Friday, 22 January 2021

देशज के प्रतीक पुरुष : नरहरि पटेल

 

देशज के प्रतीक पुरुष : नरहरि पटेल

 

उस दिन रविवार था। हमारे लिए वह खास दिन जब सामान्यतः अखबारों में 'साहित्य पृष्ठ' का प्रकाशन किया जाता रहा है। अब ऐसा नहीं है। या तो उस तरह के पृष्ठ अब रहे नहीं या फिर वहां साहित्य नहीं रहा। कुछ अपवाद हो सकते हैं किंतु उस दिन रविवार ही हो यह जरूरी भी नहीं।

तो उस दिन रविवार था और सुबह सुबह अखबार में छपी अपनी कविता का पुनर्पाठ कर ही रहा था कि मोबाइल में अन सेव्ड नम्बर से काल आया।

 

'बधाई ब्रजेश भाई! क्या खूब लिखा है आपने...मन प्रसन्न हो गया...अब तो उस अनुभूति को समझने वाले लोग ही नहीं रहे...कौन देखता है अब किसी कुतिया को इस तरह...नीम के नीचे जमीन खुरचकर खो बनाते...पिल्लों का धूप में खेलना और ठंड में एक दूसरे में कम्बल की तरह गुंथ जाना...!'

उधर से यह सब हिंदी, मालवी में बहुत आत्मीयता से कहा जा रहा था। मालवी व्यक्ति होते हुए मालवी भाषा मेरी रफत में नहीं रही, खड़ी बोली का व्यक्ति हूँ अतः सामने से आ रही उस मीठी मालवी और उस रस को यहां शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल हो रहा है। 

 

यह भी निश्चित है कि जैसे ही मैं यहां यह बताऊंगा कि उधर से आने वाला यह उत्साहवर्धक आत्मीय फोन आदरणीय दादा नरहरि पटेल जी का था तो बहुत से लोगों को वे साक्षात अपनी शैली में प्रत्यक्ष बतियाते नजर आने लगेंगे।

दादा नरहरि पटेल जी को मैं लोक संस्कृति के बड़े जानकार, मालवी, निमाड़ी भाषा और परंपराओं से आत्मसात सुकवि, रंगकर्मी के रूप में भाषा और लोकजीवन में देशज पहचान को मिटते देखकर दुःखी और चिंतित रहने वाले संवेदनशील व्यक्ति के रूप में जानता रहा हूँ। इन्ही सब प्रयासों में उनके कार्य देखे जा सकते हैं। वह चाहे उनकी कविता होनाट्यवाचन या अभिनय हो, वार्तालाप हो,व्याख्यान हो,संवाद हो या अभिव्यक्ति का अन्य कोई स्वरूप रहा हो। उनकी उसी खास रचनात्मक प्रतिबद्धता को रेखांकित किया जा सकता है। एक प्रतिबद्धता उनकी अपने युवाकाल से प्रगतिशील लेखक संघ से भी रही और उस जमाने के साहित्यकारों के साथ उन्होंने बहुत काम भी किया। एक सुखद सत्य यह भी है कि जब 1957 में मैं जब इस संसार में आ रहा था उस वक्त इंदौर आकाशवाणी केंद्र ने भी जन्म लिया। तब से ही दादा नरहरि पटेल रेडियो के श्रेष्ठ कलाकारों में शामिल रहे और आज 86 वर्ष की आयु में हम उनकी इस प्रतिभा का लाभ लेते रहते हैं... 

 

बहरहाल, जब भी मैंने किसी देशज और लुप्त होती बात या प्रसंग का उल्लेख अपनी किसी रचना में किया तब उनका एक फोन मुझ तक अवश्य पहुंचा। बड़ी देर तक वे स्वयं उस बहाने अपनी पीड़ा के साथ उस खुशी और आनन्द का अहसास भी कराते हैं जो उस देशज प्रयोग से संभव हो जाती है।

 

'मालवी जाजम' उनका एक ऐसा उपक्रम रहा है जिसमें वे मालवी बोली,संस्कृति को बचाए रखने के लिए नियमित बैठक करते रहते हैं। यह बहुत सुखद है कि उनके इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए एक पूरी टीम उनके मार्गदर्शन में तैयार हो गई है। उनके सुयोग्य पुत्र भाई संजय पटेल में उनके व्यक्तित्व और सुकर्मों की छवि स्पष्ट दिखाई देती है।

 

एक दो बार मुझे भी 'जाजम' में शिरकत करने का सौभाग्य मिला। गोष्ठी की अपनी खास पहचान है जिसमें लोकगीतों से लेकर साहित्य की सभी विधा में मालवी रचनाएं सुनाई और गाई जाती हैं। उनके ऐसे प्रयासों में श्री प्रह्लादसिंह टिपानिया जी सहित कई ख्यात कलाकारों को भी गौरव मिलता रहा है। 

 

मेरी कविता 'चिड़िया का सितार' पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जैसे वे भावुक ही हो गए। बाद में पूरा संग्रह पढ़कर इत्मिनान से मेरा हौसला बढ़ाया। मैं धन्य हो गया उनका आशीष पा कर। लिखना सफल हुआ।

 

वरिष्ठ समाजसेवी व बैंक अधिकारी नेता श्री आलोक खरे जी के संयोजन में हमारे प्रकल्प 'समाज सेवा प्रकोष्ठ' द्वारा संयोजित तंगबस्ती के गरीब बच्चों के शिविर में जब एक बार उन्होंने बच्चों से बातचीत की,कविताएं सुनाई तो बच्चों को वह सब इतना भाया कि बाद में भी कई मौकों पर उन्हें शिरकत करनी पड़ी। 

कविता और गीतों की वे इतनी रोचक और भावभंगिमाओं के साथ प्रस्तुति देते हैं कि दर्शक, श्रोता मुग्ध तो होते ही हैं बल्कि  लोककाव्य और लोक संस्कृति का सीधा असर हृदय के भीतर तक महसूस किया जाने लगता है। सच तो यह है कि दादा नरहरि पटेल जी को ठीक से जानना समझना है तो उनको आमने सामने बैठकर रचना पाठ करते,नाट्यवाचन या अभिनय करते देखना बहुत जरूरी होगा।

दादा के स्वस्थ और सुदीर्घ जीवन की कामना के साथ यहां उनका एक मालवी गीत पढ़ते हैं...कल्पना में उनको सामने महसूस जरूर करें...

 

मालवी गीत

नरहरि पटेल

 

कसा चेहकता था चेरकला कई याद हे के नी याद हे।

मस्ती में गम्मत रतजगा कई याद हे के नी याद है।

 

दादी की मीठी लोरियाँ नानी की रेशम झोरियाँ।

माँ की कसूमल थपकियाँ कई याद हे के नी याद हे।

 

होली दिवाली थी कसी राखी पे मनवाराँ कसी

घूमर दिवासा ढुमकणा कई याद हे के नी याद हे।

 

थानक पे माँगी थी मन्नताँ बस एक बालूड़ो दे माँ

माता की पूजा वंदना कई याद हे के नी याद हे।

 

सूरज उगाता था कूकड़ा संजा सुलाती थी रूँखड़ा

राताँ का चमचम चूड़ला कई याद हे के नी याद हे।

 

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रेडियो का फिर लौटना और स्मृतियों का झरोखा

 

इन दिनों दिनचर्या की पृष्ठभूमि में ज्यादातर रेडियो पर सुबह 7 बजे से रात 11 बजे तक 'विविध भारती' की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। कभी मध्दिम तो कभी थोड़ी तेज आवाज में। मगर चलता रहता है पंचरंगी कार्यक्रम...

