देशज के प्रतीक पुरुष : नरहरि पटेल
उस दिन रविवार था। हमारे
लिए वह खास दिन जब सामान्यतः अखबारों में 'साहित्य पृष्ठ' का प्रकाशन
किया जाता रहा है। अब ऐसा नहीं है। या तो उस तरह के पृष्ठ अब रहे नहीं या फिर वहां
साहित्य नहीं रहा। कुछ अपवाद हो सकते हैं किंतु उस दिन रविवार ही हो यह जरूरी भी
नहीं।
तो उस दिन रविवार था और
सुबह सुबह अखबार में छपी अपनी कविता का पुनर्पाठ कर ही रहा था कि मोबाइल में अन
सेव्ड नम्बर से काल आया।
'बधाई ब्रजेश
भाई! क्या खूब लिखा है आपने...मन प्रसन्न हो गया...अब तो उस अनुभूति को समझने वाले
लोग ही नहीं रहे...कौन देखता है अब किसी कुतिया को इस तरह...नीम के नीचे जमीन
खुरचकर खो बनाते...पिल्लों का धूप में खेलना और ठंड में एक दूसरे में कम्बल की तरह
गुंथ जाना...!'
उधर से यह सब हिंदी, मालवी में बहुत आत्मीयता से कहा जा रहा
था। मालवी व्यक्ति होते हुए मालवी भाषा मेरी रफत में नहीं रही, खड़ी बोली का व्यक्ति हूँ अतः सामने से आ रही उस मीठी मालवी और उस रस को
यहां शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल हो रहा है।
यह भी निश्चित है कि जैसे
ही मैं यहां यह बताऊंगा कि उधर से आने वाला यह उत्साहवर्धक आत्मीय फोन आदरणीय दादा
नरहरि पटेल जी का था तो बहुत से लोगों को वे साक्षात अपनी शैली में प्रत्यक्ष
बतियाते नजर आने लगेंगे।
दादा नरहरि पटेल जी को मैं
लोक संस्कृति के बड़े जानकार, मालवी, निमाड़ी भाषा और परंपराओं से आत्मसात सुकवि,
रंगकर्मी के रूप में भाषा और लोकजीवन में देशज पहचान को मिटते देखकर
दुःखी और चिंतित रहने वाले संवेदनशील व्यक्ति के रूप में जानता रहा हूँ। इन्ही सब
प्रयासों में उनके कार्य देखे जा सकते हैं। वह चाहे उनकी कविता हो, नाट्यवाचन या अभिनय हो, वार्तालाप हो,व्याख्यान हो,संवाद हो या अभिव्यक्ति का अन्य कोई
स्वरूप रहा हो। उनकी उसी खास रचनात्मक प्रतिबद्धता को रेखांकित किया जा सकता है।
एक प्रतिबद्धता उनकी अपने युवाकाल से प्रगतिशील लेखक संघ से भी रही और उस जमाने के
साहित्यकारों के साथ उन्होंने बहुत काम भी किया। एक सुखद सत्य यह भी है कि जब 1957
में मैं जब इस संसार में आ रहा था उस वक्त इंदौर आकाशवाणी केंद्र ने
भी जन्म लिया। तब से ही दादा नरहरि पटेल रेडियो के श्रेष्ठ कलाकारों में शामिल रहे
और आज 86 वर्ष की आयु में हम उनकी इस प्रतिभा का लाभ लेते
रहते हैं...
