फ्लैश बैक4
अनुशासन सिखाती एनसीसी
स्कूल कॉलेज के दिनों में लिखने पढ़ने में
रुचि के अलावा जिन अन्य गतिविधियों में बहुत मजा आता था उनमें से एनसीसी की परेड, प्रशिक्षण
और साल में एक बार लगने वाले आउटडोर कैम्प सबसे अधिक आकर्षित करते थे।
नवीं,
दसवीं,ग्यारहवीं कक्षाओं तथा ग्रेजुएशन के तीन
वर्षों तक लगातार नेशनल केडेड कोर (राष्ट्रीय
छात्र सेना) का सदस्य होने का सौभाग्य मुझे मिला। इस प्रशिक्षण के जूनियर विंग के 'ए' प्रमाण पत्र तथा सीनियर विंग के 'बी' व 'सी' प्रमाणपत्रों की योग्यता अर्जित करने का गौरव भाव तो हमेशा रहा ही किन्तु
इससे बढ़कर जीवन में हर काम को व्यवस्थित व अनुशासित रूप से करने की प्रवत्ति जो भी
थोड़ी बहुत आई उसका अधिकांश श्रेय एनसीसी के प्रशिक्षण को ही दे सकता हूँ।
सन 1968
में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद देवास के नारायण विद्या मंदिर
(एनवीएम) में दाखिला लिया तो उसी वक्त एनसीसी में प्रशिक्षण का फॉर्म भी भर दिया।
स्काउट गाइड या एनसीसी में से कोई एक प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता था उन दिनों।
पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर एनसीसी
प्रशिक्षण को पाठ्यक्रम के एक भाग के रूप में सामुदायिक विकास, सामाजिक सेवा गतिविधियों में शामिल करने
के लिए बढ़ाया गया था। राष्ट्र की आवश्यकता को पूरा करने के लिए। भारत चीन युद्ध
के बाद एनसीसी प्रशिक्षण 1963 में अनिवार्य किया गया था। बाद
में 1968 में इस कोर को फिर स्वैच्छिक कर दिया गया था। हमारे
समय में स्काउट गाइड या एनसीसी में से कोई एक प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता था उन
दिनों। मैंने एनसीसी को प्राथमिकता दे दी।
प्रसंगवश यहां यह जानकारी देना उचित होगा
कि एनसीसी 15 जुलाई 1948
को राष्ट्रीय कैडेट कोर अधिनियम के अंतर्गत स्थापित की गई थी। जो
भारतीय रक्षा अधिनियम 1917 के अधीन था। अब यह स्वैच्छिक आधार पर स्कूल और कॉलेज के छात्रों के लिए उपलब्ध है।
राष्ट्रीय कैडेट कोर अनुशासित और देशभक्त नागरिकों में देश के युवाओं को संवारने
में लगे हुए सेना, नौसेना और वायु सेना के घटकों का एक
त्रिकोणीय सेवा संगठन है। कैडेटों को छोटे हथियारों और परेड में बुनियादी सैन्य
प्रशिक्षण दिया जाता है। अधिकारियों और कैडेटों को सैन्य सेवा के लिए कोई दायित्व
नहीं होता लेकिन कोर में उपलब्धियों के आधार पर चयन के दौरान सामान्य उम्मीदवारों
पर वरीयता दी जा सकती है।
कैरियर में एनसीसी प्रमाणपत्रों के कारण
मिलने वाले अतिरिक्त लाभ को देखते हुए ही मैं भी 'एकता और अनुशासन' जैसे आदर्श वाक्य
वाले इस महत्वपूर्ण संगठन का सदस्य बना था।
स्कूल के ही एक व्याख्याता को उचित
प्रशिक्षण के बाद कैप्टन की रेंक देकर स्कूल इकाई का प्रमुख बनाया जाता था। उन्हें
बाकयदा खाकी रंग का निर्धारित गणवेश भी पहनना होता था। गणित और भौतिकशास्त्र के
हमारे व्याख्याता कैप्टन सहस्रबुद्धे सर हमारे प्रमुख अधिकारी थे।
स्कूल के खेल मैदान पर प्रत्येक रविवार को
प्रशिक्षण की खुली कक्षाएं लगती थीं। व्यावहारिक और सैद्धांतिक जानकारियां दी
जातीं। एनसीसी दफ्तर में नियुक्त सेना के सेवानिवृत्त लेकिन यहां प्रतिनियुक्त
अधिकारी ट्रेनिंग देते। परेड करवाते। उनके सैनिक गणवेश बहुत आकर्षित करते थे। हमें
भी इसी तरह अपने यूनिफॉर्म के साथ पूरी चमक और धमक के साथ परेड में शामिल होना
होता था।
