शुरुआती बूंदें
जब पांचवी छठवीं कक्षा में
पढ़ता था तब रचनात्मक गतिविधियों में ज्यादा मन रमता था। स्कूल में खेलकूद
प्रतियोगिताओं से अधिक शनिवार को होने वाली बालसभा में गुरुजी से कहानियाँ, कविताएं आदि सुनने और बच्चों
द्वारा दी जाने वाली प्रस्तुतियाँ रुचिकर थीं। मैं भी छोटी छोटी कहानियों और गीतों
जैसा कुछ न कुछ लिख ले जाता था। सुनाता भी था। मंच भय के बावजूद रचना पाठ के लिए
खड़ा हो जाता।
रचना सुनाते हुए मेरे कान
लाल हो जाया करते। गला सूखने लगता। कक्षा के साथी मेरी कविता सुनने की बजाए उस घड़ी
का इंतजार करते थे कि देखें कब इसका चेहरा और कान लाल होते हैं। जल्दी ही उनकी
तमन्ना पूरी हो जाती। तालियों की बजाए बच्चों की खिलखिलाहट से कक्षा गूंज उठती थी।
अपना उतरा और गुलाबी चेहरा लिए मैं वापिस अपनी टाट पट्टी पर आ बैठता। गुरुजी भी
मुस्कुरा देते।
उन दिनों अखबारों में
बच्चों के लिए रविवार को पूरा एक पृष्ठ आरक्षित हुआ करता था। इंदौर से प्रकाशित 'नईदुनिया' अखबार मालवा, निमाड़ अंचल सहित प्रदेशभर में
पत्रकारिता और साहित्य,कला अभिव्यक्ति का सहज सुलभ मंच ही
हुआ करता था। इस पत्र को परिवार के एक आत्मीय सदस्य की हैसियत और सम्मान हर पाठक
के घर में प्राप्त था। इस खास सदस्य के अतीत के बारे में अलग से आगे स्मरण करूंगा।
अभी केवल इतना कि बाबू
लाभचंद छजलानी के स्वामित्व में निकलने वाले इस अखबार के प्रधान संपादक श्री राहुल
बारपुते हुआ करते थे। इसी नईदुनिया में रविवार को छपने वाले पृष्ठ 'बच्चों की दुनिया' ने मेरे कानों के लाल होने और मंच भय की समस्या का हल सुझा दिया। इस पृष्ठ
पर बच्चों की रुचि की सामग्री और रचनाओं के साथ साथ बच्चों द्वारा लिखी रचनाएं भी
छापी जाती थीं। काका साहब श्री यतीश जी की सलाह पर अपनी लिखी कहानी,कविता,चुटकुला सुंदर,साफ
अक्षरों में लिखकर अखबार के इंदौर कार्यालय को भेजने लगा। शुरुआत में तो काका यतीश
जी ही भेजते थे। फिर मैं भी सब गुर उनसे सीख गया और स्वयं ही पोस्ट ऑफिस के लाल
डिब्बे में लिफाफा डाल आया करता।
दो सप्ताह बाद नईदुनिया में
रचना छपती तो घर ही क्या मुहल्ले भर में चर्चे होते। उस दिन दोपहर से लेकर शाम तक
मैं कई बार बिना काम ही चौराहे तक जाता। मेरी खुशी और उत्साह तब और बढ़ जाता जब हर
कोई मेरी ओर देखकर मुस्कुराता और कहता- 'अरे वाह! ब्रजेशजी आज तो नईदुनिया में छाए हुए हो।' बचपन से ही शायद कुछ संजीदा बच्चों के नाम के साथ 'जी' जुड़ने लगता है। तब का जुड़ा 'जी' बाद में 'भैया' हुआ। अब जो छोटे हैं 'सर' लगाने लगे हैं। कुछ बड़ों के लिए मैं 'ब्रजेश' ही हूँ अब तक। यह मुझे बहुत आत्मीय और स्वाभाविक लगता है।
बच्चों के लिए लिखते, छपते, पढ़ते थोड़ा बड़ा हुए तो चन्दा मामा, बाल भारती, नन्दन,पराग के अलावा सारिका, धर्मयुग
और साप्ताहिक हिंदुस्तान भी अच्छे लगने लगे। बाल पत्रिका 'पराग' भी हमारे साथ किशोरों की पत्रिका हो गई
थी।
धर्मयुग के पन्नों पर उन
दिनों प्रासंगिक व लोकरुचि के विषयों पर परिचर्चाएं होती रहती थीं। जिनमे हमारे शहर
के प्रभुदा (वरिष्ठ चित्रकार, कथाकार
श्री प्रभु जोशी) के संयोजन में भी कुछ रोचक परिचर्चाएं आईं थी। प्रभुदा कॉलेज में
पढ़ते हुए वहां की लाइब्रेरी में काम भी करते और खूब अध्ययन भी करते थे। उनकी
