सुर में होते थे नाम और संबंध
राजेश,नरेश,मुकेश, ब्रजेश,महेश,शैलेश,गिरीश,
योगेश,दिनेश,रमेश,यतीश,सुरेश,सुभाष, सतीश।
ये 'नामकरण शब्दकोश' के किसी
अध्याय का अंश नहीं है। हमारे कुटुंब की दो पीढ़ियों के
बालकों के नाम रहे हैं। बहुत सुर में थे ये नाम और सम्बन्ध भी। अब ये सब लोग उम्र
में 55/60 से ऊपर हैं।
ये तो फिर वे नाम हैं जो स्कूल में प्रवेश
के समय दर्ज कराए गए थे। कुछ की पहचान तो बोलते नाम से ही अब तक कायम है। एक विवाह
समारोह में एक युवक ने मेरे पांव छुए और बताया कि अंकल मैं प्रतीक हूँ। मैंने
पहचानने में थोड़ा समय लगाया तो उसने तुरंत मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा-अरे
अंकल मैं 'भय्यू जी' का बेटा हूँ। मैंने स्नेह से गले लगा लिया।
मेरे बचपन के मित्र और हमउम्र रिश्ते में
काका को 'भय्यू' के अलावा और कैसे जान सकता था। 'टुन्ना' जी टुन्ना साहब कहलाने लगे। 'मुन्ना' जी बड़े होने से मुन्ना साहब हो गये किन्तु बहुत कम लोग जान पाए कि उनके
असली नाम क्या थे? इसी रिदम में मुन्ना के साथ बहन मुन्नी भी
रहेंगीं। 'टुन्ना' हैं तो उनकी बहन
निश्चित ही 'टुन्नी' कहलाएंगीं।
अब 'बुग्गा' को ही लीजिए। वे अब भी 'बुग्गा जी' ही हैं। हमारे बच्चों के वे बुग्गा अंकल
हो गए हैं किंतु उन्हें उनका असली नाम पता ही नहीं होगा।
ऐसा भी नहीं है कि इन सबके स्कूली नाम
अच्छे नहीं थे। वे बहुत सोच समझकर रखे गए
अभिजात्य नाम थे परन्तु बुग्गा जी को कोई राहुल से, भय्यू जी को शरद से टुन्नाजी को इंद्रजीत के नाम से या मुन्ना साहब को
प्रदीपकुमार नाम से आज भी कोई संबोधित नहीं कर पाता।
कुटुंब इतना विशाल होता था कि बाहर से आने
वाला अनजान व्यक्ति जान ही नहीं पाता था कि किस बच्चे के माता पिता कौन हैं। महेश
जी के पिताजी किताब की दुकान पर साथ आये ब्रजेश को भी अगली कक्षा की किताबें
खरीदकर दे देते थे। शैलेश को दोपहर का नाश्ता गिरीश की चाची करवा देती थीं।
फोटोग्राफर आता था तो आधा घंटा ग्रुप
फोटोग्राफ की तैयारी में लगता था। अब अपने-अपने सेल्फी हैं।
लोगों के समूह में भी बच्चों के प्रति
अधिकारपूर्ण व्यवहार से ही अनुमान हो जाता है कि फलां बच्चे के माँ बाप कौन से
हैं।
एक किस्सा याद आ रहा। गर्मी की एक दोपहर
को कुटुंब के कोई सात आठ बच्चे घर के पिछवाड़े बाड़े में खेल रहे थे। पास के गांव से
ग्रामीण दंपत्ति शुद्ध घी बेचने आया करते थे। उस दिन भी आगे मुख्य द्वार की चौखट
पर बैठकर दादी और माँ उनसे मोल भाव कर रहे थे। धूप में आये थे तो माँ ने उन्हें
ठंडा पानी लाकर दिया। थोड़ी देर सुस्ताने लगे तभी हम बच्चों का खेल खत्म हो गया और
बाड़े से निकलकर एक एक बच्चा चौखट पार कर बाहर निकलने लगा। अब मैदान में जाकर खेलना
था।
वे घी बेचने आये ग्रामीण दंपत्ति हम सबको
देखते रहे। मैं और मेरा भाई सबसे पीछे थे।
तभी मैंने पीछे से सुना कि घी वाली औरत
दादी से पूछ रही थी - 'काय
हो मासाब , ई सारा नाना नानी अन्ही लाड़ी काज है?!!'
(क्या ये सारे सात आठ बच्चे
तुम्हारी इस बहू के ही हैं?')
मेरी माँ की उस वक्त क्या हालत हुई होगी
आप सहज कल्पना कर सकते हैं। दरअसल उस औरत का प्रश्न भी गलत नहीं था। उस जमाने में
सात,आठ बच्चों के माता पिता
हो जाना अधिक आश्चर्य की बात नहीं हुआ करती थी।
अब जो माइक्रो फेमिली का समय आया है उसमें
ये बातें शायद अविश्वसनीय किस्से कहानियों की तरह ही लगें। बच्चों के जो नाम अब आ
रहे हैं, उनमे ऐसी लय नहीं
देखने को मिलती। बीट्स की तरह खण्ड-खण्ड बजते हैं नाम और सम्बन्ध।
आइये बचपन के उन मस्ती भरे दिनों और दोस्तों
को याद करते हुए थोड़ा सा बड़ा बन जाते हैं मेरी इस कविता के साथ...