स्कूल में एक कक्ष एनसीसी के लिए ही
आबंटित होता था,जिसमें गणवेश,
जूते,सॉक्स, बेल्ट,कैप व अन्य बेजेस आदि रखे होते थे। प्रत्येक केडेड को यह सामग्री दी जाती
थी।
मैं स्वयं बड़े उत्साह से घर पर प्रति
सप्ताह गणवेश को धोकर, अरारोट
का कलफ लगाकर प्रेस करता था। पीतल के बक्कलों को पीतल पोलिश (ब्रासो) लगाकर और
जूतों को जूता पॉलिश लगाकर कपड़ा रगड़कर खूब चमका देता। हमारे ट्रेनर (उस्तादजी) के
कहे अनुसार जूतों में अपने चेहरे की झलक नजर आने तक चमकाने की कोशिश होती थी। साप्ताहिक प्रशिक्षण के बाद परेड ग्राउंड पर ही हम लोगों को पर्याप्त
नाश्ता दिया जाता था।
जब 303
राइफल चलाना सैद्धांतिक रूप से सिखा दिया जाता तो देवास की टेकडी के
पीछे बनी फायरिंग रेंज पर हमें ले जाया जाता। असली बन्दूकों से व्यावहारिक व
वास्तविक रूप से एक आंख बंद कर बंदूक की 'फ़ॉर साइट की नोक को
बेक साइट की यू से देखते हुए' निशाना साधने और टारगेट
'बुल' याने सेंटर (केंद्र) में गोली दागने का
बारी बारी से अभ्यास कराया जाता। दस गोलियों में से जिसकी जितनी अधिक सेंटर सर्किल
में लगती वह निशानेबाजी में उतना ही प्रवीण माना जाता।
मुझे खुशी है कि निशाना लगाने की कला में उन
दिनों मैं आज 'व्यंग्य विधा'
से ज्यादा कुशल था। अधिकांश निशाने सही लगाया करता था। एक बार तो दस
में से दस निशाने 'बुल' में लगाकर न
सिर्फ उस्ताद जी से पीठ ठुकवाई बल्कि नीमच में आयोजित शूटिंग कॉम्पिटिशन के लिए
मेरा चयन भी हुआ। देवास
टेकडी की उस फायरिंग रेंज पर तो शायद अब पिकनिक स्पॉट विकसित हो गया है। बाद में 'जामगोद' रेंज पर ले
जाया जाने लगा।
कॉलेज के दौरान प्राणिकी के हमारे प्रोफेसर मेजर डॉ खोचे साहब प्रमुख
थे। उनका वैसे ही जीवन बहुत अनुशासित और प्रभावशाली था। बाद में वे महाविद्यालय के
सफल प्राचार्य भी रहे।
कॉलेज ग्राउंड की बजाए कभी कभी पुलिस परेड
ग्राउंड पर भी प्रशिक्षण होता था। मुझे यहां बी और सी प्रमाणपत्र के समय 'अंडर ऑफिसर' जैसे
उच्च छात्र कैडेट पद का सौभाग्य मिला था। छब्बीस जनवरी की गणतंत्र दिवस की जिला
स्तरीय सामूहिक परेड में छात्र कैडेट समूह का नेतृत्व करने का गौरव मिला।
दशहरा दीपावली अवकाश में जो आउटडोर कैम्प
होते थे उनमे पूरी बटालियन से सम्बद्ध स्कूलों कॉलेजों के छात्र कैडेट हिस्सा लेते
थे। ऐसे कुछ कैम्प इंदौर के देवधर्म टेकरी,
महू के पशुचिकित्सा महाविद्यालय, नीमच के
महाविद्यालय के निर्जन इलाकों में भी लगे थे। उस वक्त के सुनसान इलाके अब शहरों की
सीमा में आकर आबाद हो गए हैं।
कैम्पों में हमें टेंटों को बांधने से
लेकर शिविर स्थल को सजाने, टेंट
में अपनी दरी, कम्बल की व्यवस्थित घड़ी करना तक सिखाया गया
था। एक प्लेट और एक मग की नाम मात्र सामग्री से दैनिक कामकाज और भोजन आदि करना भी
बहुत सहज हो जाता था। दिन
भर मैदान और किसी वृक्ष की छांव में कक्षाएं चलतीं। परेड होती।
यहां कृत्रिम युद्धाभ्यास भी कराया जाता
था। छात्रों की दो टुकड़ियां बना दी जातीं और दूर छोड़ दी जातीं। उस्तादजी भी साथ
होते। महू कैम्प के दौरान एक टुकड़ी जानापाव पहाड़ी के आसपास से रवाना हुई। दूसरी ओर
से दूसरी टुकड़ी छोड़ी गई। रात को चंद्रमा के प्रकाश में घमासान हुआ। उस्तादजी सब
कुछ समझाते सिखाते जाते थे। बाद में सबको लेकर पहाड़ी पर ले जाया गया। उस रोमांच की
वह अनुभूति अब भी महसूस होती रहती है।
पाठकों को सम्भवतः यह सब आत्म प्रवंचना सी
लगे किन्तु यही सब
स्मृतियाँ अब भी जीवन में उत्साह भर देती हैं।