कहानियाँ भी सारिका और धर्मयुग में छपने लगीं थीं। उन्हीं के लिखे से हम लोग उन
दिनों बहुत प्रेरित होते थे। वे किसी हीरो से कम नहीं थे हमारे लिए। मन में तम्मना
रहती कि उनकी तरह हमारी भी रचनाएं धर्मयुग में छपे।
इसीतरह कथाकार श्री
जीवनसिंह ठाकुर (काका) का सम्बंध हमारे परिवार से पूर्व से था। उनके बड़े भाई साथी
कन्हैयासिंह जी और मेरे एक दादा श्री मनोहर जी आपस में दोस्त और समाजवादी पार्टी
के साथी थे। जयप्रकाश नारायण आदि के हमारे घर पर रुकने आदि का जिक्र काका श्री
जीवनसिंह जी अब भी करते हैं। लिखा भी है उन्होंने अपनी किताब में इन प्रसंगों को।
डॉ प्रकाशकान्त से परिचय
बहुत बाद में हुआ लेकिन इतना हम जानते अवश्य थे कि इस प्रतिभावान त्रयी प्रभुदा, जीवन काका और कांत भाई साहब के
मार्गदर्शक आदरणीय नईम साहब थे। नईम साहब का लिखा उस दौर में हमारे पल्ले नहीं
पड़ता था। मगर प्रभुदा के बाद धर्मयुग में छपी 'जीपों
वाला घर' कहानी से जीवनसिंह ठाकुर जी से भी रचनात्मक
परिचय हुआ तो उनके भी हम मुरीद हो गए।
इन सबके लिखे, छपे से प्रेरणा मिलती, आत्मबल बढ़ता। उम्मीद पालते कि काश हम भी ऐसा उम्दा लिख सकें। धर्मयुग में
छप सकें। और आखिर वह दिन भी आ गया। कुछ चुटकुले धर्मयुग के 'रंग और व्यंग्य' तथा 'हास परिहास' जैसे पाठकीय स्तंभों प्रकाशित हो
गए। मोहल्ले ही नही अब तो शहर भर में छाती फुलाकर झंडा फहराने का अवसर था।
ऐसा करते उससे पहले ही
हमारे एक मित्र प्रदीप कुमार दीक्षित ने ऐसी लताड़ लगाई कि गुब्बारे की सारी हवा
निकल गई। वह किस्सा आगे....
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रंजक से सार्थक की ओर
हिंदी रचनाकारों के जिन
नामों और उनके लेखन से प्रारंभिक परिचय हुआ उनमें से कुछ ही स्थानीय या अपने आसपास
के थे। ज्यादातर लेखकों का परिचय धर्मयुग, पराग, नन्दन, सारिका
आदि पत्रिकाओं में पढ़ते हुए हुआ था।
जिनका लिखा उन दिनों
किशोरावस्था में हमे लुभाता था उनमे बहुत से नाम याद आते हैं....।
पाठ्यपुस्तकों में जिनके
निबन्ध, कहानियां, कविताएं ,व्यंग्य आदि पढ़ते थे उनकी छवि तो
हमारे मन में लगभग ईश्वर तुल्य ही रहीं। वे फिर रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुदर्शन, गुलेरी, कबीर, रहीम,रसखान, मीरा से लेकर महादेवी वर्मा और निराला
या पन्त रहे हों। उनको वास्तविक रूप से पढ़ना और ठीक से समझना तो शिक्षा पूर्ण हो
जाने के बाद ही हो पाया।
लेकिन स्थानीय साहित्यकार
जो राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हुए थे उनमें सबसे पहला नाम प्रो. नईम साहब का आता
है। उस दौरान उनकी कविताएं और नवगीत धर्मयुग आदि में पढ़ते हुए लगभग पाठ्य पुस्तकों
वाली अनुभूति हुआ करती थी। जिसकी व्याख्या के लिए कोई गुरूजी तो उपलब्ध होते नहीं
थे। दोस्तों में बात होती...'यार, ऊंचा साहित्य है यह, हमें क्या समझ मे आएगा।'
यह सोचकर तब बड़ा अचरज भी
होता था कि जिसकी रचना समझ ही नहीं आ रही वह व्यक्ति देश भर के हिंदी साहित्य
संसार में इतना सम्मान क्यों पाता है। देवास का प्रशासन और राज्य सरकार तक उन्हें
इतना विशिष्ट क्यों मानता है, उनके
देवास में निवास से शहर का गौरव इतना क्यों बढ़ जाता है?
