माँ की मौजूदगी
मन का क्या
है। पंख लगे होते हैं उसके। उड़ते उड़ते आज फिर से जा बैठा पचास बरस पहले के अपने घर
की छत के कंगूरे पर। दो मंजिले मकान की छत पर लकड़ी की बल्लियां लगी थीं जिन्हें
जुपीए कहते थे, जिसके ऊपर मिटटी की तह बिछाई गई थी। फिर थोडे ऊपर टीन की चद्दरें ठोंकी
हुई थीं।
नीचे याने
ग्राउंड फ्लोर पर अगला कमरा बैठक खाना और उसके बाद एक अँधेरा कोठार जिसमे केवल एक
दरवाजा। कोई खिड़की नहीं। हवा का कोई आवागमन नहीं। इसमें गुड़ समेत खजाना सा भरा
होता था। कुछ बोतलों में गार(ओले) का पानी ऐसे सहेजा हुआ था जैसे अमृत रखा हो।
मुहल्ले में यदा कदा चम्मच भर कोई मांगने आ जाता था। बर्नियों में बहुत ख़ास अचार
रखा, कोठार को महकाता रहता था।
गर्मियों में
कोठार की ज़रा सी जगह में दादी बोरी बिछा कर दोपहर की नींद निकालती। वहां उनके बगल
में जैसे शिमला बसी थी।
और मई जून की
दोपहर में बैठक खाने के दरवाजे की दरार से धधकती सड़क से कुल्फी के ठेले की चमक और
परछाइयों का प्रवेश चलचित्र की रौशनी सा दीवारों पर गुजरता था। कोई कूलर या पंखा
नहीं था।
आज कांक्रीट
के स्वर्ग में बैठे बैठे अपना बचपन किसी पुराने चलचित्र की तरह दृश्य दर दृश्य
गुजरता जा रहा है !! वह कुमार गन्धर्व की नगरी में संगीत सम्राट रज्जब अली खां
मार्ग का एक मकान भर नहीं था। सभी दुखों का समाधान करता एक घर था हमारा।
इसी घर की छत
पर गर्मियों में बिस्तर लगते थे। चौकी पर शीतल पानी के मटके पर रखा एक तरबूज अपने
कटने की प्रतीक्षा किया करता था। घर के सब लोग जब सब कामों से निवृत्त हो कर छत पर
सोने के लिए आते, गपशप के साथ तरबूज की फांकें सबके मन को आत्मीयता की मिठास से भर देतीं
थीं।
इसी सुकून भरे
वातावरण में माँ रात को छत पर सितारों की छाँव में लेटे लेटे अपने युवाकाल का एक
किस्सा हमें सुनाया करती थीं अक्सर।
हुआ यूँ कि ‘नाटक ‘विक्रम का न्याय' का मंचन किया जा रहा था। दो
स्त्रियों में विवाद था कि बच्चे की असली माँ कौन है और बच्चा किसे सौपा जाए। महान
न्यायाधीश विक्रमादित्य ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि बच्चे को दो टुकड़ों में
बांटकर दोनो स्त्रियों को एक एक हिस्सा सौंप दिया जाए।
इसके पहले कि
सिपाही आगे बढ़ते, दर्शकों मे से एक तीसरी स्त्री दौडती हुई मंच पर चढ गई और बच्चे को छीनकर
नाट्यगृह से बाहर चली गई। नाटक मे भी अपने बच्चे का अहित न देख सकने वाली वह
तीसरी स्त्री उस बच्चे की असली माँ थी।‘
नाटक के मंच
पर चढ़ी वह तीसरी स्त्री और कोई नहीं मेरी अपनी माँ ही थी। जब मैं छह सात माह का ही
रहा होंगा, युवा पिता के मित्रों ने कस्बे में नाटक का आयोजन किया था। छोटे बच्चे की
दरकार थी, कोई भी व्यक्ति अपना शिशु नाटक के लिए देने के लिए
तैयार नहीं थी। माँ ने हिम्मत की थी। मुझ नन्हे से बालक को नाट्य मंडली को सौंप
दिया गया।
जो नाटक खेला
गया था उसमें असली माँ बच्चे को नाटक के बीच से छीनकर तो नहीं भागी थी...लेकिन बड़े होकर मैंने जब ऊपर
उल्लेखित पहली लघुकथा लिखी तो अपनी माँ की उस वक्त की मनोदशा का चित्रण करने का
प्रयास जरूर किया था।
बचपन की
स्मृतियों पर मेरी यह पहली सृजनात्मक पहल थी। जो बाद में हिन्दी दिवस पर मेरे बैंक
द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में पहले पुरस्कार हेतु चुनी गयी थी। माँ हमेशा मेरी
रचनात्मकता को प्रोत्साहित करती रहती थीं।
अब माँ नहीं
हैं...फिर भी हैं हमारे साथ.....माँ अपने बच्चों को छोड़कर कहाँ जाती हैं।
उन्हीं को याद
करते हुए ये कविता पढ़ लीजिए....