तांगों का जलवा
जिस प्रकार आजकल ऑटो रिक्शा
का चलन है उसी तरह उन दिनों कहीं आने जाने के लिए देवास में तांगे चला करते थे।
देश के कुछ इलाकों में इस घोड़ा गाड़ी को 'टमटम' भी कहा जाता है। कुछ बग्गियाँ भी थीं राज
परिवारों के यहां लेकिन तब उनका उपयोग सामान्यतः होता नहीं था। कभी कभार कुछ
राजकीय परिवार के रस्मों रिवाज के वक्त वे निकलतीं थीं।
कुछ पुरानी बग्गियों को
बेंड बाजों वालों ने खरीद लिया था तब वे शादी ब्याह में या धार्मिक जुलूसों के लिए
किराए पर उपलब्ध कराया करते थे।
यहां मैं फिलहाल आम लोगों
की सवारी तांगे की ही बात कर रहा हूँ। दो तरह के तांगे मैंने देखे हैं। एक में
लंबी सीट पीछे लगी होती थी जिसमें दो तीन व्यक्ति पीछे की ओर मुंह करके लुढ़कते,फिसलते से बैठ पाते थे। आगे तांगा
चलाने वाले की बगल में एकाध सवारी भी बैठा ली जाती थी।
दूसरी तरह के तांगे में
पीछे सीढियां चढ़कर बैठना होता था। यह कुछ आरामदायक होता। इसमें दो-दो यात्री आमने
सामने बैठ पाते थे। एक दूसरे की शक्लें और दोनों ओर का नजारा देखने की सहूलियत हो
जाती थी। हालांकि पर्दानशी महिलाओं की सुविधा के लिए रोल किये रेग्जीन के पर्दे भी
रहते थे। जो मुहल्ले से निकलते ही ऊपर चढ़ जाते या मोहल्ले में प्रवेश करते ही फिर
से लटक जाते थे। बारिश और ठंड के दिनों में भी ये बड़े काम आते थे।
देवास में अधिकतर तांगे
दूसरी तरह के ही हुआ करते थे।
मुझे याद आता है कुमार
गंधर्व जैसी हस्तियां भी परिवार सहित आने जाने में इन्ही खुले तांगों का इस्तेमाल
किया करतीं थीं। उनकी अपनी कोई निजी कार भी नही थी। बहुत बाद में कुमार साहब ने
कार टैक्सी को बुलवाना शुरू किया था।
समर्थ परिवारों के बच्चे भी
शहर से दूर नए बने कान्वेंट स्कूल भी ऐसे ही तांगों में बैठकर जाया करते थे।
साधारण परिवार का कोई बच्चा जब तांगे से स्कूल जाने लगता तो मोहल्ले के लोग बड़े
खुश होकर बताते 'हमारा
दीनू भी अब तांगे से स्कूल जाता है!'
तांगों की सजावट, घोड़े की सेहत और तांगे वाले के
स्वभाव के कारण कुछ खास तांगों की बड़ी मांग हुआ करती थी। ऐसा ही एक अच्छा 'एहमद भाई का तांगा' हमारे एक दादाजी ने भी
मासिक रूप से लगा रखा था। दादाजी को सभी लोग आदर से 'भैया
साहब' कहते थे।
भैया साहब उस समय न सिर्फ
नगर की शान थे बल्कि कपड़ा मिल समूह का सेठ भी उनकी बहुत कद्र करता था। मुम्बई सूरत
आदि में उनकी कई कपड़ा मिलें थीं, सेठ
मुंबई में ही रहते थे,कभी कभार ही देवास आना होता था। देवास
मिल की पूरी जिम्मेदारी भैया साहब के जिम्मे ही थी। मैनेजर थे वे देवास की कपड़ा
मिल के।
घर से दस किलोमीटर दूर
स्थित कपडा मिल तक आने-जाने के लिए उनके लिए ही वह खास 'एहमद भाई का तांगा' रखा हुआ था। प्रतिदिन भैया साहब तांगे से ही मिल जाते और शाम को उसी तांगे
से लौटते थे। दिन भर अहमद भाई तांगे से अन्य सवारियों को बस स्टैंड से लाना ले
जाना किया करते थे।
यह भी बडा दिलचस्प हुआ करता
था कि जब सुबह भैया साहब को मिल छोडकर आने के बाद एहमद भाई बस स्टेंड से किसी
सवारी को लेकर मुहल्ले से गुजरते तो घोडा हमारे घर के आगे जाने से इंकार कर देता
था। सुभद्रा कुमारी चौहान की 'झांसी
की रानी' कविता की एक पंक्ति 'घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था' वाला दृश्य उपस्थित हो जाता था। तब एहमद भाई तांगे से उतरकर घोडे की लगाम
खींच कर उसे थोडा आगे बढाते। घर से आगे जोर जबरदस्ती करके निकल जाने के बाद ही