दरअसल, उन दिनों वे ही रचनाएं हमारे लिए
बढ़िया हुआ करती थी जो 'रंजक' होती थीं। नईम जी की रचनाएं रंजन तो करती नहीं थीं हमारा। शब्द भी कुछ
बेतुके से लगते। अर्थ ही समझ नहीं आता तो भावार्थ की तो बात ही नही। वे कविता में
क्या कह रहे, समझ ही नही आता। उनके गीतों में फिल्मी
नगमों के वे शब्द तो पढ़ने को मिलते ही नहीं थे जिनसे उस वक्त किशोर मन का हमारा
शब्दकोश लबालब था।
यह तो बहुत बाद में हुआ जब
उम्र और साहित्यिक अभिरुचि के चलते धीरे धीरे रचनाओं के भीतर उतरकर उसके विचार
पक्ष और संवेदनाओं को महसूस करने की दृष्टि विकसित हो पाई। प्रबुद्ध मित्रों के
सत्संग से कविता के समकालीन मुहावरे और उसके औजारों, शिल्प आदि के बारे में थोड़ा सम्पन्न हुए तो नईम जी का सृजन खुलता चला गया।
देवास के युवा रचनाकारों के तो वे गॉड फादर ही समझे और कहे जाते थे। उनके स्नेह का
सबसे सार्थक व उपयुक्त उदाहरण कथाकार डॉ प्रकाशकान्त, श्री
जीवनसिंह ठाकुर और चित्रकार कथाकार श्री प्रभु जोशी की त्रयी कही जा सकती है
जिन्होंने देवास की साहित्य परंपरा को बहुत आगे बढ़ाया है।
इन सब बड़ों के बनाए
पर्यावरण में 'रंजक' से 'सार्थक' तक की
इस यात्रा ने आम आदमी के साहित्य और साहित्य में आम आदमी जैसे गूढ़ प्रश्न को समझने
में बड़ी मदद की।
०००००
हमारा जो व्यक्तित्व दुनिया को दिखाई देता है उसके बनने में बचपन और
किशोर वय में गुजारे कुछ खास अनुभव और लम्हों कि बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
हमारी रुचियों और नजरिये पर उनका बड़ा गहरा और लगभग स्थायी प्रभाव कालांतर में
दिखाई देता है।
जब लोग कहते हैं कि फलां आदमी में जो विशेष गुण है वह उसे जन्मजात
प्राप्त हुआ है। मगर ऐसा नहीं होता, कोई भी व्यक्ति कलाकार, चित्रकार या कवि के रूप में कभी पैदा नहीं होता। हाँ इतना जरूर है कि माता
पिता के कुछ गुणों के जीन्स संतान में स्वाभाविक तौर पर अवश्य आ जाते हैं। वस्तुतः
बचपन और किशोरावस्था में मिला खास वातावरण ही उन विशेष गुणों को उभारने और विकसित
करने का काम करता है।
घर में पहले से मौजूद
सांस्कृतिक, रचनात्मक, कलात्मक आबोहवा बच्चों को बहुत हद तक उस अभिरुचि की दिशा में ले जाने का
काम करती है।
पूर्व में मैंने अपने बचपन को माता पिता की अपेक्षा दादा दादी और
अपने जीनियस काका साहब के सानिध्य में अधिक बिताने की बात कही है। काका श्री यतीश
जी गणित और विज्ञान के शिक्षक होने के साथ साथ चित्रकला, क्राफ्ट कला और साहित्य में गहरी रुचि रखते थे। आज 80 वर्ष की आयु पूर्ण करने के बावजूद अब भी वे अखबारों के लिए कार्टून्स
बनाते हैं। लेख और समीक्षाएं लिखते हैं। न सिर्फ चित्रकार कथाकार श्री प्रभु जोशी
और कथाकार चिंतक जीवन सिंह ठाकुर के वे शिक्षक रहे हैं, बल्कि
