Friday, 22 January 2021

कुमार अम्बुज का साथ

 कुमार अम्बुज का साथ

 

जीवन में कई मित्र आए और गए लेकिन कुमार अम्बुज की दोस्ती ने मेरी सोच समझ और लेखन की दिशा ही बदल दी। सबके जीवन में बचपन के कुछ प्यारे लंगोटिया यार होते हैं लेकिन कुमार अम्बुज की दोस्ती इससे थोड़ी ज्यादा आत्मीय और अलग किस्म की रही।

कुमार अम्बुज से मित्रता थोड़ी देर से ही हुई थी। पत्र-मित्रता के वे बड़े शौकीन थे। उस जमाने में खतों किताबत का बड़ा महत्व हुआ करता था। मेरे स्थानीय लेखक मित्र ओम वर्मा और अम्बुज पत्र-मित्र थे। ओम कभी-कभी उनके वैचारिक और रचनात्मक पत्र अक्सर मुझे दिखाया करते थे। पत्रों में प्रायः विचारधारा और कविताओं को लेकर दोनों के बीच छोटी-मोटी प्रबोधन कार्यशाला सी चला करती थी।

 

यों उन दिनों अखबारों के लोकप्रिय व्यंग्य कॉलमों में कुमार अम्बुज के लेख यदा-कदा दिखाई दे जाते थे। पर वे इस तरह की छपास के मोह में ज्यादा न पड़े। उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़कर वैचारिक परिपक्वता ग्रहण करने का बेहतर रास्ता चुना। और लगातार समृद्ध होते चले गए।

कुमार अम्बुज और मैं रचनात्मक रूप से एक ही समय में सक्रिय थे। लेकिन जहां मैं उस दौर की लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं में बालगीतबालकथाएंव्यंग्यकहानियांपत्र आदि निरंतर लिखकर अपनी जगह और पहचान बना रहा था , वहीं अम्बुज महत्वपूर्ण साहित्यिक लघुपत्रिकाओं में प्रतिष्ठित हो रहे थे। साहित्य में नवोदितों को दिए जाने वाले भारतभूषण पुरस्कार जैसे महत्वपूर्ण सम्मानों से उन्हें सम्मानित भी किया जाने लगा था। प्रगतिशील हिंदी साहिय जगत की समकालीन परंपराएं और वामपंथी चेतना उनकी रचनाओं और आचरण में शुरू से ही परिलक्षित होने लगी थीं।

 

हमारी बैंक की यूनियन के नेता और देश में बैंक अधिकारियों के संगठन के शीर्ष नेतृत्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले श्री आलोक खरे की दूरदृष्टि के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिभावान कर्मचारियों को उनकी प्रतिभा के प्रोत्साहन और विकास के लिए कई मंच उपलब्ध कराए गए थे। जब बैंक कर्मियों की यूनियन में साहित्यिक प्रकोष्ठ के गठन की बात सोची गयी तो सबसे पहले कुमार अम्बुज सहित कुछ नाम ध्यान में आए तो सर्वश्री सुरेश उपाध्यायराजेन्द्र पाण्डेयसतीश राठीसंगीता चौधरी सहित कई सक्रीय रचनाकार मित्रों के साथ मेरा नाम भी वहां था। बैंककर्मी रचनाकारों की एक संस्था ‘प्राची’ बनाई गयीजिसका उद्देश्य लेखन में रुचि रखने वाले बैंककर्मी रचनाकार साथियों को प्रोत्साहन देना था। साथ ही संस्था की गतिविधियों के जरिये बैंककर्मी रचनाकारों की वैचारिक और रचनात्मक दृष्टि को चेतना सम्पन्न बनाने का भी एक प्रयोजन इसमें निहित था। इस पहल से बैंक की ट्रेड यूनियन के कार्यों में भी वैचारिक गुणवत्ता को बल मिलने लगा.