बहरहाल, जब भी मैंने किसी देशज और लुप्त होती
बात या प्रसंग का उल्लेख अपनी किसी रचना में किया तब उनका एक फोन मुझ तक अवश्य
पहुंचा। बड़ी देर तक वे स्वयं उस बहाने अपनी पीड़ा के साथ उस खुशी और आनन्द का अहसास
भी कराते हैं जो उस देशज प्रयोग से संभव हो जाती है।
'मालवी जाजम'
उनका एक ऐसा उपक्रम रहा है जिसमें वे मालवी बोली,संस्कृति को बचाए रखने के लिए नियमित बैठक करते रहते हैं। यह बहुत सुखद है
कि उनके इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए एक पूरी टीम उनके मार्गदर्शन में तैयार हो
गई है। उनके सुयोग्य पुत्र भाई संजय पटेल में उनके व्यक्तित्व और सुकर्मों की छवि
स्पष्ट दिखाई देती है।
एक दो बार मुझे भी 'जाजम' में शिरकत
करने का सौभाग्य मिला। गोष्ठी की अपनी खास पहचान है जिसमें लोकगीतों से लेकर
साहित्य की सभी विधा में मालवी रचनाएं सुनाई और गाई जाती हैं। उनके ऐसे प्रयासों
में श्री प्रह्लादसिंह टिपानिया जी सहित कई ख्यात कलाकारों को भी गौरव मिलता रहा
है।
मेरी कविता 'चिड़िया का सितार' पर
प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जैसे वे भावुक ही हो गए। बाद में पूरा संग्रह पढ़कर
इत्मिनान से मेरा हौसला बढ़ाया। मैं धन्य हो गया उनका आशीष पा कर। लिखना सफल हुआ।
वरिष्ठ समाजसेवी व बैंक अधिकारी
नेता श्री आलोक खरे जी के संयोजन में हमारे प्रकल्प 'समाज सेवा प्रकोष्ठ' द्वारा संयोजित तंगबस्ती के गरीब बच्चों के शिविर में जब एक बार उन्होंने
बच्चों से बातचीत की,कविताएं सुनाई तो बच्चों को वह सब इतना
भाया कि बाद में भी कई मौकों पर उन्हें शिरकत करनी पड़ी।
कविता और गीतों की वे इतनी
रोचक और भावभंगिमाओं के साथ प्रस्तुति देते हैं कि दर्शक, श्रोता मुग्ध तो होते ही हैं बल्कि
लोककाव्य और लोक संस्कृति का सीधा असर हृदय के भीतर तक महसूस किया
जाने लगता है। सच तो यह है कि दादा नरहरि पटेल जी को ठीक से जानना समझना है तो
उनको आमने सामने बैठकर रचना पाठ करते,नाट्यवाचन या अभिनय
करते देखना बहुत जरूरी होगा।
दादा के स्वस्थ और सुदीर्घ
जीवन की कामना के साथ यहां उनका एक मालवी गीत पढ़ते हैं...कल्पना में उनको सामने
महसूस जरूर करें...
मालवी गीत
नरहरि पटेल
कसा चेहकता था चेरकला कई
याद हे के नी याद हे।
मस्ती में गम्मत रतजगा कई
याद हे के नी याद है।
दादी की मीठी लोरियाँ नानी
की रेशम झोरियाँ।
माँ की कसूमल थपकियाँ कई
याद हे के नी याद हे।
होली दिवाली थी कसी राखी पे
मनवाराँ कसी
घूमर दिवासा ढुमकणा कई याद
हे के नी याद हे।
थानक पे माँगी थी मन्नताँ
बस एक बालूड़ो दे माँ
माता की पूजा वंदना कई याद
हे के नी याद हे।
सूरज उगाता था कूकड़ा संजा
सुलाती थी रूँखड़ा
राताँ का चमचम चूड़ला कई याद
हे के नी याद हे।
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रेडियो का फिर लौटना
और स्मृतियों का झरोखा
इन दिनों दिनचर्या की
पृष्ठभूमि में ज्यादातर रेडियो पर सुबह 7 बजे से रात 11 बजे तक 'विविध
भारती' की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। कभी मध्दिम तो कभी
थोड़ी तेज आवाज में। मगर चलता रहता है पंचरंगी कार्यक्रम...
कोरोना काल के दौरान रेडियो
की यह हमउम्र चैनल सोशल मीडिया के माध्यम से कुछ और करीब से जुड़ गई है।
दरअसल दोपहर में 'कुछ बातें कुछ गीत' कार्यक्रम से शुरू होने पर
फेसबुक के माध्यम से श्रोता सीधे अपने मन की बात करके कार्यक्रम की थीम से जुड़
जाते हैं। कुछ सवाल भी होते हैं, कुछ रोचक किस्से, कुछ यादें...
