शुरुआती संवेदनाएँ और पहला दफ्तर
सन् 1978 के फरवरी माह की 16 तारीख को इंदौर बैंक (अब स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) की कन्नौद (जिला देवास,म प्र) शाखा में लगभग 21 बरस की उम्र में
नौकरी ज्वाइन की तब वहां शाखा प्रबंधक थे श्री एस आर रेगे (सुभाष रेगे) साहब।
खूब मजाकिया स्वभाव के धनी
इस व्यक्तित्व ने मेरे व्यंग्य लेखन को खूब प्रोत्साहित किया था। सामाजिक और
व्यावहारिक जीवन के अनेक सबक इसी रेगे पाठशाला में सीखने को मिले।
कन्नौद के संदर्भ में उन
दिनों एक कहावत सुनने को अक्सर मिल जाती थी कि वहां के सौ लोगों में से नब्बे नेता,उनमें भी नौ वकील, नौ पहलवान और एक जनता हुआ करते थे।
सच भी था। खेती और कृषि से
जुड़े काम धंधों के अलावा रोजगार के अन्य विकल्प नहीँ होने से युवा काला कोट पहनकर
ग्रामीणों के आम विवाद सुलझाने के काम में कोर्ट कचहरी से जुड़ जाया करते थे। वकील
किसी न किसी राजनीतिक दल से भी जुड़ जाते तो नेताजी भी कहलाने लगते। बाकी एक हिस्सा
जनता का छोड़ दें तो कस्बे के नौ ही क्या लगभग सभी लोग पहलवान टाइप ही होते थे।
बहरहाल, इस बात में कितना तथ्यात्मक सच
रहा होगा कह नहीं सकता लेकिन बाहर से आये प्रवासियों को मुस्कुराने का अवसर तो दे
ही देती थी। शहरों से दूर स्थित कस्बों में सामान्यतः यही स्थिति आज भी हुआ करती
है। वहां के जन जीवन की खुशबू और संरचना महानगरों और शहरों से आज भी बहुत भिन्न
होती है। यही कारण है कि कस्बों और छोटे शहरों से निकले रचनाकारों की संवेदनाएं
मेट्रो की संवेदनाओं से बहुत अलग और देशज होती हैं।
इस दिलचस्प जुमले वाले छोटे
से कस्बे में बैंक के साथी श्री अब्दुल खालिक खान ने पहले ही दिन अपने कमरे का
उनका पलंग मेरे लिए खाली कर दिया था। वे स्वयं फर्श पर अपना बिस्तर लगा कर सोते
थे। मेरा अपना आशियाना नहीं मिलने तक उन्होंने ही भोजन भी कराया। दरअसल वे स्वयं देवास के
रहने वाले थे। अपने शहर से आए किसी अपरिचित युवक के प्रति ऐसी आत्मीयता की कल्पना
करना अब बहुत मुश्किल है।
दफ्तर के अन्य साथियों में
एक श्री देवीसिंह ठाकुर थे जिनके बाल थोड़े सत्य साईं कट थे। वे खूब जोरदार ठहाका
लगाकर हंसते थे। एक दफ्तरी थे श्री रमेश जी, जो पहलवान भी थे, साक्षर थे, केवल 'रमेश' लिख
पाते थे लेकिन बैंक के खातेदारों विशेषकर बकायादारों को दूर से पहचान लेते थे।
बहुत आत्मीय और पारिवारिक
वातावरण था हमारी शाखा का। प्रबंधक रेगे साहब ने हमें खुद बनाकर कई बार गिलकी की
सब्जी खिलाई थी। बाद में जब 1979 में मेरी शादी हो गई और मनोरमा ने घर संभाल लिया, रेगे साहब ने बेटी की तरह उन्हें भी स्नेह दिया। सेवानिवृत्त बैंक
अधिकारियों की बैठक में रेगे साहब का आशीर्वाद अब भी मिल जाता है।
कन्नौद से 20 किलोमीटर दूर आगे खातेगांव
में उन दिनों दोस्तबाज श्री इंदरसिंह सलूजा साहब ब्रांच मैनेजर थे। शनिवार शाम
अक्सर वहीं गुजरती थी। इलाके का टॉकीज वहीं था।
उस वक्त मुझे बिल्कुल भी
पता नहीं था कि कन्नौद में ज्वाइन करने के बाद कभी जिला समन्वयक बनकर सम्पूर्ण
देवास जिले की शाखाओं के साथ साथ उसकी भौगोलिक सुंदरता और जन जीवन से रूबरू होने
का सौभाग्य भी 30 साल बाद मिलेगा। आगे देवास जिले से जुड़े कुछ और दिलचस्प प्रसंगों की बातें
होंगी...
