चलो बुलावा आया है
नवरात्रि के समय वैसे तो पूरा देश बहुत उल्लास और पूजा आराधना से
सराबोर रहता है किंतु जिन शहर कस्बों आदि में किसी देवी का मंदिर या स्थान होता है
वहां का समूचा वातावरण ही 'मातामय' हो
जाता है। बड़ी धूमधाम बनी रहती है।
आमतौर पर जहां देवी मंदिर किसी पहाड़ी पर
स्थित होता है,वहां की रौनक देखते ही
बनती है। जत्रा, मेले आदि भी इन दिनों खूब सजते हैं और लोग
त्योहारों और पर्व का खूब आनन्द उठाते हैं। मेरे गृहनगर देवास की भी यही विशेषता
रही है। बचपन से ही सुनते रहे कि इस सांस्कृतिक नगरी
का नाम 'देवास' भी 'देवताओं के वास' की वजह से ही पड़ा है। लगभग 300
फुट ऊंची पहाड़ी पर देवी चामुंडा और देवी तुलजा भवानी के मंदिर स्थित
होने से इस पहाड़ी को 'माताजी की टेकरी' ही कहा जाता है। बाद में ब्रिटिश इतिहासकार ईएम फॉस्टर ने अपनी पुस्तक 'हिल ऑफ देवी' में भी देवास का उल्लेख किया है।
शहर के स्त्री,पुरुष, युवा सभी नित्य ही बारहों
महीने सुबह शाम इस पहाड़ी पर भ्रमण के लिए जाते हैं। बचपन में परिवार के बड़े बूढ़े
बच्चों को सुबह शाम की सैर के लिए टेकरी पर नियमित जाने को कहते थे। खासतौर से
टेकरी पर जाना दैनिक वर्जिश का प्रमुख हिस्सा होता था।
देवास की टेकरी पर जाने के उस वक्त दो
रास्ते हुआ करते थे। एक खड़ी रपट थी जो पश्चिम क्षेत्र के रेलवे स्टेशन की ओर से
ऊपर जाती है। इसी के मोहक मुहाने पर आज भी शास्त्रीय गायक पद्मविभूषण प. कुमार
गंधर्व जी का निवास 'भानुकुल' स्थित है। दूसरा रास्ता सीढ़ियों का था जो काले
पत्थरों से निर्मित था, बीच में कुछ जगह कच्ची रपट भी हुआ
करती थीं। कुछ अन्य रोमांचक पैदल रास्ते बच्चों और युवाओं ने खोज निकाला थे। इन
रास्तों से होकर पहाड़ी के ऊपर तक पहुंचने को 'खड़े पहाड़ चढ़ना'
बोला जाता था। पेरेंट्स बच्चों को अक्सर हिदायत देते थे कि जाओ मगर
खड़े पहाड़ मत चढ़ना। हम लोग हामी जरूर भरते थे 'नहीं चढ़ेंगे'
किंतु करते इसके ठीक विपरीत टेकरी पर 'खड़े पहाड़' चढ़ने का ही जोखिम उठाते।
सीढ़ियों वाले रास्ते से जाने का भी अपना
अलग रोमांच था। एक तो वह हमारे मुहल्ले से बहुत नजदीक था। दौड़ते दौड़ते टेकरी के
सीढ़ियों वाले रास्ते पर पहुंच जाते थे। सीढ़ियों को भी दौड़ते हुए चढ़ जाया करते।
सीढ़ियों की गिनती करते। अब तो याद नहीं रही उस वक्त की सीढ़ियों की संख्या। बीच में
कच्ची रपट भी थी। इसी के किनारे एक जगह पत्थर गिरा करते थे। यहां की कच्ची चट्टान
की खास विशेषता यह थी कि इसकी बजरी को जब पानी भरे पात्र में डालते तो उसमें से
सनसनाहट की आवाज निकलती और हवा के
बुलबुले निकलते थे। बहुत मजा आता था ऐसा करते हुए। इसी जगह गिरे हुए पत्थरों को