 

उधर बैंक ने प्रधान कार्यालय से आर्थिक और बैंकिंग विषयों पर हिंदी में एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई थी। वहां किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो बैंकिंग के साथ हिंदी लेखन में भी दक्षता रखता हो। इस कार्य के लिए मेरा चयन किया गया। गृह पत्रिका भी यहीं से निकलती थी। बैंक के प्रधान कार्यालय और क्षेत्रीय कार्यालयों में हम दोनों की पोस्टिंग में कोई ख़ास दिक्कतें नहीं आईं।

 

एक ही नगर में होने से अम्बुज और मेरा मिलना जुलना अब रोज होने लगा। साहित्यिक प्रकोष्ठ की गतिविधियां शुरू हुई तो अम्बुज और मेरी मित्रता भी गहराती गई। साहित्यिक प्रकोष्ठ ‘प्राची’ के माध्यम से कई बुलेटिनों का प्रकाशन हुआ। साहित्य गोष्ठियों और सम्मेलनों में देश के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकारों के व्याख्यानों का सिलसिला चलता रहा। संस्था की कई इकाइयां भी बनी अलग अलग स्थानों पर। कविता कार्यशालाएं भी आयोजित हुईं जिनमें महत्वपूर्ण और वरिष्ठ चिन्तककविसाहित्यकार बैंककर्मी लेखकों का मार्गदर्शन करने लगे।

 

संस्थाओं को गति देने और नेतृत्व की कुशलता के कई सूत्र कुमार अम्बुज में अभी भी देखे जा सकते हैं। श्री आलोक खरे जी की तरह ही सांगठनिक नेतृत्व की कला उनके पास भरपूर थी,लेकिन इस क्षमता का उपयोग उन्होंने केवल साहित्य संगठनों के लिए ही किया। यह ठीक भी थाअम्बुज को अभी कई कृतियों की रचना और करनी थी।

 

बहरहालउन्ही दिनों सितम्बर माह में मेरी पहली किताब व्यंग्य संग्रह ’पुनः पधारें’ छपकर आया था। किसी भी लेखक के जीवन में पहली किताब के आने का अपना सुख होता है। मैं भी उसी गौरव भाव से लबालब हो रहा था। पता नहीं यह मेरी भूल थी या ठीक हुआ कि उत्साह में आकर हिन्दी दिवस के एक दिन पहले मैं अपने विभाग के जीएम साहब से हिन्दी पखवाड़ा शुभारम्भ समारोह की रूपरेखा अनुमोदित कराने गया तो साथ में नए संग्रह की एक प्रति उन्हें भी सादर भेंट कर दी।

 

हिन्दी दिवस समारोह में तब भी वही हुआ जो हमेशा होता रहा है और आज भी होता है। अलग हुआ तो केवल यह कि मंत्रियों के संदेशों के वाचन और हिन्दी में कामकाज करने की शपथ विधि के बाद जीएम साहब ने यकायक मेरी ओर देखकर कहा –‘तुम्हारी किताब भी ले आओ ब्रजेशहिन्दी दिवस के अवसर पर एमडी से उसका विमोचन करवा लेते हैं।

स्केल सेवन’ अधिकारी के बोल किसी निर्देश से कम नहीं होते.. क्या करता एक ‘स्केल वन’ कारिन्दा बेचारा..दौड़ता हुआ गया और एक गुलाबी कागज़ में सद्य प्रकाशित संग्रह की कुछ प्रतियाँ लपेट लाया.. एमडी का स्केल कुछ होता नहींउसे सरकार नियुक्त करती है... मेरी पुस्तक का सरकारी विमोचन प्रबंध निदेशक के करकमलों से ‘ऑन द स्पॉट’ हो गया था...

उन दिनों बैंक में भी ‘ऑन द स्पॉट’ पर बड़ा जोर दिया जा रहा था। जिन नौकरी पेशा लोगों की ओर बैंके देखती भी नहीं थीअब सीधे वेतन से रिपेमेंट की गारंटी होने के कारण स्कूटर से लेकर कार और मकानों तक के लिए ‘ऑन द स्पॉट’ उन्हें ऋण स्वीकृत किये जा रहे थे।

एमडी के हाथों किताब का विमोचन अन्य सहकर्मियों के लिए बहुत बड़ी बात थी। कार्यक्रम समाप्त होते ही कुछ साथी मन से तो कुछ जबरन मुझे बधाई देने लगे।

 

