देवास की साहित्यिक मित्र मंडली
सर्वश्री प्रकाश कांत, जीवनसिंह ठाकुर और प्रभु जोशी की
त्रयी जैसी साहित्यिक प्रतिभा तो हम लोगों में अब साठ पैसठ की उम्र में भी नहीं आ
पाई किन्तु उनकी पीढ़ी के बाद हम कुछ मित्रों का एक समूह उनकी तरह रचनात्मक दोस्ती बनाए
रखने का भ्रम अवश्य पाले रहता है। देवास में ओम वर्मा, प्रदीप
दीक्षित, मोहन वर्मा और मैं उन दिनों खूब मिला जुला
करते थे। कुछ समय बाद श्री राजा दुबे जो सूचना प्रकाशन विभाग में अधिकारी थे, ट्रांसफर होकर देवास आये तो वे भी मित्र मंडली में शामिल हो गए।
हमारी पहले की त्रयी और नईम
सर का स्नेह तो हमारा सबका सौभाग्य था ही। ओम कॉलेज में मुझसे एक वर्ष सीनियर थे।
प्राणी विज्ञान के छात्र थे। मोहन वर्मा नईम जी के विद्यार्थी थे उनका एक विषय
हिन्दी भी था। मैं गणित का विद्यार्थी था तो कॉलेज एक ही होने के बावजूद पढ़ाई का
साथ नहीं रहा हमारा। अलबत्ता साहित्यिक सांस्कृतिक अभिरुचियों की वजह से हम लोग
निकट आए थे। प्रदीप दीक्षित भी बाद में देवास आये और मित्र बने।
लगभग हर रविवार हम सब का
मिलना जुलना तय रहता था। नई दिल्ली, मुम्बई के समाचार पत्र तारीख बदल कर उसी दिन देवास में उपलब्ध होते थे
किंतु समाचार एक दिन पूर्व के होते थे। नवभारत टाइम्स, दैनिक
हिंदुस्तान, जनसत्ता की बहुत सारी प्रतियां आती थीं। कुछ मैं
भी लेता था, कुछ राजा दुबे के दफ्तर या सार्वजनिक
वाचनालयों में जाकर पढ़ते थे। इस तरह पढ़ने, लिखने, छपने की आकांक्षा से सब का मिलना जुलना कब पारिवारिक मित्रता में बदल गया
पता ही नहीं चल पाया। अब सभी मित्र सेवानिवृत्त होने के बाद भी लगातार सक्रिय हैं।
ओम वर्मा का व्यंग्य संग्रह, और साझा दोहा संग्रह प्रकाशित
हुआ है। लगातार व्यंग्य और दोहे लिख रहे हैं। कुछ दिन 'सुबह
सवेरे' अखबार में नियमित व्यंग्य स्तंभ लिखा। दोहे लिखने में
उन्हें महारत हासिल है। गलत मात्राओं और व्याकरण के जरूरी अनुशासन के बगैर किसी के
लिखे दोहे देखते हैं तो तुरंत संपादक और रचनाकार को पत्र लिखकर आपत्ति दर्ज कराते
हैं।
प्रति सप्ताह की खबरों पर
वे जब गद्य में चुटकियां लिखने लगे तो मैंने उनसे अनुरोध किया कि यही चुटकियां यदि
आप दोहों में लें तो वह विशिष्ट होगीं। उन्होंने तुरंत मेरी बात मानकर दोहों में
व्यंग्योक्तियाँ करना शुरू कर दीं। प्रति सप्ताह ये चुटकी दोहे एक समाचार पत्र में
नियमित छपकर प्रशंसा पा रहे हैं।
ओम भाई की विनम्रता अद्भुत
है। कुमार अम्बुज मुझसे पहले उनके पत्र मित्र थे। उनके बीच कविता को लेकर विमर्श
चलता रहता था। उनसे मिलने कुमार अम्बुज स्वयं देवास आए थे तब मेरे घर पर हम सबने
भोजन किया था। वह स्मृति सब मित्रों को आज भी बहुत आनन्दित करती रहती है।