उनसे शिक्षा प्राप्त करने वाले अनेक सफल विद्यार्थी देश दुनिया में उन्हें याद
करते रहते हैं।
उस्ताद रज्जबअली खां, पंडित कुमार गन्धर्व,
राजकवि झोकरकर, प्रो.नईम की साधना स्थली के
रूप में संगीत और साहित्य में विशेष पहचान के साथ साथ मेरे गृह नगर देवास में
चित्रकला की भी समृद्ध परंपरा रही है। मेरी जानकारी जहां से शुरू होती है उनमें
कलागुरु विष्णु चिंचालकर, प्रो अफजल, हरीश गुप्ता, प्रभु जोशी, रमेश राठौर, रामचन्द्र श्रीवास्तव, हुसैन शैख़, सुरेन्द्र महाडिक,और यतीश कानूनगो जैसे नाम सहज स्मरण में आ रहे हैं। बाद में और भी अनेक
प्रतिभाएं रही हैं मसलन मधुकर शिंदे, गोपाल पवार, राजकुमार चन्दन, इसहाक शैख़, मनोज
पवार, अजीजुर्रहमान, रईस खान, आदि। ये सब बहुत प्रतिभा संपन्न कलाकार रहे हैं जिन्होंने न सिर्फ
चित्रकला में बहुत अच्छा काम किया बल्कि नेल पेंटिंग, रंगोली
और जल रंगोली, काष्ठ शिल्प सहित अन्य कलाओं में भी ख्याति
अर्जित की है. किन्तु मैं जो किस्सा यहां सुनाना चाहता हूँ वह मेरे आदरणीय काका
श्री यतीश कानूनगो और ख्यात चित्रकार प्रो अफजल साहब से जुड़ी स्मृतियों से
सम्बन्धित है।
जैसा मैंने कहा काका यतीशजी एक बहुमुखी प्रतिभा हैं और बहुत अच्छे चित्रकार
रहे हैं। बचपन के दिनों की स्मृति में मुझे याद पड़ता है उनका लकड़ी का अलग एक बॉक्स
हुआ करता था जिसमें चारकोल, तरह तरह की पेंसिलें, रंगों की ट्यूब्स,क्यूब्स, बोतलें, ब्रश आदि रखे होते थे। हम बच्चों को वह
संदूक जादू का एक पिटारा सी लगती थी।
हम इंतजार में ही रहते थे
कि कब गर्मियों की छुटियाँ हों और
उनका वह पिटारा खुले। कब काका साहब कोई नया चित्र बनाना शुरू करें। उनको चित्र
बनाते देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था। काम करते हुए बीच में यदि चित्र बनाना छोड़कर
वे पानी आदि पीने या बाथरूम के लिए भी उठते तो मुझे बहुत कोफ्त होती। चाहता कि बस
वे कूंची चलाते रहें और मैं निरंतर देखता ही रहूँ। जब तक चित्र पूरा नहीं बन जाता
मैं बैचेन ही रहता। जो लोग थोड़ा चित्रकला के बारे में जानते हैं उन्हें पता होगा
कि कोई भी अच्छा चित्र कभी एक बैठक में पूरा नहीं होता। एक दर्शक के रूप में मेरी
जिज्ञासा और बैचेनी कई बार एक एक सप्ताह तक बनी रहती थी।
अब असल किस्से पर आते हैं। शायद मेरी आठवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम
घोषित होने के बाद दो माह के लिए ग्रीष्मकालीन अवकाश शुरू हो गए थे। काका साहब भी
अध्यापक थे तो उनके भी अवकाश के दिन चल रहे थे। उन दिनों शिक्षकों को भी
ग्रीष्मावकाश में स्कूल नहीं बुलाया जाता था।
आखिर एक दिन हमारे इंतजार
की घड़ियां समाप्त हो गईं और काका साहब का रंगों से भरा जादू का पिटारा खुल गया।
स्टैंड पर फ्रेम में सफेद केनवास लगा दिया गया। इस लम्बी चित्रकारी बैठक का