कुछ अतीत जीवी वरिष्ठ
नागरिक जो स्मृतियों से प्रेम करते हैं वे वर्ग पहेली हल करना या झपकी लेना भूलकर
रेडियो से इन दिनों कुछ अधिक ही जुड़ गए हैं। कला, संगीत, साहित्य, कथा,पटकथा,स्क्रिप्ट, फ़िल्म जगत,
अभिनय,फ़िल्म प्रोडक्शन आदि में जिन्हें थोड़ी
बहुत भी रुचि है उनके लिए तो विविधभारती की दोपहर 'गोल्डन
टाइम' सी हो जाती है।
सुमधुर सदाबहार गीतों के
अलावा 'उजाले उनकी
यादों के' ,'बॉम्बे टाकीज' आदि में
आकाशवाणी की अनमोल धरोहरों के खजाने से जैसे ज्ञान, तकनीक और
स्मृतियों की जलधाराएं सी मन के भीतर बहने लगती हैं।
अभी विविधभारती ने वर्ष
2020 में अपना 63 वां जन्म
दिन मनाया तो फेसबुक पृष्ठ पर बहुत कुछ लाइव भी होता रहा। मुम्बई विविधभारती के
उद्घोषकों से मिलना, उनको प्रस्तुति देते हुए देखना तो सुखद
था ही लेकिन एक प्रयोग जो किया गया वह बहुत प्रभावित कर गया। इस अवसर पर एक रेडियो
नाटक को लाइव प्रस्तुत किया गया।
जाने माने उद्घोषकों को
भावप्रवण नाट्य वाचन करना देखकर उनकी प्रतिभा और उनके समर्पण व निपुणता ने अचंभित
कर दिया।
हाँ, यह जरूर है कि इस तरह उनको सजीव
देखकर उनके हुनर, श्रम व तकनीक का अवलोकन तो हुआ किन्तु जो
आनन्द आंख बंद करके रेडियो नाटक सुनने का है वह जादू लाइव देखने में अवश्य हाथ से
निकल गया।
मुझे लगता है रेडियो नाटक, प्रहसन का असली मजा शायद आंख बंद
करके सुनने में ही है।
बचपन के दिनों में रेडियो सुनते हुए सोचा
करते थे कि कितना अच्छा हो कि इस जादूई बक्से के भीतर के लोग स्पीकर लगे पर्दे पर
साक्षात गाते, बजाते, नाचते,नाटक करते,समाचार
सुनाते दिखाई भी देने लगे। और जब हमारी यह ख्वाहिश विज्ञान और टेक्नोलोजी ने पूरी
कर दी और भारत में भी दूरदर्शन का उदय हुआ किन्तु रेडियो के श्रोता धीरे धीरे टीवी
के दर्शकों में बदलते गए।
घर घर में टीवी आ गया। पहले एक मात्र
सरकारी चैनल और वह भी श्वेत श्याम जिसे चुने हुए केंद्रों पर बमुश्किल देखना सम्भव
होता था। दूरदर्शन के विकास की सारी कहानी हमारी सबकी देखी समझी है। टीवी की चर्चा
फिर कभी। आज यहां मैं रेडियो के उस स्वर्णिम काल के उतार और उसके पुनः लौटने के
दौर की बात करना चाह रहा हूँ।
दूरदर्शन के आने के बाद जब टीवी पर अन्य
मनोरंजक चैनलों को अनुमति मिल गई तो भारतीय परिवारों के बहुत बड़े हिस्से के घरों
से बचे खुचे रेडियो सेट भी गायब हो गए या उनका स्थान घर के कबाड़खाने में ही रह
गया।
जब किसी से कहते भी कि भाई आज हमारी कहानी
रेडियो पर आने वाली है तो अपने ही परिचितों के घर में वह सुनी नहीं जा सकती थी।
ऐसे में रचनाकार अपनी रचना आकाशवाणी केंद्र के माइक्रोफोन को सुनाकर, चेक प्राप्त कर संतृष्ट हो लेता। लेकिन यह सब रेडियो
के स्वर्णिम दौर के बाद के उस वक्त की विडंबना है जब टीवी ने रेडियो माध्यम को
प्रतिस्थापित करना प्रारंभ कर दिया था।
और अब जब टीवी से दुनियाभर में लोग ऊबने
लगे हैं। निजी मनोरंजक व खबरिया चैनलों में प्रतिस्पर्धा की घटिया लड़ाइयां चलने
लगी हैं। समाचार,विचार सब कुछ किन्ही
दबावों और स्वार्थों से संचालित होने लगे हैं। ऐसे में यह दिलचस्प है कि लोग पुनः
रेडियो का रुख करने को उद्यत हुए हैं।
एफएम प्रसारणों और मोबाइल एप्स के जरिये
रेडियो सुनना अब बहुत आसान हुआ है। भारत के लोक प्रसारण चैनलों पर भी अधिकतर