पुस्तक के आकस्मिक विमोचन से जो व्यक्ति सबसे अधिक व्यथित हुआ वह और कोई नहीं वह कुमार अम्बुज ही थे. पहले तो अम्बुज ने बधाई दी फिर बोले-

यह ठीक नहीं हुआ ब्रजेशकिताब का विमोचन इस तरह थोडे किया जाना चाहिए। माना कि तुम्हारे बॉस के आदेश से ऐसा हुआ है लेकिन किताब तो तुम्हारी निजी रचना है। इतनी विनम्रता भी ठीक नहीं। तुम मना कर सकते थे।

 

कुमार अम्बुज को पलट कर जवाब तो नहीं दिया मैंने लेकिन मन ही मन सोचने अवश्य लगा था..

मना कैसे कर सकता था... दिन भर उनके नीचे काम करना होता था..विभाग प्रमुख से भी ज्यादा जीएम साहब मुझ को तवज्जो देते थे... निर्देश का अनुपालन मेरी ड्यूटी थी... अब तो ‘बॉस इस आलवेज राईट’ की आदत सी हो गयी थी...

बाद में समझ भी आया कि कुमार अम्बुज के एतराज में बहुत दम था। हर लेखक का आत्म सम्मान होता हैहोना भी चाहिए... मैं बैंक का केवल एक मुलाजिम ही तो नहीं था...लेखक भी था।

 

चलो यार जो हुआ सो हुआ...किताब पर चर्चा हम अपनी गोष्ठी में कर लेंगे। कार्यक्रम भी व्यवस्थित करेंगे। तुम कहोगे तो ज्ञान जी को या प्रेम जी को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित कर लेंगें।’ कुमार अम्बुज ने कहा था तो मेरी तंद्रा टूटी थी।

 

हिन्दी दिवस के उस दिन पहली किताब का विमोचन तो एमडी साहब ने अचानक कर दिया थाकिन्तु उसी शाम इंदौर की प्रसिद्ध घमंडी मधुशाला में लस्सी पीकर असली जश्न मनाया गया। हिन्दी दिवस समारोह की तरह सभागृह खचाखच भरा हुआ तो नहीं था लेकिन कुमार अम्बुज और मेरे अलावा तीन चार व्यक्ति फालूदा कुल्फी अवश्य खा रहे थे..

बिल का भुगतान मुझे कुमार अम्बुज ने करने नहीं दिया.... आखिर वह मेरा दिन था...पहली किताब आने की खुशी का दिन....!

 

प्रसंगवश यह भी बता दूं की फिर कभी मेरी किताब का कोई विमोचन अलग से नहीं हो पाया,जिन अतिथियों की उपस्थिति में ‘पुनः पधारें’ पर चर्चा प्रस्तावित थी उन्हें बाद में अवश्य आमंत्रित किया गया था। वरिष्ठ व्यंग्यकार सर्वश्री डॉ ज्ञान चतुर्वेदीडॉ प्रेम जनमेजयविष्णु नागरडॉ अंजनी चौहानप्रकाश पुरोहित जैसी श्रेष्ठ और नामी हस्तियों को हमारे बैंक के प्रधान कार्यालय में ‘प्राची’ के कार्यक्रम में ऐन रंगपंचमी के रंगारंग दिन आमत्रित कर व्यंग्य गोष्ठी अवश्य आयोजित की गई। जिसमें उसी संग्रह से मैंने अपनी रचना ‘ताले और चाबियाँ’ पढ़कर प्रशंसा पाई थी।

 

ईंट का वह ठिया और हारमोनियम की दुकान

 

वर्ष 1995-96 का समय रहा होगा। बैंक में कार्यरत लेकिन रचनात्मक रुचि रखने वाले साथियों को जोड़ते हुए एक साहित्यिक संस्था,बल्कि कहें संगठन बनाया था। जिसके अंतर्गत साथियों में बेहतर रचना और विचार को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक आयोजन किये जाते थे। संगठन का नाम 'प्राचीथा और उसमें आज के वरिष्ठ कवि कुमार अम्बुजमैं ब्रजेश कानूनगोरंगकर्मी और लेखक सुरेश उपाध्यायलघुकथाकार सतीश राठीराजेन्द्र पांडेय,संगीता चौधरी आदि काफी सक्रिय थे।