देहात की बस यात्रा
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले तीस चालीस वर्षों में हमारे नितांत देहात और दुर्गम
क्षेत्र भी कस्बों,शहरों और
महानगरों से जुड़ गए हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सड़क योजनाओं में गांवों तक
पक्की सड़कें बनाने का काफी काम हुआ है। मनरेगा जैसी ग्रामीण रोजगार देने वाली
महत्वपूर्ण पहल ने भी गांवों के विकास में अच्छी भूमिका निभाई है। लोगों का आवागमन
सुगम हुआ है। बैलगाड़ियां नदारत हैं। ट्रेक्टरों, मोटर
साइकिलों से देहात जाने वाली सड़को पर रौनक दिखाई देती है। लोक परिवहन की स्थिति भी
कुछ बेहतर हुई है।
वर्ष 1978 में अपनी नौकरी की
शुरुआत में और उससे पहले जिन स्थितियों का हमने साक्षात्कार किया था, वे इतनी अच्छी कभी नहीं रहीं। देहात जाने वाली सड़कों की न दशा ठीक होती थी
न वहां तक ले जाने वाली बसों की। आवागमन की दुर्दशा का वह दौर था। पहले तो पक्की
सड़कें होती नहीं थी। कुछ बनाई भी जाती तो वर्षों तक उस बिछी गिट्टियां डामरीकरण का
इंतजार करती रहतीं। इस बीच बरसात का मौसम आता तो गिट्टियां बह जातीं। जिन पर
डामरीकरण हो जाता वे भी हर वर्ष मरम्मत की बाट जोहती रहती थीं। पुलों और पुलियाओं
का निर्माण बहुत आंदोलन आदि करने के बाद किया जाता था। नदियों, नालों पर रपटें होतीं, नदी में उतरकर ही
गाड़ियों का आगे बढ़ना सम्भव हो पाता था। मामूली बरसात होते ही नदी उफान पर आ जाती
तो एक ही नदी के कई मोड़ों पर घण्टों तक बसों को प्रतीक्षा करनी होती। कभी कभी तो
सुबह निकला व्यक्ति तीन घण्टों के सफर की बजाए शाम को गंतव्य पर पहुंच पाता था।
गृह नगर देवास से प्रति
सोमवार जब सुबह छह बजे 100 किलोमीटर दूर अपने पहले कार्यालय कन्नौद के लिए निकलता तो कई बार ऐसी ही
स्थितियों का सामना करना पड़ता था। उन दिनों 'अमीर
एक्सप्रेस' की निजी कम्पनी की बसें नेमावर,हरदा तक जाया करती थीं। 'सलीम भाई' युवा बस चालक हुआ करते थे और थोड़े उम्र दराज व्यक्ति जिन्हें 'दरबार' संबोधित किया जाता था वे कंडक्टर की
भूमिका में होते थे। उस बस में दैनिक और साप्ताहिक रूप से यात्रा करने वालों की
संख्या अधिक होती थी। इस वजह सब एक दूसरे को अच्छी तरह जानने पहचानने लगते थे।
सलीम भाई का ड्राइवर कैबिन लोगों के 'टिफिनो' से भरा होता था। घर से गए नौकरी पर पदस्थ परिजनों को भोजन इसी तरह भेजा
जाता था। सलीम भाई हर गाँव में एक दो टिफिन डिलीवर करके पुण्य कमाते थे। अखबारों
के पैकेट भी इसी तरह रवाना होते। बस स्टैंडों पर सुबह यही खास हलचल होती थी उन
दिनों।
सड़क निर्माण की तकनीक भी
उतनी विकसित नहीं हुई थी। ऊपर से देहातों के विकास की राजनीतिक इच्छा शक्ति भी कम
दिखाई देती थी। विचारक और साहित्यकार जिन्हें आवाज उठानी चाहिये वे भी 'अहा! ग्राम्य जीवन' जैसी पंक्तियां मात्र लिखकर यथा स्थिति के पोषक हो जाते।
घण्टों तक नदी की बाढ़ के
उतरने की प्रतीक्षा में घण्टों सड़कों पर अटके रहना पड़ता था। जब पानी कम होने पर
आवागमन शुरू होता तो गाड़ियां फ़सतीं, आड़ी तिरछी होकर पुनः रास्ता जाम कर देतीं। कुछ किनारे की काली मिट्टी में
धंस जाती। बड़ी मशक्कत के बाद यात्रियों की मदद से उन्हें निकाला जाता। ग्रामीणों
की सहायता लेकर, किसी ट्रेक्टर से खींचकर वाहनों को सड़क
पर वापिस लाने में घण्टों लग जाते थे।
बैंक की बरोठा शाखा में
पदस्थी के वक्त के कुछ मजेदार प्रसंग याद आ रहे हैं। बैंकिंग सेवा में दो वर्षों
की ग्रामीण क्षेत्र में नियुक्ति अनिवार्य होती है। अन्यथा पदोन्नति के अवसर कम हो
जाते हैं। बरोठा में इसी संदर्भ में मुझे शाखा प्रबंधक नियुक्त किया गया था। देवास
