यात्रियों के पैर भी जख्मी हो जाते हैं। कष्ट की कोई परवाह नहीं है। जीवित ज्वालामुखी को देखने का असीम उत्साह थकने नही देता, पीड़ा की अनुभूति नहीं होती। यही नजारा आइसलैंड के ज्वालामुखी पर्यटन का है।

थोड़ा और आगे पहुंचने पर अंधेरे में लाल लाल चमकती धाराएं नजर आने लगती हैं। ये बहते गर्म लावा की धाराएं हैं, जिनमे अंगारे बह रहे हैं। थोड़ा और आगे बढ़ने पर ज्वालामुखी पर्वत नजर आते हैं, आग उगलते दानव की तरह। धरती ने अपना मुंह खोल दिया है। चिंगारियां बरस रही है। पहाड़ के मुख से गर्म लावा कई धाराओं बहकर नीचे की ओर बहुत धीमी गति से कोई 20 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चला आ रहा है। गनीमत है पर्यटक ऊपर पहाड़ पर हैं।

थोड़ा और आगे ताजा दो तीन दिन पुराना लावा है अभी ठंडा नहीं हुआ है। जैसे सिगड़ी के भीतर अंगारों की आंच अभी बाकी है। आइसलैंड में बच्चो के साथ आया पर्यटक परिवार इन अंगारों पर अपने साथ लाए सींक टिक्के को गर्म करता है। अपने साथियों को भी देता है। यह अद्भुत है रोमांचक है। टीवी स्क्रीन पर हम आंखें गढाए इन बच्चों को आग के पास नहीं जाने की, उससे नहीं खेलने की चेतावनी देते लगते हैं। लेकिन वे सुरक्षित हैं, अब तक शायद घर भी लौट आए होंगे, तभी तो हम यह वीडियो देख पा रहे हैं।

जीवित ज्वालामुखी के इतने करीब पहुंच कर हम तक इन विडियोज को पहुंचाने के लिए आभार के साथ शुभकामनाओं के अलावा हमारे पास देने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है।


ब्रजेश कानूनगो

Saturday, 20 July 2024

क्या है यह रेनबो गैदरिंग !

क्या है यह रेनबो गैदरिंग !

प्रसिद्ध घुम्मकड़ गैब्रियल ट्रेवलर का एक ट्रेवल व्लाग उनकी यूट्यूब चैनल पर देख रहा था। गैब्रियल बहुत सालों से लगभग बीस पच्चीस वर्षों से दुनिया की सैर कर रहे हैं और ट्रेवल वीडियो बना रहे हैं। उन्होंने कई देशों की कई कई यात्राएं की हैं।  अपने देखे घूमें स्थानों पर वे बरसों बाद पुनः यात्रा पर आते हैं और स्थितियों और दृश्यों में आए परिवर्तनों का विश्लेषण भी बहुत प्रभावी रूप से करते हैं। उत्तर भारत की देवभूमि उत्तराखंड, उत्तर के हिमालयीन सौंदर्य के अलावा नेपाल आदि में पैदल भ्रमण करते हुए उनकी बातचीत बहुत प्रभावी और दिलचस्प रही है। हाल फिलहाल में उन्होंने मध्यप्रदेश के मांडू, ओंकारेश्वर, महेश्वर और उज्जैन की यात्राएं की हैं। मांडू में उनको ऐसे स्थानों पर हमने साइकिल से भ्रमण करते देखा जहां हम जैसे स्थानीय पर्यटक भी नही गए होंगे। पर्यटन में देखने समझने और उनकी व्याख्या से हमे भी नई दृष्टि या नजरिया मिलता है।

पिछले दिनों इन्ही का एक वीडियो देख रहा था जिसमे गैग्ब्रियल यूनाइटेड स्टेट के नॉर्थ केलीफोर्निया में एक पर्वत पर ट्रैकिंग कर रहे थे।  हमेशा की तरह चलते चलते हाथ में कैमरा थामे वीडियो बनाते हुए बातचीत भी करते जा रहे थे। उनकी बातों में मुझे एक नया शब्द मिला, वह था, रेनबो गैदरिंग। उसके बारे में वे बताते भी जा रहे थे।

रेनबो गैदरिंग ( इंद्रधनुषी सभा) के बारे में मैं पहली बार ही सुन रहा था। वह किसी दिन के गैदरिंग की बात कर रहे थे,  2014 के गैदरिंग की यादें ताजा कर रहे थे।  पगडंडियों के रास्ते पर्वत पर चढ़ते  भी जा रहे थे और यह बताते भी जा रहे थे कि 2014 में किस तरह इसी पर्वत पर वे आए थे और गैदरिंग में हिस्सा लिया था। उनके परिवार के कुछ सदस्यों ने इसमें हिस्सा लिया था।  जिसके कुछ चित्र भी उन्होंने में वीडियो में बताए। इस तरह जब मुझे रेनबो गैदरिंग के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई तो मैंने कुछ जानकारी जुटाई।