जोड़कर घर नुमा कुछ बनाते। मान्यता थी कि माताजी उनके सपनों के आशियाने का सपना
पूरा करेंगीं।
देवास पहाड़ी की चट्टानों में कई जगह सफेद
चमकती रंगोली सी दिखाई देती है। यह सम्भवतः अभ्रक खनिज है,कुछ लोग रंगोली पत्थर भी कहते हैं।
सीढ़ियां चढ़ने के बाद पूरी टेकरी पर
परिक्रमा मार्ग है। जिस पर चलते हुए पुराने शहर और नए देवास का नजारा किया जा सकता
है। पैदल सीढ़ियां देवी चामुंडा (छोटी माता) और जीप आदि वाला रपट मार्ग देवी तुलजा
भवानी (बड़ी माता) के चरणों तक पहुंचता है।
कुछ दिलचस्प बातें याद आती हैं। चामुंडा
माता मंदिर के ठीक सामने पत्थर का एक भारी गोला पड़ा होता था, मन्दिर प्रवेश से पूर्व जिसे कुछ भक्त अपने हाथों से
बहुत मुश्किल से उठाकर कन्धे पर रखते और फिर उसे धरती पर पटकने के बाद चौखट पर
मत्था टेक दर्शन के लिए प्रवेश करते थे। जोखिम भरा यह काम हर कोई नहीं कर पाता था।
लेकिन जिसे यह कला आ जाती थी वह बहुत सहजता से भारी पत्थर उठाकर क्षण में धरती पर
पटक देता था। हमारे पड़ोस के उस वक्त के 60/ 65 वर्षीय वृद्ध 'वल्लभ जी' जिन्हें हम 'बल्ला
बा' कहते थे सहजता से यह करिश्मा करके सबको चकित कर देते थे।
अब यह पत्थर का गोला शायद नहीं है वहां। किसी ने बताया था, वह
नीचे खाई में गिराया जा चुका है।
खड़े पहाड़ चढ़ने के कई रास्ते अब सीढ़ियों
में बदल गए हैं। खासतौर से शीलनाथ धूनी वाला एरिना (अखाड़ा) मार्ग। निराले नेता पोल
साहब के निराले घोषणापत्र में उस समय टेकरी के ऊपर तक झूला मार्ग बनवाने के उनके
वायदे को भले ही उस वक्त मजाक समझा गया हो किन्तु अब टेकरी पर 'रोप वे' की सहायता से भी पहुंच
कर माताजी के दर्शन किये जा सकते हैं।
और जो देवास में न हैं उन्हें तो किसी भी
रास्ते पर पैदल चलने की जरूरत नहीं पड़ती। पंख लगे होते हैं मन पर...जहां चाहे
पहुंच ही जाता है...
००००
नवरात्रि को लेकर संस्मरण
लिखते वक्त अचानक मुझे मेरे सहपाठी और बाद में बैंक में मेरे साथी भीमराज स्वामी
की याद हो आई। कुछ वर्ष पूर्व ही वे सेवानिवृत्त होकर स्थायी रूप से इंदौर आ गए
हैं। प्रत्यक्ष मुलाकात तो हाल फिलहाल सम्भव नही हुई है किंतु कुछ समय पहले की उनकी कही एक बात
याद आ गई। उन्होंने स्कूल के दिनों को याद करते हुए कहा था- 'ब्रजेश तुम कक्षा के ब्लैकबोर्ड पर कितनी जल्दी और सुंदर चामुंडा माता की
तस्वीर चॉक से बना दिया करते थे।' मुझे तो याद ही नही था
किंतु उनके याद दिलाने पर जैसे आज पुनः सब कुछ याद आने लगा है।
छठी कक्षा से लेकर आठवी
कक्षा तक की पढ़ाई हमने जिस स्कूल में की थी उस सरकारी मिडिल स्कूल को 'नई बिल्डिंग स्कूल' के नाम से ही जाना जाता था। यकीनन वह बिल्कुल नया ही बना था। पूरे प्रदेश