 

'प्राचीके बारे में कुछ अंतराल से बात करेंगे लेकिन यहां मैं उस दौर के उस अविस्मरणीय जायके का जिक्र करना चाह रहा हूँ जिसे उस खास संग साथ और मित्रों के साथ दोबारा फिर कभी नहीं प्राप्त कर सका।

 

हमारा वह समय बहुत रचनात्मक ऊर्जा से भरा हुआ था। प्राची की रतलाम इकाई ने एक कार्यक्रम रतलाम में आयोजित किया था। इकाई के मुख्य कर्ताधर्ता सुरेश उपाध्याय थे। कार्यक्रम में रतलाम के वरिष्ठ साहित्यकार जयकुमार जलजडॉ रतन चौहानयूसुफ जावेदीविष्णु बैरागी जी आदि तथा देवास से श्री जीवनसिंह ठाकुर भी अतिथी के रूप में शामिल हुए थे। इस शानदार और सफल कार्यक्रम का उल्लेख करना और विवरण प्रस्तुत करना भी मेरा उद्देश्य नहीं है। बात तो उस जायके की है जिसका लुत्फ आमंत्रितों अतिथियों के जाने के पश्चात जो हम कुछ साथियों ने लिया।

 

रतलाम की अनाज मंडी की एक दुकान में जो गरमा गरम दाल बाटी और लड्डू खाए थेवह किसी मालवा वासी के लिए नई बात नहीं हो सकतीलेकिन फिर भी वह हमारे लिए सचमुच बहुत अनोखी बात थी। जो आत्मीयतापरोसगारी और प्रस्तुति वहां अनुभव करने को मिली वह निसंदेह मैने या कुमार अम्बुज ने कभी महसूस नहीं की थी। ऊंची किनार वाली पीतल की थाली में बाफले को ओखली में मूसल से चूरकर गरमा गरम शुद्ध घी डाल दिया जाता था। साथ में तड़का लगाकर दाल दी जाती थी। सबको अलग अलग तपेली में। जी हाँतपेली में! गुजराती शैली कीलंबी लेकिन लबालब भरी हुई।

 

लकड़ी की बेंच के सामने लकड़ी की ही टेबल और उस पर थाली और लम्बी तपेली बस। एक लड़का ईंट के छोटे छोटे टुकड़े टेबल पर रख गया। हम एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। क्या करें इस टुकड़े काअम्बुज बोले 'ये स्टार्टर है क्या?' स्थानीय मित्र सुरेश उपाध्याय हमारी परेशानी समझ गए। मुस्कुराते हुए उन्होंने ईंट का टुकड़ा थाली के नीचे एक किनारे पर लगा दिया। बाद में पता चला यह 'ठियाकहलाता है। ठिया रखते ही थाली एक ओर से ऊंची हो गई। बाफले के चूरे पर अब उन पर सहजता से दाल डाली जा सकती थी। खेत तालाबकी तरह हमारी परात में एक किनारे पोखर सा बन गया थाजिसमें बाफला-दाल मिक्स तैयार था। थोड़ी ही देर में ऊंचे किनारे पर प्याज मसालाधनिया चटनीटमाटरगाजर आदि भी सज गए। लड्डू सबसे अंत मे दिया जाता था।

 

यह सब देखकर ही भूख बढ़ गई थी। दोपहर दो बजे का समय वैसे भी भोजन का हो गया था। खूब छक कर उस दिन दाल बाफले,लड्डू उड़ाए। उस भोजन का मुकाबला और तुलना किसी स्टार रेस्टोरेंट या किसी स्वीगी,झमाटो सप्लाय से नहीं किया जा सकता।

 

रतलाम की धान मंडी का वह भोजनालय सैकड़ों हम्मालों के पसीने की गंध से महक रहा था। हम लोग विशेषकर कुमार अम्बुज तो उस दिन धान मंडी के दाल बाफलों से इतने प्रभावित हुए की रतलाम के बर्तन बाजार से गुजरते हुए एक जोड़ी परात और दो वे विशिष्ठ तपेलियाँ ही खरीद लीं। जिन्हें वे बहुत दिनों तक अपने घर पर उपयोग भी करते रहे।