स्वाद
खट्टे-कसैले की मौजूदगी के बावजूद
बहुत बड़ा हिस्सा मीठा ही था उन दिनों
सलीम और मैं दौड़ते चले जाते थे
घंटी बजते ही दत्त मंदिर की ओर
प्रवचन के बाद बंटने वाला
‘गोपाल काला’ दही
से बनता था
दोस्ती का वह स्वाद बना हुआ है अब तक
कैसे भुलाया जा सकता है
खालिस दूध से बना शरबत
कमरू आपा के प्यार जैसा मधुर
इस्माइल चाचा की रेवड़ियाँ और रोट
माँ के बनाए लड्डुओं की तरह
घुलते जाते थे मुंह में
नहर बन गई गली में
मछलियों की तरह बहकर आते थे भुट्टे और ककड़ियाँ
किशोर, बुग्गा, भय्यू और सलीम सब मिल करते
थे शिकार
गर्म पकौड़ों की तरह लगता था उनका स्वाद
बरसात में भीगते हुए
स्वाद तो सेव-परमल का भी कुछ कम नहीं होता
था
जो होली की रात चंदे की रकम से खाते थे हम
बच्चे
पिता की दूकान से चुराकर लाता था अब्दुल
प्याज और हरी मिर्च
चखा तो नहीं पर देखा जरूर है विष का असर
खँडहर की खुदाई करते हुए मंगल का अमंगल
देखा है
कॉलेज के दिनों में साइनाइड चख लेने का
दावा किया था एक प्रोफ़ेसर ने तो हँसे थे
सब लोग
जीवित बचे तो पागल कहा जाने लगा उन्हें
झूठा नहीं था रसायन विज्ञानी
हो सकता है अधिक विषैले की उपस्थिति ने
बेअसर कर दिया हो जहर का असर
या भीतर के किसी विष निरोधक तत्व ने
किया हो जमकर मुकाबला
विष का असर देखा जा सकता है अब भी आसानी
से
रंग नहीं अब स्वाद से एकाकार होता है
गिरगिट
फलों,
सब्जियों और अनाज के स्वाद में ऐसे घुलता है
कि पहचानना मुश्किल है विष का स्वाद
मनुष्यता के आँगन में घुसे आ रहे हैं
विषैले जंतु
घुल रहा है साइनाइड आबोहवा में धीरे-धीरे
नदियाँ, भाषाएँ दूषित होने लगी हैं
पागल प्रोफ़ेसर कहाँ हो तुम
बताओ यह किस खतरनाक रसायन का विस्तार है
चखो इसे ठीक से
घोषित करो इसका सही-सही स्वाद
विष के खिलाफ रणनीति बनाने में
स्वाद का विश्लेषण बहुत जरूरी हो गया है
अब.
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खिलौना स्मृतियों में
परिजात की खुशबू
आषाढ़ी पूर्णिमा पर देवास
में चामुंडा पहाड़ी की तलहटी में तीन दिवसीय जत्रा या मेला लगता था। उस जत्रा में
खिलौनों की दुकानों पर बच्चों की बड़ी भीड़ उमड़ती थी। लकडी की चमकीली तलवारों, बांसुरियों के साथ मिट्टी के
खिलौनों का बडा आकर्षण रहता था। मेले के दौरान बरसात तो
आनी ही होती थी। हम बच्चे थैली भरकर मिट्टी के बने
सुंदर सुंदर खिलौने खरीद लेते और बरसात में भीगते हुए चहकते हुए घर लौटते थे।
'जत्रा' में से खरीदे गए खिलौनों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जाती थी। बहुत संभाल कर
रखा जाता था इन्हें। कुछ खिलौने तो पिताजी और काका साहब के बचपन में खरीदे हुए भी
संग्रहित थे। चीनी मिट्टी से बनी जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल की सफेद मूर्तियां
बहुत सहेज कर रखीं हुईं थीं। इंग्लैंड की महारानी व कुछ पुराने खूबसूरत गुलदान भी
हमारे यहां थे।
इस संग्रह को हमने भी
मिट्टी के सेठ सेठानी, मर्फी
बॉय, नाचती लड़की, ग्वालन, धेनु से पीठ टिकाए बांसुरी बजाते गोपाल,शिवाजी,बुद्ध,शिरडी के साईं बाबा,हाथी,घोड़ा, ऊंट, तोता, सारस आदि जैसे नए खिलौनों से समृद्ध किया।
दरअसल, इन खिलौनों का जिस भी घर में
अच्छा संग्रह होता था उसकी 'झांकी' बहुत अच्छी जमा करती थी। झांकी जमाने के दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ तो 'साख' जमाना और दूसरे अर्थ में वह 'झांकी' जो सचमुच भौतिक रूप से किसी उत्सव आदि
पर सजाई जाती है। गणतंत्र दिवस पर देश की राजधानी में और अन्य जगहों पर धार्मिक, सामाजिक चल समारोह में भी कुछ इसी तरह सजी संवरी झांकियां निकालने की