कोरोना काल के दौरान रेडियो की यह हमउम्र चैनल सोशल मीडिया के माध्यम से कुछ और करीब से जुड़ गई है।

दरअसल दोपहर में  'कुछ बातें कुछ गीत' कार्यक्रम से शुरू होने पर फेसबुक के माध्यम से श्रोता सीधे अपने मन की बात करके कार्यक्रम की थीम से जुड़ जाते हैं। कुछ सवाल भी होते हैं, कुछ रोचक किस्से, कुछ यादें...

 

कुछ अतीत जीवी वरिष्ठ नागरिक जो स्मृतियों से प्रेम करते हैं वे वर्ग पहेली हल करना या झपकी लेना भूलकर रेडियो से इन दिनों कुछ अधिक ही जुड़ गए हैं। कला, संगीत, साहित्य, कथा,पटकथा,स्क्रिप्ट, फ़िल्म जगत, अभिनय,फ़िल्म प्रोडक्शन आदि में जिन्हें थोड़ी बहुत भी रुचि है उनके लिए तो विविधभारती की दोपहर 'गोल्डन टाइम' सी हो जाती है।

सुमधुर सदाबहार गीतों के अलावा 'उजाले उनकी यादों के' ,'बॉम्बे टाकीज' आदि में आकाशवाणी की अनमोल धरोहरों के खजाने से जैसे ज्ञान, तकनीक और स्मृतियों की जलधाराएं सी मन के भीतर बहने लगती हैं।

 

अभी विविधभारती ने वर्ष 2020 में अपना 63 वां जन्म दिन मनाया तो फेसबुक पृष्ठ पर बहुत कुछ लाइव भी होता रहा। मुम्बई विविधभारती के उद्घोषकों से मिलना, उनको प्रस्तुति देते हुए देखना तो सुखद था ही लेकिन एक प्रयोग जो किया गया वह बहुत प्रभावित कर गया। इस अवसर पर एक रेडियो नाटक को लाइव प्रस्तुत किया गया।

जाने माने उद्घोषकों को भावप्रवण नाट्य वाचन करना देखकर उनकी प्रतिभा और उनके समर्पण व निपुणता ने अचंभित कर दिया।

हाँ, यह जरूर है कि इस तरह उनको सजीव देखकर उनके हुनर, श्रम व तकनीक का अवलोकन तो हुआ किन्तु जो आनन्द आंख बंद करके रेडियो नाटक सुनने का है वह जादू लाइव देखने में अवश्य हाथ से निकल गया।

मुझे लगता है रेडियो नाटक, प्रहसन का असली मजा शायद आंख बंद करके सुनने में ही है।

 

बचपन के दिनों में रेडियो सुनते हुए सोचा करते थे कि कितना अच्छा हो कि इस जादूई बक्से के भीतर के लोग स्पीकर लगे पर्दे पर साक्षात गाते, बजाते, नाचते,नाटक करते,समाचार सुनाते दिखाई भी देने लगे। और जब हमारी यह ख्वाहिश विज्ञान और टेक्नोलोजी ने पूरी कर दी और भारत में भी दूरदर्शन का उदय हुआ किन्तु रेडियो के श्रोता धीरे धीरे टीवी के दर्शकों में बदलते गए।

 

घर घर में टीवी आ गया। पहले एक मात्र सरकारी चैनल और वह भी श्वेत श्याम जिसे चुने हुए केंद्रों पर बमुश्किल देखना सम्भव होता था। दूरदर्शन के विकास की सारी कहानी हमारी सबकी देखी समझी है। टीवी की चर्चा फिर कभी। आज यहां मैं रेडियो के उस स्वर्णिम काल के उतार और उसके पुनः लौटने के दौर की बात करना चाह रहा हूँ।

दूरदर्शन के आने के बाद जब टीवी पर अन्य मनोरंजक चैनलों को अनुमति मिल गई तो भारतीय परिवारों के बहुत बड़े हिस्से के घरों से बचे खुचे रेडियो सेट भी गायब हो गए या उनका स्थान घर के कबाड़खाने में ही रह गया। 

जब किसी से कहते भी कि भाई आज हमारी कहानी रेडियो पर आने वाली है तो अपने ही परिचितों के घर में वह सुनी नहीं जा सकती थी। ऐसे में रचनाकार अपनी रचना आकाशवाणी केंद्र के माइक्रोफोन को सुनाकर, चेक प्राप्त कर संतृष्ट हो लेता। लेकिन यह सब रेडियो के स्वर्णिम दौर के बाद के उस वक्त की विडंबना है जब टीवी ने रेडियो माध्यम को प्रतिस्थापित करना प्रारंभ कर दिया था।

और अब जब टीवी से दुनियाभर में लोग ऊबने लगे हैं। निजी मनोरंजक व खबरिया चैनलों में प्रतिस्पर्धा की घटिया लड़ाइयां चलने लगी हैं। समाचार,विचार सब कुछ किन्ही दबावों और स्वार्थों से संचालित होने लगे हैं। ऐसे में यह दिलचस्प है कि लोग पुनः रेडियो का रुख करने को उद्यत हुए हैं।

 

एफएम प्रसारणों और मोबाइल एप्स के जरिये रेडियो सुनना अब बहुत आसान हुआ है। भारत के लोक प्रसारण चैनलों पर भी अधिकतर सुरुचि और स्वच्छता नजर आती है। 

यह अच्छा ही है कि रेडियो पर अभी 'टीआरपी' का  गणित खुल कर गंदगी पैदा नहीं कर पाया है। लोग टीवी चैनलों के आतंक ,सनसनी,उत्तेजना और विवेक को कुंठित करने वाली हरकतों से ऊबकर रेडियो के पुराने दौर में लौटने को उद्यत हुए हैं।

 

'मालवा हाउस' से आई गत्ते की वह अटैची 

 

गत्ते और रैग्जीन से बनी एक छोटी सी अटैची (ब्रीफकेस) माँ बहुत संभालकर रखा करती थी। अपने आखिरी समय तक वे उसमे अपने कुछ जरूरी सामान और पत्र पत्रिकाओं में छपी मेरी रचनाओं की कतरने बहुत जतन से सहेजा करती थीं। जब भी मैं उनसे मिलने जाता वे सभी कतरनें दिखातीं। मन करता तब लगभग उनका पारायण सा भी करती रहती थीं। वे नियमित अखबार पढ़ती थीं। जब मैं घर से बाहर नौकरी पर या स्थायी रूप से इंदौर रहने लगा तब अखबार में प्रकाशित रचना का सबसे पहला बधाई फोन देवास से उनका ही आता था।  9 नवंबर 2017 से माँ के वैसे ममतामयी बधाई फोन का अब सिर्फ इंतजार ही रह जाता है...!

