यादों के वे मेले
मानसून जल्दी
आए या देर से मगर इतना तय रहता था कि गुरु पूर्णिमा याने 'आषाडी पूनम' पर देवास में झमाझम बारिश होती ही थी। किसी वर्ष अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह
मान लिया जाता था कि इलाके के लिए यह साल सुखद नहीं रहने वाला है।
इस पूनम का
बच्चों के लिए बड़ा खास महत्व होता था और बहुत इंतजार भी किया करते थे। चामुंडा
पहाड़ी की तलहटी में तीन दिवसीय एक 'जत्रा' भरती थी। आप कुछ यूं समझे की एक बड़ा हाट बाजार या ग्रामीण मेला सा लगता
था। आज के बच्चों ने कुछ पुरानी फिल्मों में इसकी झलक अवश्य देखी होगी। जिसमें कभी
कभी भगदड़ मच जाती है और माँ या पिता का हाथ थामे दो बच्चे अचानक बिछड़ जाते हैं और
फिर बड़े होने पर क्लाइमेक्स में पता चलता है कि वे तो वही भाई हैं जो बचपन में
गांव के मेले में गुम हो गए थे। जी हाँ, वही मेला। उसी
को 'जत्रा' कहा जाता था।
यह 'जत्रा' दिन में सुबह से लेकर शाम तक आगरा मुम्बई राजमार्ग के दोनों ओर तथा पहाड़ी
के ढलान पर लगती थी। इसे बहुत व्यवस्थित नहीं कहा जा सकता था। बस लोग जुटते तो
बाजार के साथ आमोद प्रमोद का इंतजाम हो जाया करता। आसपास के ग्रामीणों की तादाद
अधिक होती थी। अपने गांवों से आकर ग्रामीण जन दिन भर देवास में रंगीनियाँ बिखरते
रहते थे। पहाड़ी पर माँ चामुंडा और तुलजा भवानी के दर्शन करते और फिर दिन भर जत्रा
का मजा लेते।
मिष्ठानों से
लेकर भोजन आदि वाजिब दाम पर सब कुछ यहां उपलब्ध रहता था। वैसे हर तरह की नमकीन और
मिठाई की दुकान यहाँ सजती थीं लेकिन खास तौर से गुड़ के बने गुलगुले और जलेबियाँ, भूरे कोले का पेठा खूब बिका
करता था।
शहर के बच्चों
को भी 'जत्रा' में बहुत मजा आता था। खासकर मिट्टी के
खिलौने, बांस के बने तीर कमान, बांसुरियां और तलवारों की खूब बिक्री होती । लड़कियों को रसोईघर के सारे
साधन मिट्टी के छोटे छोटे खिलौनों के रूप में मिल जाते थे।
बहुत से और भी नए खिलौने होते थे किन्तु
मिट्टी के बने मारवाड़ी सेठ, सेठानी, सुंदर मर्फी बॉय, तीन हिस्सों में बनी कमर और
चेहरा मटकाती नर्तकी अब भी स्मृतियों में बसी हुई है।
लकड़ी के
फट्टों से बनी रेहट (झूले) की कुर्सियों पर बैठकर बच्चे, बूढ़े सब आकाश में
ऊपर उठने और फिर धरती पर आ जाने का मजा लेते। एक बार मैं भी रेहट में बैठा था
लेकिन मजा आने की जगह मेरा दिल ही हलक में जा अटका। बीच में ही रहट रुकवाकर उतरना
पड़ा। उसके बाद फिर कभी किसी ऐसे झूलों की ओर नहीं फटका।
जैसा कि मैंने पूर्व में कहा
है 'आषाडी पूनम' को बरसात तो होनी
ही होती थी। झमाझम हो जाती तो सब कुछ उलट पलट जाता। खिलौनों के साथ साथ ढलान पर
दुकान लगाए किसानों के भुट्टे और ककड़ियाँ भी पानी के बहाव के साथ हमारे मोहल्ले की
गली तक आने लगती थीं।
'जत्रा' दिन में लगने वाला ग्रामीण प्रकृति और
रुचि का मेला था तो दशहरे के आसपास एक पक्ष तक चलने वाला 'मीना बाजार' रात में रोशन होने वाला थोड़ा
आधुनिक और शहरी लोगों को अधिक सुविधाजनक लगता था।