दरअसल रेनबो गैदरिंग को घुम्मकड़ प्रकृति के जागरूक लोगों का एक सम्मेलन कहा जा सकता है।  इसमें  शांति, सद्भाव, स्वतंत्रता और सम्मान भाव में विश्वास रखने वाले लोग जंगलों, पहाड़ों के बीच इकट्ठा होते हैं, मिलते-जुलते हैं और कुछ दिन के लिए कैंपिंग करते हैं। सबसे पहले इसकी शुरुआत संयुक्त राज्य अमेरिका के नॉर्थ कैलिफोर्निया में हुई थी। अब ये आयोजन दुनिया के अन्य देशों में भी किए जाने लगे हैं।  रेनबो गैदरिंग परिवार एक तरह से स्वैच्छिक आधार पर बना समूह होता है। एक सप्ताह, दो सप्ताह वहीं निवास करते हैं, कैंप लगाते हैं।  सामान्यतः पहाड़ों, जंगलों के बीच स्थित झील के किनारे को इस आयोजन के लिए चुना जाता है। आयोजन की सूचना समुदाय के लोगों को काफी समय पूर्व ही हो जाती है।

इसकी एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें लोग आपस में बातचीत करते हैं, बातचीत के सत्र होते हैं। इसके अलावा मानव श्रृंखलाएं बनती हैं, ट्रैकिंग होता है, गीत होता है, संगीत होता है, कैंप फायर होता है, कला चर्चाएं और प्रस्तुतियां होती है। इस एकत्रीकरण में एक उल्लेखनीय  बात यह होती कि इस आयोजन में शराब सेवन से दूरी बनाए गई है। यद्यपि कहा जाता है कि कुछ नशीले पदार्थों या ड्रग्स वगैरा का सेवन अब होने लगा है। कुछ लोग इन्हें बूढ़े हिप्पियों का समूह भी आरोपित करते रहे हैं, कुछ इसे होपी लोगों की मान्यताओं से प्रेरित भी बताते हैं किंतु ऐसा नहीं माना जा सकता। अपने को मानव जाति के बच्चे और भाई बहन कहने वाले रेनबो परिवार में ऐसे अच्छे लोग होते हैं जो मनुष्य के हितों से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करते हैं, वातावरण बनाते हैं। सांस्कृतिक चर्चा के साथ इसमें धर्म से जुड़े कुछ लोग भी शामिल होते हैं।

उत्तरी अमेरिका के नॉर्थ कैलिफोर्निया में 1 जुलाई 1972 को इसका पहला आयोजन हुआ था। उसके बाद तो हर साल यह होते हैं।  अब ये आयोजन अमेरिका से बाहर भी होने लगे हैं।  मैंने कहीं पढ़ा था कि भारत के उत्तरीय इलाके में भी कहीं यह हुआ था।

मुझे अच्छा लगा कि लोग इस तरह इकट्ठा होते हैं। हमारे यहां कुछ इसी तरह सुरम्य और शांत स्थानों पर साहित्यिक या वैचारिक मंथनों के लिए शिविरों के आयोजन होते रहे हैं। पहाड़ों के बीच में भी होते हैं। 

इस आयोजन के कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं।  वन्य सेवाओं और वन विभाग की दृष्टि में ये आयोजन ठीक नहीं है। जंगलों के बीच इन आयोजनों का दुष्प्रभाव प्रकृति पर पड़ता हैं, प्राकृतिक संपदा पर पड़ता है, वनों पर पड़ता हैं।   समय के साथ इसमें धीरे-धीरे बुरे लोग,अपराधी लोग,नशेड़ी लोग भी किसी तरह से घुसपैठ जमाने लगे हैं। इसके भी बुरे परिणाम दिखाई देने की आशंकाएं बड़ गई हैं। रेनबो परिवार की  मूल भावना में उपभोक्तावाद, पूंजीवाद और मीडिया से अधिकतम मुक्त रहने का विचार रहा था, लेकिन अधिक लोगों को आकर्षित करने के उपक्रम में धीरे-धीरे इन चीजों का भी इसमें समावेश होता गया है। 

मैं जानता हूं कि यह सब बातें बहुत लोगों  को ज्यादा अच्छी तरह मालूम होगी।  इंटरनेट पर भी सब कुछ उपलब्ध है लेकिन मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि लोग इस तरह की नई चीजों को भी जानें  और दुनिया को देखने समझने के प्रयास में थोड़ा सा नवोन्मेष तरीका भी अपनाते रहें।  हमारे आसपास से हटकर भी एक दुनिया है जिसमें बहुत सारा अभी भी हमसे अंजाना बचा हुआ है।

ब्रजेश कानूनगो

Friday, 19 July 2024

मंगोलिया का गोबी रेगिस्तान

मंगोलिया का गोबी रेगिस्तान

 