सुरुचि और स्वच्छता नजर आती है।
यह अच्छा ही है कि रेडियो पर अभी 'टीआरपी' का गणित खुल कर गंदगी पैदा नहीं कर पाया है। लोग टीवी चैनलों के आतंक ,सनसनी,उत्तेजना और विवेक को कुंठित करने वाली हरकतों
से ऊबकर रेडियो के पुराने दौर में लौटने को उद्यत हुए हैं।
'मालवा हाउस'
से आई गत्ते की वह अटैची
गत्ते और रैग्जीन से बनी एक
छोटी सी अटैची (ब्रीफकेस) माँ बहुत संभालकर रखा करती थी। अपने आखिरी समय तक वे
उसमे अपने कुछ जरूरी सामान और पत्र पत्रिकाओं में छपी मेरी रचनाओं की कतरने बहुत
जतन से सहेजा करती थीं। जब भी मैं उनसे मिलने जाता वे सभी कतरनें दिखातीं। मन करता
तब लगभग उनका पारायण सा भी करती रहती थीं। वे नियमित अखबार पढ़ती थीं। जब मैं घर से
बाहर नौकरी पर या स्थायी रूप से इंदौर रहने लगा तब अखबार में प्रकाशित रचना का
सबसे पहला बधाई फोन देवास से उनका ही आता था। 9 नवंबर 2017 से माँ के
वैसे ममतामयी बधाई फोन का अब सिर्फ इंतजार ही रह जाता है...!
बात माँ की उस खास 'अटैची' की ही करते
हैं। दरअसल, वह माँ के लिए इसलिए खास थी कि वह मेरी किसी
रचना के पहले मानदेय की राशि से खरीदी गई थी। अस्सी के दशक में युवावस्था के दौरान
शुरुआती समय में अपने दोस्तों,आसपास के लोगों,स्वजनों,पड़ोसियों आदि के चरित्रों,घटनाओं से प्रेरित होकर कहानियां लिखने का प्रयास करता था।
ऐसी ही एक कहानी 'आई' शीर्षक से
लिखी थी जो बचपन मे मुझे माँ की तरह स्नेह देने वाली पिताजी के दफ्तर के सहायक की
पत्नी के जीवन संघर्ष को लेकर लिखी थी।
'आई' को रेडियो सुनने का बहुत शौक था। हर साल वे नया ट्रांजिस्टर खरीद लाया
करती थीं। रविवार या छुट्टी के दिन मैं उनसे वह हथिया लेता और पूरे दिन सुना करता
था। उनकी कोई संतान नहीं थी। बहरहाल, उन्ही स्नेहमयी 'आई' पर लिखी वह कहानी आकाशवाणी के इंदौर केंद्र से 'युववाणी' कार्यक्रम मेरी ही आवाज में प्रसारित हुई।
उस कार्यक्रम की उस वक्त की
संयोजक और उद्घोषक की एक छवि मन में अभी तक बनी हुई है। वे बहुत मोहक थीं, सांवली थीं किन्तु उनकी आंखें और आवाज
मन मोह लेती थीं। स्वर कोकिला की तरह मधुरता उनकी सहज उपस्थिति से बिखर जाया करती
थी। लोकप्रिय गानों के लोकप्रिय 'मन भावन' कार्यक्रम सुनते हुए रेडियो पर उनकी आवाज के हम दीवाने थे लेकिन प्रत्यक्ष
मिलना पहली बार उस पहले प्रसारण के दिन ही हुआ।
आज दिमाग पर बहुत जोर डालकर
उनका नाम याद करने की कोशिश की ...जी हाँ वे 'इंदु आनन्द' ही थीं।
'मालवा हाउस'
स्थित आकाशवाणी के इंदौर केंद्र के देश के सबसे बड़े व शक्तिशाली
ट्रांसमीटर से निकली तरंगे उन दिनों देश के कोने कोने तक आसानी से पहुंच जाया करती
थी। राजस्थान, गुजरात,महाराष्ट्र में
आकाशवाणी इंदौर के कार्यक्रम बहुत रुचि से सुने जाते थे।
इंदु आनन्द जैसी स्टार
उद्घोषिका के संयोजन में हमारी कहानी 'आई' का पहली बार प्रसारण के
बाद हमें कुछ मानदेय नकद प्राप्त हुआ। देवास लौटते हुए
इंदौर से गत्ते की वह अटैची हमने खरीद ली। बहुत दिनों उसमें हमारे प्रमाण पत्र,
अंक सूचियां रखते रहे। जब पुरानी होकर
टूटने, फटने लगी तो खाली कर दी हमने।
यह माँ की ही समझ थी कि
उन्होंने उस पर अपने हाथों से कपडे का कवर सिलकर उसकी उम्र बढ़ा दी। पुत्र की उपलब्धि को इसतरह कोई माँ
ही धरोहर की तरह महत्वपूर्ण बना सकती है...