 

बात माँ की उस खास 'अटैची' की ही करते हैं। दरअसल, वह माँ के लिए इसलिए खास थी कि वह मेरी किसी रचना के पहले मानदेय की राशि से खरीदी गई थी। अस्सी के दशक में युवावस्था के दौरान शुरुआती समय में अपने दोस्तों,आसपास के लोगों,स्वजनों,पड़ोसियों आदि के चरित्रों,घटनाओं से प्रेरित होकर कहानियां लिखने का प्रयास करता था। 

ऐसी ही एक कहानी 'आई' शीर्षक से लिखी थी जो बचपन मे मुझे माँ की तरह स्नेह देने वाली पिताजी के दफ्तर के सहायक की पत्नी के जीवन संघर्ष को लेकर लिखी थी। 

 

'आई' को रेडियो सुनने का बहुत शौक था। हर साल वे नया ट्रांजिस्टर खरीद लाया करती थीं। रविवार या छुट्टी के दिन मैं उनसे वह हथिया लेता और पूरे दिन सुना करता था। उनकी कोई संतान नहीं थी। बहरहाल, उन्ही स्नेहमयी 'आई' पर लिखी वह कहानी आकाशवाणी के इंदौर केंद्र से 'युववाणी' कार्यक्रम मेरी ही आवाज में प्रसारित हुई। 

 

उस कार्यक्रम की उस वक्त की संयोजक और उद्घोषक की एक छवि मन में अभी तक बनी हुई है। वे बहुत मोहक थीं, सांवली थीं किन्तु उनकी आंखें और आवाज मन मोह लेती थीं। स्वर कोकिला की तरह मधुरता उनकी सहज उपस्थिति से बिखर जाया करती थी। लोकप्रिय गानों के लोकप्रिय 'मन भावन' कार्यक्रम सुनते हुए रेडियो पर उनकी आवाज के हम दीवाने थे लेकिन प्रत्यक्ष मिलना पहली बार उस पहले प्रसारण के दिन ही हुआ। 

आज दिमाग पर बहुत जोर डालकर उनका नाम याद करने की कोशिश की ...जी हाँ वे 'इंदु आनन्द' ही थीं। 

 

'मालवा हाउस' स्थित आकाशवाणी के इंदौर केंद्र के देश के सबसे बड़े व शक्तिशाली ट्रांसमीटर से निकली तरंगे उन दिनों देश के कोने कोने तक आसानी से पहुंच जाया करती थी। राजस्थान, गुजरात,महाराष्ट्र में आकाशवाणी इंदौर के कार्यक्रम बहुत रुचि से सुने जाते थे।

 

इंदु आनन्द जैसी स्टार उद्घोषिका के संयोजन में हमारी कहानी 'आई' का पहली बार प्रसारण के बाद हमें कुछ मानदेय नकद प्राप्त हुआ।  देवास लौटते हुए इंदौर से गत्ते की वह अटैची हमने खरीद ली। बहुत दिनों उसमें हमारे प्रमाण पत्र, अंक सूचियां रखते रहे। जब पुरानी होकर टूटने, फटने लगी तो खाली कर दी हमने।

यह माँ की ही समझ थी कि उन्होंने उस पर अपने हाथों से कपडे का कवर सिलकर उसकी उम्र बढ़ा दी। पुत्र की उपलब्धि को इसतरह कोई माँ ही धरोहर की तरह महत्वपूर्ण बना सकती है...

 

कॉलेज के दिनों में विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई (शायद 1974) के समय अखबार में आकाशवाणी, इंदौर के लिए उद्घोषक की नियुक्ति के लिए विज्ञप्ति निकली थी। मन में रेडियो पर बोलने का सपना उस वक्त बहुत से रचनात्मक युवकों को आकर्षित करता था। 

यद्यपि आकाशवाणी का इंदौर केंद्र गृह नगर देवास से बस 35 किलोमीटर की दूरी पर ही था किंतु तब तक कभी अवसर मिला नहीं था। 

 

उद्घोषक के लिए विज्ञप्ति देखी तो मन में गुब्बारे से फूटने लगे। देवास के पंडित परिवार से हमारे पारिवारिक संबंध रहे थे। छोटी जगह या कस्बे में सभी एक तरह से उस वक्त रिश्तेदार की तरह ही माने जाते थे। गांव भाई और गांव काका आदि की परम्परा में सब अपने ही होते हैं। इसी परंपरा में देवास मूल के श्री नरेन्द्र पंडित हमारे काका की तरह ही थे।

अब यह बताना जरूरी भी नहीं कि श्री नरेन्द्र पंडित देवास के होकर आकाशवाणी इंदौर पर वरिष्ठ उद्घोषक, प्रोग्राम डायरेक्टर और केंद्र निदेशक तक रहे। वे संगीत और रंगकर्म में भी बहुत प्रतिभा सम्पन्न थे। अब उन्हें प्रतिभावान अभिनेता चेतन पंडित के पिता के रूप में भी पहचान सकते हैं आज के पाठक.

 

हमारी ख्वाहिश के बारे में हमारे काकाश्री ने पंडित जी को बताया और उनका मशविरा लिया। पंडित जी ने परिवार के किसी बड़े सदस्य की तरह ही राय दी कि अभी हमें अनाउंसर जैसी नौकरी का न सोचकर अपनी आगे की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करके देवास के औद्योगिक क्षेत्र में वैज्ञानिक के तौर पर बड़ी नौकरी के लिए कोशिश करना चाहिए। रेडियो आदि पर प्रस्तुति का सपना तो अन्य नौकरी करते हुए भी पूरा किया जा सकता है। और बाद में हुआ भी यही। हम वैज्ञानिक तो नही बन सके किन्तु बैंक में क्लर्क जरूर बन गए। बैंक राष्ट्रीयकरण का दौर था। खूब भर्तियां हो रहीं थीं। वैज्ञानिक ही क्या इंजीनियर  और संभावित आईएएस तक बैंकों में चले गए। यह अलग बात है कि रुचिवान लोगों ने वहां रहकर भी अपने रचनात्मक शौक पूरे करने के अवसर तलाश ही लिए।  

 

'आई' कहानी के प्रसारण के बाद आकाशवाणी के इंदौर केंद्र से रचनाओं को प्रसारित करने के अवसर बाद में मिलते ही रहे। पहले प्रसारण में अंतराल कम होता था, बाद में बुलावे का अंतराल बढ़ता गया। अब तो दो तीन साल में किसी स्नेही को याद आ जाती है।

 

आकाशवाणी पर जाकर वहां प्रसारण करने के भी बहुत से ऐसे प्रसंग हैं जिनकी स्मृति सुख देती रहती हैं। 'खेती गृहस्थी' में नन्दा जी और भैराजी की उपस्थिति में जाजम पर स्क्रिप्ट फैलाकर बैठना। वार्ता के आलेख को प्रश्नोत्तरी में बदल कर प्रस्तुत करना। हर पेरा के पहले नंदा जी और भैरा जी का प्रश्न। कान्हा जी थोड़ा बाद में आए थे। मुझे याद आ रहा... वह मेरा एक रम्य लेख था-'नामकरण मनोविज्ञान'। आज जब आकाशवाणी के उन लीजेंड्स के साथ फर्श पर बैठकर प्रस्तुति की कल्पना करता हूँ, रोमांच की अनुभूति से भर उठता हूँ।

 

एक विनोद वार्ता 'सफर में समाधि' मुझे खुद पढ़ना थी किन्तु नरेंद्र पंडित जी को इतना पसंद आई कि वह वार्ता उन्होंने स्वयं अपनी आवाज में पढी। उनके वाचन से मैने विनोद वार्ता पढ़ने के सूत्र समझे। आज भी जब कोई व्यंग्य रचना का पाठ करता हूँ नरेंद्र पंडित जी की स्मृति हो आती है।

एक प्रोग्राम के डायरेक्टर श्री प्रभु जोशी जी (प्रभु दा) थे। वे न सिर्फ ख्यात चित्रकार,कथाकार हैं बल्कि बहुत जीनियस व्यक्ति हैं। उनके निर्देशित कई कार्यक्रमों को आकाशवाणी के बड़े पुरस्कार मिलते रहे हैं। बाद में वे दूरदर्शन में भी गए। मुझे एक विनोद वार्ता 'मतदान कैसा दान' पत्रिका कार्यक्रम  में पढ़ना थी। प्रभु दा तो फिर प्रभु दा ही थे, वे वार्ता को सामान्य कैसे रहने देते। उन्होंने वार्ता को मुझ से भाषण शैली में पढ़वाया। दो चार लोगों को भी साथ में बैठा लिया ताकि किसी सभा की तरह वातावरण बन सके। एकत्र लोग हर बात और जुमले के बाद तालियां बजाते। ऐसा लगता जैसे किसी नेताजी की सभा चल रही हो। 

और जब वार्ता के अंत में भीड़ नारे लगाती है..'ब्रजेश भैया जिंदाबाद..!' धीरे धीरे प्रभु दा फेड आउट करते जाते हैं। मेरा मन खुशी से फूलता जाता है।

आकाशवाणी के इन प्रयोधर्मी और जीनियस लोगों के प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त की जाए कम होगी...