सुव्यस्थित 'मीना बाजार' नगर पालिका लगवाती थी। इसमें बहुत से सरकारी विभागों के स्टाल आदि भी सजते
थे। इस मीना बाजार का सरकारी नाम 'कृषि कला एवं
औद्योगिक प्रदर्शनी' होता था।
मीना बाजार
जिस शिवाजी उद्यान के आसपास लगता था वहां इंदौर, उज्जैन से आकर एक तरफ भोपाल तथा
दूसरी तरफ आगरा की तरफ जाने वाले रास्तों के बीच एक त्रिभुजाकर जगह बनती है, जिसके मध्य घोड़े पर तलवार लिए शिवाजी महाराज की धातु की विशाल प्रतिमा
स्थापित है। आसपास उद्यान था। उद्यान की हरी घास के आसपास कृषि, कला व उद्योगों से सम्बंधित स्टाल्स में प्रदर्शनी लगी होती थी।
त्रिभुजाकार खण्ड की बॉर्डर पर देशभर से आए व्यापारी अपनी दुकान सजाए सबको आकर्षित
करते थे। शिवाजी पार्क के गेट को बहुत आकर्षक रूप से सजाया जाता था। पूरा मीना बाजार शाम छह बजे से देर रात तक रंगीन
रोशनियों से झिलमिलाता रहता था।
मीनाबाजार
पार्क के बीच कांक्रीट का विशाल मंच स्थायी रूप से निर्मित किया गया था। जहां
प्रतिदिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। राष्ट्रीय कवि सम्मेलन और मुशायरे के
अलावा संस्कृति विभाग के कलाकारों की नाट्य प्रस्तितियाँ और लोक संगीत और लोक
नृत्य बहुत लुभाते थे। प्रतिदिन सायंकाल पंचायत विभाग फ़िल्म प्रदर्शन करता तो
बच्चों की भीड़ उमड़ पड़ती। वी शांताराम जी की यादगार फ़िल्म 'दो आंखें बारह हाथ' सबसे पहले मीना बाजार में ही देखी थी। बाद में हर वर्ष यह तो दिखाई ही
जाती साथ में 'परिवार' और
मनोज कुमार की 'उपकार' भी
दिखाई जाने लगी थी।
उदयपुर
(राजस्थान) से प्रति वर्ष 'लोक कला मंडल' की टीम भी आकर अपना रंगारंग
कार्यक्रम करती। खासकर 'कालबेलिया नृत्य' और सिर पर मटकी पर मटकी रख पीतल की थाली की तीखी किनार पर 'भवाई नृत्य' करती नर्तकी को देखकर हम भौचक्क रह
जाते थे। राजस्थानी कठपुतलियों का प्रदर्शन भी बहुत मजेदार होता था। एक बार तो लोक
कला मंडल ने कठपुतलियों से दो घण्टे में 'सर्कस' का सम्पूर्ण खेल ही दिखा दिया था।
मीनाबाजार के
समय मौसम में ठंडक घुलने लगती थी। शाम होते ठंडी हवाएं भी बहने लगती थीं जो रात को
ठिठुरन पैदा करती। इस मौसम में सिकी हुई गर्म मूंगफलियां और सिंघाड़ों का लुत्फ
लेते हुए हरी दूब पर बैठकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों को देखने का अद्भुत मजा होता
था। पूरे क्षेत्र में सिंघाड़े और मूंगफलियां बेचने वाले बच्चे हांक लगाते रहते थे।
कुछ परिवार घर से भी मूंगफलियां सेक कर ले जाते।
कुछ शोहदे
किस्म के युवक एकांगी मेला मार्ग पर उल्टी दिशा में चक्कर काटते। कारण साफ हुआ
करता था। उन्हें दुकानों, प्रदर्शनी या कार्यक्रम से अधिक सुंदर मुखड़ों को निहारने में अधिक आनन्द आता
था। ईमानदारी से कहूँ तो एकाध बार यह हरकत अपने मित्रों के साथ हमने भी की थी।
बहरहाल, मेरी यादों के ये
मेले उस वक्त के हैं जब देवास कस्बे से शहर में बदलने के दौर में था। स्मृतियाँ भी
रेहट की सवारी करते हुए अब महानगरीय चकाचौंध के बीच धुंधलाने लगीं हैं।
जितना भी याद
कर पा रहा...वह भी कुछ कम नहीं है...तन मन को खुशियों से भर रहा है...!