इंतज़ार करती
माँ
अमरूदों से लद
गए हैं पेड़
आंवलों की
होने लगी है बरसात
गूदे से भर
गईं हैं सहजन की फलियाँ
बीते कसैले
समय की तरह
मैथी दाने की
कड़वाहट को गुड़ में घोलकर
तैयार हो गए
हैं पौष्टिक लड्डू
होड़ में दौड़ते
पैकेटों के समय में
शुक्रवारिया
हाट से चुनकर लाई गयी है बेहतर मक्का
सामने बैठकर
करवाई है ठीक से पिसाई
लहसुन के साथ
लाल मिर्च कूटते हुए
थोड़ी सी उड़
गयी है चरपरी धूल आँखों में
बढ गई है
मोतियाबिंद की चुभन कुछ और ज्यादा
भुरता तो बनना
ही है मक्का की रोटी के साथ
तासीर ही कुछ
ऐसी है बैंगन की
कि खाने के
बाद उदर में
अग्निदेव और
वातरानी करने लगते हैं उत्पात
छाछ ही है जो
करती है बीच बचाव
कोई ख़ास
समस्या नहीं है यह
घी बनने के
बाद सेठजी के यहाँ
रोज ही होता
है ताजी छाछ का वितरण
पूरी तैयारी
रहती है माँ की गाँव में
मैं ही नहीं
पहुँच पाता हूँ हर बार
जानता हूँ बह
जाता होगा बहुत सारा नमक प्रतीक्षा करते
ऊसर जाती होगी
घर की धरती
आबोहवा में बढ़
जाती होगी थोड़ी सी आद्रता
सच तो यह है
कि खूब जानती है माँ मेरी विवशता
खुद ही चली
आती है कविता में हर रोज
सब कुछ समेटे
अपनी पोटली में।
000
खुशियों का गुलदस्ता
प्राथमिक
शिक्षा के हमारे समय में अप्रैल माह के अंतिम दिन परीक्षाओं के परिणाम घोषित होते
थे। 30 अप्रैल याने 30 अप्रैल। उस दिन बड़ा उत्साह रहता था
मन में। पुरानी कक्षा से नई कक्षा में जाने की बहुत खुशी रहती। नई नवेली किताबों
की नई खुशबू और किताबों में छपे चित्रों रेखांकनों का आकर्षण अलग सी अनुभूति जगाता
था। उचित शब्द नहीं मिल रहा उस अनोखी अनुभूति के लिए। आज भी बस महसूस ही किया जा
सकता है।
सुबह सुबह
उंमग और उत्साह से फूलों की तरह चेहरे खिले रहते सब बच्चों के। उस जमाने में
रिजल्ट वाले दिन परेंट्स को स्कूल बुलाए जाने का रिवाज नहीं था। एक बार पाठशाला
में दाखिल कराया कि बच्चा स्कूल परिवार का सदस्य हो जाता। उसके अच्छे बुरे के
जिम्मेदार उसके गुरुजी याने क्लास टीचर ही हो जाते थे। बाप से ज्यादा 'मास्टर' बच्चे के करीब होता था। उसकी रग रग को जानता था। उसे पता होता था कि कौन
सा छात्र मंडी में हम्माली करेगा, कौन पिता की गद्दी पर
बैठकर तिजोरी भरेगा और कौन कलेक्टर बनेगा।
गुरूजी किसी
किसी बच्चे को शुरुआत में ही परख लेते थे कि उनका फलां छात्र उनकी तरह शिक्षक धर्म
निभाने की योग्यता रखता है। वह बच्चा उनका प्रिय विद्यार्थी हुआ करता था। मुझे भी
यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यह अलग बात है कि कालांतर में यह हो नहीं हो पाया।
बैंक में मुलाजिम हो गया। मित्र और सहकर्मी यह जरूर कहते कि तुम्हे तो किसी कॉलेज
में होना था, यहाँ कहाँ आ फँसे...यह फसाना फिर आगे कभी....