नोमेडिक इंडियन के दीपांशु और नोमेडिक शुभम के शुभम के साथ हमने यूट्यूब वीडियो के माध्यम से विश्व के पांचवे सबसे बड़े रेगिस्तान में से एक गोबी रेगिस्तान की रोमांचक यात्रा की है।

गोबी रेगिस्तान है कहां ? दरअसल यह विशाल गोबी रेगिस्तान पूर्व और मध्य एशिया में लैंडलॉक देश मंगोलिया में स्थित है। उत्तर में रूस,दक्षिण पूर्व और पश्चिम में चीन से घिरा है। देश की कुल जनसंख्या के 38 प्रतिशत लोग राजधानी उलान बटोर में निवास करते हैं।  पूर्व दिशा में मात्र 38 किलोमीटर दूर खूबसूरत कजाकिस्तान  स्थित है। 

ऐतिहासिक योद्धा चंगेज खान का नाम तो आपने जरूर सुना होगा। मंगोल साम्राज्य के विस्तार में उसकी बड़ी जबरदस्त भूमिका रही है। घुमंतू जाति के इस व्यक्ति ने अन्य घुमंतू जातियों को एकजुट करके सत्ता हासिल की थी। अपनी अद्भुत संगठन क्षमता, असीम शक्ति और बर्बरता के लिए विख्यात, कुख्यात चंगेज अपने बड़े साम्राज्य विस्तार के लिए जाना जाता है। मंगोल साम्राज्य ने मध्य एशिया और चीन के महत्वपूर्ण हिस्सों पर उसके नेतृत्व में कब्जा कर लिया था। सन 1221 से 1327 के दौरान मंगोल साम्राज्य ने भारतीय उपमहाद्वीप पर भी आक्रमण किए थे। इल्तुतमिश के शासनकाल के दौरान चंगेज खान के अधीन मंगोल साम्राज्य ने भारत पर बहुत से आक्रमण किए थे। 

ऐसा नहीं है कि चंगेज खान ने सिर्फ बर्बर काम ही किए,बहुत से अच्छे काम भी उसके शासन में होते रहे। लेखन पठन के लिए विशेष उईधूर लिपि को अपनाया उसका विकास किया। धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने के प्रयास किए। जो विश्व प्रसिद्ध सिल्क रूट था, जो एक ऐतिहासिक व्यापार मार्ग रहा है, जिसका उपयोग दूसरी शताब्दी से 14 वीं शताब्दी तक मुख्यरूप से हुआ करता था, एशिया से लेकर भूमध्य सागर तक इसका विस्तार था, तथा चीन, भारत, फारस,अरब, ग्रीस और इटली से होकर गुजरता था, उस समय इसमें ज्यादातर रेशम का व्यापार होता था इसलिए उसे सिल्क मार्ग कहा गया था तो इस सिल्क मार्ग को राजनीतिक तौर पर संचार व व्यापार हेतु एकरूपता और स्वीकार्यता देने में भी चंगेज खान को याद किया जाता है। उसने यह एक बड़ा अच्छा काम किया था। 

सोलहवी सत्रहवीं शताब्दी में मंगोलिया तिब्बतीय बौद्ध धर्म के प्रभाव में आया। सन 1911 में किंग राजवंश के पतन के साथ मंगोलिया ने अपने को स्वतंत्र देश घोषित किया और 1945 में लंबे इंतजार के बाद इसे संपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल गई। अब यह एक संसदीय गणराज्य है।

बहरहाल, जहां तक हमारी गोबी रेगिस्तान की यात्रा का सवाल है, जब हमने अपने प्रिय ब्लॉगर्स के माध्यम से अनुभव किया तो आगे और चीजों को जानने समझने की उत्कंठा और बढ़ती गई। 

मंगोलिया के बारे में एक बात और प्रसिद्ध है कि यहां की संस्कृति भारत के बहुत करीब है। भारत से कई बौद्ध धर्माचार्य  और यात्री छठवीं शताब्दी से ही मंगोलिया का भ्रमण करते रहे। यहां संस्कृत का इतना प्रभाव है कि यहां का राष्ट्रीय ध्वज 'स्वयंभू ' कहलाता है स्थानीय भाषा में इसको सोयुंब कहते हैं। यहां आयुर्वेद का प्रचलन है। महीनो के नाम भी और दिनों के नाम भी भारतीय संस्कृति से निकलकर आते हैं। सोमवार को सोमिया ,रविवार को आदित्यवार, मंगलवार के लिए संस्कृत में अंगारक शब्द है, बुधवार को बुद्ध, ब्रीहसपत गुरुवार के लिए, शुक्र शुक्रवार के लिए, साचिर शनिवार के लिए। यहां के बौद्ध विहारों में अनेक भारतीय पुस्तकों, संस्कृत के ग्रंथों, श्लोक और मंत्रों को खूब देखा, पढ़ा व सुना जा सकता है। भारतीय महापुरुषों के प्रति यहां बहुत आदर और सम्मान है।

