Friday, 22 January 2021

धाराजी की वह रोमांचक यात्रा

 

धाराजी की वह रोमांचक यात्रा

 

प्रकृति की अद्भुत छटा निहारते हुए सबकी थकान जैसे गायब हो गयी थी. सागौन के घने जंगल को चीरती हुई कमांडर जीप अब घुमावदार पहाडी रास्ते पर चढ़ाई कर रही थी. लगभग पांच किलोमीटर लंबा छोटा-सा घाट था यह. पहाड़ियों के ऊपर से पानी के गिरने से बीच का कुछ रास्ता टूट भी गया था. हालांकि डामरीकरण किया हुआ था पर पहाडी रास्तों पर गढ्ढे हो जाना आम बात होती है.

 

बागली में ग्रामीण बच्चों के तीन दिवसीय व्यक्तित्व विकास शिविर का आज ही समापन हुआ था. बैंक की बागली शाखा के साथी युगल जोशी का बहुत आग्रह था कि शहर में तो तंग बस्ती के बच्चों के लिए काम करते ही हैं लेकिन यदि आदिवासी क्षेत्र के बच्चों के लिए भी कुछ शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए काम हो तो वे शिविर स्थल आदि सहित बच्चो को लाने-ले जाने की व्यवस्थाएं करवा देंगे. समाज सेवा प्रकोष्ठ के अध्यक्ष और संयोजक श्री आलोक खरे जी ने भी सहमति दे दी थी और इंदौर से कोई 80 किलोमीटर दूर ग्रामीण और आदिवासी अंचल के कस्बे में शिविर संपन्न हुआ था. शनिवार रविवार के साथ सोमवार को स्थानीय अवकाश होने से बच्चों की भी बड़ी संख्या में सहभागिता हुई. पालकों और स्थानीय प्रबुद्ध जनों ने भी पहली बार ऐसे शिविर को देखा समझा और खुशी जाहिर की थी.

 

बैंक के क्षेत्रीय प्रबंधक भी अपनी रूचि से सम्मिलित हुए. तीन दिनों के लिए उन्होंने अपना मोबाइल फोन भी बंद कर दियावैसे भी पहाड़ियों से घिरे इस क्षेत्र में सिग्नल बड़ी मुश्किल से ही मिल पाते थे. सारे प्रशासनिक तनावों से तीन दिनी मुक्ति का यह रचनात्मक रास्ता उनके पास सहज उपलब्ध था. हालांकि धाराजी यात्रा में वे शामिल नहीं हुए. शिविर समाप्त हो गया था इसलिए उनका समय पर मुख्यालय पहुँचना जरूरी था.

 

शिविर के बाद युगल जोशी (परिवर्तित नाम) ने जब आलोक जी और उनकी टीम के साथियों को बागली के आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद लेने के लिए अनुरोध किया तो पहले तो ज्यादातर सदस्यों ने ना-नकुर की. सबकी इच्छा तीन दिन बाद वापिस घर लौटने की थी. लेकिन नर्मदा में नौकायन करके धाराजी पहुँचने के रोमांच ने जब थोड़ा सा आकर्षण पैदा किया तो आखिर में सब तैयार हो गए.

 

जीप अब घाट के सर्वोच्च पर थी. जैसी की आमतौर पर परम्परा होती है इस स्थान पर एक बड़े शिलाखंड पर सिन्दूर चढ़ाया हुआ था. यह ‘भेरू महाराज’ का मंदिर था. मंदिर क्या था खजूर के पत्तों की एक छत बना दी गयी थी. शीतल जल से भरे कुछ मटके लाल कपड़ों से ढके वहां रखे हुए थे. दाढी बढाए एक बाबाजी जो शायद पुजारी रहे हों या चौकीदार हों या गुप्तचरकुछ कहा नहीं जा सकताजीप के धीमा होते ही बोले- ‘जल पी लीजिये भाई साहब!

 

सब ने ठंडा जल ग्रहण किया. भेरू महाराज के ओटले पर हमारे वरिष्ठ साथी दुबेजी ने पचास रुपयों का नोट चढ़ाया तो सभी लोगों ने कुछ न कुछ वहां भेंट चढ़ाई . खतरनाक घाट और दुर्गम रास्तों पर सुरक्षित यात्रा संपन्न होने पर यह एक तरह से ईश्वर के प्रति आभार प्रदर्शन ही समझा जा सकता था.