स्मृति के सितार पर बूंदों का संगीत
आगे मैंने
आषाडी पूर्णिमा पर लगने वाली 'जत्रा' को याद करते हुए उस दिन तेज
बारिश होने का जिक्र किया है। उस दिन तो बारिश का होना तय होता ही था। तब आई बारिश
भी लगातार सप्ताह-पखवाडे तक चलती रहती थी।
कई-कई दिनों
तक सूरज के दीदार नही हो पाते थे। लम्बे इंतजार के बाद धूप छिटकने के बाद क्षेत्र
के अखबारों का पहले पृष्ठ पर शीर्षक बन जाता था कि ‘एक पखवाडे बाद हुए सूर्य देवता के
दर्शन!’ पुरानी पीढ़ी के पाठक जानते होंगे कि कोई पैंतीस
चालीस बरस पहले ऐसी हेड लाइन अखबारों में आम हुआ करती थीं।
पर्यावरण का
संतुलन अब इस तरह गडबडा गया है कि नए बच्चों को तो शायद याद ही नही रहेगा कि कभी
लम्बे समय तक बादल छाए रहते थे और बूंदों का सितार मन को कई दिनों तक झंकृत करता
रहता था। अब तो खंड वर्षा है या फिर अचानक बादल फाड़कर बरसे कहर से तबाही का मंजर।
बहरहाल आज भी
बरसात का मौसम आते ही हमारा मन जैसे भीगा-भीगा सा हो जाता है। ऐसे में मुझे अपने
कच्चे-पक्के बचपन के दिन बहुत तीव्रता से याद आने लगते हैं।
बिल्कुल अभी
अभी की बात लगती है जब तेज बरसात के बाद हमारे मुहल्ले की गली से पानी ऐसे बहता था
जैसे कोई छोटी-मोटी नदी बह रही हो। उस नदी के बहने का हम बहुत बेसब्री इंतजार किया
करते थे। उसका बडा दिलचस्प कारण भी हुआ करता था। हमारी गली के ठीक आगे चौराहा था
और उसके आगे पहाडी का ढलान। चौराहे पर अपनी बैलगाडिय़ों से गाँव से आकर किसान
ककडियों और भुट्टों की दुकान लगाते थे। अचानक जब तेज बरसात होती और पहाडी का पानी
बाजार में उतरता, किसानों के ककडी-भुट्टे गली में बहने लगते। कोशिश के बाद भी कई
भुट्टों-ककडियों को बचाने में किसान नाकाम ही होते थे।
मुहल्ले के
बच्चों के लिए नदी बन गई गली जैसे भुट्टों और ककडियों की सौगात लेकर आती। हम सब
अपने जोश और आनन्द की बंसी बजाते भुट्टों-ककडियों के शिकार में जुट जाते थे।
गली के एक ओर
हमारे ही परिवारों के घर थे और सामनेवाली पट्टी में ज्यादातर मुस्लिम परिवार रहते थे।
दोनो पट्टियों के बच्चे बहती गली का भरपूर मजा लिया करते थे। सामनेवाले इस्माइल
भाई की अम्मा जिन्हे हम आपा कहा कहते थे, ऐसी ही बहती नदी से गुजर कर पतंग
बनाना छोडकर उस रात हमारे घर आईं थीं। मेरी चाची को तेज दर्द हो रहा था, पूरे नौ माह चल रहे थे। जैसे तैसे मेरी माँ और आपा उन्हे जच्चाखाने ले गए
थे।
जब तक चाची
अस्पताल रहीं, आपा भरी बरसात में चाची और नवजात की खिदमत में जुटीं रहीं। हम बच्चे उनकी
बकरियों और पतंगों को बरसात की बौछारों से बचाते रहे। जब वे नन्हे चचेरे भाई को
गोद में उठाए तांगे से घर लौटीं तब बरसात तो थम चुकी थी लेकिन खुशी में पानी की
कुछ बूँदों और नमी ने जैसे आपा और हम सब की आँखों में डेरा ही डाल लिया था।
बरसात के
दिनों में हमारे यहां कथा, सत्संग, प्रवचन, कीर्तन की बड़ी
पुरानी परंपरा रही है। हमारे मोहल्ले से जुड़े बड़ा बाजार में लम्बी लम्बी चलनेवाली बारिश