में उसी डिजाइन के स्कूल भवन बनने लगे थे। आज भी लगभग उसी पैटर्न में याने
अंग्रेजी के 'एच' आकार में बनते हैं,इससे सुविधा यह रहती है कि हर मौसम में पूरे स्कूल के हर कमरे में सुगमता
से आया जाया जा सकता है।
इस स्कूल की खासियत इसकी
खास लोकेशन भी थी। पास में शहर के महाविद्यालय तो थे ही लेकिन इस बिल्डिंग से लगा
हुआ ही एक खेल का मैदान भी था,जिसे 'ओलंपिक ग्राउंड' कहा
जाता था। बिल्डिंग से लगी हुई एक तलैया सी थी,जिसमे बरसात
में पानी भरा रहता। उसमें पत्थरों की कत्तलें सनसनाते तैराने में हम बच्चों को बड़ा
मजा आया करता था। इसी तलैया के पीछे राजा महाराजाओं की समाधियां थीं, जहां बहुत खूबसूरत छतरियाँ बनाकर शिवलिंग स्थापित किये गए थे। इसे छत्री
बाग कहा जाता था। इससे जुड़ा देवास का बहुत सुंदर 'मीठा तालाब'
था। मीठे तालाब में कमल खिला करते थे।
स्कूल के पास बल्कि स्कूल
प्रांगण के भीतर तक पुराना लेकिन उपयोग में नहीं आ रहा कब्रिस्तान भी था। इन
पुरानी कब्रों पर पेड़ की छाया में बैठकर छुट्टी के बीच हम दोस्त हंसी मजाक करते
रहते थे। कोई भय नहीं लगता था।इतनी बात इसलिए कही कि इन्हीं कक्षाओं में पढ़ते हुए
हमारी कई रुचियाँ उभरने लगीं थीं। बहुत से मित्रों में जो दो मुझे खास तौर से याद
आ रहे। उनमे एक भीमराज स्वामी तो हैं ही दूसरे मित्र थे शेखर पागे।
भीमराज मूलतः दक्षिण भारत
के होते हुए भी मालवी व्यक्ति हैं। उनके जन्म से लेकर पालन पोषण,पढाई सब कुछ इधर देवास मालवा में ही हुआ
था। उन्हें तमिल नहीं आती। मित्रों के परिजनों से मालवी में बढ़िया बतिया लेते हैं।
नौकरी के दौरान उनके प्रमोशन पर गलतफहमी में उनका ट्रांसफर जब चैनई करके प्रबन्धन
ने उनका भला करना चाहा तो वे घबरा गए। बहुत मुश्किल से मैनेजमेंट को गले उतारना
पड़ा कि स्वामीजी ठेठ मालवी और हिंदी भाषी व्यक्ति हैं। ओलम्पिक ग्राउंड पर होने
वाले खेलों खासकर फुटबॉल व क्रिकेट देखते,खेलते हुए भीमराज प्रतिभाशाली क्रिकेटर बने और आगे चलकर कई टूर्नामेंट्स
में विक्रम विश्वविद्यालय की टीम का प्रतिनिधित्व व टीम का नेतृत्व भी किया।
ऐसे ही शेखर पागे स्कूल में
मौलिक कविताएं लिखा करते थे। खूब पढ़ने लिखने वाले बुद्धिमान किस्म के विद्यार्थी
थे। मैंने उन पर कविता की कुछ पंक्तियाँ लिखीं थीं-' शेखर पागे एक कवि हैं,कुछ
दुबले कुछ पतले से!' शेखर के सानिध्य में शायद कविता आदि
करने का कोई वायरस प्रवेश किया होगा ,ऐसा मुझे अब भी लगता
रहता है। शेखर पागे से प्रत्यक्ष मिले बरसों हो गए हैं। कोरोना स्थितियां सामान्य
होने पर अवश्य मिलने की कोशिश होगी।