घोडा सडक पर आगे बढता। मशीनी प्रवत्ति के उस घोड़े की स्मृति आज भी गुदगुदाती रहती
है।
अहमद भाई के तांगे के जिक्र
के साथ 'मोर
खां तांगे वाले' की याद आ जाती है। सिनेमा और नई फिल्म
के प्रचार में इसकी बड़ी भूमिका हुआ करती थी। उसके तांगे में नई फिल्म के आकर्षक
पोस्टर दोनों ओर लगे होते थे। लाउड स्पीकर भी कसा होता। वह तांगा उस वक्त के देवास
के तीन सिनेमागृहों 'नावेल्टी टॉकीज', 'महेश टॉकीज', और 'नगर
निवास' में लगने वाली हर फिल्म का बड़े जोशो खरोश के
साथ विज्ञापन करता पूरे नगर में घूमता था, फिल्म की
तारीफों के पुल बांधने वाला कैलाश एनाउंसर अमीन सयानी की तरह दिलचस्प अंदाज में
बोलते हुए फ़िल्म देखने का जबरदस्त आमंत्रण देता रहता। बम्बई (मुम्बई) और मद्रास
(चेन्नई) में निर्मित फिल्मों के विज्ञापन पर्चों और गीतों की पुस्तिकाएं भी तांगे
के पीछे से उड़ाई जातीं तो बच्चों का झुंड उनके पीछे पीछे दौड़ने लगता था। जैमिनी और
एवीएम फ़िल्म कम्पनियों के पर्चे बहुत सुंदर और गेवा कलर फ़िल्म की तरह दो रंगी हुआ
करते थे। उन पर्चों को जमा करने का शौक भी बच्चों में उसी तरह का होता था, जैसे कोई डाक टिकटों व माचिस की डिब्बियों का संग्रह करता है।
इसी तरह पहले साइकिल पर
बैठकर भोंगे में मुँह घुसेड़कर सरकारी घोषणाएं करने वाले की जगह धीरे धीरे तांगों
और लाउडस्पीकर के एनाउंसरों ने ले ली।
अब न अहमद और मोर खां के
शानदार तांगे रहे,न उस जमाने
के स्वप्नीले सिनेमाघर और सिनेमा का वैसा जलवा।
वक्त वक्त की बात है.... अब
तो सब स्मृतियों में ही रह गया है...मन करता है तो बांट लेते हैं अपनी यादें
....कुरेद देते हैं थोड़ी सी हमारे आपके भीतर जमी धूल। यहाँ कवि मित्र श्री निरंजन श्रोत्रिय की कविता पढ़ना प्रासंगिक होगा....
तांगे की
कविता
-----------------------------
निरंजन
श्रोत्रिय
जमीन में
पानी
आंखों में
चमक
रिश्तो में
गर्माहट की तरह
लुप्त हो
रहे हैं तांगे शहर से
आते हैं नजर
अब वे कभी- कभार शहर के किसी कोने में ऊँघते हुए हुए अनमने-से
भूलते जा
रहे हैं लोग इस फुर्र फुर्र दौड़ में
हिचकोले भरी
सवारी का स्वाद!
सुस्ता रहे
हैं रमजान मियां घिरे फुरसतों से
टिका कर सीट
से चाबुक
चढ़ रही है
गर्द रुके हुए पहियों और स्मृतियों पर
कि याद नहीं
बिठाया कब
आखिरी बार
किसी तगड़ी सवारी को
और खाया
छककर प्राणियों ने दोनों
हुआ अरसा
सुने सड़क को संगीत टापों का
दबा जो कर्कश शोर में इंजन के
हुआ अधमरा
बादशाह जो कभी था इन सड़कों का
कद्दावर
पूरा दौड़ता जब मस्ती में
हो जाते
राहगीर किनारे सड़क के
निकलता सजा
संवरा तांगा रमजान मियां का ठाठ से
चांद की तरह
पूनम के मगर रोजाना
न खाया धरती
ने न आसमान ने निगला
नहीं मिला
मलबा कोई
कहां चले गए
फिर इक्के सब शहर के देखते देखते
क्या लगी
नजर तेज रफ्तार की क्या उठा भरोसा सुस्त चाल से या कि था इसके पीछे क्रूर सिद्धांत
डार्विन का
कि हो गई
बखत शहर में इक्के की यों
ताश के
पत्तों में दुक्की की ज्यों
उतरी है
सवारियां लदी फन्दी स्टेशन पर
आ गई हरकत
में सवारियों की एक लुप्त हो रही प्रजाति
भरोसा कि हो
ले कोई सवार खातिर दाना पानी के ही
महंगा हो
रहा जो दिन-ब-दिन
लेकिन यह सच
है
कि जब तक
पहुंचेगा यह ढचर- ढचर घर तक
पी रही होगी
तेजतर्राट सवारियां चाय घर पर
होगा फैसला
इस बार भी इसी सच के पक्ष में
कांपते हैं
सोचकर मियां रमजान
थपथपाते हैं
पीठ बादशाह की हिन हिना रहा जो सवारियां देखकर !