 

थोड़ी देर बाद जीप घाट से नीचे उतर रही थी.

 

सरघाट उतरते ही हम पूंजापुरा पहुँच जायेंगे.’ आगे की सीट पर बन्दूक धारण किये सेठ छगन (परिवर्तित नाम) ने आलोक जी को जानकारी दी. वैसे यह सूचना जीप पर सवार सभी के लिए थी. जिनमें मैंयुगल जोशीपंडितजीटोकरिया जी और युगल जोशी के कुछ स्थानीय मित्र शामिल थे.

 

पूंजापुरा में छगन सेठ के यहाँ स्वल्पाहार लेना था. फिर वहां से रामपुरा गाँव (बागली तहसील) के नर्मदा तट से बोट में सवार होकर नर्मदा प्रवाह की विपरीत धारा में यात्रा करते हुए धाराजी पहुँचने की योजना थी.

थोड़ी ही देर में पूंजापुरा में सेठ छगन जी के ओसारे में दही की लस्सी और मूंग की दाल के पकौड़ों की प्लेट सबके हाथ में थी. इस वक्त शाम के सवा चार बज रहे थे.

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रामपुरा पहुँचने में अभी लगभग बीस-पच्चीस मिनट और लगने थे. जीप मैदानी जंगल के कच्चे रास्ते से गुजर रही थी. छगन सेठ का बन्दूक लेकर चलना अब तक स्पष्ट हो चुका था. अकेले-दुकेले लोगों को लूटने की घटनाएँ इस निर्जन इलाके में घटती रहती थींदूसरे जंगली जानवरों का ख़तरा भी बना रहता था. सेठजी ने बताया था कुछ हफ्ते पहले ही एक बाघ नें पास की बस्ती के पशुओं पर हमला कर दिया था. एक नवजात शिशु को भी कोई जानवर उठा ले गया था. सुरक्षा के लिए सावधानी रखना ही ठीक होता है. और फिर आज तो समाज की नामी-गिरामी हस्तियाँ भी साथ में थीं.

एकाएक जीप के रुकते ही सागवान के सूखे पत्तों के दबने से टायरों से कुछ भिन्न आवाज आई.

क्या हुआ?’ टोकरिया जी ने घबराकर पूछा.

सरज़रा रुककर देखिये..ये भीम पहाड़ियाँ हैं.’ छगन सेठ ने इशारे से बताया.

ये उन महलों के स्तम्भ हैं सर जिनसे भीमसेनजी सात महल बनाने वाले थे.’ अबकी बार युगल जोशी ने बताया.

 

युगल पिछले तीन साल से इसी क्षेत्र में शाखा प्रबंधक थे तो अनेक कहानियां उन्होंने सुन रखी थीं. उन्होंने आगे बताया-सरपांडवों ने अज्ञातवास के दौरान इस क्षेत्र का भ्रमण किया था. तब भीम ने तीन फुट व्यास के दस से तीस फुट लम्बी कॉलम बीम आकार में लोह मिश्रित विशेष पत्थरों को इकट्ठा किया था. जो सात स्थानों पर सात पहाड़ियों की तरह दिखाई देतीं हैं.

हाँआप कुछ हद तक ठीक कह रहे हैं युगल भाईप्रसिद्द पुरातत्वविद प्रो. वाकणकर जी ने भी इन पत्थरों पर अनुसंधान किया थावास्तव में इन पहाड़ियों की ऊंचाई 40 से 45 फुट तक है.’ मैंने गृह पत्रिका के लिए एक लेख संपादित करते हुए पढी हुई जानकारी के आधार पर बात को पूर्णता दी.

 

लगभग दसेक मिनट के सफर के बाद रामपुरा गाँव में नदी के किनारे खड़े बोट के नजदीक सब लोग पहुँच गए थे. नदी पर कोई पक्का घाट नहीं था बल्कि पीली मिट्टी के कारण फिसलन भी हो रही थी. छगन सेठ ने जीप में से डीजल से भरा का एक केन निकालकर बोट चालक को दिया. बोट की हालत कोई ख़ास ठीक नहीं थी. युगल जोशी के अनुरोध पर सेठजी ने जुगाड़ बैठाया था. सेठजी ने बहुत शानदार मेजमानी की थीउनके कुछ लोग यहाँ मोटर सायकलों से पहले ही पहुँच गए थे. उन्होंने सबको हाथ पकड़कर बोट में ठीक से सवार किया. इसके बाद उन्हें मोटर सायकलों से धाराजी पहुंचकर नौका यात्रा करते हुए वहां पहुँचने वाले अतिथियों का स्वागत भी करना था.