शुभारंभ काका साहब ‘सरस्वती’ का चित्र बनाकर करना चाहते थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि
सरस्वती का एक बड़ा चित्र बैठक की दीवार पर होना चाहिए। कागज पर जल रंगों का प्रयोग
होना था।
फिर शुरू हुआ ब्रशों का
नृत्य और रंगों का बिखरता जादू। काका साहब ने दो तीन लंबी बैठकों में सरस्वती का
सुंदर चित्र बना डाला। हमें तो वह बहुत सुंदर और बढ़िया लगा लेकिन काका साहब को मजा
नहीं आ रहा था, संतुष्ट
नहीं हो पा रहे थे। सरस्वती जी के चेहरे पर अपेक्षित मुस्कान नहीं आ पा रही थी। एक
सप्ताह तक वह पेंटिंग वैसे ही स्टैंड पर लगी रही।
फिर एक दिन हमारे घर प्रोफेसर अफजल साहब आए। आते रहते थे, लेकिन इस बार विशेष अनुरोध पर आए थे। ‘सरस्वती’ की मुस्कुराहट उन्हें खींच
लाई थी। यतीश काका साहब ने अपनी समस्या उन्हें शायद बता दी थी।
अफजल सर ने अपनी डिबिया में
से निकालकर एक पान मुंह में दबाया और कैनवास पर बने सरस्वती के चित्र पर कूंची
चलाना शुरू कर दिया। कोई दस मिनट भी न लगे होंगे कि सरस्वतीजी मुस्कुराने लगीं।
हमारे चेहरे तो पहले से ही खिले हुए थे किंतु अबकी बार मुस्कुराने की बारी यतीशजी
की थी। चित्र अब खुद बोलने लगा था।
अफजल सर को चित्र बनाते हुए
देखते समय मुझे ऐसा लगा कि रंग का एक अनावश्यक छींटा कैनवास पर पड़ गया है। मैंने
काका साहब को यह बात बताई और उस छीटे को मिटा देने की सलाह दे डाली। बाद में जो
कुछ मेरे मन पर अंकित हुआ वह इस प्रसंग के पैतीस बरस बाद अपनी लिखी कविता में कुछ
इस तरह अभिव्यक्त हुआ आप भी पढ़िए...
अफ़जल का छींटा
मौसमों का थोड़ा असर जरूर हुआ है तस्वीर पर
पर ध्यान खींचती है
जलरंगों से बनी सरस्वती
कोई तीस-पैंतीस बरस से वीणा
बजा रही हैं
भाई साहब की बैठक में
मैं गवाह हूँ जब चित्र बना रहे थे भाई साहब
तब भी कोई राग कमाल दिखा
रहा था
बीच बीच में कुछ बैचेन हो
जाते थे भाई चित्र बनाते हुए
जो आलाप लेना चाहते थे बैठ
नहीं रहा था ठीक से चित्र में
कोशिशों के बाद भी खिल नहीं
रही थी सरस्वती के चेहरे पर भीतर की खुशी
तब आए अफ़जल सर मुंह में पान दबाए
शायद बुलाए गए हों ठीक से
याद नहीं
चलाने लगे ब्रश कैनवास पर
भाई साहब और मैं देखने लगे
उनका करतब मंत्रमुग्ध
धीरे-धीरे बिखरने लगी वीणा
वादिनी के चेहरे पर खुशी
ज्यादा तो नहीं जानता चित्रकला के बारे में
लेकिन तस्वीर में बेमेल सा
एक धब्बा दिखाई दिया रंग का
तो निकल गया मुंह से कि भूल
गए शायद वे इसे मिटाना
जल्दी में जाते-जाते
भूले नहीं होंगे इसे- हँसकर
बोले भाई साहब
मिटाया नहीं जा सकता इसे
निश्चित कोई विचारित
स्ट्रोक है यह अफ़जल का
भाई साहब के नाम के बगल में
आज भी चमकता है अफ़जल का वह
रहस्यमयी छींटा।
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