★★★
आज भी खरे हैं तालाब और
बावड़ियां
लॉक डाउन समय में एक रात
मौसम में बारिश पूर्व की उमस के चलते टिड्डी दल की तरह असंख्य कीट पतंगों ने हमारे
बरामदे के बल्ब पर आक्रमण कर दिया है। वहीं पर नीचे 'अंडर ग्राउंड वाटर स्टोरेज टैंक' है। पता नहीं
कहाँ से वे पतंगे टैंक में प्रवेश कर गए। बहुत से तो हमने निकाल दिए किन्तु वे
इतने अधिक थे कि सम्पूर्ण सफाई हमसे सम्भव नही हुई।
पानी के प्रदूषित होने के
कारण हमने उसका उपयोग बन्द कर दिया। छत की टंकी में भी पानी नहीं चढ़ाया। सारे नल
आदि बन्द कर दिए।
दो दिन जब कम पानी से काम
चलाना पड़ा तो तीस पैतीस साल पहले के देवास में पानी की कमी और उसकी वजह से होने
वाली परेशानियों की याद आ गई। पानी को किफायत से खर्च करना पुराने किसी देवास वाले
को बहुत अच्छी तरह से आता है। फिजूल बहते पानी को देखकर बहुत दुख भी होता है।
अंधाधुन्ध विकास के नाम पर
हमारे पारंपरिक जलस्रोत किस तरह से खत्म होते गए हैं, देवास के उदाहरण से ठीक से समझा
जा सकता है। छोटे से सांस्कृतिक शहर को जब औद्योगिक नगरी के रूप में अस्सी के दशक
में चिन्हित किया गया तो विकास कुछ इस तरह होने लगा कि क्षेत्र के बहुत से तालाब
और खूबसूरत बावड़ियां उसकी चपेट में आ गए।
बड़े तालाबों को किसी छोटे
से सरोवर में सीमित कर उन पर कॉलोनियां और काम्प्लेक्स खड़े कर दिए गए। भूगर्भीय जल
का अति दोहन नल कूपों से ऐसा हुआ कि उसका स्तर पाताल में पहुंचता नजर आने लगा।
औद्योगिक विकास और नए कल
कारखानों में रोजगार के कारण बाहर से कई लोग आए तो उनके परिवार भी बड़ी संख्या में
देवास में बसते चले गए। क्षिप्रा नदी और कुओं, तालाबों से जितना पानी मिल पाता था, वह अब बड़ी
जनसंख्या और औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त नही था।
नगर परिषद से जो पानी नलों
से मिलता उसका दबाव भी कम होता था और बहुत कम समय के लिए नल चलते थे। कुछ लोग सीधे
मोटर लगाकर पानी खींचते तो कुछ लोगों तक तो पानी पहुंच ही नहीं पाता था। वे लोग
सड़क किनारे गड्ढों में उतरकर बहुत नीचे से पानी भरते थे। मैंने एक व्यंग्य पत्र
(अंतिम पत्र) तब नईदुनिया अखबार में भेजा था...
'हमने सीता
को धरती में उतरते देखा है/ नगर पालिका का नल जमीन के नीचे ही चलता है।'
कुछ समय बाद तो समस्या इतनी
गहरा गई कि परिवार के सदस्य एक दिन अंतराल से स्नान करते। रसोई के काम और कपड़े
धोने के बाद पानी को पुनः इस्तेमाल में लेने की गुजाइश देखते। पेड़ पौधों और साफ
सफाई में उसका पुनरुपयोग किया जाता।
इंदौर तो इस समस्या से पहले
ही जूझ चुका था। जनांदोलनों और संघर्षों की बदौलत नर्मदा परियोजना के कुछ चरण जमीन
पर रूप ले रहे थे। इंदौर के पड़ोस में बसे हमारे देवास शहर का किस्सा तो विचित्र
ही था। जन आंदोलन तो दूर पिछले तीस पैंतीस वर्षों में यहां के सभी छोटे-बड़े तालाब
मिट्टी से भर दिए गए और उन पर मकान और कारखाने खुल गए। जब पता चला तो बहुत देर हो
चुकी थी। देवास को पानी देने का कोई स्रोत ही नहीं बचा। यहां तक कि शहर के खाली
होने तक की खबरें छपने लगी। सबसे बड़ी समस्या उस वक्त किसी तरह पानी जुटाना था।
पानी कहां से आए?