गोबी रेगिस्तान मंगोलिया में तो स्थित है लेकिन इसका विस्तार चीन और मंगोलिया दोनों तक फैला हुआ है। यह एक ऐसा रेगिस्तान है जिसकी गिनती ठंडे रेगिस्तानो में की जाती है। यहां का तापमान शून्य से नीचे माइनस 40 डिग्री तक गिर जाता है।  मंगोलियन भाषा में गोबी का अर्थ जल रहित स्थान होता है। यहां जल बहुत कम है, वर्षा केवल बारिश के कुछ दिनों में ही होती है। 50 से 100 मिली मीटर तक ही बारिश हो पाती है। नदी नाले केवल वर्षा ऋतु में ही थोड़े बहुत पानी भरे दिखाई देते हैं। 

अधिकांशतः  गोबी डेजर्ट रेत की तुलना में चट्टानों से अधिक बना है। यद्यपि हमने जो मानस यात्रा की वह रेतीले गोबी रेगिस्तान की ही दीपांशु और शुभम  ब्लॉगर मित्रों के साथ की। 

कहा जाता है इस पांचवे सबसे विशाल रेगिस्तान में पहले कभी समृद्धशाली भारतीयों की बस्ती हुआ करती थी।  यह  डेजर्ट इतना बड़ा है कि इसको तीन भागों में विभक्त करके देखा जाता है, तकला माकन, अलशान  और ऑर्डिश रेगिस्तान। यहां की आबादी बहुत विरल है। उत्तर और दक्षिण के घास के मैदानों में कुछ जनजातियां निवास करती हैं।  जिस क्षेत्र में जहां पानी है, वहां बकरियां और अन्य पशु पाले जाते हैं। थोड़ी बहुत खेती भी होती है। लेकिन यहां बेकेटेरियन ऊंट (दो कूबड़ वाले) होते हैं, हमारे भारत में जो उंट होते हैं उनसे थोड़ा अलग है , इनके दो कूबड़ निकले होते हैं। कुछ जंगली गधे, विशेष तरह के भालू हालांकि अब यह लुप्त प्रायः हो गए हैं, इस रेगिस्तान में पाए जाते हैं। पत्ती विहीन घास ही सामान्यतः यहां दिखाई देती है जिससे मिट्टी का थोड़ा बहुत क्षरण रुक पाता है।

दीपांशु और शुभम ने इस रेतीले रेगिस्तान की रोमांचक पैदल यात्रा की तो उन्होंने बहुत संघर्ष किया। तेज हवाओं रेतीले तूफानों से बचते बचाते विडियो बनाते हुए उन्होंने यह यात्रा की।  बहुत संघर्ष किया। पानी की बोतले उनकी समाप्त हो गई तो जैसे खुद उनके शरीर रेगिस्तान में बदलते जा रहे थे। मरणासन्न से हो गए थे। रात को ही उनको अंधेरे में कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज भी सुनाई देती है तो वे आश्रय की तलाश में उधर जाते हैं। एक खानाबदोश के घर में उनको थोड़ा सा स्थान मिल जाता है, किसी तरह वे रात बिताते हैं। यह उनकी बहुत अद्भुत यात्रा थी। उनके लोकप्रिय और दर्शनीय वीडियो की सूची में यह सीरीज बहुत याद की जाती रहेगी। इसे बार बार देखा जाता रहेगा।

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ब्रजेश कानूनगो

धरती पर बिखरे इंद्रधनुष

धरती पर बिखरे इंद्रधनुष


सतरंगी इंद्रधनुष केवल आकाश में ही अपनी छटा नहीं बिखेरते। धरती पर भी ऐसे कई स्थान हैं जहां रंगों का मेला लगा है। दुनिया का वह ठंडा प्रदेश हो या उबलता भूभाग, इंद्रधनुष का सौंदर्य मन मोह लेता है। ऐसे ही दो खूबसूरत स्थलों की चर्चा आज यहां करते हैं। 

रेनबो माउंटेन
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जंपिंग प्लेसेस ट्रेवल व्लाग के युवा दंपति के साथ यूट्यूब पर हमने पेरू गणराज्य के विनिकुंका पर्वत की मानस ट्रैकिंग करते हुए खूबसूरत इंद्रधुनुषी चादर को ओढ़े जिस पहाड़ का खूबसूरत नजारा देखा उसे स्थानीय भाषा मे मोंटाना डी सिएट कलर्स कहते हैं। अंग्रेजी में पर्यटक इसे रेनबो माउंटेन के रूप में जानते हैं। हिंदी में इसे इंद्रधनुषी पर्वत कहा जा सकता है।