आइए अंत में इस ‘फ्लैश बैक’ को एक कविता के साथ समाप्त करते हैं......

 

कविता

रेडियो की स्मृति

ब्रजेश कानूनगो

 

गुम हो गए हैं रेडियो इन दिनों

बेगम अख्तर और तलत मेहमूद की आवाज की तरह

 

कबाड मे पड़े रेडियो का इतिहास जानकर

फैल जाती है छोटे बच्चे की आँखें

 

न जाने क्या सुनते रहते हैं

छोटे से डिब्बे से कान सटाए चौधरी काका

जैसे सुन रहा हो नेताजी का सन्देश

आजाद हिन्द फौज का कोई सिपाही

 

स्मृति मे सुनाई पड़ता है

पायदानों पर चढता

अमीन सयानी का बिगुल

 

न जाने किस तिजोरी में कैद है

देवकीनन्दन पांडे की कलदार खनक

हॉकियों पर सवार होकर

मैदान की यात्रा नही करवाते अब जसदेव सिंह

 

स्टूडियो में गूंजकर रह जाते हैं

फसलों के बचाव के तरीके

माइक्रोफोन को सुनाकर चला आता है कविता

अपने समय का महत्वपूर्ण कवि

 

सारंगी रोती रहती है अकेली

कोई नही पोंछ्ता उसके आँसू  

 

याद आता है रेडियो

सुनसान देवालय की तरह

मुख्य मन्दिर मे प्रवेश पाना

जब सम्भव नही होता आसानी से

और तब आता है याद

जब मारा गया हो बडा आदमी

वित्त मंत्री देश का भविष्य

निश्चित करने वाले हों संसद के सामनें

परिणाम निकलने वाला हो दान किए अधिकारों की संख्या का

धुएँ के बवंडर के बीच बिछ गईं हों लाशें

फैंकी जाने वाली हो क्रिकेट के घमासान में फैसलेवाली अंतिम गेन्द

और निकल जाए प्राण टेलीविजन के

सूख जाए तारों में दौडता हुआ रक्त

तब आता है याद

कबाड में पडा बैटरी से चलनेवाला

पुराना रेडियो

 

याद आती है जैसे वर्षों पुरानी स्मृति

जब युवा पिता

इमरती से भरा दौना लिए

दफ्तर से घर लौटते थे।

 

( कविता रचनाकाल 1995)

 

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स्मृति में नईदुनिया

 

स्मृति में नईदुनिया

 

पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। हिन्दी पत्रकारिता के पर्यावरण में जिस अखबार की भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान रहा है और जिसने मुझ जैसे अनेक एकलव्यों को लिखने,पढ़ने और रचनात्मक बनाने में गुरु द्रोणाचार्य की तरह परोक्ष रूप से योगदान दिया है उस 'नईदुनियाअखबार का स्थापना दिवस भी 5 जून को ही होता है।

 

बाबू लाभचंद छजलानी और उनके परिवार के स्वामित्व तथा श्री राहुल बारपुते जीराजेन्द्र माथुर जी और अभय छजलानी जी के संपादकीय दौर में निकलने वाले नईदुनिया के बारे में एक पाठक रचनाकार की नजर से इस कोरोना काल के एकांत में स्वान्तः सुखाय मित्रों से बातचीत करने का मन हो रहा है।

 

जानकारी के अनुसार 'नईदुनियाअखबार का प्रकाशन इंदौर से 5 जून 1947 को श्री कृष्णचन्द्र मुदगल तथा श्री कृष्णकांत व्यास के प्रयासों से एक छोटे सायंकालीन दैनिक पत्र के रूप में हुआ था। तब से अब तक इस अखबार ने कई उतार चढ़ाव देखें हैं। इसके प्रबन्धकीयव्यावसायिक और नीतिगत बिंदुओं पर बात करना यहां मेरा उद्देश्य कतई नहीं है। वैश्विक संकट के इस भयावह समय में अपने प्रिय अखबार के गौरवशाली व रचनात्मक इतिहास की स्मृति का तनिक आनन्द उठाने का प्रयास भर है। अपने अनुभव और अनुभूतियों की सुखद स्मृतियाँ साझा करने की इच्छा हो रही है। 5 जून को नईदुनिया के जन्म की 73 वीं वर्षगांठ जो है।

 

नईदुनिया के सम्पादकीय पृष्ठ के उन दिनों के उस खास ले आउट को याद करें तो वहां पहले कॉलम में तीन,चार अलग अलग विषयों तथ्यात्मक सम्पादकीय आलेख हुआ करते थे। आज की तरह ही पास के ऊपरी स्पेस में लेख के रूप में तात्कालिक और प्रासंगिक मुद्दे पर मुख्य लेख होता। नीचे एक अन्य लेख रहता जिसमें आर्थिकसामाजिकप्रासंगिक विषयों के अलावा विज्ञानइतिहासक़ानून आदि विषयों पर विशेषज्ञों की विचारोत्तेजक टिप्पणियां और विश्लेषण होते थे।

 

इसी जगह परसाई जी का 'सुनो भाई साधो', शरद जी का नियमित साप्ताहिक स्तंभ 'परिक्रमातथा बाद में 'और शरद जोशी...आदि छपते रहते थे। कुछ अन्य उभरते हुए लेखकोंविचारकोंव्यंग्यकारों को भी मौका मिल जाया करता था। बाद में वरिष्ठ व्यंग्यकारों के स्तंभ बन्द होने के बाद 'अधबीचजैसा लोकप्रिय कॉलम छपने लगा। हाल ही में 'अधबीचने प्रकाशन की 40 वीं वर्षगांठ (21 अप्रैल 2020) को मनाई है। वस्तुतः इसके प्रकाशन के पहले दिन ही दिन मेरी रचना ‘एटनबरो का गांधी और सफलता के देसी नुस्खे’ शीर्षक से छपी थीसो मुझे यह ख़ास तारीख हमेशा याद रह जाती है।

 

अधबीच की 40 वीं वर्षगांठ पर इस बार मैंने अपने विचार इसी कॉलम व्यक्त करते हुए कुछ यूं कहा था...‘21 अप्रैल 1981 के दिन इस लोकप्रिय कॉलम ‘अधबीच’ की शुरुआत तत्कालीन प्रधान संपादक स्व राजेन्द्र माथुर जी की पहल पर हुई थी। जो वरिष्ठ पाठक नईदुनिया को अपने बचपन से पढ़ते आ रहे हैं वे जानते हैं कि नईदुनिया परिवार ने पाठकों को सदैव अपने परिवार का सदस्य जैसा ही माना है। बहुत से तो ऐसे भी हैं जिन्होंने केवल नईदुनिया पढ़ते हुए ही अपनी भाषा को संवारा और और पाठक से धीरे धीरे एक रचनाकार के रूप में विकसित होते चले गए। इन अर्थों में अपने पाठकों को लेखकों में रूपांतरित करने में नईदुनिया विशेषकर 'संपादक के नाम पत्रतथा 'अधबीचस्तंभ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

 