से आने जाने की स्वीकृति थी। बरोठा था भी केवल 20 किलोमीटर दूर, किन्तु अपने वाहन से जाने का
जोखिम कोई लेता नहीं था। मैं तो कम से कम नहीं लेता था। शाखा में मोटर साइकिल दी हुई
थी जो उधर अपने क्षेत्र में ही निरीक्षण आदि में उपयोग की जानी होती थी। मुझे मोटर
साइकिल चलाना आता भी नहीं था, अपने सहायक स्टाफ सदस्य
के पीछे बैठकर ही टूर आदि करता था।
सुबह जो बस बरोठा जाती थी
उसमें ड्राइवर सीट के पीछे की सीट पर ही खिड़की में कांच लगा था। बाकी बस की सारी
खिड़कियों के शीशे नदारत थे। मुझे हमेशा से शीत से समस्या है। ठंडी हवा सिर और कान
पर लगने पर सब कुछ गड़बड़ाने लगता है। चक्कर आने की स्थिति बनने लगती है। बचाव का
सदैव ख्याल रखता हूँ। एक कनटोप साथ में रखता हूँ। खिड़की में शीशा होने पर भी
सहयात्री को असुविधा न हो इस लिए कनटोप धारण करने में कोई संकोच नहीं करता।
बरोठा जाने वाली बस में
बैठने वाला मैं अक्सर पहला यात्री होता था। क्योंकि एक मात्र शीशा लगी खिड़की के
आरक्षण की कोई व्यवस्था तो थी नहीं। घर से जल्दी निकलकर उस सीट पर अपना कब्जा जमा
लेता था। हालांकि बाद में जब ड्राइवर कंडक्टर को मेरी समस्या का पता चला,वह सीट मेरे लिए रिजर्व रखी जाने लगी।
इस बस के कंडक्टर और
ड्राइवर की स्मृति से कॉमेडी फिल्म 'बॉम्बे तो गोआ' के महमूद और उनके भाई अनवर की
सहज याद आने लगती है। चलती बस में जो हास्य प्रसंग फ़िल्म में उपस्थित होते हैं उसी
तरह के प्रसंग बरोठा जाने वाली बस में हम प्रतिदिन ही देखा करते थे।
बस का युवा कंडक्टर बरोठा
का ही एक ग्रामीण युवक था। मालवी और हिंदी मिली जुली बोलता था। ग्रामीणों से ठेठ
मालवी में और हम लोगों से शहरी जुबान में संवाद करता था।
उसकी एक बात बहुत याद आती
है। अक्सर बस यात्रा के दौरान कुछ महिला यात्रियों को उल्टी आने व चक्कर की शिकायत
होने लगती है। जब वे इस वजह से कंडक्टर से खिड़की वाली सीट का आग्रह करतीं तो वह
उन्हें माचिस की डिबिया से एक तीली निकालकर दे देता। कहता कि 'लो इसे मुंह में इस तरह रख लो
कि फास्फोरस वाला हिस्सा मुंह में तो रहे लेकिन छुए नहीं।'
यात्री ऐसा कर भी लेते थे।
समस्या भी सुलझ जाती। उल्टी,कै होना रुक
जाता। किसी ग्रामीण को दस्त की समस्या आ जाती तो वह तुरंत एक अखबार का टुकड़ा देता
और उस पर बैठ जाने को कहता,पीड़ित को आराम मिल जाता। आगे किसी
चाय के स्टाल पर आधी चाय में आधा ठंडा पानी मिलाकर उसे पिलवा देता। मरीज को पेट
दर्द और दस्त की समस्या से छुटकारा मिल जाता।
हर दूसरे तीसरे दिन बस का
टायर फट जाना आम बात थी। स्टेपनी होती नहीं थी। होती तो वह भी पंचर होती। यात्री
किसी आने जाने वाले कि मोटर साइकिल पर बैठकर निकल जाते। जो इंतजार कर सकते वे अगली
किसी खटारा बस का इंतजार करते।
बरसात के दौरान ऐसी ही एक
यात्रा में बरोठा बस फिसलकर सड़क किनारे की काली मिट्टी में धंस गई। यात्रियों ने
खूब जोर लगाया। बात न बनी तो कंडक्टर ने कुछ गामीणों को भी बुला लिया। कुछ सड़क
चलते बंजारे भी धक्का लगाने में शामिल हो गए। बहुत मशक्कत के बाद धुंआ करते हुए बस
कीचड़ से निकल पाई। कंडक्टर की उदारता देखिए कि उसने उन पदयात्री बंजारों को अपनी
बस में जगह दे दी। वे बैठ भी गए। कंडक्टर उदार तो था पर अपनी कम्पनी का वफादार भी।
बंजारों से बोला 'आप
लोग चार जने हो दो के ही पैसे दे दो'।
मगर बंजारे भी कहाँ पीछे
रहने वाले थे। बोले 'उतार
दो हमें बस से, पैसे तो नहीं हैं हमारे पास।'
'क्या धंधा
करते हो तुम लोग?' कंडक्टर ने पूछा।
'भैया सपेरे
हैं हम। बीन बजाकर अपना और अपने सांपों का पेट पालते हैं!'