परंपरा रही है।
यहाँ मेरा आशय उस झांकी से
है जो हमारे नगर के लगभग प्रत्येक घर में गणेशोत्सव के अवसर पर दस दिन के लिए सजाई
जाती थी। गणेश
चतुर्थी के दिन मिट्टी की बनी गणपति की प्रतिमा लाकर उसकी स्थापना की जाती थी।
सीढी नुमा उनका भव्य आसन बनाया जाता था। सबसे ऊपर के आसन पर गणेश जी विराजते। उनके
आसपास गुलदानों में पुष्प सजाए जाते। नीचे की पायदानों पर 'जत्रा' से लाए खिलौना संग्रह के ऐतिहासिक
चरित्र, पशु पक्षी,देवी देवताओं
की मिट्टी की प्रतिकृतियां शोभा बढ़ातीं। इसी लिए मैंने
कहा कि जिस बच्चे का खिलौना संग्रह जितना समृद्ध होता था, उसकी 'झांकी' खूब
जमती थी।
बात इतनी ही नही है। जिस
कमरे में गणेश जी की यह झांकी बनाई जाती, उसका फर्श भी प्रकृति के किसी सुंदर मॉडल की तरह बना दिया जाता था। जिसमें
हरे भरे लॉन होते। बगिया होती। नदी,पहाड़,झरने,पशु-पक्षी, किसान, खेत खलिहान, झोपड़ियां सब कुछ। हमारे खिलौनों
में जैसे प्राण से आ बसते थे। गणेश प्रतिमा के दरबार में एक दुनिया बस जाती, जीवन की हर धड़कन झांकी में सुनने लगते थे हम बच्चे।
रंगोली के खूबसूरत रंगों से
झांकी वाले कमरे का फर्श ही नहीं पूरा वातावरण रंगीन हो जाता था। आंगन में लगे
परिजात के पेड़ से केसरिया डंडियों वाले मुलायम पुष्प झरते रहते थे। इन्हीं फूलों
की माला को जब
झांकी में स्थापित प्रतिमा पर चढ़ाया जाता था तो समूचा वातावरण किसी दिव्य सुगन्ध से सराबोर हो जाता था।
बचपन की उन खिलौना
स्मृतियों को आज भी परिजात के फूलों की अलौकिक खुशबू महकाती रहती है।
व्रत करती स्त्री
गणेश चतुर्थी के ठीक एक दिन
पहले परिवार व कुटुंब की महिलाओं का बहुत महत्वपूर्ण व्रत हुआ करता था। 'हरतालिका' का व्रत पर्याप्त वर्षा हो जाने के बाद भाद्रपद, शुक्ल
पक्ष की तृतीया के दिन किया जाता है।
इस दिन परिवार की महिलाएं
दिन भर भूखी रह कर हर प्रहर की समाप्ति पर वनस्पतियों, विशेषतः बेलपत्र, शमी पत्र, केले का पत्ता, धतूरे का फल एवं फूल, अकांव का फूल, तुलसी, मंजरी, सभी
प्रकार के फूलों और विभिन्न पेड़ पौधों की हरी पत्तियों
से गीली मिट्टी से बनाई गौरी और शंकर की प्रतीकात्मक
मूर्तियों की पूजा करतीं। मुख्य पूजा संध्या समय प्रदोषकाल में सभी महिलाएं
सामूहिक रूप से करती थीं। रातभर जागरण के पश्चात सुबह तड़के तड़के महाआरती के पश्चात
यह व्रतोत्सव पूर्ण होता।
हम बच्चों के लिए भी यह
माकूल रहता था क्योंकि अगली सुबह हमारे गणेशोत्सव की धूम शुरू होने वाली होती थी।
रातभर हम लोग भी गणेश प्रतिमा स्थापना और झांकी बनाने की योजना बनाने में मशगूल व उत्साह
से भरे रहते थे। उन दिनों आज की तरह फूल पत्तियां बाजार में एक साथ मिलती नहीं थी।
कई बार हम बच्चों को ही इधर उधर से हरी पत्तियां आदि ढूंढ ढाँढ कर लाना पड़ती थीं।
रात को विशेष सावधानी रखना होती, दादी
माँ की हिदायत रहती कि किसी भी हालत में 'चांद' को नहीं देख लेना है, वरना चोरी का लांछन लग
सकता है। लोक मान्यता रही है कि चतुर्थी का चन्द्रमा देख लेने पर चोरी का आरोप
लगने की संभावना रहती है।
घर की महिलाओं के साथ हम
लोगों का भी रात भर का जागरण हो जाता। सुबह जब हरतालिका की आखिरी आरती होती तब
हमारी आंखें मुंदने लगती। थोड़ा
बहुत सोने का प्रयास करते किन्तु अर्धनिंद्रा के बीच ढोल नगाड़ों की आवाजों और 'गणपति बप्पा मोरिया' का उद्घोष ऐसा होने नहीं
देता था...
हरतालिका व्रत की उन
अनुभूतियों से बरसों बाद निकली इस कविता को पढ़ लेते हैं..