बहरहाल, बात तो चामुंडा माता और देवास टेकरी की
ही हो रही है। जैसा मैंने पहले की कड़ियों में कहा भी है कि देवास की टेकरी एक ऐसा
डेस्टिनेशन है जहां शहर के निवासी ही नहीं बाहर से आए मेहमान की भी वहां की सैर के
लिए रुचि जागृत हो ही जाती है। पहाड़ी पर पहुंचकर नीचे के दृश्य को निहारना बहुत
कुतूहल पैदा करता है। भोपाल, ग्वालियर,
उज्जैन, इंदौर की ओर जाने वाली सड़कें शहर से दूर जाते जाते
बारीक लकीरों में बदलती दिखाई देते हुए विलीन हो जाती है... इंदौर से उज्जैन की
दिशा में आने जाने वाली रेल गाड़ियों को घुमावदार पटरियों पर रेंगते हम लोग बरसों
से देखकर रोमांचित होते रहे हैं। सबसे ऊंचे पीपल के पेड़ से बचपन के मोहल्ले के
पुश्तैनी घर को पहचान कर हम लोग उंगली के इशारे से मेहमानों को बताकर अद्भुत खुशी
को आज भी महसूस कर पाते हैं। मीठा तालाब और छत्री बाग के सुंदर दृश्य मन को मोह लेते
हैं। टेकरी पर सात कुंड और कुछ में सुंदर मछलियों की अठखेलियां, दमदमे (हिल टॉप) पर खड़ा विजय स्तम्भ, सूखी हुई दूध
तलाई और उसके सूख जाने की किवदंती। क्या कुछ याद नहीं आ रहा।
जन्माष्टमी पर टेकरी स्थित
राजकीय तोप घर से तोप का बाहर निकलकर आना और 21 तोपों की भगवान को सलामी। अब तो इस तोपखाने के
नजदीक ख़ूबसूरत और शांत जैन मंदिर का नव निर्माण हो गया
है।
पुराने शहर के दूसरी तरफ
वाले दृश्य में बैंक नोट प्रेस, पुलिस परेड ग्राउंड, सबसे पुरानी फेक्ट्री गाजरा
गियर्स और स्टील ट्यूब्स आदि। एरिना जिसमें कई कुश्तियां लड़ी गईं। ओह!! क्या क्या
याद करें.….
चामुंडा माता की प्रतिमा
में अलग अलग रूप नजर आने की दन्त कथाएं भी खूब प्रचलित रहीं हैं। हमें भी लगता था
जैसे प्रतिमा में सुबह किसी बच्चे की मासूमियत, दोपहर में किसी युवती सा उत्साह और शाम को प्रौढ़ता
का गाम्भीर्य दमकने लगता है।
देवी की हमारी समझ का बाद
में और विस्तार हुआ। स्त्री
के वे भिन्न स्वरूप हमें अन्यत्र भी दिखाई देने लगे....लगा जैसे वह प्रतिमा तो
सर्व व्यापी है...कई जगह अलग अलग स्वरूपों में दिखाई देने लगती हैं।
एक कविता यहां पढ़ें जो कुछ
वर्ष पूर्व लिखी थी...
कविता
देवी मंदिर में
श्रीमानजी !
आप बहुत भाग्यशाली हैं
जो पधारें हैं माता मंदिर
सुबह बच्ची
दोपहर युवती
शाम को औरत का
रूप धरती है चमत्कारी
प्रतिमा
धन्यवाद पंडित जी!
सच तो यह है कि
फूल-पत्तों, धरती-आकाश
हर जगह दिख जाता है अक्सर
देवी का यह अद्भुत रूप मुझे
एक देवी चहक उठती है
सुबह-सुबह
थकान को हर लेती दूसरी
एक का नेह भरा हाथ
विश्वास से भर देता है हर
शाम
क्षमा करें
भीतर नगाड़े सा कुछ बजने लगा
है
मुझे घर लौटना चाहिए अब.