उनके ऐसा कहते ही सभी
यात्रियों के कान और आंख सक्रिय हो गए। सचमुच उन लोगों के पास पिटारे थे। शायद
सांप भी होंगे। सबको जैसे सांप सूंघ गया।
मगर कंडक्टर को तो शायद रोज
का अनुभव था। मुस्कुराते हुए बोला- 'चलो किराया न सही, बीन ही सुनवा दो साहब लोगों
को।'
और सचमुच उन सपेरों ने
बरोठा आने तक खूब बीन बजाई। हम लोग सहमे सहमे सुनते रहे। मजबूरी थी।
हाँ, अब अवश्य कह सकता हूँ उस दिन का
बीन वादन 'नागिन' फ़िल्म के
प्रसिद्द गीत 'तन डोले..मेरा मन डोले' से कम नहीं था।
००००
सामान्यतः आज भी बस संचालक
कम्पनी अपनी सबसे घटिया बसों को देहाती और ग्रामीण रास्तों पर चलाती हैं। जब अच्छी
सड़कों पर पूरी तरह उनका दोहन हो जाता, ग्रामीण रास्तों पर उन्हें धक्के खाने के लिए उतार दिया जाता रहा है।
इन खटारा बसों के संचालन
में आवश्यक कानूनी खाना पूर्तियों के लिए भी कई रास्ते निकाल लिए जाते रहे हैं। तब
इतनी सख्ती भी नहीं हुआ करती थी। राज्य सरकारें अपनी लोक परिवहन के शहरों के
संचालन में ही कठिनाई महसूस करती थीं तो देहात की बात सोचना तो किसी सपने से कम
नहीं था। अब तो राज्य परिवहन निगम का ही रूपांतरण हो गया है।
बहरहाल, उन दिनों देहात जाने वाली उन
बसों की हालत बहुत खस्ता हुआ करती थीं, धक्के लगाकर
उसकी धड़कन को स्टार्ट करना होता था, टायरों पर सैकड़ों
टांके लगे होते थे, बरसात में छत टपकती और लोग छाते
खोलकर बैठते थे किंतु बस के भीतर मूल्यों और आदर्शों के सितारे कलात्मक अक्षरों
में लिखे हमेशा रोशन रहते थे।
बस के भीतर इन सदवाक्यों और
विचारों के साथ यात्रियों की जान माल की सुरक्षा की आत्मीय भावनाएं भी हिदायतों व
निर्देशों के रूप में जगमगाती रहती थीं।
बसों में लिखे उन औचित्य
हीन संदेशों, हिदायतों
के अटपने पन को लेकर मैने एक पत्र पहले 'नईदुनिया' में और बाद में शरद जोशी जी द्वारा संपादित 'हिंदी
एक्सप्रेस' में भेजा था। मेरे मित्र और शुभचिंतक भाई ओम
वर्मा जी ने उसे पढा तो कहने लगे- 'तुमने इस मुद्दे को
इतने छोटे में निपटा दिया। तुम्हे तो एक लम्बी व्यंग्य रचना लिखनी चाहिए।'
मैंने वह रचना लिखी भी, किन्तु अधिक विस्तार नहीं दे सका।
रचना पहले नईदुनिया में प्रकाशित हुई और बाद में कई अन्य संग्रहों में शामिल हुई।
आकाशवाणी,इंदौर से उस वक्त के श्रेष्ठ उद्घोषक
श्री नरेन्द्र पंडित जी ने इसका बहुत दिलचस्प अंदाज में भावपूर्ण वाचन किया था।
उनके उस पाठ से व्यंग्य वार्ता पढ़ने की मेरी समझ भी बढ़ी।
इसी विनोद वार्ता के शीर्षक
से वर्ष 1995 में मेरा पहला व्यंग्य संग्रह दिशा प्रकाशन,दिल्ली
से आया। मेरी अति प्रिय रचना 'सफर में समाधि' की इस पूरक व्यंग्य रचना 'पुनः पधारें' को यहां दे रहा हूँ...,
पुनः पधारें!
ब्रजेश कानूनगो
शादियों के मौसम में देहात
जाने वाली बस में यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. बस पर लिखा ‘प्रवेश द्वार’ देखकर मैं उसकी ओर बढ़ने और चढ़ने का प्रयास करता, मगर अंदर से उतर रहे यात्रियों द्वारा फिर बाहर धकेल दिया जाता. निगाह पलट
कर देखा तो ‘निर्गम द्वार’ से
यात्री बस में चढ़ रहे थे और ‘प्रवेश द्वार’ से उतर रहे थे. अब बताइए दरवाजे पर प्रवेश या निर्गम लिखने का क्या औचित्य
रहा.