 

बोट चालक ने एक-दो बार डीजल इंजिन की रस्सी खेंची तो फट फट की आवाज करता स्टार्ट हो गया. बोट भी धीरे-धीरे नर्मदा में आगे बढ़ने लगा...

सरजिस दिशा में हमलोग जा रहे हैं उसके ठीक विपरीत ज्योतिर्लिंग ओम्कारेश्वर स्थित है. जोखिम लेने वाले कई जांबाज तीर्थ यात्री ओम्कारेश्वर से धाराजी नाव से यात्रा करके आते हैं’ युगल जोशी ने बातचीत शुरू की.

 

नदी के बीच बोट के यात्री आसपास की ऊंची खडी पहाड़ियों को देखते हुए रोमांचित हो रहे थे.. लेकिन असुरक्षा का एक भाव भी उनके चेहरों पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था... यह पसीना था या नदी की आद्रता या उमस...कुछ न कुछ तो जरूर था उस वक्त वहां की हवा में.

नर्मदा का जल इतना साफ़ था कि नीचे नजदीक की काली काली चट्टाने साफ़ दिखाई दे रहीं थी.. देखकर थोड़ा डर भी लगने लगता था. मैंने अपना हाथ नदी के जल में डाला तो एक मछली के स्पर्श की अनुभूति से तुरंत हाथ बाहर खींच लिया. दरअसल मैंने पानी में पड़े खजूर के किसी पत्ते को स्पर्श कर लिया था... पता नहीं किस आशंका में सब खामोश हो गए थे...

 

बोट बहुत धीमी गति से आगे बढ़ पा रही थी.. अब सिवाय चालक के उसमें कोई स्थानीय व्यक्ति सवार नहीं था. सेठजी वापिस पूंजापुरा लौट गए थे और बाकी लोग धाराजी की ओर मोटर सायकलों से प्रस्थान कर चुके थे. युगल जोशी ही एक मात्र ऐसा व्यक्ति था जिसकी तीन साल की स्थानीयता के भरोसे सब अतिथि अपना हौसला बनाये रखने के प्रयास में जुटे हुए थे.

 

यार जोशी जीयह धाराजी में आखिर है क्या वहां ? जो तुम हमें ले जाकर दिखाना चाहते हो?’ टोकरिया जी ने यात्रा की घबराहट से थोड़ी राहत पाने के उद्देश्य से चुप्पी भंग की.

टोकरिया जीधाराजी में नर्मदा एक जलप्रपात के रूप में कोई 50 फुट नीचे गिरती है

अरे तो क्या हमें भी गिराओगे वहां ?.

 

डर के बावजूद बोट में जोरदार ठहाके लग उठे. बोट भी बढ़ रहा था आगे. युगल ने भी बात आगे बढ़ाई. ‘नर्मदा की धारा के यहाँ गिरने से पत्थरों की शिला पर 10 -15 फुट व्यास के कई गड्ढे हो गए हैं जैसे ओखलियाँ हों. इन्ही ओंखलियों में बहकर आये पत्थर घूम घूम कर घिसते जाते हैं और शिवलिंग का आकार ले लेते हैं. यहीं से थोड़ा आगे सीता वाटिका है जहां सीता मंदिर भी स्थित है. सीताकुंडरामकुंड और लक्षमण कुंड हैं. चैत्र मॉस की अमावस को मालवा और निमाड़ वासियों का एक मेला भी यहाँ लगता है. कुछ यात्री राजस्थान से भी एकत्र होते हैं. स्थानीय स्तर पर इसे ‘भूतड़ी अमावस’ कहा जाता है. मानसिक रोगियों के कष्ट निवारण की भी यहाँ स्नान करने की मान्यता है.’ युगल के प्रवचन को पंडितजी बड़े ध्यान से सुन रहे थे.

अन्धेरा अब घिरने लगा था.. धाराजी कब पहुंचेंगे किसी को कोई जानकारी नहीं थी.

 

भैयाकितना और चलना है?’ आलोक जी ने चालक से पूछा.

सर बोट में थोड़ा दिक्कत हैरफ़्तार ही नहीं पकड़ रही..देर तो लगेगी..डबल समय लग जाएगा.’ चालक ने इत्मीनान से कहा.