कुदरत का यह करिश्मा दक्षिण अमेरिका के पश्चिम भूभाग में स्थित पेरू गणराज्य की नैसर्गिक धरोहर है। सामान्यतः पेरू के इस पर्वत के तल पर तापमान 10 डिग्री सेल्सियस रहता है और हम जब इसके शिखर तक पहुंचते हैं तो वहां का तापमान शून्य से कम होकर माइनस पांच से लेकर माइनस दस तक गिर जाता है। धरती पर दूर तक फैले इस अलौकिक सौंदर्य को देखने के लिए पर्यटक को लगभग 2 घंटे में 400 मीटर की खड़ी चढ़ाई या ट्रैकिंग करनी पड़ती है। साल के 12 महीने में से 8 महीने यह रंगीन छटा पर्यटकों का इंतजार करती रहती है। इसी दौरान दुनिया भर के लोग इसका आनंद उठाते रहते हैं। 

रेनबो पर्वत हमेशा से ऐसे नहीं थे।  बहुत पहले ये पर्वत सामान्य पर्वत ही थे जैसे आमतौर पर भूरे,काले दिखाई देते हैं लेकिन धीरे-धीरे इनकी ऊपरी सतह का क्षरण हुआ,मिट्टी हटी तो यह सतरंगी छटा ज्यामितीय रूप से रंगीन पट्टियों की शक्ल में उभर आई। समुद्र तल से लगभग 5200 मीटर ऊपर पहाड़ों पर बिखरा यह सौंदर्य अद्भुत है। इसे देखना अलौकिक अनुभव होता है। निश्चित रूप से इंद्रधनुषीय यह आभा विभिन्न खनिजों की रंगीन सतहों के कारण दिखाई देती है। यूट्यूब पर जंपिंग प्लेसेस के युवा दंपत्ति द्वारा साझा इस खूबसूरत वीडियो में ठंडे क्षेत्र के रेनबो माउंटेन की इंद्रधनुषी छटा ने हमारा मन मोह लिया है। 

डेलोल इथोपिया
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ऐसे ही एक दूसरे रंगबिरंगे नजारे को हमने दुनिया के सबसे गर्म क्षेत्र की धरती पर देखा और रोमांचित हुए। यह इंद्रधनुष भी आकाश में नहीं जमीन पर ही बिखरा पड़ा है।  दुनिया में सबसे ज्यादा गर्म रहने वाले दस स्थानों में से एक है इथोपिया का डेलोल इलाका। इस भीषण गर्म क्षेत्र में रहना, ठहरना या घूमना बहुत मुश्किल होता है।  बारहों महीने बहुत गर्मी पड़ती है। औसत तापमान 45 डिग्री के आसपास बना रहता है, लोग बताते हैं कि कभी कभी अधिकतम 59 डिग्री सेल्सियस तक भी यहां का तापमान पहुंच जाता है।  

पूर्वी अफ्रीका भूभाग के हॉर्न क्षेत्र में इथोपिया एक लैंड लॉक देश है जो सोमालिया, केन्या,सूडान जैसे अन्य देशों से घिरा हुआ है। यह बहुत पिछड़ा देश है किंतु अपने खनिज भंडारों में बहुत समृद्ध है। आर्थिक रूप से बहुत कमजोर है। यहां काफी गरीबी है। डेलोल यात्रा के लिए पर्यटक को गाइड के अलावा एक गनमैन को साथ ले जाना भी अनिवार्य होता है। दरअसल इथोपिया में इसी तरह सुरक्षित पर्यटन करना आवश्यक हो जाता है। 

यद्यपि डेलोल एक बेहद गर्म स्थानो में से एक है लेकिन यह निर्जन नहीं है। कुछ जनजातियां यहां अभी भी निवास करती हैं। इस क्षेत्र की सुंदर छटा को देखने के लिए पर्यटक टूर एजेंसी के साथ ही यात्रा प्रबंधन कर पाते हैं। दरअसल यह समुद्र के सूख जाने के बाद खाली हुआ प्रदेश है, जहां नमक के मैदान हैं। आयरन, जिंक तथा अन्य खनिजों,अयस्कों युक्त मिट्टी तथा नमक के रण  का अनोखा सौंदर्य तब और बढ़ जाता है जब उसमे पीले सल्फर के स्रोत आ मिलते हैं। गर्म उबलते पानी के नीले सोते दृश्य में घुलमिल जाते हैं।  नमक के मैदाने के बीच सल्फ्यूरिक स्रोत से सल्फर की खुशबू आती रहती है। गंधक का पीला रंग फैलता हुआ नीला, पीला, हरा, लाल, केसरिया में बदलता, घुलता मिलता जाता है। यह इंद्रधनुष हम नमक के मैदान के साथ-साथ चलते हुए अनुभव करते हैं। आगे जाकर सल्फर का पूरा स्रोत सुंदरता बिखेरता फैल जाता है। यहां एक झील भी है छोटी सी जिसमें हल्का एसिडिक पानी है। दरअसल यह एक ऐसा सतरंगी दृश्य होता है जिसे देख हम चकित हो जाते हैं।
  