जैसे तैसे अपने हाथ में
अटैची थामें प्रवेश के लिए प्रयत्न करने लगा तो क्लीनर बोला- ‘बाबूजी बैठने की जगह तो है नहीं
ये सामान आप किधर ले जा रहे हो.’ और उसने अटैची को एक
झटका दिया और बस की छत पर पहुंचा दिया. वहां शायद दूसरे किसी व्यक्ति ने किसी
प्रतिभावान विकेट कीपर की तरह उसे लपक लिया था.
इस बीच मैं बस के अंदर
पहुंचा दिया जा चुका था. अंदर पहुंच कर सामने खिड़की पर लिखा देखा ‘फलाना बस सर्विस आपका हार्दिक
स्वागत करती है’. मगर मेरा ‘धन्यवाद’ सुनने के लिए वहां कोई नहीं था, बल्कि स्वयं बस
वालों की तरफ से एक स्थान पर ‘धन्यवाद’ लिखा हुआ था.
बस में ‘अपने सामान की जिम्मेदारी स्वयं
रखें’ लिखा देख मैं ऊपर से नीचे तक कांप गया. मेरी अटैची
जिस अधिकार से क्लीनर ने छत पर पहुंचा दी थी, उसे पुनः
लौटाने की उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, उसमें रखा
कीमती सामान खो जाता है तो यह सब मेरे अपनी गैर जिम्मेदारी से हुआ होता.
थोड़ी देर बाद वही क्लीनर
यात्रियों को आगे धकेलता उन्हें तरतीब से सेट करता जा रहा था. देखते ही देखते मैं
खिसकता हुआ बोनट तक पहुंच गया. वहां स्थान इतना कम था कि मैं न तो ठीक से खड़ा हो
सकता था, नहीं
बैठ सकता था. ऊपर से पकड़ने का पाइप वहां आते-आते समाप्त हो चुका था. क्लीनर ने
हल्का सा झटका दिया तो मैं बोनट पर जा टिका. जहां पहले ही तीन यात्री टिके हुए थे.
मोटे अक्षरों में वहां स्पष्ट लिखा था ‘बोनट पर बैठना
सख्त मना है.’
बस पूरी रफ़्तार से दौड़ने
लगी थी. मौसम ठंडा होने लगा तो ड्राइवर ने अपने कान में खुसी बीडी जलाकर अपने मुंह
से लगा ली. ड्राइवर की सीट के ऊपर लाल अक्षरों में लिखा था ‘धूम्रपान वर्जित है’.
माचिस प्रदाता और ड्राइवर
के बीच देश की राजनीतिक, आर्थिक
एवं सामाजिक समस्याओं पर चर्चाएं होने लगी. इस चर्चा ने ड्राइवर को गरमा दिया और
अब वह दोनों हाथ हिला हिला कर, स्टेयरिंग ठोक ठोक कर
वार्तालाप करने लगा. तभी मेरी दृष्टि सामने वाले कांच पर लिखे शुभ वाक्य पर पड़ी- ‘ईश्वर आपकी यात्रा सफल करें’.
इस बीच बस की छत मामूली
बरसात के कारण ही टपकने लगी थी. मुझे बस वालों पर क्षोभ होने लगा कि उन्होंने ‘बस में भरी बंदूक लेकर न बैठने’ की बजाय ‘बस में छाता लेकर ही बैठें ’ जैसी हिदायत क्यों नहीं लिखवाई.
अचानक बस रुक रुक गई. बस के
सामने एक भैंस आ गई थी. जिस तरह प्रतिपक्ष सदन से बहिष्कार किया करता है, उसी तरह से भैसें अक्सर चलती बस
के सामने आ जाया करती हैं. सदन से वाक आउट करना प्रतिपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार
है, सड़क पर धरना देना भैसों का प्राकृतिक हक है।
बहरहाल अचानक लगाए गए ब्रेक
के कारण तीसरे नंबर की सीट पर ऊंघती महिला का सिर आगे वाली सीट से जा टकराया और
माथे से खून बहने लगा. तभी मेरी निगाह कंडक्टर सीट के ऊपर ‘फर्स्ट एड बॉक्स’ पर पड़ी और मैं दवाइयां निकालने के लिए उठा भी मगर उसमें से दवाई की खाली
शीशियां तथा ग्रिस में डूबा कॉटन निकला.
तीन घंटे की यात्रा के बाद
मेरा गंतव्य आ गया था. मैं उतरने के लिए जैसे उद्यत हुआ 'निर्गम द्वार' के ठीक ऊपर लिखा देखा- ‘पुनः पधारें!’...