की तरह लम्बी ही चलती थी कानडकर बुआ की कथा।पन्द्रह दिन तक कानडकर बुआ रोज सबेरे
कथा सुनाते थे। संगीत मय कथा-कथन और प्रवचन के बाद अंत में देश प्रेम के गीत और
कीर्तन का सामूहिक गान भी हुआ करता था।
स्कूल की
छुट्टी होते ही बारिश में भीगते-भागते हम भी दत्त मन्दिर में पहुँच जाया करते थे।
कीर्तन और देश-प्रेम गान में हमे बहुत मजा आता था। कभी-कभी जल्दी पहुँच जाते तो
बुआ को कथा सुनाते हुए भी देख लेते। वे इतने भावुक होकर अभिनय के साथ प्रवचन करते
थे कि न सिर्फ उनकी बल्कि श्रोताओं, श्रद्धालुओं की आँखों से भी आँसुओं
की झड़ी लग जाती थी। प्रंगानुसार उनकी भावपूर्ण प्रस्तुति होती थी। बाहर बारिश होती
थी और भीतर बुआ संवेदनाओं की बारिश करवा दिया करते थे। सब कुछ भीग भीग जाता था।
हमारा लालच तो
वस्तुत: आखिर में वितरित किया जानेवाला प्रसाद होता था। अद्भुत स्वादवाले उस विशेष
प्रसाद को ‘गोपाल काला’ कहते थे। जुवार की धानी को दही में मथ
कर वह बनाया जाता था,जिसमें नमक,हरी
मिर्च,अदरख व हरे धनिए का स्वाद समाहित होता था। दोना भर कर
मिलने वाले इस प्रसाद का स्वाद आज भी जबान पर कायम है।
आज जब इसकी
रेसिपी इंटरनेट पर यहां आप सबसे साझा करने के लिए ढूंढना चाही तो वहाँ 'दही पोहा गोपाल काला '
तो मिला लेकिन अफसोस है, जुवार की धानी से बना
दत्त मंदिर वाला वह अद्वितीय प्रसाद मिल नही सका।
बरसात होते ही
अलग-अलग तरह की पकौडियाँ घर में बनती हैं लेकिन मेरा मन उस दौरान स्मृतियों की झडी
के बीच बचपन के उस 'गोपाल काला' की ख्वाहिश लिए लगातार अन्दर से भीगता
रहता है।
अंटियों
की सतरंगी खिलखिलाहट
बचपन में जो खास 'गेम्स' खेलते थे
उनमें से कुछ अब भी बहुत याद आते हैं। क्रिकेट तो कुछ बड़े होने पर ही खेलने लगे किन्तु उस वक्त
के कुछ 'स्ट्रीट
गेम्स' बहुत लुभाते थे।
किताबी भाषा में जिस खेल को 'गोटी खेलना' या 'कंचे खेलना' कहते हैं उसे हम 'अंटी
खेलना' कहा करते थे। अंटी कांच की बनी गोली होती है। इन
पारदर्शी रंगबिरंगी अंटियों के भीतर रंगों के इंद्रधनुषी डोरे से पड़े होते थे जो
इनके भीतर बहुत खूबसूरत कृतियां सी बनाते थे। कांच की बनी ये गोटियां कई आकारों
में मिला करती थीं। छोटी, मध्यम और कुछ थोड़ी बड़ी। सबसे बड़ी
को 'रब्बू' कहते थे। यह 'रब्बू' कैरम के स्ट्राइकर की तरह मुख्य भूमिका में
प्रहारक होता था। कुछ बड़े रब्बू जो स्टील के बने होते थे उन्हें 'छर्रा' कहा जाता था। ये 'छर्रे'
तो बेचारी शिकार अंटियों का कचूमर ही बना देते थे। इन 'रब्बुओं' और 'छर्रों' से खेल में छोटी 'अंटियों' का
सीधे शिकार किया जाता था या खास एंगल से इन्हें लुढ़काकर शिकार अंटी को 'गल' में भेजना
होता था। 'गल' याने जमीन पर बनाया
गोल्फ की तरह एक छोटा सा गड्ढा जिसमें गोटियों को पहुंचाकर उसे जीत लिया जाता है।
कुछ बच्चे इसे 'गच्च' भी कहते थे।
सीधी चोट वाले खेल को 'खड़ी चोट' और
अंटी को रब्बू की मदद से गल में पहुंचाने वाले खेल का नाम अभी याद नहीं आ रहा...