डेलोल की यह रोमांचक मानस यात्रा हमने बहुत प्रिय ब्लॉगर नोमेडिक इंडियन के दीपांशु और नोमेडिक शुभम के शुभम के साथ की थी। हाल ही में हमने फिर से इस स्थान की सैर और उसकी स्मृति को राजस्थान, गुजरात बॉर्डर के निवासी व्लॉगर बंसी वैष्णव के विडियोज के साथ ताजा की। 

धरती पर बिखरे इंद्रधनुष के खूबसूरत नजारे दुनिया में और भी कई रूपों में मिल जाते हैं, कहीं फूलों के रंग हैं तो कहीं पानी के। कहीं मिट्टी, चट्टान, वनस्पति और खनिजों के रंग बिखरकर मन मोह रहे हैं। यही इस धरती का, प्रकृति का मनुष्य जाति को बहुमूल्य उपहार है, इसे सहेजने का दायित्व हमारा ही है। तरीका चाहे जो हो किताबों में, वीडियो में या फिर अपनी स्मृतियों में इसे हमेशा के लिए संग्रहित कर लिया जाना चाहिए।  

ब्रजेश कानूनगो 

Thursday, 18 July 2024

पर्यटन में काउच सरफिंग और हिच हाइकिंग

देखा पढ़ा: 

पर्यटन में काउच सरफिंग और हिच हाइकिंग 


यूट्यूबरों के पर्यटन वीडियो देखते हुए बहुत सारी नई चीजों से परिचय होता रहता है। पर्यटन वृतांत को देखते सुनते हुए नए शब्द और संदर्भ भी मिलते हैं। विषय से संबंधित विशिष्ठ शब्दावली का विकास भी हो जाता है। 
बहुत संभव है मेरे लिए जो नया हो वह दूसरों को शायद उतना नया न भी लगे। इन सब बातों की चर्चा में किसी की अधिक रुचि हो न हो किंतु  मुझे इस तरह बहुत कुछ सीखने समझने को मिल रहा है।  जानकारी इकट्ठी करने में बहुत सा नया पढ़ने को मिल रहा है। 

कैसे कैसे सैलानी
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पर्यटक भी कई तरह के होते हैं। कई तरीकों और साधनों से वे अपनी यात्राओं और पर्यटन का प्रबंधन करते हैं। कुछ ट्रेवलर्स अकेले-अकेले यात्रा करते हैं, पीठ पर एक बैग लादकर सैर को निकल पड़ते हैं। इन्हे सोलो या एकल बैग पैकर्स  कह सकते हैं। कई युवा, प्रौढ़ युगल भी अपने अपने पिट्ठुओं को लादे पूरी दुनिया को नापने निकल पड़ते हैं। कुछ समूहों में यात्रा और पर्यटन करते हैं। पूर्व निर्धारित किसी टूर प्रोग्राम के अंतर्गत एक साथ घूमते हैं, साथ में उनका एक गाइड होता है। जिसकी अगुवाई में पर्यटकों का दल एक साथ दुनिया की खूबसूरती और धरोहरों को निहारता है।  चीन में समूह में पर्यटन करना बहुत लोकप्रिय है, हमारे यहां भी जैसे धार्मिक पर्यटन के लिए कई बार समूहों के लिए ऐसे टूर प्रोग्राम संचालित होते रहते हैं।  
लेकिन हम यहां उन सैलानियों की बात यहां कर रहे हैं जो लगभग बारहों महीने घर से बाहर रहते हुए नित्य पर्यटन पर बने रहते हैं। कुछ पर्यटक अपने परिवार के साथ ट्रैवल करना पसंद करते हैं।  बच्चों के साथ जिसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे होते हैं। हमने एक ऐसे ही परिवार के साथ भी मानस यात्राएं करीं जिनका व्लॉग ' बैग्स पैक्ड फैमिली ' के नाम से है, दोनों पति-पत्नी जिनके अलग-अलग उम्र के तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं पूरा परिवार मौज मस्ती के साथ घूमता रहता है।  हमें यह समूह बहुत अच्छा लगा इनको हम अक्सर देखते हैं।  कई बार कुछ सोलो ट्रेवलर्स कई स्थानों पर जब मिलते हैं तो कपल ट्रेवलर्स की तरह हो जाते हैं और साथ-साथ यात्राएं करते हैं, अपने अपने अलग वीडियो बनाते हैं। मसलन दीपांशु और शुभम गोबी डेजर्ट में साथ साथ यात्रा करते हैं, उनका साझा संघर्ष देखते ही बनता है। डॉक्टर यात्री के नवांकुर और सेंटी भाई अपने सोलो ट्रैवल तो करते हैं लेकिन यूएसए में कई जगह साथ हो जाते हैं। आगे कभी आपको अंटार्कटिका की यात्रा के संदर्भ में बताऊंगा तब कैसे नवांकुर के साथ एक पंजाबी ट्रेवलर उनके साथ यात्रा करते हैं। ये यात्राएं और अधिक दिलचस्प हो जाती हैं। 