०००००
गाँव में नौकरी
कभी कभी ऐसे दिलचस्प प्रसंग उपस्थित हो
जाते हैं कि हम आश्चर्य और खुशी से भर उठते हैं। ऐसा ही कुछ उस वक्त घटा था जब
मैंने पहली बार अपने ग्रामीण दफ्तर का कार्यभार संभाला।
बैंक की बरोठा ग्रामीण शाखा में जिस दिन
मैंने अपने पूर्ववर्ती प्रबन्धक को कार्यमुक्त करके अपना पदभार ग्रहण किया था, स्टाफ सदस्यों ने स्वागत और विदाई में
एक छोटा सा आत्मीय कार्यक्रम रख लिया। इस बैठक में सरपंच, व्यवसायियों, सरकारी विभागों के कुछ सम्मानित ग्राहकों को भी आमंत्रित कर लिया गया।
शाखा के एक प्रतिष्ठित व्यापारी भी
आमंत्रित किये गए थे। जैसे ही उन्होंने शाखा में प्रवेश किया पुराने प्रबन्धक और
कुछ स्टाफ सदस्य उठकर द्वार तक उन्हें लिवाने चले गए।
बैठक में मैने गौर किया कि वे सम्मानित
ग्राहक जिन्हें 'सेठजी'
कहा जा रहा था मेरी ओर अपलक देखते रहे। बिदाई और स्वागत की
औपचारिकताओं के बाद जब चाय पान के बाद बातचीत शुरू हुई तो 'सेठजी'
थोड़ा मेरे और करीब आ गए। मुझे भी अब ऐसा अवश्य लगने लगा था कि वे
मुझमे कुछ ज्यादा ही रुचि ले रहे थे। आखिर उनसे रहा
नहीं गया। थोड़ा संकोच से बोले-' आप देवास में कहाँ रहते थे?'
मैने जब बताया कि मैं देवास विकास
प्राधिकरण की बनाई नई कॉलोनी विजय नगर में रहता हूँ। अपना घर वहीं खरीद लिया है।
किन्तु वे इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए।
कहने लगे-'देवास के नाना
बाजार से आपका कुछ सम्बन्ध रहा है कभी?'
'हाँ, सेठजी
वह तो मेरा बचपन का पुश्तैनी मोहल्ला है।' मेरा इतना कहते ही
वे उठ खड़े हुए और खुशी से बोल उठे- 'तुम ब्रजेश ही हो न?'
'जी, बिल्कुल!
मगर आप?...
'अरे मैं 'गोपाल'(परिवर्तित) हूँ। हम दोनों अत्रे भवन स्कूल में एक साथ टाटपट्टी पर बैठकर
पढ़े हैं। रामदुलारे माटसाब हमारे हेडमास्टर साहब थे।'
अब क्या था। सेठजी ने उठकर मुझे गले लगा
लिया।
अपने बचपन के दोस्त का इस तरह मिलने की जो
अनुभूति हुई थी वह मैं और गोपाल सेठ ही शायद समझ सकते हैं।
बाद में गोपाल सेठ ने बचपन की उस मित्रता
को खूब यहां भी निभाया। शाखा में जब कभी अकस्मात नकदी की कमी पड़ जाती, देवास से रोकड़ आने तक सेठजी धन भिजवा
दिया करते उनके खाते में जमा करवाने के लिए। हमारा काम चल जाता। गांव के अधिकाँश
ग्राहकों का बहुत स्नेह सहयोग मिलता रहा। गोपाल सेठ का प्रेम तो सचमुच हमारे लिए
द्वारकाधीश की तरह उदात्त था। बालसखा जो थे हम दोनों।
गोपाल सेठ भी हमारे स्कूल में ही पढ़े थे।
दरअसल,देवास के आसपास के
गांवों के बहुत से बच्चे हमारे मोहल्ले में ही किराए का कमरा लेकर पढ़ाई किया करते
थे। अत्रे भवन प्राथमिक शाला में पांचवीं तक की शिक्षा मोहल्ले में ही मिल जाती
थी। नाना बाजार (अब रज्जब अली खां मार्ग) हमारा मुहल्ला था। अत्रे भवन स्कूल भी
उसी गली में स्थित था।
०००००
यह मेरा सौभाग्य ही था कि अनिवार्य
ग्रामीण पोस्टिंग के लिए बैंक ने मुझे बरोठा जैसी ग्रामीण शाखा का शाखा प्रबंधक
बनाया था।
एक रचनाकार के नाते भी बैंक प्रबंधन का सदैव कृतज्ञ रहूंगा जिसके
कारण किसानों और ग्रामीण समाज के जीवन को निकट से अनुभव करने का थोड़ा सा अनुभव मिल
सका।
छोटे से गांव में स्थित बैंक शाखा के प्रबंधक
को उस वक्त तक तो बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उन दिनों जिन अनुभूतियों
से मैं गुजरा वे मेरे लिए हमेशा के लिए मन में बस गईं हैं।
मैंने महसूस किया कि जो परिवार खेती के
साथ साथ अन्य हुनर भी जानते हैं उन परिवारों की युवा पीढी कामकाज की तलाश में शहरों,महानगरों की ओर पलायन कर जाते हैं। जहां
कारपेंटरी, इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर आदि