शायद 'इक्कल' कहते थे। कोई मित्र
पुष्टि करेगा ही...। '
अब जरा इस खेल को खेलने के तरीकों का
स्मरण करते हैं।
अंटियों के इस खेल में अनेक बच्चे या पूरी
मित्र मंडली हिस्सा ले सकती थी। पहले बराबर बराबर संख्या में अंटियों का सहयोग सभी
को करना होता।
आम तौर पर 'खड़ी चोट' खेल में 'गल' किसी दीवार से एक फुट दूर बनाया जाता और उससे
कुछ दूरी पर अधिक से अधिक पांच फुट पर एक रेखा खींच दी जाती। इस रेखा पर खड़े होकर
खिलाड़ी बच्चा एकत्र की गईं अंटियों को फेंकता है, जिसकी
जितनी अंटियाँ गड्ढे में जातीं वे उसकी हो जातीं। जो गड्ढे से बाहर रह जातीं उनमें
से अन्य खिलाड़ी द्वारा बताए गए किसी अंटी पर वहीं खड़े रहकर निशाना लगाना होता।
अगर निशाना लग जाता है, तो निशाना लगा रहा खिलाड़ी वह बाज़ी
जीत जाता , अन्यथा दूसरे खिलाड़ी को ढैय्या (अंटियाँ) फेकने
का मौका मिल जाता।
दूसरी तरह के खेल में 'गच्च' या 'गल' मैदान के बीच में रहता है। दूर खींची गई रेखा के
पार से उसी तरह जमीन पर अंटियों को लुढ़काकर कुछ इस तरह फैंकना होता था कि गोटी गल
में जाए। बाद में वहीं से रब्बू को कैरम के स्ट्राइकर की तरह लुढ़काकर गोटियों को
गल में पहुंचाने के प्रयास होते। कई बार अपनी उंगलियों में 'रब्बू'
को फंसाकर भी अन्य अंटियों पर प्रहार किया जाता था।
बारिश में भीग गई मोहल्ले की मुलायम
मिट्टी के कुछ हिस्सों में घंटों तक हमारा यह खेल तब तक चला करता जब तक कि किसी
दोस्त के घर से पिता या कोई बड़ा व्यक्ति गालियां सुनाता डंडा लेकर नहीं आ धमकता।
आज घर की सफाई करते हुए एक पुरानी जुराब
में संग्रहित रंगबिरंगी अंटियाँ क्या निकलकर बिखर गईं... लगा जैसे बचपन के सारे दोस्त
एक साथ खिलखिला पड़े हों...!
आकाश में उड़ती इंद्रधनुषी स्मृतियाँ
बचपन में 'कंचे' खेलने के अलावा गिल्ली डंडा,
लट्टू घुमाना आदि में भी सक्रियता रही किन्तु सबसे ज्यादा मजा 'पतंग बाजी' में ही आता था।
गंगा जमुनी संस्कृति वाले हमारे मुहल्ले
की कुछ बातें मैंने संस्मरण की पिछली कड़ियों में कही भी हैं।
हमारे घर के सामने की पट्टी हमारी तरह ही
निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के घरों की थी। हमारी तरह मनुष्य धर्म में विश्वास के
साथ उनकी उपासना पद्धति और जीवन शैली में हमसे से थोड़ी भिन्नता अवश्य थी किन्तु
दोनों पट्टियों के रहवासियों के बीच बहुत आत्मीय और पारिवारिक रिश्ते हुआ करते थे।
कहीं कहीं तो राखी बन्ध भाई बहन के सम्बंध
भी अंत तक निभाए जाते रहे।
हमारे ठीक सामने जो आपा रहतीं थीं वे बहुत
अच्छी पतंगे बनाया करती थीं। पहले से उन्हें यह हुनर नहीं आता था, किन्तु कुछ कारण ऐसे आए कि उन्होंने
पतंग बनाना सीखा। सबसे दिलचस्प यह बात थी कि उन्हें पतंग बनाना सिखाने वाले और कोई
नहीं, मेरे वही जीनियस काका थे, जिनके
पास रहकर मैंने पढाई की और साहित्य,कला के प्रारंभिक संस्कार
पाने का सौभाग्य मिला।
उन्हीं आपा के पास बैठकर मैं उन्हें पतंग
बनाना देखता रहता था। कैसे हरे बांस की कीमचों को छीलकर पतंग के 'कांप' और 'मुड्डे' बनाए जाते हैं। कैसे कागज के रंगीन 'ताव' की कटिंग करके पतंगों के खास प्रारूप याने 'चील', 'कनकव्वा', 'लम्बोतरा','डग्गा','परियल','पूँछधारी'
के कागज की कटिंग की जाती है। तिरंगा, चाँदभात,
लँगोटिया,सीरिया जैसी बहुरंगी पतंगों के लिए
किस तरह कागज की कतरनों को अलग करके नई कतरन लगाई जाती है। आटे की लेई बनाकर उसे
चूहों से बचाने के लिए कितना 'नीला थोथा'(जहर) मिलाना चाहिए। किस तरह पतंग के कागज पर कांप और मुड्डे लगाए जाते
हैं। कांप के नमन और मुड्डे की मोटाई का ऊपर नीचे का अनुपात अच्छी उड़ने वाली पतंग