बहरहाल, 30 अप्रैल को सुबह खिले
कुछ फूल 'प्रगति पत्र' पाकर मुरझा
जाते। कुछ उल्लास से चहकते महकते किसी गुलदस्ते में बदल जाते। मगर जो अनुत्तीर्ण
हो जाते उनको गुरुजी ढाढस बंधाते। और अधिक तैयारी करने को प्रोत्साहित करते। जो एक
दो विषयों में फेल हो जाते उनके लिए जून-जुलाई माह में पूरक परीक्षा होती। कुछ को
कृपांक देकर उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता।
आज जब पीछे
मुड़कर देखता हूँ तो लगता है परीक्षा में उस वक्त असफल हुए दोस्त जीवन की परीक्षाओं
में कभी असफल नहीं हुए। उन 30 अप्रैलों को मुस्कुराते फूलों का गुलदस्ता अब न जाने कहाँ
होगा लेकिन उस दिन के मुरझाए फूल आज भी खिले हुए नजर आ जाते हैं और अपनी खुशबू से
लोगों के जीवन में बहार लाने में जुटे हुए हैं....
पिछली कक्षा
के परीक्षा परिणाम जब अप्रैल के अंतिम दिन घोषित हो जाते तो परीक्षा में उत्तीर्ण
होने की उतनी खुशी नहीं होती थी जितनी पूरे दो माह के लिए पढ़ाई लिखाई और स्कूल के
अनुशासित बंधनों से मुक्त हो जाने की होती थी।
दिलचस्प यह भी
होता था कि जो बच्चे फेल हो जाते वे और ज्यादा प्रफुल्लित नजर आते। एक वजह तो यह
कि पास होने वालों की तरह ही उनके लिए भी दो माह का मुक्त आनन्द व बेफिक्र मस्ती
के दिन समान रूप से उपलब्ध रहते। एक अतिरिक्त खुशी यह होती कि अगली कक्षा में
पुराने पाठ्यक्रम को ही दोहराना सुनिश्चित हो जाता था। नई किताबें खरीदने का खर्च
भी बच जाता माँ बाप का। परीक्षा में सफल, असफल हर बच्चे को छुट्टियों का मजा
लेने का समान अवसर मिलता था।
बचपन के जीवन
में साल के मई और जून, ये दो माह भले ही ग्रीष्मकाल में तपती धरती पर सबसे कठिन माने गए हों मगर
बच्चों के मन पर तो ये बहुत शीतल, राहत भरे और बहुत रसीले हुआ
करते थे। तरबूज, खरबूज और आमों की मिठास जैसे होते थे ये दो
माह।
आज के
पेरेंट्स के लिए तब के पालको पर किसी 'समर केम्प' आदि
जैसा कोई दबाव भी नहीं होता था। दबाव तो माँ बाप होने का भी नहीं होता था। संयुक्त
परिवारों में बच्चे यूँही पल जाया करते थे। दादा, दादी हो या
काका या बुआ, बच्चा तो जान ही नहीं पाता था अपनी समस्या किसे
कहनी है। माता,पिता तो बहुत बाद में आते थे, उससे पहले ही परिवार के अन्य लोग स्थितियां संभाल लेते थे।
बच्चे भी अपने
आनन्द के रास्ते स्वयं खोज लेते थे। इंडोर और आउट डोर सब तरह के खेलों और मनोरंजन के
साधनों की कोई कमी नहीं थी। दादा,दादी के पास चौपड़,शतरंज होता था। बुआ,चाचा के पास ताश के पत्ते और कैरम। कुछ नहीं तो फर्श पर चौकड़ी बना कर इमली
के बीज की गोटियों से 'अष्टा, चंगा,पे' में दोपहर निकल जाती थी।
जो थोड़े
रचनात्मक रुझान के होते वे चित्रकारी करते, पुस्तकें और बच्चों का अखबार और
पत्रिकाएं पढ़ते। प्रेरित होकर खुद भी लिखते। रात को जब परिजनों को अपना लिखा
सुनाते तो प्रशंसा भी मिलती और इनाम भी। मुझे चित्र बनाना, किताबें
पढ़ना पसंद था। थोड़ा बहुत लिखने की कोशिश भी करता रहता था।
काका जीनियस