हाँइंदौर में अपने घर पर भी ईंट के टुकड़े का वह 'ठियालगाना भी नहीं भूलते थे। वही तो असली मजा देता था। भोजन का आनन्द बढ़ा देता था।

 

००००

 

जीवन में कई बार हम समझ नहीं पाते कि हमारा मन उदास क्यों है। किसी संवेदनशील और रचनात्मक व्यक्ति के साथ तो ऐसी स्थितियाँ अक्सर आती रहती हैं। इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं। मेरा अपना मानना है कि जब हम अपने मन का काम किन्ही कारणों से कर नहीं पाते तब अदृश्य निराशा हमें घेर लेती है। फिर तो चाहकर भी वांछित काम कर पाना अधिक मुश्किल होता जाता है। न कर पाने की बैचैनी जीवन में जो ठहराव लाती हैवह पीड़ा कोई संवेदनशील व्यक्ति ही समझ सकता है।

 

मित्र कुमार अम्बुज की स्थिति भी उस वक्त कुछ ऐसी ही थी कि नया लेखन लगभग सवा-डेढ़ साल सेचाहकर भी नहीं हो पा रहा था। साहित्यिक संगठन 'प्राची', प्रलेसं और बैंक नौकरी में एक साथ काम करते हुए इस 'राइटर्स ब्लाॅकपर भी मित्रवत चर्चा होती रहती थी। हालाँकि इसके पूर्व कुमार अम्बुज को कविता के लिए प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल सहित एक अन्य पुरस्कार भी मिल चुका था, 'किवाड़संग्रह के बाद 'क्रूरताप्रकाशन के लिए भेज दिया गया था और इन कविताओं से समकालीन कविता में उन्हें बड़ी पहचान मिलने लगी थी।

 

अपना शहर गुना छोड़कर इंदौर आने के बादलेखन में आई रुकावट का कारण शायद नया शहरकामकाजी व्यस्तता या अन्यमनस्कताजो भी रहा होलेकिन अम्बुज जी के सृजन का नया अध्याय जिस तरह शुरू हुआउस प्रसंग को याद करना मुझे अपनी निराशा के समय आत्मबल और विश्वास प्रदान करता है।

 

हुआ यह कि रतलाम में एक कार्यक्रम उपरांतधानमंडी के एक जनवादी होटल में दाल- बाटी का परंपरागत,विशिष्ट भोजन करने के बाद चहलकदमी करते हुए जब हम बाजार से गुजर रहे थे तब कुमार अम्बुज की निगाह एक दुकान पर पड़ी तो हम दोनों ठिठक से गये। वह वाद्ययंत्र सुधारने वाले की दुकान थी। एक बूढ़ा व्यक्ति हारमोनियम के धम्मन को संभाले उसकी कुंजियों को ठीक कर रहा था। बहुत देर तक हम दोनोंउत्सुकता से उस कारीगर को काम करते देखते रहे।

 

उस रात रतलाम की होटल में अम्बुज कुछ लिखते रहे। और क्या हो सकता था कविता के सिवाय। लंबे अंतराल के बाद संवेदनाओं को जैसे अभिव्यक्त होने की अचानक कोई राह मिल गई। इसके बाद ऐसा अबाध सिलसिला चला कि दो साल में ही कुमार अम्बुज का तीसरा संग्रह 'अनन्तिमप्रकाशित हुआ। आज उस कविता को यहां पढ़ते हैं...

 

कविता

हारमोनियम की दूकान से

कुमार अम्बुज  

 

उस पुरानी-सी दुकान पर ग्राहक कोई नहीं था

बस एक बूढ़ा आदमी चुपचाप झुका हुआ हारमोनियम पर

इतना तन्मय और बाकी चीजों से इतना बेखबर

जैसे वह उस हारमोनियम का ही कोई हिस्सा

 

वह बार-बार दबा रहा था उस रीड को

शायद उसकी स्प्रिंग ठीक नहीं थी

धम्मन चलाते हुए उसने कई बार उस रीड को दबाया

एक हलका-सा सुर गूँजता था भीड़ भरे बाजार में

जो दस कदम की दूरी तय करते-करते तोड़ देता था दम

 