यद्यपि 'अधबीचको मोटेतौर पर व्यंग्य विधा का एक नियमित कॉलम मान लिया गया है लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं है। नईदुनिया में अधबीच प्रकाशन का एक वर्ष पूर्ण होने पर एक धन्यवाद पत्र तत्कालीन प्रधान संपादक स्व. राजेन्द्र माथुर जी ने इसमें सहयोग करने वाले रचनाकारों को लिखा था। इस पत्र में अधबीच को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा था- 'रोचक प्रसंग,अटपटेआचरण,मानवीय दुर्बलताएँ,खप्तसामाजिक रूढ़ियोंजंग लगी परम्पराओंअंधविश्वासों पर लिखे आलेखों का 'अधबीचमें स्वागत है,पैतरा व्यंग्यात्मक भी हो सकता है या विनोदपूर्ण भी,या हास्य लिए हुएयदा कदा सीधा सपाट भी हो सकता है। विषय अखबारों में चमकने वाली खबरों ,सुर्खियों से भी लिए जा सकते हैं। कैनवास विशाल है। जरूरत है सजीव रंगों की।

अधबीच की रचनाओं में ताजगी हो,लोकोपकार की भावना हो और सबसे जरूरी पठनीयता हो।

निसंदेह 'अधबीचकी परिभाषा के तहत ही इसे पढ़ा जाना चाहिए। यह भी बहुत दिलचस्प बात है कि बहुत से नए पाठक तो 'अधबीचको एक स्वतंत्र विधा की तरह ही देखने लगे हैं।

 

बहरहालउन दिनों सम्पादकीय पृष्ठ पर नीचे दाहिने कोने पर 'विश्व कविताकॉलम में कवि सोमदत्त लिखते थे। इसी जगह पर कवि प्रो सरोज कुमार 'स्वान्तः दुखायशीर्षक से व्यंग्यात्मक कविताएं लिखते जो उस वक्त के प्रबुद्ध पाठकों को बहुत पसंद आती थीं।

सरोज कुमार जी ने बहुत लंबे समय तक नईदुनिया के रविवारीय अंक में साहित्य पृष्ठ का सम्पादन किया था। नईदुनिया में साहित्यकारोंविषय के विशेषज्ञों से सेवाएं लेने की बहुत अच्छी परम्परा रही है। इससे सामग्री की गुणवत्ता पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था। मुझे जहां तक याद आता है,कला गुरु विष्णु चिंचालकरप्रो रणवीर सक्सेनासिनेमा के जानकार श्रीराम ताम्रकरवरिष्ठ साहित्यकार सूर्यकांत नागरकथाकारचित्रकार प्रभु जोशी भी नईदुनिया से कुछ समय तक ऐसे ही जुड़े हुए रहे थे।

 

आर्थिक विश्लेषणों के साथ डॉ विष्णुदत्त नागर और कानूनी मामलों पर विनय झेलावत जी के त्वरित आलेख बहुत रुचि से पढ़े जाते थे। उस वक्त के युवा संस्कृतिकर्मी संजय पटेल की सांस्कृतिक रिपोर्टिंग किसी साहित्यिक रचना से कम नहीं होती थी। इंदौर की कई महफिलों का जीवंत और विश्लेषणात्मक विवरण पाठक बहुत रुचि से पढ़ते थे। आज भी उनकी सक्रियता उसी तरह बनी हुई है।

 

प्रति वर्ष 5 जून को बदनावर जैसे छोटे से कस्बे के पाठक,रचनाकार श्री जगजीवन सिंह पंवार का एक लेख छपता था जिस में बीते वर्ष में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित पत्रोंलेखों आदि का लेखा जोखा होता था। कौन लेखक कितनी बार छपकर कौनसी पायदान पर रहा यह जिज्ञासा बहुत सहज हुआ करती थी पाठकों में भी।

 

नईदुनिया हमेशा से पत्रकारिता की एक उत्कृष्ठ पाठशाला माना जाता रहा था। ज्यादातर हिन्दी पाठक जानते हैं कि पत्रकारिता क्षेत्र के अनेक दिग्गज इसी स्कूल से दीक्षा लेकर राष्ट्रीय आकाश में जगमगाए हैं। सर्वश्री प्रभाष जोशीआलोक मेहतायशवंत व्यासश्रवण गर्गराजेश बादलअवधेश व्यासअजय बोकिलशाहिद मिर्जामहेश जोशीउमेश त्रिवेदीप्रकाश हिन्दुस्तानीप्रकाश पुरोहित जीनिर्मला भुराडिया,हेमंत पाल आदि के लेखन की गुणवत्ता और श्रेष्ठ रचनात्मक पत्रकारिता से कौन परिचित नहीं होगा। आज मैं इन सबको भी आदर सहित याद करते हुए मन से सम्मान देना चाहता हूँ। ये सब किसी न किसी तरह मेरे रचनात्मक जीवन से जुड़े रहे हैं और कुछ अच्छा करने के लिए अदृश्य रह कर परोक्ष रूप से प्रेरित करते रहते हैं।

 

अपने विशिष्ठ व्यंग्य चित्रों और टिप्पणियों के साथ नईदुनिया से लंबे समय से जुड़े वरिष्ठ कार्टूनिस्ट देवेंद्र शर्मा आज भी हमारे भीतर गुदगुदाहट उत्पन्न करते रहते हैं।

बहरहाल थोड़ी बात 'संपादक के नाम पत्रस्तंभ की भी कर लेते हैं। यह एक ऐसा लोकप्रिय स्तंभ था जिसमे कभी कभी मध्य लेख से बड़े और महत्वपूर्ण पत्र छपा करते थे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित विषयों पर पर प्रबुद्ध और विशेषज्ञ पाठकों की वैचारिक ही नहीं व्यावहारिक टिप्पणियां भी इसका हिस्सा होती थीं। पाठक सबसे पहले इन पत्रों को ही पढ़ना पसंद किया करता था। नईदुनिया में रचना छप जाना उस दौर में बहुत महत्वपूर्ण बात होती थी। भले ही वह 'संपादक के नाम पत्रमें चन्द पंक्तियाँ ही क्यों न हो।

 

मेरे मित्र प्रदीप कुमार दीक्षित ने भी इस कालम को संभालने की जिम्मेदारी बहुत दिनों तक निभाई थी। इसके साथ वे ‘विदेश और अंतर्राष्ट्रीय’ मसलों पर भी नियमित लिखा करते थे। उस वक्त पत्रों वाले स्तम्भ में किसी किसी विषय पर बड़ी लम्बी लम्बी चर्चाएँ चला करती थीं। बहुत दिनों तक चलने के बाद सम्पादक की टिप्पणी के साथ उसे विराम देना जरूरी हो जाता था।

 

मुझे याद है व्यंग्यकार लक्ष्मीकांत वैष्णव ने तत्कालीन सरकारी व्यवस्था और नौकरी में प्रताड़ना के चलते हताशा में आत्महत्या कर ली थी। तब अजातशत्रु जी ने अपने नियमित स्तम्भ ‘हस्तक्षेप’ में आक्रोश भरा संवेदना से ओतप्रोत महत्वपूर्ण लेख लिखा था ’एक हत्या मेरी बिरादरी में। इस विषय को लेकर इसी पाठकीय पत्रों वाले कालम में लम्बी बहस ‘खिलाड़ी बनाम नौकरीपेशा रचनाकार’ की समस्याओं पर छिड़ गई थी। इस विमर्श में अनेक प्रतिष्ठित और विचारवान लोगों के पत्र छपे। मैंने भी कुछ पत्र लिखे थे। बाद में इसी बहस के पत्रों को संपादित कर एक आलेख मैंने तैयार किया था जो प्रधान सम्पादक को भेजा था। यह आलेख कुछ साहित्यिक व वैचारिक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुआ था।

 