फिर देवास के तालाबों कुओं
के बजाए रेलवे स्टेशन पर 10 दिन तक दिन रात काम चलता रहा। 25 अप्रैल 1990 को इंदौर से 50 टैंकर पानी लेकर एक
रेलगाड़ी देवास आई। स्थानीय शासन मंत्री की उपस्थिति में ढोल नगाड़े बजाकर पानी की
रेल का स्वागत हुआ। मंत्री जी ने इंदौर से देवास स्टेशन आई नर्मदा का पानी पीकर इस
योजना का उद्घाटन किया।
यद्यपि संकट के समय इससे
पहले भी गुजरात और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में रेल से पानी पहुंचाया गया था। पर
देवास में तो अब हर सुबह पानी की रेल आती। टैंकरों का पानी पंपों के सहारे टंकियों
में चढ़ता। निश्चित ही वह पानी बड़ा महंगा पड़ता था। रेल का भाड़ा हर रोज का 40000 रुपये। बिजली से पानी
ऊपर चढ़ाने का खर्च अलग। इंदौर प्रशासन को भी पानी का कुछ दाम तो चुकाना ही होता
होगा।
सच तो यह था कि उस वक्त यदि
यह योजना न आती तो देवास को 'नरकवास' बनने में कोई देर नहीं लगने वाली थी।
यह बहुत सुखद है कि हाल ही
में कुछ वर्षों पूर्व नर्मदा को सीधे नेमावर से देवास तक लाया गया है। इससे पूर्व
सिया गांव में सैंकड़ों जल कूप समूह से निकाले पानी से भी देवास की आंशिक प्यास
बुझती रही। क्षिप्रा नदी पर भी नया बांध बनाकर पानी का संग्रहण क्षेत्र बढ़ाया गया
है। पानी की अब भले ही देवास में कोई कमी नहीं है किंतु जिन खूबसूरत बावड़ियों, चौपड़ों और तालाबों को जो हमने
खोया है, उस का दुख तो सालता ही रहता है...!
प्रसंगवश बताना चाहता हूँ।
देवास की इस जल समस्या पर मैंने उस वक्त एक पत्र लिखा था। जिसे नईदुनिया में पढ़कर
ख्यात पर्यावरणविद श्री अनुपम मिश्र ने मुझे पत्र लिखकर विस्तार से आलेख भेजने को
कहा था। जिसे पहले तो उन्होंने उसे गांधी शांति प्रतिष्ठान की महत्वपूर्ण पत्रिका 'गाँधी मार्ग' में प्रकाशित किया, बाद में पर्यावरण साहित्य
की विश्वप्रसिद्ध पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' में देवास पर सामग्री के तौर पर शामिल किया। स्व. अनुपम मिश्र जी को याद
करते हुए उनके सुझाए रास्तों पर चलना पर्यावरण सुरक्षा के प्रति हमारा कर्तव्य और
उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
जीवन की मनोरम यात्रा की
शुरुआत
सम्भवतः 1962/63 की बात रही होगी।
पचपहाड़ (राजस्थान) से एक बच्ची अपनी माँ के साथ और देवास (एमपी) से एक बालक अपनी
दादी के साथ इंदौर के जूनी इंदौर क्षेत्र के एक पारिवारिक शादी समारोह में शामिल
होने आए थे।
उधर शाम को शादी में गाना
बजाना चलता रहा और उधर ये दोनों नन्हे बच्चे गली में उतर गए। दिन में गली का
डामरीकरण हुआ था। जब बाहर खेलकर ये लौटे तो दोनों के हाथों में डामर था। दोनों के
चेहरे भी डामर से सन गए थे।
परिजनों ने जब इनको इस
हालात में देखा तो पहले तो चिंतित हुए लेकिन दोनों बच्चों को खुशी में चहकते देख
वे सब भी खिलखिला उठे।
लड़की की माँ और लड़के की
दादी भी मुस्कुराए बगैर रह न सके। ममत्व से कुछ ऐसी भर उठीं दादी और मां कि कह
उठीं-- 'देखो
कितनी सुंदर जोड़ी है,कृष्ण राधा जैसी...अपन तो इन दोनों का
रिश्ता आज ही तय कर देते है... !'
और सचमुच दो माताओं के मन
की बात कोई पन्द्रह सोलह वर्षों बाद साकार हो गई। एक दूसरे के साथ डामर से होली
खेलने वाले वे दो बच्चे और कोई नहीं मैं और 'मनोरमा' ही थे।
18 जून
का दिन मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यही वह दिन है जब मेरे जीवन में 'मनोरमा' आईं। यों दस्तावेजों में उनका नाम 'कुमुद' दर्ज है।
लग्न पत्रिका छपने तक मुझे
स्वयं पता नहीं था कि जिस लड़की के साथ जीवन भर का साथ होना है उसका नाम कुछ और भी
हो सकता है। इससे जुड़ा भी एक बड़ा दिलचस्प वाकया है। अपने यहां होने वाली शादी की
पत्रिकाएं पूर्व में किसी के यहां होने वाली शादी में रिश्तेदारों में वितरित कर
दी जाती थीं। ऐसी ही एक शादी में मनोरमा के पिताजी शादी के कार्ड ले आए। जो दो माह
बाद होनी थी। मैं भी उस समारोह में शामिल हुआ था। पत्रिका पर नजर पड़ी तो चौंक गया।
दूल्हे की जगह तो 'ब्रजेश' छपा था किंतु दुल्हन कोई 'कुमुद' दिखीं। मन बैचैन हो उठा। रिश्ता तो मनोरमा के लिए मांगा था, यह 'कुमुद' कौन है?