गजब कोलाहल के बीच एक मद्धिम सुर को साध रहा था वह

और फिक्रमंद था कि ठीक तरह से निकले वह सुर

जैसे इस वक्त की कोई सबसे जरूरी आवाज

 

मुझे याद आये वे सारे गीत जिनमें बजता रहा हारमोनियम

और बचपन की भजन संध्याएँ जिनमें

हारमोनियम बजाते थे ताऊ तो रुक जाता था पूर्णमासी का चाँद

 

अचानक खुश हुआ वह बूढ़ा

और तनिक सीधे होते हुए धम्मन चलाकर

उसने दबायी वही रीड जिसे सुधार रहा था वह बहुत देर से

 

एक सुर था वह

अकेला और निश्शोक

जिसे लेकर आया मैं हारमोनियम की एक पुरानी दुकान से।

000

(रचनाकाल-1995)

 

 

सेल्फी का सुख

 

 

तस्वीरें अक्सर हमारी स्मृतियों को सहेज कर रखतीं हैं. अब ज़माना सेल्फी का है पहले तस्वीरों में सेल्फ इतना नहीं जुडा होता था पहले कैमरा किसी और के हाथ में होता था और लेंस को वांछित और महत्वपूर्ण वस्तु या व्यक्ति पर फोकस करके ही क्लिक किया जाता था ऐसे में कभी-कभार अपनी देह का कोई हिस्सा भी फ्रेम में आ जाने से ऐसी ही खुशी मिल जाती थी जैसे टारगेटेड व्यक्ति को पद्मभूषण मिलने के साथ अपन को भी पद्मश्री मिल गयी हो

 

तस्वीर हमें इतराने का मौक़ा सुलभ करा देती है यदि तस्वीर किसी युगपुरुष के साथ हो तो हम जीवन भर इठला सकते हैं जिन दिनों व्यंग्य के महापुरुष स्व शरद जोशी जी को पद्मश्री घोषित हुई थी तब विख्यात नवगीतकार प्रो नईम जी की कृपा से मैं भी एक ऐसे कार्यक्रम में था जहां शरद जी का सम्मान किया गया था शाजापुर में लायंस क्लब के एक कार्यक्रम में चूंकि शरद जी से रचनाएं सुनी जानी थी सो डग्गे-मग्गे की तरह मुझे और उस समय शाजापुर महाविद्यालय में पदस्थ आलोचक एवं व्यंग्यकार प्रो. बी एल आच्छा जी को भी रचना पाठ का अवसर मिल गया यह मेरा पहला मौक़ा था जब मैंने किसी मंच से रचना पाठ किया था. मैं सबसे युवा था उसी समय की एक तस्वीर में शरद जीनईम जीसाहित्यकार झाला जी आदि के साथ काले बालों में मेरी मुंडी और देह का कुछ हिस्सा दिखता था

 

इस तस्वीर और उन आठ दस घंटों के अनुभव को मैंने अब तक साहित्यिक संस्मरण की तरह खूब भुनाया है आदरणीय श्री प्रेम जनमेजय ने भी इसे महत्व दिया और इसे पहले शरद जी पर केन्द्रित व्यंग्य यात्रा के विशेष अंक में और बाद में एक संग्रहणीय पुस्तक में भी स्थान दिया

 

बहरहालमैं उस संस्मरण को यहाँ आगे नहीं बढ़ा रहा. चूंकि अब बाद की पीढी पर लिखे जाने का समय है और आग्रह भीइसलिए तस्वीरों को खोजने का काम करते हुए कुछ स्मृतियाँ एलबमों में मिल गईं और कुछ दिल में बसीं हुईं थी