वर्ष 1995 में जब समकालीन कविता लिखने वाले मित्र कुमार अम्बुज जैसे दोस्तों का साथ मिला तो कविताओं लिखने की और रुझान हुआ। कुछ कविताएँ लिखीं और नईदुनिया में प्रकाशनार्थ भेज दीं। एक दिन प्रो.सरोजकुमार जी का फोन आया कि तुमको कविताएँ अवश्य लिखनी चाहिए। पहली कविता ‘अस्पताल की खिड़की से’ रविवारीय साहित्यक पृष्ठ पर प्रकाशित कर उन्होंने मेरे कवि रूप को ब्रेक दे दिया।

 

कवि मित्रों के साथ और सबके सकारात्मक प्रोत्साहन से कविता लिखने का सिलसिला चल पड़ा। महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ नईदुनिया में भी कविताएँ छपती रहीं। नईदुनिया में तब तक छप चुकी (1995 से 2014) सारी चालीस कविताएँ वर्ष 2014 में आए पहले कविता संग्रह ‘इस गणराज्य में’ में संग्रहीत की गईं हैं।

 

नईदुनिया के परिवार परिशिष्ट ‘नायिका’ में भी बहुत सी कविताओंलघुकथाओं और कहानियों को स्थान मिलता रहा। मेरे लिए उस दिन का वह सुखद रोमांच भुलाए नहीं भूलता जब मेरी कविता ‘छुप जाओ कजरी’ को सुन्दर ले आउट के साथ ‘नायिका’ के पूरे कवर पृष्ठ पर निर्मला भुराडिया जी ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था।

 

वर्त्तमान में भी नईदुनिया में रचनाओं के प्रकाशन का सिलसिला जारी है। हालांकि नईदुनिया में अपनी रचनाओंपत्रों के प्रकाशन का वह दौर भी याद आता है जब हर पन्द्रह दिन में कुछ न कुछ प्रकाशित होने से कई पाठक यह समझ लेते थे कि मैं भी नईदुनिया के स्टाफ का एक सदस्य ही हूँ। नामवरसिंह जी से प्राची संस्था के अधिवेशन में जब भोपाल में मिलना हुआ और अपना नाम बताया तो उन्होंने कहा.. ‘अच्छा आप हैं ब्रजेश कानूनगोआप तो नईदुनिया में काम करते हैं न?’

उनके कथन से मैं भीतर से तो बहुत खुश हुआ मगर प्रत्यक्ष में अचकचाते हुए सच बोलना पडा... ‘नही सरमैं बैंक में नौकरी करता हूँ।’ यही सब यादें सुख देती रहती हैं।

 

इसी तरह शामिल है नईदुनिया मेरे जीवन और स्मृतियों में। जो कुछ अब तक लिख पाया हूँ निसंदेह उसका बहुत सारा श्रेय उन दिनों के नईदुनिया अखबार को देने में कोई संकोच मुझे नही होता है। इच्छा तो यह भी बहुत थी उस वक्त कि कभी नईदुनिया के दफ्तर में बैठकर काम कर सकूंगा...मगर यह सब अपने हाथ में नहीं होता...

 

नईदुनिया तो अब भी प्रतिष्ठित व लोकप्रिय अखबार है। किसी सुमधुर आर्केस्ट्रा सा बजता रहता है। साजिन्दे जरूर बदल गए हैं। अधिक आधुनिक और तकनीकी दृष्टि से भी सम्पन्न हुआ हैमगर अब वहां पत्रकारिता और साहित्य के वे पुराने मन्ना डेमुकेशकिशोर कुमार जैसे राहुल बारपुतेराजेन्द्र माथुर या अभय छजलानी नहीं हैंवे भी वहाँ नहीं हैं जिन्हें मैंने ऊपर याद किया है।

प्यास अधूरी सी रह जाती है। पुराने कानों को नई आवाजों का अभ्यस्त होने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है....

नईदुनिया धीरे धीरे और नई होती गई है... पर पुरानी नईदुनिया की स्मृतियाँ भी मन को अब भी हरा करती रहती है...

 

००००

 

साहित्य परिवार के स्नेहिल मुखिया

 

वर्षों दैनिक व्यंग्य कॉलमों में लिखते लिखते कुछ ऐसी आदत हो गई थी कि बहुत दूर तक रचना को खींच ले जाने का मन ही नहीं होता था। तुरन्त छप जाने और निरन्तरता के कारण मन भी नहीं हो पाता था कि कुछ बड़ी व्यंग्य रचना लिखी जाए।

ऐसे में जब नईदुनिया समाचार पत्र में 'खुला खाता' शीर्षक से व्यंग्य का साप्ताहिक कॉलम शुरू हुआ तो लम्बी रचनाएं लिखने, छपने और हाथ भाँजने के अवसर भी बढ़ गए।

इस बात का जिक्र महज इसलिए कि इस खास साप्ताहिक स्तंभ का सम्पादन श्री सूर्यकांत नागर जी किया करते थे।  कथात्मक और कुछ अधिक लम्बी रचनाओं की ओर रुचि पैदा होने में इस कॉलम की तथा आदरणीय श्री नागर साहब के प्रोत्साहन की भूमिका मेरे जीवन में महत्वपूर्ण रही है। हालांकि वे इतने सहज हैं कि वे कभी इस सच को स्वीकार करेंगे।

जितना भी मैंने श्री सूर्यकांत नागर जी को समझा है,महसूस किया है वे हमेशा परिवार के ही बड़े सदस्य की तरह लगे, जो परिवार के किसी छोटे सदस्य के भीतर थोड़ी भी साहित्यिक चमक देख उसकी प्रतिभा को सितारे की जगमगाहट में बदलने के प्रयास करने की कोशिश करते रहे हैं।

दरअसल, जिन वरिष्ठ रचनाकारों के कारण इंदौर को साहित्य जगत में जाना जाता है उनमें सूर्यकांत नागर जी की छवि और उनका सहज,आत्मीय और आडम्बर रहित व्यक्तित्व,आचरण उनके स्वीकार्य को बहुत बड़ा बना देता है।  मूलतः कथाकार,उपन्यासकार नागर साहब बहुत प्रभावी व्यंग्यकार, लघुकथाकार तो हैं ही कुछ खूबसूरत मार्मिक कविताएं भी उनकी कलम से निकली हैं। यही कारण है कि साहित्यिक विषयों पर उनके विश्लेषणात्मक,आलोचनात्मक  लेख और व्याख्यानों को भी बहुत महत्व मिलता रहा है। कई रचना शिविरों और कार्यशालाओं में उनसे सीखने समझने के अवसर मिलते रहे हैं। श्री नागर जी का प्रोत्साहन ही था कि मेरी पहली किताब 'पुनः पधारें' (1995) में आ सकी।

साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका 'समावर्तन' में व्यंग्य केंद्रित 'वक्रोक्ति' खण्ड का वे त्रैमासिक सम्पादन करते हैं। इस खंड में मेरे व्यंग्य लेखन पर भी उन्होंने 8/10 पन्नों में सामग्री मंगवाकर प्रकाशित कर मुझे स्नेह दिया। उनकी विनम्रता देखिए कि आगे कहते हैं..'भाई! अन्यथा मत लेना आपको हम थोड़ा देरी से शामिल कर पाए।

यह बात उन जैसे मीठे फलों से लदे किसी पेड़ की विनम्र शाखा ही कह सकती है। उनके स्नेह की शाखा मेरे माथे पर किसी आशीर्वाद से कम नहीं।

आज भी जब किसी मेरी रचना या उपलब्धि का समाचार उन्हें मिलता है,वे मुझे  फोन करके मुझे नई जिम्मेदारी का अहसास करा देते हैं।

 