जब रात ही हो जायेगी तो वहां क्या दिखाई देगा.. प्रपात और ओखलियाँ कुछ भी तो नहीं..’ मैंने कहा.

 

जोशीजी अभी थोड़े दिन पहले इसी धाराजी में हुए हादसे की खबर आई थी ना?’ दुबेजी ने जिज्ञासा जताई.

हाँइसी धाराजी की घटना है वहकई तीर्थ यात्री प्रवाह में बहकर मर गए थे.’ इस बार आलोक जी ने बताया. ‘ भूतड़ी अमावस्या के दिन जब मेला लगा हुआ थाओंकारेश्वर परियोजना में बाँध का पानी अचानक छोड़ देने से लाखों श्रद्धालुओं में से अनेकों को अचानक आई बाढ़ अपने साथ बहा ले गयी थी. 70 लोगों की जान चली गयी थीकई अब तक लापता हैं. कुछ का तो बाद में वहीं अंतिम संस्कार करना पडा था.

 

अचानक फट फट की आवाज सुनाई देना बंद हो गयी. बोट रुक गयी थी. चालक ने कई बार कोशिश की लेकिन पुनः स्टार्ट करने में सफल नहीं हो पाया.

अब क्या होगा?’ मैंने चालक से पूछा.

पैदल जाना पडेगा.. मैं बोट को किनारे लगाता हूँ..’ उसने चप्पू की मदद से उसे धीरे-धीरे किनारे पर ला कर एक चट्टान से टिका दियाबोट की रस्सी को पेड़ के तने से बाँध दिया. सात बजे होंगे अन्धेरा गहराता जा रहा था.

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बोट खराब होने के बाद जिस किनारे पर चालक ने उसे टिकाया था वहां सिवाय एक पेड़ के कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. जिसके सहारे चढ़कर ऊपर समतल मैदान में जाया जा सकता हो. पेड़ जहां ख़त्म हो जाता थाउसके ऊपर भी खडी चट्टाने थीं जो अब अंधरे में ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहीं थी.

अधिकाँश लोग उम्र के लिहाज से भी पचास से ऊपर के ही थे. शुगर और बीपी की समस्याओं से भी जूझ रहे थे..लेकिन जज्बा जरूर था सबमें कि पहाड़ चढ़कर मैदान में पहुँच ही जायेंगे.

 

किसी तरह मोबाइल की रोशनी से चट्टानों के बीच बकरियों वाला रास्ता दिखाई दिया. गिरते पड़ते आखिर समतल सतह पर पहुँच ही गए सब.. पंडितजी ने खुशी में उत्साहित होते हुए उद्घोष किया -नर्मदा मैय्या की जय !’ बाद में सभी ने इसे दोहराया. कुछ ने जोर से उच्चारा और कुछ ने मात्र अपने होठ हिलाकर बुदबुदा दिया...जय’.

रात के आठ बज चुके थे. उधर धाराजी में भी स्वागातुर मेजमान आधे घंटे में पहुँच जाने वाले अतिथियों के तीन घंटों से अधिक समय तक नहीं पहुँचने से चिंतित हो उठे थे. किसी अनहोनी कि आशंका में उन्होंने तीन चार तैराकों को भी नाव लेकर विपरीत दिशा में भेज दिया. कुछ लोग मैदानी रास्ते से किनारे किनारे पैदल रवाना हुए...

मोबाइल तो काम ही नहीं करते थे यहाँ. चिंताएं दोनों तरफ थीं. धाराजी पहुँचने के लिए अभी लगभग पांच-सात किलोमीटर अभी पैदल चलना बाकी था. सब आगे बढ़ रहे थे...उधर से भीइधर से भी..

 

इधर बोट चालक हांक लगा रहा था.. कोई हैकोई हैकोई होता तो सुनता. टोकरिया जी मन ही मन शायद युगल जोशी को कोस रहे होंगे..उन्हें इस यात्रा में आने की कतई दिलचस्पी नहीं थी.. मुझे भी पत्नी की चिंता सता रही थी..उसे बीमार छोड़कर शिविर में आ गया था..