(रचनाकाल: 2016)
००००
दशहरे के पूर्व आने वाली
महाअष्टमी का कुटुंब में बड़ा महत्व हुआ करता था। परिवार के छोटे बड़े जो भी सदस्य
नौकरी या पढ़ाई आदि के सिलसिले में बाहर होते थे उन्हें भी एक तरह से महाअष्टमी के
दिन घर आना जरूरी होता था। यह एक परंपरा सी बनी हुई थी। दशहरे या दिवाली पर यदि न
आ सकें तो एक बार स्वीकार्य होता किन्तु 'माता पूजन' के प्रसाद की धूप
देने के लिए परिवार के हर सदस्य का उपस्थित होना जरूरी होता था।
इस बहाने अबोले में चल रहे
सगे संबंधियों में पुनः संवाद शुरू होने की गुंजाइश भी रहती थी। भले मतभेद बने
रहते किन्तु मनभेद थोड़े कम हो जाया करते थे।
माता का प्रसाद बनना और
पूजन आदि भी उसी घर में होता था जहां परिवार के मुखिया का निवास होता। बोलचाल में
उसे 'बड़ा घर'
कहते। बड़े घर पर सब इकट्ठा होकर पूजन, भोजन
आदि एक साथ करते थे।
हमारे यहां भी ऐसा ही होता
था। इसके अलावा कई बार हमारे नाना व नानी का भी स्नेह सानिध्य हमे मिल जाता था।
दरअसल, उन्होंने
किसी कठिन क्षण में यह मानता या संकल्प ले लिया था कि हर वर्ष नवरात्रि का समय
चामुंडा की नगरी देवास में ही गुजारेंगे। पूरी नवरात्रि और दशहरे तक वे यहां रहते
तो घर में बड़ी चहल पहल बनी रहती। नाते रिश्तेदार भी उनसे मिलने जुलने आते। कुटुंब
में नए सगाई संबंधों और रिश्तों के सूत्र खोजने में उनकी बड़ी मदद रहती थी।
नौकरी में मैं जब भी बाहर
रहा महाअष्टमी के दिन माँ के पास देवास आ ही जाता था। कुटुंब के कई परिवारों में
तो प्रसाद के बनने की बड़ी कठिन व्यवस्था होती थी। घर की घट्टी पर अनाज पीसा जाता
था। बनता हुआ भोग कोई अन्य व्यक्ति देख नहीं सकता था। स्वयं घर की महिलाएं ही
प्रसाद भोग की तैयारी कर बनातीं थीं।
हमारी दादी अधिक कट्टर नहीं
थीं, उन्होंने
माँ को भी रियायतें दे रखीं थी। जमाने के हिसाब से जो सहजता से संभव हो वह करने की
छूट मिल गई थी। बाद में पत्नी को भी यह रियायत प्राप्त हो गई।
हाँ, इतना अवश्य था कि प्रसाद में भेल नहीं
करना होता है, जैसे पकोड़ी सिर्फ बेसन की बनेगी, उसमें आलू, प्याज आदि नहीं पड़ेगा। पूरियों में नमक और मोयन नहीं डलेगा।
इसके पीछे का तथ्य मुझे अब तक समझ नहीं आया। यह भी दिलचस्प है कि बिना भेल का भोग
लगाने वाले हमारे परिवार में देवी पूजन व अष्टमी की धूप अष्टमी-नवमी के भेल समय
में दी जाने की परंपरा है। सबके यहां अष्टमी की दोपहर भोग लगता है हमारे यहां
गोधूलि बेला में।
प्रतिवर्ष अष्टमी के दिन प्रातः
देवास की बड़ी माता तुलजा भवानी मंदिर में कभी दादाजी नियमित हवन करवाया करते थे।
बाद में पिताजी उस दिन नारियल व पूजा सामग्री चढ़ाकर आते रहे। बाद में स्थानीय भाई
आदि यह जिम्मेदारी निभाने लगे।
अब तो कुटुंब में सामूहिक
पूजन कभी कभार ही सम्भव हो पाता है। इकट्ठा होने की वह परम्परा निभाई जाने की
स्थितियां अब वैसी नहीं रहीं।
हालांकि भोग अब भी लगता है, माता को धूप भी दी जाती है। पात्र में
उठती अग्नि और धूम्र का चित्र वाट्सएप पर शेयर हो जाता है। परदेस में बैठे बच्चे
अगली सुबह जागने पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करके प्रणाम कर लेते हैं....
००००
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