रहे हैं। पेशे से वे गणित व विज्ञान के आदर्श शिक्षक थे लेकिन हिंदी में लिखते,छपते थे, चित्रकार और क्राफ्टकला और रंगोली बनाने में सिद्धहस्त थे। उन्होंने
एमएससी के अलावा पांच विषयों में एमए किया था। अध्ययन और सृजन में उन्होंने सदैव
अपने को व्यस्त रखा।
पिताजी के हर
दो साल में ट्रांसफरों के कारण पढाई में मेरा कोई नुकसान न हो इस वजह से मुझे दादा
दादी और अपने काका के साथ ही ज्यादातर बचपन बिताने और सीखने समझने का लाभ मिल सका।
पिता संत
प्रवत्ति के ईमानदार और विनम्र व्यक्ति थे और माँ में मेरी कर्मठ नानी माँ और
आदर्श शिक्षक, संगीतप्रेमी नानाजी के संस्कार आए थे। वे बहुत समझदार और साहित्य और
कलाप्रेमी स्त्री थीं। बहुत अच्छा गाती थीं। क्या कहूँ उनके बारे में...वे बस माँ
थी...जैसी हर माँ हुआ करती हैं।
कोरोना काल के
लॉक डाउन के दौरान जब लोग सोशल मीडिया पर डिजिटली लाइव हो रहे हैं, मैं अपने स्मृति
के एकांत में अपने भीतर के ‘जूम लाइव’ में दादा दादी, माँ पिताजी और काका आदि के
साथ एक साथ बतियाता रहता हूँ।
मोहल्ले में दौड़ती स्मृति
घर
से दो किलोमीटर की परिधि में बचपन में नंगे पैरों बहुत दौड़ लगाई। विश्व साइकिल
दिवस के दिन शब्दों की साइकिल पर सवार होकर स्मृतियों के उसी छोटे से हिस्से में
घूम आने का मन हो जाना स्वाभाविक है।
देवास
में बचपन के मेरे मोहल्ले को पहले 'नाना बाजार' कहा जाता था। कुछ दुकाने अवश्य थीं, मगर उनके स्वरूप
घरेलू किस्म के ही थे। दक्षिण में भी इसी प्रकार की गली वाला मोहल्ला था किंतु उसे
'बड़ा बाजार' कहा जाता था। इसी बड़े
बाजार से जुड़ा 'मुकरबा' था जहां
चित्रकार प्रो. अफ़जल का घर था। बड़े बाजार के एक 'रावला'
में मालवी के शीर्ष कवि और पत्रकार पंडित मदन मोहन व्यास किराए से
रहते थे। बहुत बाद में पता चला कि हिंदी के वरिष्ठ कवि,व्यंग्यकार,पत्रकार श्री विष्णु नागर जी का वह ससुराल था।
एक
'रावला' हमारा भी था। रावला में अक्सर एक बड़े गेट के
भीतर एक बस्ती बसी होती है।
यह
रावला 'नाना बाजार' में था। मालवा में छोटे को 'नाना' भी कहा जाता है।
मोहल्ले
की मुख्य सड़क कोई आठ फुट चौड़ी एक गली ही थी। जिसके एक तरफ की पूरी पट्टी में
मुस्लिम भाइयों के परिवार रहते थे, उस पट्टी के पीछे 'पोस्तीपुरा' तथा 'मोहसिन पुरा'
आबाद था। इन्ही मोहल्लों में प्रसिद्ध जलतरंग वादक उस्ताद यासीन खाँ
निवास करते थे। यहीं रहकर कभी शास्त्रीय गायक संगीत सम्राट उस्ताद रज्जब अली खाँ
साहब ने संगीत साधना की थी। हमने उन्हें कभी नहीं देखा था, किस्से
जरूर सुने थे कि उनके गायन के कारण आकाशवाणी लाइव प्रसारण की बजाए कार्यक्रम की
पूर्व रिकॉर्डिंग करने लगी थी। दरअसल, उनके गाते वक्त गड़बड़ी
करने पर संगत कर रहे साजिंदे को वे बीच में ही नवाज देते थे। सुगम गायक, रंगकर्मी और आकाशवाणी के निदेशक स्व. नरेंद्र पंडित जीवित थे तब तक खां
साहब की स्मृति में बरसी पर उनकी मजार पर चादर चढ़ाने के साथ संगीत सभा करवाया करते
थे। वर्तमान में उस्ताद रजबअली खां साहब की मजार पर शहर के संगीत प्रेमी