के अलावा कारखानों में उन्हें रोजगार मिल जाता है।
इसके उलट बहुत से किसान युवक पुश्तैनी
खेती में ही पूरी तरह खप जाते हैं। इन्ही परिवारों के बहुत से किसान पुत्रों में
सेना में भर्ती होकर देश सेवा करने की राष्ट्रीय भावना कूट कूट कर भरी होती है। जय
जवान जय किसान का नारा बहुत से ग्रामीण परिवारों में चरितार्थ होता दिखाई दिया
मुझे।
कारगिल युद्ध (1999-2000) में विजय के बाद गाँव के कुछ
सैनिक बेटे घर आए तो उनका जोरदार स्वागत किया गया। गांव भर में ढोल बाजों के साथ
उनका जुलूस निकाला गया। युवक पूरे समय सैनिक गणवेश में अभिवादन स्वीकार करते रहे।
चौराहों पर पुष्पमालाओं से उनका अभिनन्दन किया गया।
हमारे बैंक कार्यालय में भी उनके सम्मान
का एक कार्यक्रम रखा गया। अंततः हम लोग भी उसी गाँव के परिवार का हिस्सा हो गए थे।
कोतवाली के अलावा बैंक शाखा ही एक ऐसी
संस्था थी जिसकी भागीदारी की गांव वालों में काफी आकांक्षा व प्रतिष्ठा होती थी।
बैंक के उस दिन के उस संक्षिप्त सैनिक
सम्मान समारोह में बरोठा नगर के बड़े छोटे व्यापारी, शासकीय कर्मचारी, ग्राहक, किसान, पंच सरपंच सभी शामिल हुए थे।
निसंदेह उस दिन शाखा परिसर में देशप्रेम
की जो हवा बहने लगी थी और भारतीयता की गौरव लहरें मन के सागर में बहुत दिनों तक
उमड़ती रहीं , वह अविस्मरणीय
ही हैं....
किसान का दुख
'स्त्री' जाति
को जिस तरह हमने जगत जननी, देवी, त्याग
और समर्पण की प्रतिमूर्ति आदि कहकर उसकी वास्तविक चिंताओं,परेशानियों
पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया, ठीक उसी तरह 'अन्नदाता' आदि जैसे सम्मानजनक संबोधनों की आड़ में
किसानों के वास्तविक दुख दर्द को समझने में भी हमारा समाज मुंह चुराता रहा है।
'अन्नदाता' के
कल्याण के लिए आजादी के बाद से ही कई योजनाएं रूप बदल बदलकर आती रहीं हैं। किसी भी
सरकार की नीतियों में 'कृषक कल्याण' की
योजनाएं यद्यपि प्राथमिकता में रहती हैं किंतु यह बड़ी विडंबना है कि उनकी दशा
ज्यों की त्यों दिखाई देती हैं। किसान के जीवन पर छद्म आधुनिकता का झीना पर्दा अब
अवश्य दिखाई देता है किंतु उनके आंसुओं के खार से बदबदाती खेत,खलिहान और हृदय की
मिट्टी को देख पाना किसी संवेदनशील व्यक्ति के लिए अधिक मुश्किल भी नहीं होगा।
बैंकों के राष्ट्रीकरण के पीछे सबसे बड़ी
वजहों में किसान की दशा सुधारना और कृषि में आधुनिक साधनों के माध्यम से उन्नत
कृषि को प्रोत्साहन देना भी रहा है। इसके बहुत सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले।
भारत खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर भी हुआ। कृषि कार्य में ट्रैक्टरों सहित
अन्य उन्नत और आधुनिक साधनों का प्रयोग होने लगा। लेकिन कई बार इन कल्याणकारी प्रयासों
के कुछ 'साइड इफेक्ट'
भी दिखाई देने लग जाते हैं। ऋणों का
दुरुपयोग होने के अलावा अनचाहे या अनावश्यक और पुनर्भुगतान सामर्थ्य की कमी से
किसानों की दशा सुधरने की बजाए बिगड़ती भी गई है।
उदाहरण के तौर पर जिस किसान के पास
पर्याप्त जमीन नहीं होती है कि उसका ट्रेक्टर पर्याप्त रूप से लाभ अर्जित करवा सके। उसने भी ट्रैक्टर के
रूप में घर एक हाथी बांध लिया। या कहें कि उसे अनावश्यक रूप से गैर जरूरी ऋण दे
दिया गया। यह ऋण अंततः उसके ऊपर बोझ बन जाता है। ऋण
चुकाना लगभग असंभव हो जाता है।
इसतरह की विसंगतियों में बैंकों,सरकारी विभागों द्वारा लक्ष्य आबंटन और
वास्तविक जरूरतों में तालमेल के अभाव और भ्रष्टाचार की भूमिका से पूरी तरह इनकार
भी नहीं किया जा सकता। यह एक अलग विषय है जिस पर कई बार आर्थिक,सामाजिक विचारक गंभीरता से सचेत करते रहे हैं।