व्रत करती स्त्री
प्यासी रहती है दिनभर
और उडेल देती है ढेर सारा
जल शिवलिंग के ऊपर
पत्थर पर न्यौछावर कर देती
है
जंगल की सारी वनस्पति
बनाकर मिट्टी का पुतला
नहला देती है उसे लाल पीले
रंगों से
लपेटती जाती है सूत का
लम्बा धागा
पुराने पीपल की छाती पर
करती है परिक्रमा पवित्र
नदी की
और लगा लेती है चन्दन का
लेप पैरों के घावों पर
सरावलों में उगाकर हरे
जवारे
प्रवाहित करती है सरोवर में
उन्हे
क्षयित चन्द्रमा को चलनी की
आड से निहारते हुए
पति के अक्षत जीवन की कामना
करती है
व्रत करती स्त्री
एक आबंध की खातिर
सम्बन्धों की बहुत बडी डोर
बुन रही है
जैसे बाँध लेना चाहती है
धरती-आकाश।
0000
स्कूटर
पर सवार गणेश
इस बात को अब दोहराने की आवश्यकता नहीं
रही है कि जन जागरण के
उद्देश्य से जिस रूप में बाल गंगाधर तिलक जी ने सार्वजनिक 'गणेशोत्सव'
की परंपरा देश में शुरू की थी उसका स्वरूप अब बिल्कुल बदल चुका है। गणेशोत्सव का जैसा रूप देवास में भी पहले
हुआ करता था वैसा अब नही रहा। सब कुछ बदल गया है।
ख्यात शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गन्धर्व
जी की अध्यक्षता वाले 'शिव
छत्रपति गणेश मंडल' के कार्यक्रमों का सालभर हमें इंतज़ार
रहता था। हम लोग सौभाग्यशाली रहे कि हमारी पीढी ने तब के गणेशोत्सव कार्यक्रमों
में पंडित भीमसेन जोशी,हरिप्रसाद चौरसिया,शोभा गुर्टू,शंकर शंभू जैसे नामचीन कलाकारों को
देखते सुनते हुए कला संस्कृति के संस्कार पाए। बहुत सी प्रतिभाओं ने शहर के छोटे
छोटे गणेश मंडलों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते बड़ी हुई और प्रसिद्धि पाई है।
एक जागरूकता अवश्य अब देखी जाती है इन
दिनों। शहर के कुछ स्कूलों में पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से बच्चों को मिट्टी के
गणेश बनवाने का प्रशिक्षण भी दिया जाने का प्रयास होता है। फिर भी महाराष्ट्र, दक्षिण के कुछ राज्यों और मध्यभारत के कुछ क्षेत्रों में
मोहल्लों व घरों में गणेश चतुर्थी से लेकर अनन्त चतुर्दशी तक दस दिनों
गणेश प्रतिमा स्थापित कर पूजन अर्चन के साथ साथ कुछ सांस्कृतिक और
मनोरंजक कार्यक्रमों के आयोजन करने के प्रयास होते हैं। कवि सम्मेलनों और कुछ जगह
मुशायरे भी होते हैं किंतु पहले वाली गंभीरता और रुचि अब उतनी नहीं रही। अब तो अपनी सुविधा से कुछ घरों में डेढ़
दिन, तीन दिन,
पांच दिन भी गणेश बैठाए जाने लगे हैं। पुणे, मुम्बई
और इंदौर के गणेश उत्सव तो देश दुनिया में काफी ख्याति अर्जित कर चुके हैं।
यहां बात मैं अपने बचपन के अपने नगर की ही
करता हूँ। गणेश चतुर्थी के दिन गणेश प्रतिमाएं बाजार से लाने का बड़ा उत्साह रहता
था। चौराहों पर अनेक दुकानें सजी होती थीं। जो लोग गणेशजी की कलात्मक प्रतिमाओं
में रुचि रखते थे वे नगर के कुशल और नामी कलाकारों द्वारा बनाई मूर्तियां ही
खरीदते थे। देवास सीनियर के धर्माधिकारी बन्धु, देवास जूनियर के कापडे माटसाब द्वारा बनाई गई प्रतिमाओं का
सौंदर्य,कलात्मकता और मटेरियल की फिनिशिंग, रंग रोगन बहुत उत्कृष्ट हुआ करता था। बड़े बड़े संस्थानों के यहां उन्ही के
यहां से छोटी बड़ी प्रतिमाएं ढोल नगाड़ों के साथ ले जाएं जाती थीं।
देवास में होने वाले गणेशोत्सव का ही शायद
प्रभाव रहा कि बचपन से ही गणपति प्रतिमा से मुझे बड़ा अपनत्व व जुड़ाव रहा है। कई
बार घर में ही कागज की लुगदी, पीली मिट्टी आदि से बड़ी मेहनत करके गणेश प्रतिमाएं बनाया करते थे। बाजार
की प्रतिमाओं जैसे भले ही नहीं बनते, किन्तु उन्हें बनाने
में मजा बहुत आता था।
जब थोड़ा बड़ा हो गए तो फिर पढाई वगैरह के
कारण प्रतिमा बनाना छोड़ दिया। वर्षों बाद पिछले दिनों जब बच्चों ने घर में ही
प्रतिमा बनाने का आग्रह किया तो पुनः इस कला में हाथ आजमाने की कोशिश की थी। पड़ोसी
के बच्चों को भी प्रतिमा बनाना सिखाया।