प्रतिवर्ष 8 जनवरी को उन्हें आदरांजली देने अब भी जाते है साथ ही प्रदेश शासन भी रज्जब
अली खां और अमानत अली स्मृति संगीत समारोह का दो दिवसीय आयोजन देवास में करता है
जिसमे सुर संगीत के देश के नायाब और नामचीन कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं।
जब
नगर पालिका ने गलियों सड़कों के नामकरण किये तो नानाबाजार की हमारी गली 'संगीत
सम्राट रज्जब अली खाँ मार्ग' के नाम से जानी जाने लगी।
'नयापुरा' चौक देवास में हमारी गली के आगे का प्रमुख
चौराहा था। छोटा मोटा बाजार था वह चौराहा। किराना से लेकर चूड़ियों,मिठाई और हेयर कटिंग की दुकान भी हुआ करती थी वहां। उन्ही दिनों 'अंग्रेजी हटाओ' आंदोलन चल निकला था और दुकानों आदि
के अंग्रेजी होर्डिंगों पर कालिख पोती जाने लगी थी। विद्यार्थियों को अंग्रेजी में
उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं था। बस परीक्षा में शामिल जरूर होना पड़ता था। उस वक्त
की हमारी 'अंग्रेजी हटाओ' वाली उत्साही
किशोर पीढ़ी पर इसका जो असर हुआ बेशक उसके परिणाम बाद में अब तक भुगतना पड़े हैं।
तो
जिक्र हजामत की दुकान का हुआ तो याद आया कि वहाँ के प्रोपाइटर देवानन्द की तरह टाई
वगैरह लगाकर बाल संवारता था। लोग भी उसे 'हेयर ड्रेसर' कहते थे। अब तो यह सब आम है लेकिन उस वक्त आधुनिक साधनों से युक्त देवास
का वह पहला जेंट्स ब्यूटी पार्लर था। सब कुछ पाश्चात्य होने के बावजूद उसकी दुकान
पर हिंदी में खूबसूरती से 'केश कर्तनालय' लिखा गया था।
गली
से निकलते ही भेरूलाल जी हलवाई की प्रसिद्द दुकान हुआ करती थी। जो आज भी उनके
परिजन चला रहे हैं। उनकी दुकान पर एक बोर्ड लगा था-' क्या चाहिए? मिठाई के लिए सीधे चले आइए'। वह बोर्ड कुछ इस तरह
लिखा हुआ था कि उसमें ऊपर 'क्या चाहिए’ के बाद एक पंक्ति में
केवल प्रश्नवाचक चिन्ह (?) बना था। उसके नीचे अगला वाक्य था 'मिठाई के लिए सीधे चले आइए।' एक पंक्ति में लिखे
प्रश्न चिन्ह को हम बच्चे अंक समझकर 'एक' पढा करते थे। जोर से बोलते 'क्या चाहिए, एक मिठाई के लिए सीधे चले आइए।'
सच
भी था कि भेरुलालजी के यहां एक ख़ास मिठाई 'रसभरी' विशेष रूप से ईजाद की गई थी और बड़ी प्रसिद्ध थी। मावाबाटी की तरह लगने
वाली रसभरी उससे अलग होती थी। उसके बीच से मीठा रस और एक किशमिश निकलती थी। अनोखा
स्वाद था उसका। रिश्तेदार आते तो उन्हें भेरूलाल जी की रसभरी अवश्य खिलाई जाती थी।
उन दिनों वहां की रसभरी मुम्बई और लंदन तक कुछ रिश्तेदार ले जाया करते थे। अब भी
हलवाई उस तरह की मिठाई बनाने की कोशिश करते हैं, मगर
भेरुलालजी की वह रसभरी अब कहाँ।
नयापुरा
चौक के बीच में देवास सीनियर स्टेट के पूर्व महाराजा तुकोजी राव सीनियर की आदमकद
कांस्य प्रतिमा होलकर पगड़ी धारण किये तलवार लिए खड़ी रहती थी। इन्ही की छत्र छाया
में गांवों से आकर किसान सब्जियां बेचते थे।
यह
वही चौराहा था जहाँ आपातकाल के बाद हुए चुनावों में एक प्रत्याशी सुरेश पोल की
मसखरी सभा को सुनने भारी भीड़ जुटी थी। जिसका वर्णन मैने लिखा था, जो