 

अचानक सामने से टॉर्च की रोशनी के साथ आवाजें आने लगीं... ‘हम आ रहे हैं जोशी जी ..घबराइयेगा नहीं...’ और सचमुच पल भर में मोटर साइकिल वाले छगन सेठ के वे सहयोगी सबके सामने आ खड़े हुए जिन्होंने सबको बोट में चढ़ाया था...कोई एक फर्लांग पैदल चलने के बाद जीप से सब लोग धाराजी पहुँच गए. गहरे अँधेरे में केवल पानी के गिरने की आवाज आ रही थी. कुछ जांबाज लोग समीप भी गए धारा के. लेकिन मैंआलोक जी और कुछ साथी वहीँ एक टीले पर पैर फैलाकर निढाल हो गए.

 

दालबाफलेदेसी घी के लड्डू के शानदार मालवी भोजन के बाद खुली हवा में आधी रात को छगन सेठ के घर की छत पर बिस्तर लगे तो गपशप में सारी थकान मिट गयी.

बातों बातों में युगल ने बताया अँधेरे में जिन टीलों पर लेटकर आलोक जी और मैंने अपनी थकान मिटाई थी असल में वे हादसे में मृत श्रद्धालुओं की कच्ची समाधियाँ थीं.

 

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सन्नाटा और शापित मूर्तियाँ

 

वर्ष 1990 से 1992 तक देवास जिले के सोनकच्छ मुख्यालय की बैंक शाखा में पदस्थ रहा था। वहीं रहता भी था लेकिन नजदीक की पुरातत्व की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक नगरी 'गंधर्वपुरीके बारे में बस सुनता ही रहाउस वक्त वहां जाना नहीं हो पाया।

 

सोनकच्छ के कबीर मोहल्ले के हमारे पड़ोसी रचनाकार मित्र श्री रमेश सिसोदिया जी ने कई बार कहा भी कि मुझे वहां एक बार अवश्य जाना चाहिए। सिसोदिया जी स्वयं बहुत अच्छे रचनाकार व शिल्पी हैं। अपने घर की ऊपरी मंजिल पर उन्होंने अपना स्वयं का स्टूडियो बना रखा है। जहां अनेक काष्ठ कृतियाँ और मेटल,मिट्टी में उनका काम देखकर बड़ा अचरज होता है कि छोटे कस्बे का एक प्रतिभावान सर्जक अपने एकांत में कितनी संलग्नता से बिना किसी महत्त्वाकांक्षा से कला साधना में रत है।

 

रमेश जी जहां तहां से लकड़ी के टुकड़े,पेड़ों की टहनियां जुटा लेते हैं और उनको रेत करछीलकरअनावश्यक को हटाकर उसको एक अर्थपूर्ण स्वरूप प्रदान कर सबको दांतो तले उंगलियां दबाने को बाध्य कर देते हैं। कविताएं लिखने के अलावा चित्रकार भी हैं जलरंग से उनके बनाए चित्र भी मन मोह लेते हैं। कबीर बस्ती में उनका घर सोनकच्छ आए किसी भी कलाप्रेमी व्यक्ति के लिए किसी 'कला दीर्घासे कम नहीं होगा।

 

सोनकच्छ प्रवास के समय उनके होने से पूरे समय साहित्य और कला क्षुधा कुछ हद तक शांत करने में बड़ी मदद मिली थी। यद्यपि सोनकच्छ में हम लोगों ने दो बार 'प्राचीके बैनर तले 'रचना शिविरोंका आयोजन किया मगर गंधर्वपुरी जाने का योग नहीं बन पाया।

गंधर्वपुरी जाने का योग अंततः वर्ष 2017 में तब बन पाया जब हमारे वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री आलोक खरे जी ने समाजसेवा प्रकोष्ठ के तत्वावधान में ग्रामीण बच्चों के लिए दो दिवसीय व्यक्तित्व विकास शिविर गंधर्वपुरी कस्बे में संयोजित किया। मुझे याद है इस शिविर में इंदौर देवास के कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने बच्चों का मार्गदर्शन कई कला विधाओं में किया था। जिनमें चिंतक कथाकार श्री जीवनसिंह ठाकुरकथाकार सुश्री कविता वर्माकेलिग्राफर चित्रकार श्री अशोक दुबेवरिष्ठ चित्रकार भारती सरवटे जी के साथ साथ मैंने भी रचनात्मक लेखन पर कुछ बातचीत की थी।

 