गणेशजी की विभिन्न रूपों में बनाई गई
प्रतिमाओं को देखने खरीदने का शौक हमेशा बना रहा। गणेशजी की प्रतिमा को जितने
विविध स्वरूप दिए गए हैं उतने शायद ही किसी भगवान की मूर्ति में प्रयोग हुए होंगे।
जो भी तत्कालीन ज्वलन्त मुद्दा समाज मे रहता है, गणेशजी उसी रूप में उपलब्ध हो जाते हैं। कभी मुनीम,
कभी संगीतकार, कभी कम्प्यूटर संचालक, कभी ट्रेक्टर चलाते किसान, कभी सैनिक, कभी कर्नल, यहां तक कि जनरल मानिक शॉ के प्रतिरूप
वाले गणेश जी भी मैंने देखे थे। बाँसुरी बजाते मुरलीधर, वीणावादिनी
की तरह वीणा बजाते,कभी शिवाजी महाराज की तरह तो कभी होलकर
वंश की पगड़ी या गांधी टोपी धारण किए गणेश जी दिखते रहे हैं।
गणेश जी की सवारी आमतौर पर चूहा होती है
किंतु इससे हटकर भी कई प्रयोग हुए हैं। कार्तिकेय के बगल में मयूर पर विराजे, तो कभी गजराज पर गजमुख सहित गणेश,
कभी बस में सवारी करते, तो कभी विमान के पायलट
की तरह। जब आर्मस्ट्रॉन्ग ने चांद पर पहला कदम रखा था, हमारे
गणेश जी भी एस्ट्रोनॉट बनकर प्रतिमा में अवतरित हुए। इस संदर्भ में एक बड़ा दिलचस्प
वाकया मुझे याद आता है।
प्रतिमाओं की विभिन्नता देखने के लिए हम
लोग कई जगह इसी उद्देश्य से जाते थे कि देखें इस बार कौनसी नई प्रतिमा अलग हटकर
लाई गई है। देवास के सुभाष चौक स्थित घण्टाघर के आसपास की बात है। तब मैं बैंक की
देवास मुख्य शाखा में पदस्थ था। चौराहे पर हमारे एक मित्र मिल गए जो मेरी इस
प्रवत्ति को जानते थे, मुझे
देखकर बोले -'अरे देखो उधर...वहां स्कूटर पर बैठे गणेश मिल
रहे हैं!' जिज्ञासा वश उधर के स्टाल की तरफ जाकर
स्कूटर सवार गणेश जी को तलाशने लगा। किन्तु निराशा हाथ लगी। वहां वैसी कोई प्रतिमा
नजर नहीं आई। मैंने मुडकर मित्र से जानना चाहा कि कहां देखे उन्होंने स्कूटर सवार
गणेशजी?
तब हंसते हुए उन्होंने स्टाल के सामने
इशारा करते हुए कहा- 'वह
क्या बैठे हैं स्कूटर पर!'
वहाँ प्रतिमा तो नहीं करीब 90 किलो वजन वाले हमारे एक अन्य साथी
स्कूटर पर ही बैठे बैठे छोटी सी प्रतिमा का मोल भाव कर रहे थे। फिर क्या था ठहाके
लग उठे।
आज भी जब वह किस्सा याद आता है चेहरे पर
मुस्कुराहट तैर जाती है...
नगर 'नागदा' और कस्बा 'देवास'
कोई चालीस पैंतालीस साल
पहले पिताजी देवास के नजदीक गांव 'नागदा' में पशु चिकित्सक के पद पर नियुक्त थे। कोई 15 किलोमीटर साइकिल चलाकर देवास से ड्यूटी पर जाते थे।
कहने को भले ही कहें कि
साइकिल चलाकर जाते थे लेकिन यह अर्धसत्य है। वे गांव जाते समय साइकिल कम चलाते
बल्कि उसका हैंडल पकड़कर पैदल ज्यादा चला करते थे। आधा रास्ता इसी तरह साइकिल थामें
पैदल चलते। नगर सीमा के बाहर निकलने पर अपने पेंट की मोरी पर एक क्लिप सा लगाते जिससे
पेंट या पायजामें की चौड़ी मोरी सिमटकर पिंडलियों से चिपक जाती। फिर साइकिल की सीट
पर बैठकर धीरे धीरे पैडल मारते,साइकिल आगे
बढ़ने लगती। जैसे ही गांव की सीमा में प्रवेश करते, सीट
से उतरकर पतलून से क्लिप अलग कर पुनः पैदल अपने दफ्तर (पशु चिकित्सा केंद्र) तक जाते।
ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं थे। कई लोगों को मैने उन दिनों इसी तरह साइकिल यात्रा
करते देखा है।
हम उम्र मामा आदि या अन्य
रिश्तेदार देवास आते तो हम लोग नागदा में पिकनिक के लिए वहां जाते। हम लोग भी अपनी
अपनी साइकिलों से ही वहां तक यात्रा करते थे।
प्राथमिक स्कूल के दिनों
में भी एक बार हमें गुरुजी उधर बालगढ़ और शंकरगढ़ तक पिकनिक पर ले गए थे। उनके साथ
सभी छात्रों ने लाइन बनाकर पैदल ही वह दूरी तय की थी। आगे आगे हमारे गुरुजी रमेश
राठौर जी देशभक्ति गीत गाते हुए चलते और हम गीत की पंक्ति को लय में दोहराते जाते
थे। उस वक्त ख्यात फ़िल्म अभिनेता अभि भट्टाचार्य 'जागृति' जैसी फिल्मों में आदर्श शिक्षक और