बहरहाल, बाद में नानाजी ने तलाश किया तो
जान में जान आई। 'कुमुद' और 'मनोरमा' एक ही लड़की के दो नाम थे।
बचपन में डामर से होली
खेलने वाली 'मनोरमा' के यहां जब बड़े होने पर विवाह प्रस्ताव भेजा गया तो उसके सहज स्वीकृत हो
जाने के लिए मैं थोड़ा बहुत धर्मवीर भारती जी का परोक्ष योगदान भी मानता हूँ। उन
दिनों धर्मयुग में पाठकों के लिए भी कुछ कॉलम हुआ करते थे। 'रंग और व्यंग्य' तथा 'हास परिहास अपने आसपास' जैसे स्तंभों में
पाठकों के भेजे लतीफे और रोचक प्रसंग छपा करते थे। हमने भी कुछ ऐसे ही चुटकुलों
नुमा प्रसंग लिख भेजे थे। भारती जी ने छाप भी दिए। मनोरमा धर्मयुग पढ़ा करती थीं।
पता चला कि लड़का धर्मयुग में छपता है तो उन्होंने शादी के लिए फौरन 'हाँ' कह दी।
धर्मयुग में 1976 में छपा चुटकुला 1979 में जीवन की कहानी का बीज बन गया।
बाद में इसी जीवन कथा को 2018 में 'डेबिट क्रेडिट' नाम से एक संसमरणात्मक उपन्यास
की शक्ल में लिखने का प्रयोग किया।
जिस कविता से इस 'डेबिट क्रेडिट' का अल्प विराम हुआ है, उसे यहां साझा कर
रहा.....
कविता
खाता बही में प्रेम
चांदनी में नहाए
किसी ख़ूबसूरत लम्हे में
लाड में आकर तुम कहीं पूछ
बैठो
कितना प्यार मिला जीवन में
मुझसे ?
तो क्या कहूंगा मैं !
दुनियादारी के खाता-बही में
आधी सदी तक प्रविष्टियों के
उपरांत
कभी प्यार का कोई रिकार्ड
नहीं संजोया बेशक
मगर जो मन की एक किताब है
उसमें
हर पन्ने पर सबसे पहले
स्वतः दर्ज हो जाता है
तुम्हारा प्रेम
इतनी बड़ी हो गयी है पूंजी
कि बही-खाते की रेखाओं से
बाहर निकल रहे हैं आंकड़े
समुद्र के आयतन से कुछ अधिक
हो गया है उसका मान
धरती के घनत्व से ज्यादा
सघन है यह अर्जित प्रेम
संभव ही नहीं शायद
तुम्हारे प्रेम का हिसाब
रखना
आकाश जितने अगले पन्ने पर
दर्ज नहीं हो पा रहा मुझसे
पिछला बाकी.