खैरएक शिविर की सफलता के अलावा जो बात मुझे गंधर्वपुरी के संदर्भ में

कहना जरूरी लगती है वह यह कि यदि यही कस्बा पर्यटन और पुरातत्व की अधिक समझ रखने वाले किसी अन्य प्रांत में होता तो न सिर्फ पिकनिकपर्यटन और सैर सपाटे,मनोरंजन की दृष्टि से बल्कि शैक्षणिक शोध और राजस्व के लिए भी बहुत लाभकारी व उपयोगी सिद्ध होता।

 

इसकी भौगोलिक स्थिति भी इंदौर भोपाल राजमार्ग पर होने से पहुंच भी इतनी सुगम है कि पर्यटकों की भारी संख्या आकर्षित की जा सकती है। लेकिन शायद लोकश्रुति के अनुसार शापित गंधर्वपुरी वर्तमान में भी शापित ही बना हुआ है।

 

गंधर्वपुरी सोनकच्छ तहसील में स्थित एक ऐसा गाँव है जो भारत के बौद्धकालीन इतिहास का साक्षी रहा है। बताते हैं इस गाँव का नाम पहले 'चंपावतीथा। चंपावती के पुत्र 'गंधर्वसेनके नाम पर बाद में गंधर्वपुरी हो गया। 'गंधर्वपुरीके नाम से ही अब इसे जाना जाता है।

 

राजा गंधर्वसेन के बारे में अनेकानेक किस्से प्रचलित हैं। कहते हैं कि गंधर्वसेन ने चार विवाह किए थे। उनकी पत्नियाँ चारों वर्णों से थीं। क्षत्राणी से उनके तीन पुत्र हुए सेनापति शंख,राजा विक्रमादित्य तथा ऋषि भर्तृहरि। बताते हैं कि इस नगरी के राजा की पुत्री ने राजा की मर्जी के खिलाफ गधे के मुख जैसे व्यक्ति गंधर्वसेन से विवाह रचाया था। गंधर्वसेन दिन में गधे और रात में गधे की खोल उतारकर राजकुमार बन जाते थे। जब एक दिन राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने रात को उस चमत्कारिक खोल को जलवा दिया। गंधर्वसेन भी जलने लगे तब जलते-जलते उन्होंने राजा सहित पूरी नगरी को शाप दे दिया कि जो भी इस नगर में रहते हैंवे पत्थर के हो जाएँ।

 

इस दंत कथा में कितनी सत्यता रही है कह नहीं सकते किन्तु यह अवश्य सही है कि इस गाँव के नीचे एक प्राचीन नगरी दबी हुई है। यहाँ हजारों मूर्तियाँ हैं।

यहाँ पर 1966 में एक संग्रहालय का निर्माण किया गया। कुछ खास मूर्तियाँ एकत्रित ‍कर ली गई हैं। एक खुले मैदानी संग्रहालय में अब तक लगभग 300 मूर्तियों को संग्रहित किया गया। इसके अलावा अनेक मूर्तियाँ राजा गंधर्वसेन के मंदिर में हैंएक हॉल बनाकर भी कुछ संग्रहित की गईं हैं। अनेक मूर्तियां नगर में यहाँ-वहाँ खेतों के बीच भी बिखरी पड़ी दिखाई देती हैं।

 

गंधर्वपुरी के ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व को देखते हुए इस कस्बे पर ध्यान देकर इसका विकास किया जाना चाहिए। पर्यटन,खेलकूद और मनोरंजन के साधन और सरकारी संस्थान,होस्टलप्रशिक्षण केंद्र आदि यहां स्थापित किये जाएं तो प्रदेश के हित में निश्चित ही एक उचित कदम होगा।

 

आइए इसी आकांक्षा के साथ आज गंधर्वपुरी के ही बेटे और वरिष्ठ कवि डॉ दुर्गाप्रसाद झाला जी की एक कविता पढ़ते हैं...कविता में शायद गंधर्वपुरी ही हमसे कुछ कह रही है...

 

कविता

सन्नाटा और आवाज़

दुर्गाप्रसाद झाला

 

मेरे अंदर

एक दीया जल रहा है

उसकी रौशनी में

खुद को पढ़ रहा हूँ

और सिर धुन रहा हूँ

 

एक सन्नाटा पसरता जाता है

लेकिन दूर से एक आवाज़

आती लगती है

और मैं उस ओर चल पड़ता हूँ

 

धीरे-धीरे बढ़ाता हूँ कदम

सोचता जाता हूँ

उस आवाज़ तक

पहुंच पाऊँगा या नहीं ?

 

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