नईदुनिया में पहली बार किसी बड़े लेख के रूप में प्रकाशित हुआ था। छपने के बाद मैं
बहुत डर गया था। बहुत दिनों तक घर से नही निकला था। आपातकाल और सत्ता का भय उस
वक्त भी कुछ कम नहीं था लिखने वालों में।
इसी
चौराहे के पूर्व दिशा में नाहर दरवाजे से होकर हमारे स्कूल और कॉलेज का रास्ता
जाता था। बगल से चामुंडा टेकरी का रास्ता था। कोई 10 मिनट में टेकरी की
सीढ़ियां छूकर लौट आते थे। आधे घण्टे में टेकरी के शिखर (दमदमा) पर पहुंचा जा सकता
था। आज भी केवल सुबह शाम टेकरी पर भ्रमण से ही पर्याप्त योगाभ्यास का सहज लाभ लेते
हैं देवास वासी।
इसी
चौराहे की एक तरफ ऐतिहासिक जवाहर चौक सभा स्थल तक पहुंचने के लिए कवि कालिदास
मार्ग (वस्तुतः गली) निकलता था। आजाद हिंद फौज के सिपाही डॉ लोंढे का अस्पताल था।
वे हमारे पारिवारिक चिकित्सक थे। थोड़ा आगे भड़भूँजे और पिंजारे की दुकानें थी जो बाद
में बन्द हुई तो वहां 'नेशनल लाइब्रेरी' खुल गई। जहां 25 पैसे रोज पर पुस्तकें किराए पर मिलती थीं। गुलशन नन्दा, कर्नल रंजीत वहां से लाकर खूब पढ़े हमने।
नयापुरा
चौक से कवि कालिदास मार्ग की ओर मुड़ते ही चतुर्भुज जी का सेंव का कारखाना (गुमटी)
था। नीचे भट्टी पर वे सेंव बनाते और खुली खिड़की से गर्मा गर्म धुआं ऊपर के कमरे
में प्रवेश करता। ऊपर के कमरे में उन दिनों ख्यात कथाकार,चित्रकार
प्रभु जोशी पिपलरावा से आकर किराए से रहते थे। उस कमरे और उनके रचनात्मक दिनों की
झलक उनके जल रंग चित्रों में आज भी चतरू मामा की सेंव की दिलकश खुशबू बिखरती महसूस
की जा सकती है।
इनके
ठीक सामने क्रिएटिव फोटोग्राफर सोनी जी का घर था। मुम्बई में हिंदी सिनेमा के लिए
काम कर चुके प्रतिभाशाली पिता के पुत्र भाई कैलाश सोनी की चर्चा आगे....फिलहाल
थोड़ा ननिहाल घूम आते हैं।
हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का...
नानाजी भले ही
मन्दसौर जिले के कई गांवों कस्बों में प्राथमिक शालाओं के प्रधान अध्यापक रहे थे, लेकिन उनकी गहरी सामाजिक
और सांस्कृतिक अभिरुचियाँ थीं। वे संगीत के बड़े रसिक थे।
उनके पास एक
हारमोनियम तथा बड़ा सा ग्रामोफोन था। जिसे सामान्य बोलचाल में चूड़ी का बाजा भी कहा
जाता था। सैकड़ों की संख्या में गानों के रिकार्ड्स एक बॉक्स में रखे होते थे।
गर्मी की
छुट्टियों में जब हम माँ के साथ वहां जाते तो नानाजी किसी रिकॉर्ड को बाजे की
डिस्क पर लगाकर हमें सुनाते थे। छोटी सी डिबिया से एक नई सुई निकालकर बाजे में
लगाते। सुई घूमती डिस्क पर रखे रिकॉर्ड को छूकर थिरकने लगती तो बाजे का भोंगा गाने
लगता था। बड़ा कुतूहल का दृश्य होता था वह।
'हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का' पहली
बार नानाजी के उसी बाजे पर सुना था।
मेरे मन में
यह इच्छा हमेशा रहती थी कि नानाजी खुश होकर यह 'चूड़ी का बाजा' मुझे
गिफ्ट कर दें। छोटे मामा और मुझ में अक्सर इस बात पर थोड़ा झगड़ा भी हो जाता था कि
नानाजी हारमोनियम किसे देंगें और चूड़ी का बाजा किसे?