के लिए कितना बेहतर होता है।यह सब आपा के करीब बैठकर सीखने का बड़ा मजा हुआ करता
था।
मोहल्ले भर के बच्चे आपा से ही पतंग
खरीदते थे। मांजा हमे खुद तैयार करना होता था। पुराने बेकार हुए बल्बों और ट्यूब
लाइट की रॉड्स, कांच की टूटी
बरनियों आदि के कॉन्च को मोटे कपडे में लपेट कर फर्शी पर चटनी पीसने वाले सिलबट्टे
से रगड़ रगड़ कर चूर्ण तैयार करते। वांछित रंग,सरेस को घर के
पीछे के बाड़े में ईंट के चूल्हे पर पकाते। गाढ़ा होने पर कॉन्च का चूर्ण मिला देते।
किसी मैदान के एक छोर पर इस मसाले से धागा गुजरता, जो कपड़े की चुटकी से संवरता हुआ दूसरे छोर तक ले जाया जाता। जब सूख जाता
दूसरे छोर वाला दोस्तअपनी चकरी या 'हुचके' में लपेटता हुआ वापिस पहले किनारे पर लौट आता। आगे के धागे पर यही कारवाई
तब दोहराई जाती जब तक कि धागे की पूरी गट्टी खत्म न हो जाती। इस पूरी प्रक्रिया को
'मंजा सूतना' कहा जाता था। घण्टों चलने
वाली यह प्रक्रिया मनभावक तो होती ही थी किन्तु पतंगबाजी में पेंच लड़ाने और जीतने
की आशा और विश्वास से भरी भी होती थी। अब तो मांजा आदि सब बाजार में तैयार मिल
जाता है। चीन से भी आने लगा है। नई परिस्थितियों में आयातित मांजे की क्या स्थिति
बनती है कुछ कहा नहीं जा सकता।
पतंग उड़ाने की तरह ही पतंग बनाने और मांजा
तैयार करना भी हम बच्चों के लिए बहुत मनचाहा कार्य होता था।
कुछ दोस्त पतंग उड़ाने में तो कुछ पेंच
भिड़ाने में कुशल होते थे। कुछ दोस्त हुचका या चकरी थामने में होशियार होते। इस
कार्य के अलावा उनका एक दायित्व पतंगबाजी का आंखों देखा हाल सुनाने का भी रहता था।
पेंचबाज को वह अन्य पतंगों के खतरों से भी आगाह करता जाता था।
एक समूह ऐसा भी होता था जो न पतंग उड़ाता
था,न हुचका थामता था वह कटी
हुई पतंगों को पकड़ने के लिए कटीली झाड़ियों से बना एक 'झाँकरा'
थामें सड़कों पर दौड़ लगाता रहता था। इस रोचक मगर जोखिमभरी प्रक्रिया
को 'पतंग लूटना' कहा
जाता था।
मैं पतंग उड़ाता भी था और पतंग बना भी लेता
था। मांजा भी खूब सूता बचपन में। एक वाकया याद आ रहा। आपा से पतंग बनाना सीखकर
मेरे मन में थोड़ा लालच आ गया। एक दिन मैंने भी कुछ छोटी छोटी पतंगें बनाकर अपने घर
में दीवार पर सजा लीं और मित्रों को कुछ बेच भी दीं।
जब काका साहब को यह बात मालूम पड़ी तो
उन्होंने पास बैठाकर समझाया कि मैं यह सब न करूं। अपनी पढ़ाई करूं। उस वक्त तो बात
समझ नहीं आई किन्तु अब मुझे यकीन है कि वे नहीं चाहते थे कि जो थोड़ी बहुत आमदनी
आपा को पतंग बनाने,बेचने से
होती थी,उसमें कोई कमी आए।
बचपन की ढेरों स्मृतियाँ हैं जो आकाश में
उड़ती इंद्रधनुषी पतंगों की तरह जीवन में खुशियां भरती रहती हैं...
इसी संदर्भ की मेरी एक कविता पढ़ लीजिए...
कविता
पतंगबाजी
1
इद्रधनुष आकाश में
जैसे फूलों की घाटी में रंगों का मेला
जैसे भांगड़ा करमा झूमर और कथक का भरत
नाट्यम
जैसे मणीपुरी कथकली ओडिसी एक साथ खेलते
गरबा
जैसे इच्छाएँ हमारे भीतर की.
2
मगन हैं उड़ती पतंगे
जैसे सुन रहीं हों भीमसेन जोशी का आलाप
राग की तरह बह रही है आकाश में हवा
पता ही नहीं उन्हें कि
प्रतिद्वंदी हो गए हैं सारे खिलाड़ी
कई अदृश्य डोरें हैं जिनकी तनी हुई पीठों
पर सवार होकर
पतंगों तक पहुँच रहा है आघात-प्रतिघात
फड़फड़ करती आयेंगी अभी कुछ चील-पतंगें
तलवार लिए
समझ नहीं पाएंगी अपनों का अकस्मात हमला
लय में नाचती पतंगें
कटेंगी, बिखरेंगी और अटक जायेंगी
छत के कंगूरे पर
पेड़ की टहनी में
बिजली के तारों में उलझ जायेंगे उनके अंग
आकाश में कर्फ्यू लग जाएगा शाम ढले.