कॉलेज के दिनों में विज्ञान
में स्नातक की पढ़ाई (शायद 1974) के समय
अखबार में आकाशवाणी, इंदौर के लिए उद्घोषक की नियुक्ति के
लिए विज्ञप्ति निकली थी। मन में रेडियो पर बोलने का सपना उस वक्त बहुत से रचनात्मक
युवकों को आकर्षित करता था।
यद्यपि आकाशवाणी का इंदौर
केंद्र गृह नगर देवास से बस 35 किलोमीटर की दूरी पर ही था किंतु तब तक कभी अवसर मिला नहीं था।
उद्घोषक के लिए विज्ञप्ति
देखी तो मन में गुब्बारे से फूटने लगे। देवास के पंडित परिवार से हमारे पारिवारिक
संबंध रहे थे। छोटी जगह या कस्बे में सभी एक तरह से उस वक्त रिश्तेदार की तरह ही
माने जाते थे। गांव भाई और गांव काका आदि की परम्परा में सब अपने ही होते हैं। इसी
परंपरा में देवास मूल के श्री नरेन्द्र पंडित हमारे काका की तरह ही थे।
अब यह बताना जरूरी भी नहीं
कि श्री नरेन्द्र पंडित देवास के होकर आकाशवाणी इंदौर पर वरिष्ठ उद्घोषक, प्रोग्राम डायरेक्टर और केंद्र निदेशक
तक रहे। वे संगीत और रंगकर्म में भी बहुत प्रतिभा सम्पन्न थे। अब उन्हें
प्रतिभावान अभिनेता चेतन पंडित के पिता के रूप में भी पहचान सकते हैं आज के पाठक.
हमारी ख्वाहिश के बारे में
हमारे काकाश्री ने पंडित जी को बताया और उनका मशविरा लिया। पंडित जी ने परिवार के
किसी बड़े सदस्य की तरह ही राय दी कि अभी हमें अनाउंसर जैसी नौकरी का न सोचकर अपनी
आगे की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करके देवास
के औद्योगिक क्षेत्र में वैज्ञानिक के तौर पर बड़ी नौकरी के लिए कोशिश करना चाहिए।
रेडियो आदि पर प्रस्तुति का सपना तो अन्य नौकरी करते हुए भी पूरा किया जा सकता है।
और बाद में हुआ भी यही। हम वैज्ञानिक तो नही बन सके किन्तु बैंक में क्लर्क जरूर
बन गए। बैंक राष्ट्रीयकरण का दौर था। खूब भर्तियां हो रहीं थीं। वैज्ञानिक ही क्या
इंजीनियर और
संभावित आईएएस तक बैंकों में चले गए। यह अलग बात है कि रुचिवान लोगों ने वहां रहकर
भी अपने रचनात्मक शौक पूरे करने के अवसर तलाश ही लिए।
'आई' कहानी के प्रसारण के बाद आकाशवाणी के इंदौर केंद्र से रचनाओं को प्रसारित
करने के अवसर बाद में मिलते ही रहे। पहले प्रसारण में अंतराल कम होता था, बाद में बुलावे का अंतराल बढ़ता गया। अब तो दो तीन साल में किसी स्नेही को
याद आ जाती है।
आकाशवाणी पर जाकर वहां
प्रसारण करने के भी बहुत से ऐसे प्रसंग हैं जिनकी स्मृति सुख देती रहती हैं। 'खेती गृहस्थी' में
नन्दा जी और भैराजी की उपस्थिति में जाजम पर स्क्रिप्ट फैलाकर बैठना। वार्ता के
आलेख को प्रश्नोत्तरी में बदल कर प्रस्तुत करना। हर पेरा के पहले नंदा जी और भैरा
जी का प्रश्न। कान्हा जी थोड़ा बाद में आए थे। मुझे याद आ रहा... वह मेरा एक रम्य
लेख था-'नामकरण मनोविज्ञान'। आज जब
आकाशवाणी के उन लीजेंड्स के साथ फर्श पर बैठकर प्रस्तुति की कल्पना करता हूँ, रोमांच की अनुभूति से भर उठता हूँ।
एक विनोद वार्ता 'सफर में समाधि' मुझे