बचपन में तो
यह हो नहीं पाया, लेकिन जब अवसर आया, तब न नानाजी रहे और न उस बाजे का
वक्त रहा। तब का ‘श्वेत श्याम’ लाल दुपट्टा सतरंगी हो गया था।
रिकार्ड्स, ग्रामोफोन के बाद टेप
रेकॉर्डर, कैसेट,सीडी, प्लेयर का युग आया और आहिस्ता से गुजर भी गया। अब तो मोबाइल में ही सब कुछ
उपलब्ध है। लग तो यह भी रहा कि टीवी भी अब अपने पतन की राह पर ही है। दुनिया भर
में मनोरंजन के कई नए साधन आ गए हैं।
लेकिन असल बात
तो फिर छूट गई। बात हारमोनियम की हो रही थी। नानाजी को हारमोनियम का बड़ा शौक था।
उनका अपना हारमोनियम था। अपनी पोस्टिंग वाले गाँव मे उनकी एक संगीत मंडली भी बन जाया
करती थी। जो नियमित कबीर,मीरा आदि के गीत गाया करती थी। अपने एक इंटरव्यू में दादा बालकवि बैरागी
जी ने मेरे नाना की इस प्रतिभा का उल्लेख मुझ से किया था। चीताखेड़ा (मन्दसौर) में
निवास के दिनों में नानाजी का यह शौक चरम पर था। मैं तो शायद दो तीन वर्ष का बालक
ही रहा होऊंगा। मुझे तो यह सब बाद में माँ और बैरागी जी से ही पता चला था।
बहरहाल, कितने ही नए और आधुनिक
वाद्य यंत्र भारतीय संगीत में आये हैं, कई लुप्त भी हो गए
लेकिन हारमोनियम आज भी आम लोक समाज में दिख ही जाता है। गली मोहल्लों की कथा भागवत,
भजन मंडलियों, रामलीला,सत्संग,माच से लेकर कव्वाली की महफिलों की शान बना हुआ है।
प्रतिदिन
'वीणा
वादिनी वर दे' गाने वाले विद्यार्थियो में से वीणा
बहुत कम बच्चों ने देखी सुनी होगी मगर 'हारमोनियम' से हर
कोई परिचित है।
और ऐसे
में 71 की उम्र में नागर जी हॉर्मोनियम बजाना
सीखते हैं। और कवि कुमार अम्बुज के सृजन में आया अवरोध 'हारमोनियम
की दुकान' पर उपजी संवेदनाओं से खत्म होता है और
डेढ़ साल बाद वे कोई कविता लिख पाते हैं तो इसका महत्व कुछ अलग नजरिये से भी पता
चलता है। इन दोनों मित्रों की बातें भी आगे होंगी ही।
किसके रोके रुका है सवेरा
विविध भारती पर छायागीत
कार्यक्रम में रेडियो सखी ममतासिंह साहिर लुधियानवी का पुराना गाना बजा रहीं हैं 'रात भर का है मेहमाँ अंधेरा...किस के
रोके रुका है सवेरा..!' सुनते सुनते खो गया हूँ देवास के
अपने बचपन के मोहल्ले में निकलने वाले मुहर्रम के जुलूस की स्मृतियों में।
झिलमिलाती गली में देर रात
रंग बिरंगे और खूबसूरत ताजिए, बुर्राक,
घोड़े और अन्य निशान निकलते थे। अखाड़ों के साथ करतब दिखाते जांबाज
कलाकार और खिलाड़ियों को देखना बहुत कौतुक और रोमांच भरा होता।
उस्ताद यासीन खां साहब के
विख्यात बैंड पर फ़िल्म 'सोने की
चिड़िया'(1958) के गीत की ओ पी नय्यर साहब की बनाई 'रात भर का है मेहमां अंधेरा' धुन बजा करती थी।
बाद में शायद उनके भाई अजीज
खां साहब इस बैंड के प्रोपाइटर हो गए थे। तब इस बैंड को अजीज खाँ साहब का बेंड कहा
जाने लगा। कुछ अन्य व्यावसायिक नाम भी था बैंड के बैनर पर लेकिन पहचान तो यासीन