0000
साहित्यिक भाई साहब
जिस तरह हिंदी साहित्य के
संदर्भ में कहा जाता है कि आजादी पूर्व के भारत की स्थिति जानना है तो प्रेमचन्द
जी को पढ़िए और स्वतंत्रत भारत की तस्वीर निरखना है तो परसाई जी को पढ़िए।
कुछ इसी तरह विवाह पूर्व
मेरे लिखने पढ़ने के वातावरण और रुचि में मेरे काका श्री यतीश जी की भूमिका रही है
और विवाह पश्चात भाई साहब श्री ईश्वरचन्द्र जी की प्रेरणा और उनके विचारों का भी
बड़ा योगदान रहा। मेरे रचनात्मक विकास में इन दोनों महानुभावों से प्रत्यक्ष और
परोक्ष दोनों प्रकार से आत्मीय व प्रोत्साहन भरा वातावरण मिलता रहा है। ये दोनों
मेरे व्यक्तिगत जीवन में लगभग प्रेमचन्द और परसाई जैसे ही कहे जा सकते हैं।
मनोरमा से विवाह होने के
पूर्व भी भाई साहब श्री ईश्वरचन्द्र जी मेरे लिए अपरिचित नहीं थे। मनोरमा के वे
सबसे बड़े भाई हैं और मेरे ननिहाल पक्ष से उनकी सीधी रिश्तेदारी भी रही है। न सिर्फ
पचपहाड़ में मेरे मौसाजी के मित्र थे बल्कि इनके खेत भी नजदीक ही हुआ करते थे।
यद्यपि उन दिनों खेती बाड़ी के कामकाज का ध्यान घर के बुजुर्ग ही रखते थे।
मेरा जब 1979 में विवाह हुआ तब
राजस्थान में जनता पार्टी की सरकार थी और भाई साहब पिड़ावा क्षेत्र से विधायक थे।
वे झालावाड़ क्षेत्र के न सिर्फ वरिष्ठ वकील रहे बल्कि सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों
में उनका नाम अग्रणी रहा है। लोहिया जी, जयप्रकाश जी, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमये जी के विचारों के अलावा
व्यक्तिगत रूप से भी उनके काफी निकट से परिचित रहे। उन्हें इस बात का हमेशा दुख
रहा कि जिस वक्त उनकी माताजी का आकस्मिक देहावसान हुआ था तब वे आपातकाल में मीसा
बंदी थे।
अपने लिखने पढ़ने के
प्रारंभिक दौर में जब सबसे समृद्ध घरेलू पुस्तकालय से रूबरू होने का अवसर मिला, तो वह भवानीमंडी में भाई साहब
श्री ईश्वरचंद्र जी की लायब्रेरी ही थी,जिसमें गालिब से लेकर
नईम, कुमार अम्बुज व अनिल यादव तक के संग्रहों और धर्मयुग,दिनमान से लेकर कथादेश और हंस तक कि तमाम साहित्यिक ,वैचारिक पत्र पत्रिकाओं को जिल्दों में सजोंकर रखने की अब तक परम्परा रही
है।
धर्म पत्नी के बड़े भाई
अवश्य हैं, मगर मेरे
लिए वैचारिक प्रेरणा स्त्रोत। लोहिया विचार से प्रेरित भाई साहब से विमर्श ने
हमेशा सम्पन्न किया है। वे स्वयं भी अच्छे राजनीतिक विश्लेषक हैं। यदा कदा लिखते
भी रहते हैं। उनके लेखों की एक पांडुलिपि लगभग तैयार है।
यह मेरा सौभाग्य रहा कि
परसाई रचनावली से लेकर भारतीय भाषाओं की अनेक साहित्यकारों और विचारकों के हिंदी
अनुवाद अक्सर ससुराल प्रवास के दौरान पढ़ता रहा। अब यह समृद्ध पुस्तकालय भवानीमंडी
के निवास से पचपहाड़ के फॉर्म हाउस पर शिफ्ट हो गया है। कानूनी किताबों का उनका
संग्रह भी बहुत सम्पन्न और व्यवस्थित है। सम्भवतः इतना विशाल संग्रह शायद ही उस
इलाके में कोई अन्य रहा हो।
अपने अभिभाषकीय समय के
पश्चात अब भाई साहब अपने खेतों पर प्रकृति और पंछियों की खूबसूरत क्रीड़ाओं में
रुचि लेते हैं। अधिकांश समय पचपहाड़ के फॉर्म हाउस पर बिताते हैं।
सोशल मीडिया पर उनके लाजवाब
चित्र हम सबकी और मित्रों की सुबहें सुगन्धित कर देतीं हैं। वर्तमान दौर की
विसंगतियों पर इन दिनों उनकी आक्रोश भरी सोशल मीडिया पर वैचारिक टिप्पणियां
प्रबुद्ध पाठकों को उद्वेलित कर देती हैं। अस्सी वर्ष की आयु में भी गलत को गलत
कहने में उन्हें कोई हिचकिचाहट अब भी नहीं होती। हाँ, सही बात पर लोगों के सहमत न
होने पर दुखी अब अवश्य हो जाते हैं।
छपे से दूर होते समय में आज
भी भाई साहब के पास कोई दस हिंदी अंग्रेजी के अखबार और पत्रिकाएं रोज आती हैं। एक
छोटा अध्ययन शेल्फ गुसलखाने तक में सजी ही नहीं बल्कि उस पर नई सामग्री भी उपलब्ध
होती रहती है।
मेरे दूसरे कविता संग्रह 'कोहरे में सुबह' को मैंने भाई साहब ईश्वरचन्द्र जी को भी समर्पित कर अपने को ही उपकृत किया
है। मैंने जब पुस्तक की प्रति उन्हें भिजवाई तो आशीर्वाद और शुभकामनाओं के साथ
मेरे अनुरोध पर बाकायदा प्रकृति के बीच लोकार्पित भी किया और तस्वीर भी प्रेषित की
थी। वे सदैव स्वस्थ रहें और हमें सदैव प्रेरणा देते रहें,यही
कामना है हमारी। गलत को गलत कहने वाले साहसी व्यक्तियों की देश, दुनिया को बहुत जरूरत है।
००००
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