खुद पढ़ना थी किन्तु नरेंद्र पंडित जी को इतना पसंद आई कि वह वार्ता उन्होंने स्वयं
अपनी आवाज में पढी। उनके वाचन से मैने विनोद वार्ता पढ़ने के सूत्र समझे। आज भी जब
कोई व्यंग्य रचना का पाठ करता हूँ नरेंद्र पंडित जी की स्मृति हो आती है।
एक प्रोग्राम के डायरेक्टर
श्री प्रभु जोशी जी (प्रभु दा) थे। वे न सिर्फ ख्यात चित्रकार,कथाकार हैं बल्कि बहुत जीनियस व्यक्ति
हैं। उनके निर्देशित कई कार्यक्रमों को आकाशवाणी के बड़े पुरस्कार मिलते रहे हैं।
बाद में वे दूरदर्शन में भी गए। मुझे एक विनोद वार्ता 'मतदान
कैसा दान' पत्रिका कार्यक्रम में
पढ़ना थी। प्रभु दा तो फिर प्रभु दा ही थे, वे वार्ता को
सामान्य कैसे रहने देते। उन्होंने वार्ता को मुझ से भाषण शैली में पढ़वाया। दो चार
लोगों को भी साथ में बैठा लिया ताकि किसी सभा की तरह वातावरण बन सके। एकत्र लोग हर
बात और जुमले के बाद तालियां बजाते। ऐसा लगता जैसे किसी
नेताजी की सभा चल रही हो।
और जब वार्ता के अंत में
भीड़ नारे लगाती है..'ब्रजेश भैया
जिंदाबाद..!' धीरे धीरे प्रभु दा फेड आउट करते जाते हैं।
मेरा मन खुशी से फूलता जाता है।
आकाशवाणी के इन प्रयोधर्मी
और जीनियस लोगों के प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त की जाए कम होगी...
आइए अंत में इस ‘फ्लैश बैक’ को एक कविता के
साथ समाप्त करते हैं......
कविता
रेडियो की स्मृति
ब्रजेश कानूनगो
गुम हो गए हैं रेडियो इन दिनों
बेगम अख्तर और तलत मेहमूद की आवाज की तरह
कबाड मे पड़े रेडियो का इतिहास जानकर
फैल जाती है छोटे बच्चे की आँखें
न जाने क्या सुनते रहते हैं
छोटे से डिब्बे से कान सटाए चौधरी काका
जैसे सुन रहा हो नेताजी का सन्देश
आजाद हिन्द फौज का कोई सिपाही
स्मृति मे सुनाई पड़ता है
पायदानों पर चढता
अमीन सयानी का बिगुल
न जाने किस तिजोरी में कैद है
देवकीनन्दन पांडे की कलदार खनक
हॉकियों पर सवार होकर
मैदान की यात्रा नही करवाते अब जसदेव सिंह
स्टूडियो में गूंजकर रह जाते हैं
फसलों के बचाव के तरीके
माइक्रोफोन को सुनाकर चला आता है कविता
अपने समय का महत्वपूर्ण कवि
सारंगी रोती रहती है अकेली
कोई नही पोंछ्ता उसके आँसू
याद आता है रेडियो
सुनसान देवालय की तरह
मुख्य मन्दिर मे प्रवेश पाना
जब सम्भव नही होता आसानी से
और तब आता है याद
जब मारा गया हो बडा आदमी
वित्त मंत्री देश का भविष्य
निश्चित करने वाले हों संसद के सामनें
परिणाम निकलने वाला हो दान किए अधिकारों
की संख्या का
धुएँ के बवंडर के बीच बिछ गईं हों लाशें
फैंकी जाने वाली हो क्रिकेट के घमासान में
फैसलेवाली अंतिम गेन्द
और निकल जाए प्राण टेलीविजन के
सूख जाए तारों में दौडता हुआ रक्त
तब आता है याद
कबाड में पडा बैटरी से चलनेवाला
पुराना रेडियो
याद आती है जैसे वर्षों पुरानी स्मृति
जब युवा पिता
इमरती से भरा दौना लिए
दफ्तर से घर लौटते थे।
( कविता रचनाकाल 1995)
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