मूल्यों में यकीन रखने वाले व्यक्ति की भूमिकाओं में बहुत आते थे। पिकनिक पर निकले
हम बच्चों को रमेश राठौर सर अभि भट्टाचार्य की तरह ही लगा करते थे। वे थे भी उसी
तरह के आदर्शवादी। हमारे क्लास टीचर तो थे ही किंतु बहुत जाने माने चित्रकार भी
थे। उनके घर का कमरा ही उनका कलाकक्ष और आर्ट गैलरी सा हुआ करता था। स्कूल के पास
की गली में ही वे रहते भी थे। स्कूल में 'बीच की छुट्टी' होती तो कभी कभी हम लोग भी उनके घर चले जाया करते थे। उनके यहां जाना और
उनके बनाए चित्रों को देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उनकी एक कला अब तक याद आती
है। ब्लाटिंग पेपर पर अपने नाखूनों से वे चित्र उभार दिया करते थे। किसी बच्चे की
प्रतिभा से खुश हो जाते तो उसके चेहरे का हूबहू चित्र बनाकर उसे भेंट करते। गुरु,शिष्य की वह स्नेह परंपरा अब देखने को प्रायः नहीं मिलती।
राठौर सर स्कूल के पास जिस
गली में रहते थे वह वृंदावन महाराज की गली के नाम से ही जानी जाती थी। गली में
वृंदावन महाराज का घर और मंदिर दोनों एक साथ थे। घर कहें या मंदिर एक ही बात है।
वे उस समय के देवास के उच्च कोटि के वैद्य थे। जड़ी बूटियों से दवाइयाँ बनाकर बड़ी
शीशियों में व्यवस्थित रूप से लेबल लगा कर रखी होती थी। कुछ धातुओं की भस्म भी वे
बना कर रखते थे। महाराज एक तख़्त पर बैठे रहते थे और नाड़ी जांचकर दवाई की पूड़िया
बनाकर मरीजों को देते थे। करीने से कटे हुए छोटे कागज निश्चित संख्या में तख्त पर
जमाकर उन पर विभिन्न शीशियों से निश्चित मात्रा में दवाई गिराने का उनका अपना
विशिष्ट अंदाज देखने लायक होता था। शीशी को बहुत हलके से अंगुली द्वारा थपकी देना,फिर पुड़िया बांधना वह भी बहुत ही
सलीके से। यह सब प्रक्रिया देखने में ही आनंद आ जाता था। मोतीझरा की उनकी दवाई
बहुत कारगर और प्रसिद्ध थी।
वैद्यराज वृंदावन महाराज
द्वारा सूखिया बीमारी से पीड़ित बच्चे की पीठ से कीड़े निकालने का दृश्य भी याद आता
है। कत्था चूना लगे हुए पान के पत्ते में कोई दवाई रखकर पीठ पर मलते तो कीड़ों के
सिर पीठ से बाहर निकल आते। फिर चिमटी से एक एक कीड़ा निकाल कर बीमारी का निदान कर
देते। चौमासे में भागवत कथा भी वे हाथों,कानों में मोगरे के फूलों के गजरे पहनकर अपने खास अंदाज में सुनाया करते
थे, जो सुनने वालों को बमुश्किल समझ में आ पाती थी।
बहरहाल, बात 'नागदा' की ही करते हैं। मुझे याद आता है, नागदा गांव में खेतों के बीच प्राचीन शिव मंदिर और नाग देवता का ओटला बना
हुआ था। जिस पर पाषाण की काली शिला पर फन फैलाये नाग प्रतिमा बनी थी।
लोक मान्यता है कि संभवतः
नागदा की ये प्रतिमाएँ दसवीं सदी के आसपास की होकर परमारकालीन हैं। गाँव से मंदिर
के रास्ते पर कभी एक बड़ी बावड़ी हुआ करती थी ,अब इसका कुछ हिस्सा ही बचा हुआ है। इसी शेष से उस वक्त का इसका वैभव समझा
जा सकता है। यहीं से थोड़ा आगे नाग धम्मन नदी का उद्गम बताया जाता है। इसी नदी और
नागदा के नाम पर यहाँ नाग यज्ञ का एक मिथक जुड़ता है। मान्यता है कि प्राचीन काल मे
अगस्त्य मुनि ने इसी जगह नागों का दहन किया था, इसीलिए
नाले रूपी उस छोटी सी नदी जिसमे बारह मास पानी होता था का नाम 'नाग दहन' जो बाद में अपभ्रंश होकर 'नाग धम्मन' हो गया।
ग्राम नागदा देवास की
ऐतिहासिक एवं पुरातत्विक धरोहर है। बताया गया है कि कभी प्रसिद्ध पुरातत्व वेत्ता
डॉक्टर वाकणकर जी ने भी यहां शोध कार्य किया था।
अब यहां एक गणेश मंदिर भी
है, मुझे लगता है वह बाद में
निर्मित हुआ होगा।
रियासत कालीन कहावत है कि 'नगर नागदा और कस्बा देवास' । उस जमाने के नगर को हमने मालवा के एक परम्परागत गांव के रूप में ही
देखा-जाना था। पान की खेती के लिए इसे और समीप के 'पालनगर' को भी पहचान मिली हुई थी। बड़ी संख्या में किसान पान की खेती किया करते थे।