निसंदेह आदरणीय नागर साहब के प्रति गहरी आत्मीयता प्रकट करने के लिए शब्द तो कम पड़ ही जाते हैं। किन्तु उनकी तरह यदि हम साहित्य के प्रति, साहित्य की गतिविधियों के प्रति, साहित्यक रुचि वाले श्रोताओं के प्रति, बनते हुए लेखकों के प्रति,आयोजनों में सहजता से शामिल हो जाने वाले विनम्र व्यक्ति की तरह थोड़े भी हो सकें तो उनके प्रति हमारी सच्ची कृतज्ञता होगी।

 

देवताले जी की याद में 

 

उस दिन एक फोन आया था। उधर से किसी ने कहा 'मैं एक शोधार्थी बोल रहा हूँ उज्जैन से। आज जनसत्ता में आपका पत्र पढ़ा। मैं आपका मुरीद हूँ, आपकी कविताएँ बहुत अच्छी लगती हैं। बड़ी मुश्किल से आपका फोन नंबर मिला।'

 

पहले तो मैं हतप्रभ रह गया लेकिन थोड़ी देर में ही अटकती आवाज के खास लहजे से पहचान गया। वे आदरणीय चंद्रकांत देवताले थे। 

मैंने कहा 'सर,ये उल्टी गंगा क्यों बहा रहे हैं।' तो जवाब में उनका जोरदार ठहाका सुनाई दिया।

 

एक मायने में देवताले सर कविता में हमारे प्रशिक्षक की तरह रहे। प्रलेस और प्राची के रचना शिविरों में आदरणीय भगवत रावत, कमलाप्रसाद जी और देवताले जी की सहज बातचीत नुमा व्याख्यानों से कविता को सीखने समझने में बड़ी मदद मिली। ये कहना गलत भी नही होगा कि ये रचनात्मक अवसर बैंक कर्मचारी नेता व सामाजिक कार्यकर्ता श्री आलोक खरे तथा मित्र और महत्वपूर्ण कवि कुमार अम्बुज की रचनात्मक सूझबूझ का परिणाम थे।

 

हास्य विनोद और चुहल,चुटकियों से भरे होने के साथ देवताले जी इतने भावुक और संवेदनशील थे कि बात करते हुए विह्वल से हो जाते थे। 

तंगबस्ती के बच्चों के शिविर में जब एक बार वे बच्चों से बातचीत कर रहे थे,उनका कंठ भर आया। कुछ कविताएँ भी उन्होंने सुनाई। उनके सत्र के बाद  हर बच्चा उनको छूने,उनसे हाथ मिलाने को लालायित हो गया। देवताले जी सबसे हाथ मिलाते रहे, उनकी आंखें डबडबाती रहीं।

इंदौर से उज्जैन चले जाने से बच्चों के शिविर में पुनः उनका आना हो नहीं पाया।

देवताले जी की वे स्मृतियां और कविताएं अब हमारी याद में हमेशा रहती हैं...

यहां पढ़ते हैं देवताले जी की यह कविता...

 

कविता

अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही...

चंद्रकांत देवताले

 

अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही

तो मत करो कुछ ऐसा

कि जो किसी तरह सोए हैं उनकी नींद हराम हो जाए

 

हो सके तो बनो पहरुए

दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें

गाओ कुछ शान्त मद्धिम

नींद और पके उनकी जिससे

 

सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं

और सोई स्त्रियों के चेहरों पर

हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम

और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो

नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी

दुश्मनी का कोई निशान

 

अगर नींद नहीं आ रही हो तो

हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर

ख़ून की जाँच करो अपने

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।

 

००००

 

 

व्यंग्य के अक्ष पर चमकता 'जवाहर'

सन 1994 में इंदौर स्थान्तरित होकर आने तक मैं श्री जवाहर चौधरी जी से व्यक्तिगत रूप से कभी मिला नहीं था। देवास, नीमच आदि में अपनी नौकरी करते हुए जब मेरी कोई व्यंग्य रचना नईदुनिया के 'अधबीच' स्तंभ में प्रकाशित होती तब उनका एक सुंदर अक्षरों में रचना की प्रशंसा में लिखा पोस्ट कार्ड अवश्य प्राप्त होता था। न सर्फ उनके खूबसूरत अक्षरों में लिखे शब्दों से मैं उत्साहित हो जाता था किन्तु उससे भी अधिक पत्र के नीचे उनके हस्ताक्षर बहुत मोहित करते थे। उनका हस्ताक्षर लगभग 'वन लाइनर' जैसा नजर आता है किंतु उसमें व्यंग्य की तरह वक्रता की बजाए  उनकी आत्मीयता और स्नेह की झलक प्रवाहित होती दिखती रही है।

बाद में इंदौर में होने वाले प्रत्येक साहित्यिक आयोजनों में उनसे भेंट होने लगी। प्रलेस की गोष्ठी में मुझे उनके महत्वपूर्ण व्यंग्य संग्रह 'प्रबुद्ध बकरियाँ' पर चर्चा करने का अवसर मिला था।उसके बाद तो हिंदी साहित्य समिति, केंद्रीय पुस्तकालय में होने वाली गोष्ठियों में नित्य प्रति मेल मुलाकात और साहित्यिक चर्चाएं होती रहीं। जो अभी तक कोरोना समय से पहले तक जारी रहीं हैं। हमारी बैंक में होने वाली रचनात्मक गतिविधियों और साहित्यिक संगठन 'प्राची' के कई कार्यक्रमों में उन्होंने मुख्य अतिथि का दायित्व स्वीकार करके हमें अनुग्रहित किया है।

हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा में इंदौर की पहचान बनाने में शरद जोशी के बाद जवाहर भाई का नाम सबसे पहले आना स्वाभाविक है। उनके रचनात्मक योगदान पर बातचीत तो हमेशा ही होती रही है लेकिन जवाहर भाई को मैं कुछ अलग कोणों से भी महसूस करता हूँ।

जवाहर चौधरी जी  के व्यंग्य लेखों का मैं प्रशंसक रहा हूँ। बल्कि एक तरह से व्यंग्य लेखन के प्रति उनकी एकाग्रता और समझ मेरे लिए प्रेरणा बनती रही है। वे पूर्ण रूप से व्यंग्य लेखन के प्रति समर्पित रहे हैं इसलिए व्यंग्य के उनके कीर्तिमान और प्रतिमान उनकी निष्ठा और मेहनत के परिणाम हैं। नाटक हो या कहानी या लघुकथा उनकी व्यंग्य दृष्टि हर विधा में मौजूद रही है। व्यंग्य के अक्ष के आसपास उनका समग्र सृजन गतिमान रहता रहा है।

मंच पर व्यंग्य पढ़ते हुए कई बार सुना है। व्यंग्य के संवादों को वे बहुत मिमिक्री और पात्र के अपने स्वभाव की तरह बहुत रोचकता से सुनाते हैं। रचना का वह चरित्र हमें उनके मुंह से बोलते दिखाई देने लगता है। मुझे उनके भीतर का कुशल नाट्य वार्ताकार संवाद करते नजर आता रहा है। संवाद लिखते समय जवाहर चौधरी उसकी नाट्य प्रस्तुति और समग्र प्रभाव का पूरा ध्यान रखते हैं। उनकी रचनाओं में दिलचस्पी का एक यह भी बड़ा कारण होता है। यही वजह है कि उनकी अनेक रचनाओं के नाट्य रूपांतरण हुए हैं। प्रहसन और नाटक रचने की उनकी यह प्रतिभा अन्य व्यंग्यकारों में उन्हें विशिष्ट स्थान दिलाती है। यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला था कि वे बहुत अच्छे कार्टूनिस्ट भी हैं और एक सांध्यकालीन में नियमित व्यंग्य चित्र बनाते रहे हैं।