काउच सरफिंग 
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इन्ही विडियोज को देखते हुए पर्यटन क्षेत्र के संदर्भ में दो नए शब्द मिले, एक है ' काउच सरफिंग ' और दूसरा है ' हिच हाइकिंग '। 
ये दोनो टर्म्स या शब्द आपको बहुत बार सुनाई देंगे। दोनों को जान लेना काफी दिलचस्प होगा।  

पहले हम काउच सरफिंग की बात करते हैं। जब हम बहुत छोटे थे, बचपन के दिनों में इलाहाबाद, वाराणसी आदि से हमारे घर एक पंडा जी पधारते थे।  हमारे यहां ही रुकते, बैठक के फर्श पर एक दरी या चटाई बिछाकर दिन में पूजा पाठ करते, दोपहर को नगर भ्रमण को चले जाते। फिर शाम को पूजा पाठ, ध्यान आदि करके उसी चटाई या दरी पर रात्रि शयन करते। खाना पीना खुद अपना बनाते हमारी ही रसोई में। थोड़े दिन बाद वे किसी और मेहमान के यहां अतिथि हो जाते थे।  

पंडा जी के उस प्रवास को आज की पर्यटन भाषा में हम काउच सरफिंग कह सकते हैं।  आमतौर पर  काउच सरफिंग में पर्यटक पूर्व सूचना पर ही आता है। उसको ठहरने का स्थान चाहिए होता है, दैनिक कार्यकलापों के साथ भ्रमण करके आगे निकल जाता है, किसी दूसरे घर की तलाश में, किसी दूसरे मुकाम पर किसी दूसरे होस्ट के यहां।  देश विदेश के ट्रैवलर्स एक दूसरे से संपर्क में रहते हैं और इस तरह से काउच सरफिंग के माध्यम से अपने भिन्न देशों में एक दूसरे के अतिथि होते हैं।  कई बार पूरा-पूरा घर ही होस्ट अपने गेस्ट को सौंप कर चाबी थमाकर निश्चिंतता से अपने काम पर चले जाते हैं। 

काउच सरफिंग, होम स्टे से एक मायने में बिल्कुल अलग है। इसमें मेहमान पर्यटक, मेजमान और उसके परिवार के साथ ही रहता है, उठता,बैठता,खाता पीता है। 

अक्सर मेजबान और मेहमान दोनों अलग-अलग देश के होते हैं,उनकी अलग-अलग भाषा होती है, अलग-अलग खान पान और जीवन शैली होती है तब पर्यटक उनके साथ रहकर नए अनुभव को भी प्राप्त करता है। उसके बनाए वीडियो से हम जैसे दर्शक भी उस अनुभूति से गुजरते हैं। 

पर्यटन के क्षेत्र में इस काउच सरफिंग का महत्व सन 2004 से बहुत बढ़ गया।  उसका कारण यह है कि इस साल एक वेबसाइट लांच हुई थी।  जिसके माध्यम से पर्यटक एक दूसरे के संपर्क में बने रहते हैं। उसका लाभ उठाते हैं। 

बहुत से ट्रेवलर्स काउच सरफिंग करते हैं।  सोलो ट्रेवलर दीपांशु नॉर्थ ईस्ट में चकमा जाति के लोगों के बीच उनके घर में बहुत दिनों तक रहे थे।  उनके साथ ही खाना खाया उनके बीच ही रहे।  अद्भुत अनुभव था।  उनके साथ रहकर नॉर्थ ईस्ट के जनजाति परिवार के जीवन को जानना। उनकी खुशियों, कठिनाइयों का भागीदार बनना। 
इसी तरह इंडियन टूर व्लॉग के तोरवशु ने किसी ग्रामीण रूसी या चीनी होस्ट के फॉर्म पर कुछ दिन बिताए थे।  उनके यहां रहकर अनुभव प्राप्त किया कि चीन में या रूस के गांव में किस तरह से जीवन होता है। उज़्बेकिस्तान के एक गांव में व्लॉगर बंसी वैष्णव काउच सरफिंग करते हैं।  उन्होंने अनुभव प्राप्त किया कि किस तरह से घोड़ों को चराया जाता है, कैसे घोड़ियों का दूध दुहा जाता है, कैसे घोड़े पर बैठकर चारागाह में घोड़ा समूह को संभाला जाता है। खेतों में कैसे फसल की देखभाल की जाती है।  

काउच सर्फिंग में एक चीज यह भी देखी गई है कि कुछ बेघर लोग सरफिंग के बहाने एक अपना अस्थाई आश्रय तलाशते रहते हैं, लेकिन यह पर्यटक के लिहाज से ठीक नहीं कहा जा सकता। ज्यादातर इसकी सकारात्मक उपयोगिता ही रही है। और इसका  नए विकल्प के रूप में बहुत महत्व बना है। 