000
बचपन
में साइकिल
अब तो बच्चों को दो, ढाई साल का होते ही छोटी सी खिलौना
साइकिल की सवारी करने का मौका मिल जाता है किंतु हमारे बचपन मे हमें साइकिल चलाने
का मौका पहली कक्षा में भर्ती होने के बाद ही मिल पाया। वह भी बहुत मिन्नतों और
जिद के बाद बाजार की दुकान से 15 पैसे प्रति घण्टा पर किराए
पर मिलने वाली 'अद्धा' साइकिल हाथ से
धकाते हुए घर तक लाए।
उन दिनों किराए पर मिलने वाली साइकिलों का
बहुत चलन था। बस स्टैंड पर से मेहमान भी किराए की साइकिल दिनभर के लिए किराए पर उठाकर मिलने आ सकते थे।
आज भी कुछ जगह ऐसा चलन है भी। बाहर से सामान आदि बेचने आए फेरी वाले इसी तरह दिनभर
के लिए साइकिल किराए पर लेकर माल बेचकर शाम को वापिस अपने गांव लौट जाते हैं।
इन्ही साइकिल दुकानों पर बच्चों के लिए
छोटी छोटी साइकिलें भी मिलती थीं। उनकी अलग अलग ऊंचाई होती थीं।अपनी ऊंचाई के
हिसाब से बच्चे साइकिल किराए पर ले लेते। हमारे लिए साइकिल किराए पर लाना भी थोड़ा मुश्किल ही
रहा। एक तो हम खुद 'राजा बाबू' टाइप
थोड़े नरम नाजुक किस्म के प्राणी थे। मजाक में हमें कुछ लोग 'हाथ
पैर अगरबत्ती और मुंह मोमबत्ती' कहकर सम्मानित किया करते थे।
सो हाथ पैर तुड़वाने से खुद भी डरते थे और घरवाले भी। एक दिन दोस्त की अद्धा साइकिल
पर कुछ देर साइकिल सीखने की कोशिश की तो थोड़ा मजा आने लगा। फिर माँ के सामने जिद
और मगरमच्छी टेसुए बहाने के बाद पन्द्रह पैसे मिल गए।
दुकान से सवारी करते हुए साइकिल घर तक
लाने की हिम्मत नहीं हुई तो हैंडल थामकर धकाते हुए ही ले आए। मुहल्ले में घुसते ही
बहुत से दोस्त इकट्ठा हो गए। जो दोस्त साइकिल पर बैठाकर पीछे से सीट पकड़कर बैलेंस
बनाकर धकाता था उसे भी साइकिल चलाने का मौका मिलता था। इसलिए फिर ज्यादा दिक्कत
नहीं हुई। दोस्तों ने मिलकर सिखा भी दी। फिर शुरू हुआ बिना किसी सहारे के स्वतंत्र
रूप से साइकिल चलाना। तब आज की तरह छोटी साइकिलों में पीछे अतिरिक्त छोटे पहियों
के सहारे तो लगे होते नहीं थे। स्वतंत्र चालन में घुटने और कोहनी कलाइयां घायल
होना अवश्यम्भावी होती थीं। एक तरह से ये घाव ड्राइविंग लाइसेंस की तरह होता था।
जो बच्चा घायल हो जाता समझो उसे साइकिल चलाना आ गया। हमारे घुटने भी चार पांच बार
छिले किन्तु हम अद्धा साइकिल कुशलता से चलाने लग गए।
कुछ बड़ा हुए तो पिताजी की 24 इंची साइकिल को बिना सीट पर बैठे फ्रेम
के बीच से पैरों को कैंची की शक्ल में पैडलों पर टिकाकर एक हाथ से हैंडल का एक सिरा और दूसरे से सीट को पकड़कर साइकिल चलाने का अद्भुत कौशल
हांसिल कर लिया। हमारे पूर्ववर्ती खिलाड़ी इस कला में निपुण थे तो आसानी रही। शहर
के एक कोने से दूसरे कोने तक कि दूरी इसी तरह के साइकिल चालन से हम सब दोस्त कर
लिया करते थे। ब्रेक तो लगा नहीं सकते थे। पैरों से ही रोकना पड़ती थी साइकिल। फिर
जब दोनों हाथों से हैंडल पकड़कर चलाने में कुशलता हासिल की तो एक दिन पिताजी की 24 इंची साइकिल पर सीट पर ओटले के किनारे
की सहायता से चढ़ बैठे। लगा जैसे चांद पर बैठकर धरती को निहार रहे हों। धक्के से
साइकिल आगे बढ़ाई तो पैर पैडलों तक पहुंच ही नहीं पाए।