साहब और अजीज खां साहब के नाम से ही थी। उस जमाने में इलाके का यह बहुत मशहूर बैंड
हुआ करता था। हर कोई चाहता था कि उसके यहां शुभ कार्यक्रमो में यही बैंड बजे।
बढ़ते शहर में अजीज भाई के
बैंड की मांग बढ़ने पर बाद में कई नए बैंड भी आए और शादी ब्याह के मौसम में अनाप
शनाप चार्ज भी करने लगे। यासीन खां साहब की सरपरस्ती में इस खास बैंड ने हमेशा
अपनी साख को बनाए रखा था और मुनासिब मेहनताना ही लिया, मेरा निजी अनुभव तो तब यही रहा। सन 1984
में अपनी बहन की शादी में घोड़ी सहित मात्र 500 रुपयों में पूरे चार घण्टों के लिए हमने इस शानदार बैंड को बुक किया था।
उसी दौर में अन्य बैंड इसी काम के 2000 रुपये तक मांग रहे थे,
वह भी इस शर्त पर की समय हो जाने पर प्रति घण्टा 500 रुपये अलग से चार्ज किए जाएंगे।
बहरहाल, बात यादों में बसे मुहर्रम के जुलूस
की ही करते हैं। यासीन खां साहब सामान्यतः बैंड प्रस्तुतियों में खुद नहीं जाया
करते थे लेकिन मुझे अपनी कच्ची पक्की स्मृतियों से स्मरण होता है, जन्माष्टमी पर निकलने वाली राजकीय डिंडी यात्रा और मुहर्रम के जुलूस में
स्वयं 'डायरेक्शन स्टिक' थामें अपना
विशिष्ठ ड्रेस पहन बैंड का नेतृत्व किया करते थे। उनकी छड़ी के इशारों पर साजिंदों
के बाजों से सुर निकलते थे। सभी वादकों से सबसे आगे वे किसी फौजी कप्तान की तरह
शान से चलते थे।
एक बुजुर्ग कलाकार अपनी कमर
में घोड़े के शरीर का पुतला कंधों पर लटकाए रास थामें मोहक नृत्य किया करते थे।
उनके पैरों में घुंघरू बंधे होते थे और सिर पर ताज चमकता था। घोड़े पर जैसे कोई
युवराज सवारी कर रहा हो। गीत की लय पर थिरकते हुए वे बहुत मोहक लगते। उस पूरे
नजारे को देखकर तन में सरसरी सी और भीतर शर्बत सी मिठास घुलने लगती थी। मन करता है
यादों में बसा वह अश्व नृत्य फिर से निहार सकूं।
न जाने क्यों इस कोरोना काल
के एकांत में बहुत कुछ याद आता रहा है... अभी कुछ दिन पहले देवास से बचपन के
सहपाठी और काव्य मंच के राष्ट्रवादी कवि देवकृष्ण व्यास जी का फोन आया था। खैर खबर
पूछ रहे थे। बोले- मोबाइल में सेव सभी मित्रों से बातचीत कर रहा हूँ। वैश्विक
महामारी से बनी अनिश्चतता के बावजूद साहिर साहब के बोलों से जीवन में विश्वास पैदा
होता है...
रात भर का है मेहमाँ
अंधेरा........किसके रोके रुका है सवेरा....।
मौका भी है तो आइए पढ़ते हैं
साहिर साहब का वही आशा जगाता लाजवाब गीत....
रात भर का है मेहमां अंधेरा,
किसके रोके रुका है सवेरा..
कोई मिलके तदबीर सोचे
दुःख के सपनो की ताबीर सोचे
जो तेरा है वोही ग़म है
मेरा
किसके रोके रुका है सवेरा
रात भर का है मेहमां..
रात जितनी भी संगीन होगी,
सुबह उतनी ही रंगीन होगी..
ग़म न कर दर है पागल घनेरा
किसके रोके रुका है सवेरा
रात भर का है मेहमां
अंधेरा..
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