देवास की एक मात्र सूत मिल 'स्टेंडर्ड मिल' देवास से नागदा जाते हुए बीच में बालगढ़ ग्राम में थी। मफतलाल ग्रुप की
होने से गुजराती समाज का नवरात्रि उत्सव यहां बहुत धूमधाम से मनता था। देवी
प्रतिमा की स्थापना के साथ नौ दिनों तक पूजा अर्चना के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम
खासकर 'गरबा' बहुत रुचि से
खेला, देखा जाता था।
अब देवास शहर में के हर
मोहल्ले में नवरात्रि उत्सव के दौरान जो गरबा किया जाता है उसकी शुरुआत में कपड़ा
मिल के कार्यक्रम और परम्परा की भी थोड़ी भूमिका रही है।
मिल के कारीगर और
कर्मचारियों में से कुछ को बेहतरीन क्रिकेटर के रूप में ख्याति मिली हुई थी। यह हम
लोगों में एक अलग गौरव भाव पैदा करता रहता था।
एक वक्त ऐसा भी आया था जब
कपड़ा मिल की क्रिकेट टीम, मध्यप्रदेश
की 'रनजी ट्राफी टीम' को
बराबर की टक्कर देती थी। मिल टीम में उस वक्त अब्दुल वहीद,गनी
भाई,दिलीप महाडिक, सुनील व्यास,नसरु भाई,सलीम शेख, प्रकाश
जाधव, दुष्यंत पटेल, विजय
मिश्रा जैसे बहुत कुशल और जुझारू खिलाड़ी हुआ करते थे।
टीम के स्टार खिलाड़ियों 'अब्दुल वहीद' और 'गनी भाई' को
खेलते देखने हम लोग खूब जाया करते थे। एक बार गावस्कर जी की गेंद पर इंदौर के एक
मैच में वहीद साहब ने छक्का जमा दिया था। देवास के अखबारों में खबर छपी तो बड़े
दिनों तक चर्चा होती रही। गनी भाई ऊंचे कद के तेज गेंदबाज थे। बैट्स मेन उनकी तेज
गेंदों से खौफ खाया करते थे। अब तो बस यादें ही शेष हैं। कपड़ा मिल को बंद हुए अरसा
हो गया।
इसी कपड़ा मिल में कई लोक
गायक काम करते थे जो आकाशवाणी सहित कई संगीत गोष्ठियों में 'कबीर' के पदों को मालवी अंदाज में सुनाया करते। उन दिनों पंडित कुमार गंधर्व
मालवा में कबीर परंपरा और गायन पर बहुत शोध करते रहते थे। ऐसे लोक गायकों के
प्रोत्साहन में उनका आशीर्वाद सदैव बना रहता था। इस विषय पर कभी बाद में आगे और
बात करेंगे।
कुछ समय पूर्व बरसों बाद 'नागदा' जाने का संयोग बना। भतीजी के विवाह का पहला निमंत्रण गणनायक को देने के
लिए छोटे भाई ने इसी मंछा से नागदा के गणेशजी को चुना ताकी मैं याद कर पाऊँ कि
क्या वह वही पैंतालीस साल पुराना क्षेत्र है जो मेरी स्मृतियों में बसा है।
जब अवलोकन किया तो पाया कि
सब कुछ अब रंगीन हो गया था। स्मृतियाँ ही ब्लेक एंड व्हाइट बचीं थीं। नाग प्रतिमा
तो दिखी ही नहीं। मैंने नारियल हार वाले के सामने अपनी जिज्ञासा रखी तो उसने अपने
ठेले के पीछे की दीवार की ओर इशारा किया,बोला 'यह क्या रहे सर,नाग
महाराज! पहले ओटले पर दिखाई देते थे,अब ओटला भराव में छिप
गया है। आसपास चार दीवारी से घेर दिया है।' मैंने वहां
गड्ढे में उतरकर देखा। नाग देवता थे उसी तरह शिला पर बने हुए, लेकिन अब उन पर सिंदूर पोता जा चुका था। काला नाग समय बीतते सिंदूरी हो
चुका था। इसी तरह वहां के विशाल वट वृक्ष की जड़ों पर चढ़ा सिंदूरी रंग आस्था के
चलते गणेश प्रतिमा के दर्शन करा देता है। गणेश मंदिर में प्रतिमा को इंदौर की
खजराना के मंदिर की प्रतिमा की तरह ही श्रृंगारित किया हुआ है।धार्मिक पर्यटन की
दृष्टि से देवास के नजदीक यह सुरम्य स्थान बन गया है।
आसपास की पहाड़ियों पर पवन
ऊर्जा के कई विशालकाय पंखे दृश्य को और आकर्षक बना देते हैं। बारिश के बाद अवश्य
ही बहुत अच्छा लगता होगा यहाँ। यहां की गई 'गोठ' और दाल बाफलों का लुत्फ तो बहुत ही आनन्द
दायक हो जाता होगा।
उनके जैसा मैं मेरे जैसे वे
पिताजी की साइकिल सवारी को
लेकर कुछ बातें पूर्व में मैंने कही हैं कि किस तरह वे साइकिल चलाते कम थे और उसका
हैंडल पकड़ कर पैदल अधिक चला करते थे। जब उनकी साइकिल पुरानी हो गई तो बैंक में
नौकरी लगने पर मैंने नई साइकिल खरीद कर उन्हें भेंट की थी। वह भी एक दिन उनके
दफ्तर से चोरी चली गई तो उन्होंने एक दिन ठीक से खाना तक नहीं खाया।