साफगोई और धैर्य जैसे गुण मैंने उनके व्यवहार और लेखन में हमेशा महसूस किए हैं। मित्र की खुशी का उन्हें हमेशा खयाल रहता है। वे कभी नहीं चाहते कि उनके किसी कृत्य से रिश्तों की डोर में कोई गांठ पड़ जाए। लेकिन बेहतरी के लिए उनका सहयोग हमेशा मित्रों को मिलना बहुत सहज होता है।

दूसरों के मन की बात को समझ कर गलती को स्वीकार कर लेना बहुत कम लोगों में पाया जाता है। मैंने महसूस किया कि वे इस मामले में बहुत बड़ा हृदय रखते हैं। बहुत संभव है कुछ मित्रों को शायद जवाहर चौधरी जी के लिए मेरे ये कथन अजीब लगे किन्तु यह बिल्कुल सही है कि व्यंग्य लेखन के प्रति उनका समर्पण और रचना की पूर्णता और प्रकाशन में धैर्य मेरे मन में उनके प्रति सम्मान में वृद्धि करता है।

व्यंग्य लेखन में उन्होंने जो अर्जित किया वह किसी भी व्यंग्यकार की आकांक्षा हो सकती है.... किन्तु उन जैसा जवाहर बनना इतना आसान भी नहीं....

 

सुशील सिद्धार्थ : सोशल मीडिया का प्रिय दोस्त

 

सोशल मीडिया के जरिये मेरा परिचय स्व सुशील सिद्धार्थ से हुआ था। वाट्सएप समूह के जरिये सुशील सिद्धार्थ ने व्यंग्य विधा के विकास के लिए ठोस प्रयास किये। वाट्सएप समूह 'वलेस' (व्यंग्य लेखक समिति) के माध्यम से व्यंग्य लिखने वाले अनेक नए पुराने रचनाकारों को इकट्ठा करकेव्यंग्य विधा के लिए समझ बढ़ाने और आलोचना में उसके व्यवस्थित सौंदर्य शास्त्र के विकास की स्व सुशील सिद्धार्थ की गहरी आकांक्षा थी।

 

इसी उद्देश्य को साकार करने के लिए उनकी कई योजनाएं रहींजिनमे से कुछ पूरी भी हुईं लेकिन बहुत सारी के लिए वे लगातार प्रयासरत थे। वलेस समूह के सदस्य रचनाकारों के साझा संग्रह ‘व्यंग्य बत्तीसी’ से इसकी शुरुआत हुई थी संग्रह बहुत चर्चित भी हुआ. फिर कुछ और किताबों के अलावा ‘व्यंग्य के पांच स्वर’ की रूप रेखा भी यहीं बनी जिसमें सर्वश्री ज्ञान चतुर्वेदीप्रेम जनमेजयसुरेश कान्तअंजनी चौहान और सुशील सिद्धार्थ जी के व्यंग्य शामिल हुए. ‘व्यंग्य के पांच स्वर’ संकलन में सबसे जरूरी स्वर मेरी दृष्टि में सुशील सिद्धार्थ का रहा है. जरूरी इसलिए कि यदि यह स्वर नहीं होता तो शायद यह इस संग्रह का राग हमारे समक्ष नहीं आ पाता

 

सुशील हमेशा से ‘हाशिये का राग’ सुनाने के पक्षधर रहे. व्यंग्य आलोचना के किसी उपयुक्त सौन्दर्य शास्त्र के अभाव की चिंता उनके भीतर दिखाई देती रही है सक्रीय समकालीन व्यंग्यकारों को एक मंच पर लाने के लिए ही उन्होंने ‘व्यंग्य लेखक समिति’ का समूह बनाया था. वाट्सएप जैसे नए माध्यम में चर्चाओं और विधा विमर्श से रचनात्मकता के अनेक रास्ते खुल गए आलोचना और समकालीन व्यंग्य पर नया वातावरण बना व्यंग्य में पठनीयतासरलता जटिलता के प्रश्नमैं व्यंग्य क्यों लिखता हूँ आदि जैसे विषयों पर वलेस समूह में खूब विमर्श होता था

 

इसी समूह से उत्पन्न विचार से ‘लमही’ पत्रिका के व्यंग्य विशेषांक में व्यंग्य विधा पर महत्वपूर्ण परिचर्चा संभव हुई जिसका संयोजन वलेस की ही युवा साथी सुश्री शशि पाण्डेय ने किया था. व्यंग्य विधा में बिम्ब-प्रतिबिम्ब की नई कल्पना के तहत व्यंग्यकार का खुद अपने बारे में और एक स्वतन्त्र आलोचक द्वारा उसके सृजन पर आलोचनात्मक आलेखों के संग्रह ‘आलोचना का आईना’ अपने आप में सुशील जी की यह अनोखी सोच रही इस पुस्तक का सम्पादन के लिए उन्होंने समर्थ युवा लेखक,कवि राहुल देव को दायित्व सौंपा था.

सच तो यह है कि वलेस जैसे वाट्सएप समूह पर विमर्श के बहाने कई व्यंग्य और आलोचनात्मक लेख लिखने की मुझे ही नहीं सभी को प्रेरणा मिल जाती थी। ग्रुप के कई सक्रिय सदस्यों ने सुशील सिद्धार्थ जी के हस्तक्षेप से अपने लेखन को संवारने की पहल की और बेहतर दिशा में कदम बढ़ाए।

 

वलेस समूह पर ही जब देवास के व्यंग्यकार और मेरे मित्र श्री ओम वर्मा के बीच अपने बचपन के एक किस्से की चर्चा हुई तो उससे प्रेरित होते हुए सुशील जी ने तुरंत ‘ व्यंग्यकारों का बचपन’ शीर्षक से एक संस्मरण संग्रह की योजना बना डाली यहाँ तक की पुस्तक के कवर को भी डिजाइन करवा लियावनिका प्रकाशन की डॉ नीरज सुधांशु से सम्पादन और प्रकाशन की अनुमति लेकर लेख भी आमंत्रित कर लिए इस कार्य को नीरज जी बाद में बड़ी खूबसूरती से साकार किया

बाद में दिसम्बर 17 में पहली बार भोपाल में सुशील जी द्वारा शुरू किए गए पहले 'ज्ञान चतुर्वेदी सम्मानसमारोह में प्रत्यक्ष मुलाकात हुई। बहुत विचारवानविवेकशीलऊर्जावान और व्यवस्थित व्यक्ति के रूप में मेरे मन में जो छबि थी उसकी पुष्टि वहां हुई।

एक समर्थ रचनाकार,आलोचक, संपादक और संगठक के असमय दुनिया से बिदा हो जाने से मन अब तक दुखी हो जाता है. सुशील जी के बिना जैसे सोशल मीडिया की दुनिया का एक खास दोस्त मैंने खो दिया

 

सुशीलजी और मेरी उम्र लगभग बराबर रही है सही तिथि से मैं उनसे कुछ महीने ही बड़ा था वे मेरी माँ से मिलना चाहते थे. अफसोस नवम्बर 17 में माँ मुझे छोड़कर विदा हो गईं. उस दुःख से अभी उभर ही रहा था कि सुशील स्वयं शायद उनसे मिलने कुछ माह बाद चले गए...

आभासी दुनिया का कोई मित्र इतना आत्मीय और अपना कैसे हो जाता है..यह मैंने सुशील जी के चले जाने के बाद गहराई से महसूस किया है

 

००००

 

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान

हिरोशिमा के विनाश और विकास की करुण दास्तान  पिछले दिनों हुए घटनाक्रम ने लोगों का ध्यान परमाणु ऊर्जा के विनाशकारी खतरों की ओर आकर्षित किया है...