किसान की पारिवारिक कठिनाइयों या मौसम की
विकटता के चलते बाद में
जब ऋण डूबन्त या आम समझ में 'एनपीए' की
श्रेणी में आ जाते हैं तब 'ऋण माफी', 'समझौता
योजनाएं', 'पुनर्भुगतान हेतु नई सूची' आदि
जैसी प्रक्रियाएं जोश खरोश के साथ शुरू कर दी जाती हैं। एक तरह से ये भी 'साइड इफेक्ट' ही होता है जिसमें बैंकिंग प्रणाली
अपने मूल कामकाज से अलग कामों में व्यस्त हो जाती है। किसान भी अपनी एक समस्या को
खत्म करने की कोशिश में नई कठिनाइयों में फंसता जाता है। उसके आँसू कभी कम नहीं हो
पाते।
ऊपर से उसकी अपनी जीवन शैली में रूढ़
परम्पराओं का निर्वहन,शादी
ब्याह आदि में हैसियत से अधिक का खर्च और दिखावा जैसी बातें भी उसके तात्कालिक सुख
को लंबी अवधि के दुख में बदल देता है।
अपनी ग्रामीण पोस्टिंग के दौरान मुझे भी
हमारे क्षेत्र के कृषक ग्राहकों के सुख दुख को देखकर बहुत सी अनुभूतियाँ हुईं।
बादलों के घिरने की खुशी और बिन बरसे गुजर
जाने का दुख किसानों की आंखों में तैरते देखा। वह समय भी देखा उन दिनों जब क्षेत्र
की 'केश क्रॉप' याने सोयाबीन की फसल असमय की खण्ड वर्षा से बर्बाद हो गई थी। कटी फसल
खलिहानों में सड़ गई।
इन्हीं संवेदनाओं को मैं किसी कविता में
व्यक्त करना चाहता था। उस वक्त कोशिश की भी,
किन्तु बात बनी नहीं। ठीक कविता का आना कभी तय नहीं होता। वह जब
भीतर से पक कर निकलती है तो हम खुद चकित हो जाते हैं।
उस वक्त की संवेदनाएं आखिर दो ढाई वर्ष
बाद कविता में तब व्यक्त हो पाईं, जब मैं बैंक के आंचलिक कार्यालय में 2001 में पदस्थ
हुआ।
जब यह कविता बैंक की गृह पत्रिका 'इंदौर बैंक परिवार' में छपी तो उसका उल्लेख प्रधान कार्यालय में 'मासिक
निष्पादन बैठक' में हुआ। महाप्रबंधक ने कहा-'ब्रजेश की यह कविता 'पी बैठक' (परफॉर्मन्स मीटिंग) में विचार करने के सूत्र देती है...
अपनी कविता के संदर्भ में यह टिप्पणी
बैंककर्मी रचनाकार के तौर पर मेरे लिए किसी सम्मान से कम नहीं थी।
बाद में इस कविता को बड़ी फ्रेम में मढ़वाकर
इंदौर के 'सोयाबीन अनुसंधान
केंद्र' को एक समारोह में आंचलिक प्रमुख ने भेंट भी किया।
उम्मीद करें वह पोस्टर अब भी वहां लगा होगा...
साहित्य की गंभीर पत्रिकाओं में प्रकाशित
होने के बाद अब यह कविता मेरे संग्रह 'इस गणराज्य में' (2014) का हिस्सा है। आज आप भी
पढ़ें....
कविता
सोयाबीन की फसल
एक
धरती के आँचल में
उम्मीद के कण बिखेरने के बाद
बादलों की तरह आती जाती है चिन्ताएँ
बंगाल की खाडी से उठा चक्रवात
छत्तीसगढ को ही भिगोकर लौट न जाए कहीं
उडीसा में बना कम दबाव
हवा न हो जाये मालवा तक आते आते
अरब सागर की मेहरबानी से
फट पडे आसमान
बरस जाए प्रलय का पानी
सपनो की नई बस्ती पर
तो क्या होगा सोयाबीन की फसल का
नष्ट न करदे आतंकी इल्लियाँ सोयाबीन के
परिवार को
सूरज की चमक और आकाश के अंधेरो के साथ
बदलते है हरिया किसान के चेहरे के रंग
बडा ही जीवट वाला है
मौसम के हर मिजाज मे
पिता की तरह पालता है अपनी फसल को
सोयाबीन नही
खुशियों की फसल उगाता है
धरती का बेटा ।
दो
बडी जोरदार हुई थी बारिश
और सोयाबीन की फसल उस साल
पिताजी गए थे चारों धाम
मुन्ना की आई थी नई मोटरसाइकिल
दौडने लगा था नया ट्रेक्टर
सोयाबीन की फसल के बाद
गाँव-गाँव से आए थे
हजारों पाहुने बेटी के ब्याह में
दिखाई देता था उनके चेहरों पर
सोयाबीन की फसल का उत्साह
गूंज उठा था सोयाबीन का संगीत
गाँव की हवाओं में
ईद की मिठास,दिवाली का उजास
और होली की उमंग है
सोयाबीन की फसल
फसल से जुडे हैं किसान के उत्सव
धडकन की तरह बजता है सोयाबीन
किसान के जीवन में।
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