हिच हाइकिंग 
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यात्राओं के लिए पर्यटक कई प्रकार से, कई साधनों से अपनी यात्रा का प्रबंधन करते हैं। 
विश्व यात्री डॉक्टर राज अपनी साइकिल से पूरे विश्व की यात्रा पर निकले हुए हैं। कुछ यात्री मोटरसाइकिल से करते हैं, कुछ एयरवेज से अन्य देशों में पहुंचकर स्थानीय लोक परिवहन, टैक्सी ट्राम, बुलेट ट्रेन आदि से दर्शनीय या पर्यटन स्थलों तक पहुंचते हैं। बहुत से ग्रेब्रियल ट्रेवलर की तरह खूब पैदल चलते हैं, ट्रेकिंग करते हैं। कुछ यात्री जिसे हम हमारे यहां लिफ्ट लेकर यात्रा करना कहते हैं वैसी भी अनुरोध यात्रा करते हैं। गुजरती कारों और वाहनों को इशारों से रोककर उनसे गुजारिश करते हैं। इसमें सेवा का पैसा नहीं दिया जाता। मुफ्त सेवा की आकांक्षा और अनुरोध सर्वोपरि होता है। इसे ही पर्यटन के क्षेत्र में हिच हाइकिंग कहा जाता है।  

हिच हाइकिंग का अपना बहुत अलग ही आनंद है। आप अपरिचित देश में अपरिचित लोगों के बीच सड़क के किनारे खड़े होकर हाथ दिखाते हुए उनसे अनुरोध करते हैं कि हमें अगले किसी मुकाम तक जहां तक भी जा रहे हैं या अगर वह हमारे डेस्टिनेशन तक जाने वाला हो तो वहां तक या जहां तक उसे सुविधा हो अपने वाहन में ले चले। 
आमतौर पर हिच हाइकिंग के अभिलाषी पर्यटक सड़क किनारे या पेट्रोल पंप पर खड़े हो जाते हैं, जहां उन्हें ज्यादा से ज्यादा वाहन उपलब्ध हो सकें। बहुत सी बार अपनी होटल से टैक्सी कर के वे हाई वे तक पहुंचते हैं और वहां से किसी बड़े ट्रक, ट्राला, कार या जो भी साधन इनको मिलता है, उसको रोकते हैं।  कई बार कुछ रोक लेते हैं, कुछ नहीं रोकते, कुछ ले जाते हैं, कई नहीं भी ले जाते।  इसमें पर्यटक को बहुत धैर्य रखना पड़ता है।  कई बार पांच मिनट में उनको सुविधा मिल जाती है, कई बार घंटे बीत जाते हैं इंतजार करते हुए और कई बार खाली हाथ वापस होटल लौटना पड़ता है।  लेकिन उनका लक्ष्य यही होता है उस दिन कि हमको आज किसी भी हालत में हिच हाइकिंग ही करना है। 

इसमें बड़ा मजा आता है।  मान लीजिए चीन में यात्रा कर रहे हैं, जापान में यात्रा कर रहे हैं, हिच हाइकिंग के लिए खड़ा है कोई इंडियन। वह क्या करेगा? बहुत मुश्किल है, कोई रोकता नहीं, भाषा समझता नहीं। तब पर्यटक  एक पोस्टर बनाता है और उसे स्थानीय भाषा में किसी स्थानीय व्यक्ति से अपने अगले पड़ाव का नाम 
 बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा लेता है। पोस्टर थामकर खड़े हो जाते हैं सड़क किनारे। कोई दयालू समझदार व्यक्ति सहायता कर ही देता है। कोई ट्रक मिल जाता है या कुछ और वाहन मिल ही जाता है।  उसमे बैठा लेते हैं चालक महोदय।  फिर तो नजारा ही कुछ और होता है। जो रिश्ता कायम होता है खास तौर से ट्रक ड्राइवर और ट्रैवलर के बीच में वह देखना बहुत सुकून देता है।  रेल यात्रियों की तरह ही ट्रक ड्राइवर और उनका स्टाफ उस ट्रैवलर के साथ इतने घुल मिल जाते हैं कि खाना पीना तक उनके साथ ही होने लगता है। कई बार ट्रेवलर को ड्राइवर अपने घर ले जाता है। परिवार के साथ रखता है। एक पर्यटक ने तो उसके परिवार के बीच पूरे तीन दिन स्थानीय विवाह समारोह में बिताए। 

काउच सरफिंग और हिच हाइकिंग के बहुत ही रोमांचक और मार्मिक प्रसंगों को इन विडियोज के जरिए हमने खूब देखा है और भीतर बाहर भीगते भी रहे हैं। ये अद्भुत अनुभव हैं हमारे। अविस्मरणीय और प्रेरक भी। 

ब्रजेश कानूनगो 
 

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान  पिछले दिनों हुए घटनाक्रम ने लोगों का ध्यान परमाणु ऊर्जा के विनाशकारी खतरों की ओर आकर्षित किया है...