ऐसी ही कुछ विशेष आदतें
उनमें हमने देखीं थीं जो अब भी याद आती रहती हैं।
जब कभी अपने युवा काल में
वे बीमार पड़ते तो बुखार उतारने के लिए शीर्षासन किया करते थे। कहते इससे ब्लड
सर्कुलेशन ठीक होकर बुखार उतर जाता है।
घर की यदि कोई चीज टूट जाती
या कोई नुकसान हो जाता तो वे बहुत दुखी हो जाते थे। बहुत देर तक उनके मन में संताप
बना रहता। एक बार मुझ से चाय का एक प्याला टूट गया। मैंने उसे ठीक से संयोजित करके
इस तरह रख दिया कि वह टूटा हुआ न लग सके। दोपहर को पापा ने जब संयोग से उसे छुआ तो
वह फिर बिखर गया। अपनी गलती मैंने पापा के सर मढ़ दी। उन्हें बहुत अफसोस होता रहा।
उस शरारत की जब भी याद आती है मैं ग्लानि से भर जाता हूँ। पापा बहुत सरल, सहज और मूल्यों में विश्वास
करने वाले बहुत सज्जन व्यक्ति थे। पूरे चालीस वर्ष सरकारी नौकरी करके सेवानिवृत्त
जीवन के 20 वर्ष पूर्ण कर 1998 में हमें छोड़कर चले गए।
दरअसल पिताजी का बचपन बहुत
अभावों में बीता था। वे बताते थे उनकी दादी माँ ने घर की घट्टी में लोगों का अनाज
और दालें आदि पीस कर घर चलाया था। उनकी प्राथमिक पढाई मराठी माध्यम में हुई थी।
बाद में हिंदी,अंग्रेजी
में पढ़ाई करके पशुचिकित्सा के प्रशिक्षण हेतु ग्वालियर गए थे। उनके रहन सहन और
बोलचाल में मराठी संस्कार,शब्द और ग्वालियर के प्रशिक्षण समय
की स्मृतियाँ बहुतायत में होती थीं। उन्हें तैरना आता था।
जब उनकी सरकारी नौकरी लगी
तो उनके पिताजी को बड़ा सहारा हो गया। उनके छोटे भाई की शिक्षा भी ठीक से हो पाई। अच्छा
समय आता गया।
किताबें पढ़ने के वे बहुत
शौकीन थे। सरकारी पुस्तकालयों और नगर परिषद के वाचनालयों में जाकर पत्र पत्रिकाएं
शाम को वहीं बैठकर पढ़ते और आकाशवाणी के रात के समाचार सुनने के बाद ही घर लौटते
थे। जब हम बच्चे पराग आदि खरीदने के लिए पैसे मांगते तो वे हमें वाचनालय जाकर पढ़ने
को कहते। हालांकि बाद में माँ चुपके से हमें पैसे दे देतीं थीं।
राजनीतिक पार्टियों की
जनसभाओं में जाकर उस दौर के श्रेष्ठ वक्ताओं के भाषणों को सुनना उन्हें बहुत भाता
था। उन्होंने नेहरू जी,लोहिया जी,जयप्रकाश जी आदि जैसे नेताओं को मैदान में बैठ कर निकट से सुना था। मेरे
बच्चों तक को वे किस्से और इतिहास की कहानियां अंत तक सुनाते रहे।
समाजवादी विचारधारा के
बावजूद वे अन्यों को भी रुचि से सुनते थे। मेरे जन्म के पूर्व ही उन्होंने मेरा
नाम सोंच लिया था। हिन्दू महासभा के ओजस्वी वक्ता ब्रजनारायण 'ब्रजेश' का भाषण सुनकर आए तो अपना निश्चय माँ को बता दिया कि पहली संतान का नाम 'ब्रजेश' रखेंगे। हुआ भी यही। मेरे जन्म के पहले
मेरे लिए जो मैरून कलर का स्वेटर बना लिया गया था, उस
पर आगे खूबसूरत डिजाइन के बीच 'ब्रजेश' लिखा चमचमा रहा था। डिजाइन की एक तरफ माँ के नाम कांता का 'के' और दूसरी तरफ पापा के नाम सुरेश का 'एस' भी नजर आता था। इस स्वेटर की यह कटिंग अब
तक पत्नी ने सहेज कर रखी हुई है।
मेरे एक दादाजी पापा की
सहजता और सरलता पर थोड़ा गुस्सा करते हुए कहा करते थे..ये सूरज बाबू तो देर से आया
है इस दुनिया में...सतयुग के आदमी का इस युग में क्या औचित्य...!'
किन्तु मुझे लगता है आज भी
इस नईदुनिया में पुराने संसार के लोगों का महत्व हमेशा बना रहेगा...शायद ऐसे लोगों
का होना दूषित पानी में फिटकरी के टुकड़ों की तरह होता है जो उसे पीने लायक बनाए
रखते हैं ....
यह कविता पढ़ लेते हैं....
पहेली
वे थे
मैं था
सब था
वे थे वे
मैं मैं था
सब था अलग अलग
उनमें नहीं था मैं
मुझमें तो कतई
नहीं होते थे वे
अब मैं हूँ
नहीं हैं वे
पढ़कर सुनाता हूँ पत्नी को
कुमार अम्बुज की कविताएँ
सुनाने लगते हैं वे
धर्मयुग से नईम के नवगीत
ओह! मैं हूँ
वे भी हैं
उनके जैसा मैं
मेरे जैसे वे
सब कुछ पहले जैसा.
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