शरद जी के साथ रहने के बाद एक बार फिर ऐसा ऐतिहासिक बल्कि उससे भी अधिक चमकीला मौक़ा मुझे संभवतः 1996 के आसपास हमारे बैंककर्मियों की साहित्यिक संस्था ‘प्राची’ और आकाशवाणी इंदौर की पहल पर वरिष्ठ कथाकार और ख्यात चित्रकार श्री प्रभु जोशी (प्रभु दा) के स्नेह-सहयोग की वजह से नसीब हुआ प्राची तो हमारी ही संस्था रही है वरिष्ठ और महत्वपूर्ण समकालीन कवि श्री कुमार अम्बुज मेरे मित्रसाथी बैंक कर्मी और संस्था के तत्कालीन महासचिव थेअध्यक्षता मैं खुद संभाल रहा था सो कुछ दायित्व मेरे भी बनते थे

 

खैरइंदौर के इस दो दिवसीय आयोजन में पहले दिन कहानी और कविता पर केन्द्रित सत्र थे और दूसरे दिन व्यंग्य पाठ होना था बात हम यहाँ व्यंग्य पर केन्द्रित सत्र की ही करेंगे कविता मैं उन दिनों सीख रहा था इस पर कभी कुमार अम्बुज ही कहने के अधिकारी हैं व्यंग्य में मेरी पहचान बन रही थी नईदुनिया में ‘अधबीच’ जैसे दिलचस्प और लोकप्रिय कॉलम की शुरुआत हो चुकी थी परसाई जी के ‘सुनो भाई साधोऔर शरद जी के ‘..और शरद जोशी’ के कॉलमों के विराम के बाद राजेन्द्र माथुर जी ने इस स्तम्भ की विवेकपूर्ण शुरुआत करके नए व्यंग्य रचनाकारों को प्रोत्साहित करने का काम किया था इस कॉलम के पहले दिन इसमे मेरा आलेख ‘एटनबरो का गांधी और सफलता के देसी नुस्खे’ दिनांक 21 अप्रैल 1981 को प्रकाशित हुआ था

 

मैंने पहले ही कहा है कि यह ‘सेल्फी’ का ज़माना है इसलिए मेरे इस संस्मरण में यह भी आपको झेलना ही पडेगा कोई चाहे न चाहे जिसने मोबाइल कैमरा थाम रखा है वह अपनी तस्वीर तो लेगा ही सेल्फी में तो ऐसा ही होता है

 

फिर संस्मरण के ट्रेक पर आते हैं तो वह व्यंग्य पाठ का सत्र था स्थान था तत्कालीन स्टेट बैंक ऑफ़ इंदौर के प्रधान कार्यालय का सुसज्जित सभागार रंगपंचमी की वह सुहानी और रंगीन शाम थी यहाँ मैं आपको बताता चलूँ मालवा में होली-धुलेंडी के बाद रंग पंचमी को ही रंगों से नहा धोकर उत्सव का आनंद लिया जाता है रंग-तरंग आदिसबका मजा इसी दिन लिया जाता है दिन भर रंग खेलकरथक हार कर मालवी आदमी शाम को एन्जॉय करता है तो यह एन्जॉय की संध्या थी सभागार में रंगे-अधरंगे चेहरे मंच पर बैठे रचनाकारों को सुनने और ठहाके लगाने के इन्तजार में व्याकुल थे. संचालन का दायित्व मेरे पास था

बैंक ऑफिसर्स एसोसियेएन के राष्ट्रीय अध्यक्ष कॉमरेड आलोक खरे मुख्य रचनाकारों को ससम्मान मंच पर लेकर आये

 

अब मैं यहाँ उन सब व्यंग्यकारों की एक तस्वीर (सेल्फी) अपने शब्दों से उतार लेता हूँबाएं से सर्वश्री डॉ अन्जनी चौहान(भोपाल)प्रकाश पुरोहित (इंदौर)डॉ ज्ञान चतुर्वेदी (भोपाल)डॉ प्रेम जनमेजय (नई दिल्ली)विष्णु नागर (नई दिल्ली) और मैं याने ब्रजेश कानूनगो (इंदौर). चूंकि शब्द-मोबाइल मेरे हाथ में है इसलिए मेरा चेहरा थोड़ा बड़ा और विकृत हो गया है लेकिन सेल्फी-कला में सामान्यतः इसे खूबी माना जाता है

 