एक पैडल ऊपर आता, हम पैर से उसे नीचे ढकेल देते तो दूसरा
पैडल ऊपर आ जाता। दूसरे पैर से उसे नीचे ढकेल देते। साइकिल आगे बढ़ती जाती।
इस करिश्मे को करते हुए भी कई बार हाथ
पैरों में चोट आई। किन्तु साइकिल चलाने के आनन्द में जख्मों का दर्द कम हो जाता था। हालांकि रात को
माँ हल्दी और तेल का लेप लगा देती थी किन्तु रात भर घावों में जो टीस उठती रहती थी,
दर्द की वह 'झपक' अब भी
याद आ जाती है।
आइये बचपन के उस साइकिल समय के बहाने
स्मृतियों से थोड़ी धूल हटाते हैं।
आजादी के बाद से ही न सिर्फ देश की यातायात
व्यवस्था में बल्कि सामान्य जनजीवन और समाजार्थिक व्यवस्था के संचालन में भी
साइकिलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। खासतौर पर साठ से लेकर अस्सी के दशक तक
ज्यादातर परिवारों के पास साइकिल अवश्य होती थी।
गांवों में किसान साप्ताहिक मंडियों तक
सब्जी और दूसरी फसलों को साइकिल से ही लाते ले जाते थे। दूध की सप्लाई गांवों से
पास से कस्बाई बाजारों तक साइकिल के जरिये ही होती थी। डाक विभाग का तो पूरा तंत्र
ही साइकिल के माध्यम से चलता था।
हालांकिआज भी कई पोस्टमैन साइकिल से
चिट्ठियां बांटते हैं।बड़ी संख्या में कूरियर बाँटने वाले भी साइकिल का इस्तेमाल
अब भी करते हैं किन्तु उदारीकरण और आर्थिक बदलाव के बाद से ही देश की युवा पीढ़ी
ने मोटरसाइकिल को अपना लिया।
यह संतोषजनक है कि भारत में साइकिल की
अहमियत खत्म नहीं हुई है। शायद यही वजह है कि चीन के बाद दुनिया में आज भी सबसे
ज्यादा साइकिलें भारत में बनती हैं।
एक तरह से बचपन का वह समय साइकिलों का
स्वर्णकाल ही था। स्कूल,कॉलेजों
के शिक्षक प्रोफेसर, सरकारी दफ्तरों के कर्मचारी आदि सभी
साइकिलों पर सवार होकर ही अपने कामकाज के लिए दफ्तरों तक आते थे। पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों के आने के बाद आधुनिकीकरण के साथ
धीरे धीरे साइकिलों का चलन कम होता गया। किराए पर मिलने वाली साइकिलों का स्थान
ऑटो रिक्शा आदि ने ले लिया।
बढ़ते हुए प्रदूषण से बचाव और स्वास्थ्य
जरूरतों के कारण अब पुनः साइकिलों के प्रयोग के प्रति जागरूकता हेतु प्रयास होने
लगे हैं किंतु अपेक्षित सफलता मिलना संदिग्ध ही लग रहा।
स्मार्ट सिटी अवधारणा में साइकिलों की
निशुल्क (नाम मात्र एक रुपया शुल्क) उपलब्धता और साइकिल ट्रैक की बात भी की गई है
किंतु जमीन पर हकीकत कुछ और कहानी कहती है।
कुछ राज्य आजकल स्कूलों में छात्राओं को
निशुल्क साइकिलें प्रदान करती हैं, अच्छी पहल है किंतु आम नागरिक के लिए बाजार में साइकिलों की कीमत बहुत बढ़
गई हैं। सामान्य साइकिलों की बिक्री भी अब पर्याप्त लाभ जितनी नहीं होती
इसलिए उन्नत फिटनेस साइकिलों के नाम पर इनके दाम भी सबकी पहुंच से
दूर होते जा रहे हैं। शौकिया ही खरीद हो रही इनकी। पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के
बावजूद मोटरसाइकिल और स्कूटर आज भी प्राथमिकता में रहते हैं।
बहरहाल, उम्मीद करें कि साइकिलों के पुराने दिन फिर से लौट सकें...
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