अफसोस मुझे अब भी है कि इस अवसर का कोई चित्र मेरे एल्बम में क्यों नहीं है इस संस्मरण को पढ़कर यदि कोई उपलब्ध करा दे तो सचमुच मैं बड़ा शुक्रगुजार रहूँगा. शरद जी वाला चित्र बहुत उपयोग किया जा चुका है अब व्यंग्य के ये सितारे मेरे बहुत काम आ सकते हैं. वैसे मैं भी कोई कम जुगाडू नहीं हूँ चित्र नहीं पर मैंने इस रचनापाठ की रिकार्डेड कैसेट से भी बहुत काम निकाला है सेल्फी की तरह जब नई कार खरीदी थी तो घर आने वाले हर अतिथी को इंदौर और आसपास की सैर के लिए विशेषकर इंदौर से नजदीक देवास में कुमार गन्धर्व जीनईमजी या अपनी माँ या रिश्तेदारों से मुलाक़ात के लिए ले जाता तो उसके प्लेयर में हर मेहमान को इस में रिकोर्ड व्यंग्य रचनाएं सुनाने का बल पूर्वक प्रयास करता था जब मेरी रचना आती तो वोल्यूम थोड़ा बढ़ा भी देता था

 

चलिए अब कुछ उन रचनाओं के बारे में भी जान लें जो वहां सुनाई गईं और खूब ठहाके लगे. श्री प्रकाश पुरोहित ने ‘सफ़ेद बालों’ की समस्या पर एक दिलचस्प रचना सुनाई प्रसंगवश बता दूँ. उनके केश एम एफ़ हुसैन की तरह झक सफेद तो नहीं है लेकिन चांदी जरूर खिरती है उनके बालों में से. कवि व्यंग्यकार पत्रकार सम्पादक श्री विष्णु नागर ने ‘ईश्वर की कहानियां’ सुनाईं आप पूछेंगे विष्णु जी के साथ इतने विशेषण क्यों लगाएलगाए साहब! जरूरी है! मेरे जीजा जी हैं मेरे शहर के देवास के वरिष्ठ मालवी कवि श्री मदन मोहन व्यास दादा के दामाद हैं हमारे नगर के गौरव हैं जी डॉ अंजनी चौहान ने ‘कुत्तों’ को लेकर विषय पर शानदार व्यंग्य पाठ कियाखूब ठहाके लगे. डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी ने सभागार को क्लास रूम बना दिया और बारह खडी का अभ्यास करा कर सोचने- विचारने को बाध्य कर दिया उनकी रचना में व्यंग्य ने श्रोताओं को उद्वेलित किया अभी श्रोता डूबे ही हुए थे कि डॉ प्रेम जनमेजय उन्हें ‘थानेदार की बारात’ में खींच ले गए श्रोताओं ने हास्य व्यंग्य के बैंड पर खूब भांगड़ा कियाकुछ तो नागिन डांस करते रहे मन ही मन और इस व्यंग्य पाठ की शुरुआत इस नाचीज ने अपनी रचना ‘ताले और चाबियाँ’ से की थी

 

उस वक्त मंच पर विराजमान सभी प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों ने मेरी पीठ पर हाथ रखा था न भी रखा होगा प्रत्यक्ष लेकिन मैंने तो उनकी आँखों में यही पढ़ लिया थाअब भी यही दिखाई देता है मुझे पहले व्यंग्य संग्रह ‘पुनः पधारें’ पढ़ने के बाद प्रेम जनमेजय जी ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘बीसवीं शताब्दी की व्यंग्य रचनाएं’ में संभावनाशील व्यंग्यकार के रूप में सम्मान देते हुए मेरी रचना ‘गणेश जी पहुंचे कर्जा लेने’ को शामिल किया मेरे दूसरे संग्रह ‘सूत्रों के हवाले से’ को पढ़कर ज्ञान जी ने खुद फोन कर के उत्साह वर्धन कियाविष्णु जी और प्रकाश जी मिलने पर सदैव स्नेह प्रदान करते हैं अंजनी सर फेसबुक पर मेरी लगाई हरेक पोस्ट के पहले प्रशंसक होते हैं रात तीन बजे भी वे अपने फूल मेरी रचना पर खुले मन से न्योछावर कर देते हैं इतराने के लिए क्या इतना काफी नहीं मेरे लिए....

 

००००

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