मित्र मोहन वर्मा हम
मित्रों में अधिक जमीन से जुड़े बहुआयामी रुचियों के धनी रहे हैं।
बचपन से ही पंडित कुमार
गंधर्व जी के परिवार से उनके आत्मीय सम्बन्ध रहे। गणेशोत्सव के मौके पर कुमार साहब
के मार्गदर्शन में होने वाले सांस्कृतिक और सांगीतिक जलसों में मोहन वर्मा गहरी
दिलचस्पी रखते। उनकी सक्रियता बनी रहती थी।
नईम सर का साथ भी उनका मुझ
से पहले से था। नईम सर द्वारा निकाली गई साहित्यिक लघु पत्रिका 'जरूरत' के कुछ अंकों में मोहन भाई का समर्पण और मेहनत उल्लेखनीय रही है। बाद में 'अभिव्यक्ति' संस्था बनाई। पत्रिका भी निकाली।
सर्वश्री ज्ञान चतुर्वेदी, डॉ अंजनी चौहान सहित अन्य
रचनाकारों को देवास में आमंत्रित कर कार्यक्रम भी करते रहे।
मोहन वर्मा व्यंग्य, कविता और निबन्ध तो लिखते रहे
हैं लेकिन उनका महत्वपूर्ण काम 'नवगीत' में हुआ है। एक संग्रह भी आया है। जिसमें उन्हें वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी
का आशीर्वाद मिला है।
रेनबैक्सी इंटरनेशनल कम्पनी
से सेवानिवृत्ति के बाद इन दिनों एक वैचारिक पत्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका के साथ
सामाजिक कार्यों में पूरी तरह व्यस्त हैं। इस बीच कविता, नवगीत तो लिखते ही रहते हैं।
मित्र प्रदीप दीक्षित यदि
धर्मयुग में छपे मेरे चुटकलों पर फटकार नहीं लगाते तो शायद मैं गंभीर लेखन की ओर
कभी उन्मुख नहीं हो पाता। जीवन में ऐसे हितैषी मित्र बहुत कम मिलते हैं। धर्मयुग
के स्तंभ 'रंग
और व्यंग्य' में कुछ चुटकुले छपे तो मैं प्रसन्नता और
गौरव भाव से भर उठा था। मेरे सहित घर के सदस्य भी बड़े खुश थे। थोड़े दिन बाद
धर्मयुग में ही 'हास परिहास' स्तंभ में भी एक रोचक किस्सा छप गया।
यह अलग बात है कि धर्मयुग
के उस प्रकाशन से जीवन की एक उपलब्धि भी जुड़ी हुई है। अपने लिखे पर हालांकि अब तक
कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार नहीं मिल पाया है किन्तु धर्मयुग में छपे चुटकुले के कारण
जीवन की तमाम खुशियां प्रतिष्ठित हुई हैं। दरअसल जिस कन्या का हाथ हमने मांगा था, वह धर्मयुग पढ़ती थी। लड़का धर्मयुग
में छपता है इस बात से खुश होकर उन्होंने फौरन हाँ कह दी थी। फिलहाल इस कोरोना काल
के लॉकडाउन समय में सभी मित्रों की कमी की पूर्ति करने की जिम्मेदारी उन्ही के
कन्धों पर आन पडी।
बहरहाल, धर्मयुग में मेरे चुटकुले पढ़कर
उस दिन प्रदीप दीक्षित गुस्साए से घर आये और गर्व से फूले हमारे गुब्बारे की सारी
हवा निकाल दी। बोले, ‘यह क्या फालतू का काम करने लगे
हो। कुछ अच्छा और गंभीर लिखो।‘ उनका क्रोध देखते ही
बनता था। वह दिन और आज का दिन कुछ भी हल्का लिखने का प्रयास करता हूँ तो प्रदीप
भाई का परशुराम अवतार सामने आ खड़ा होता है।
यही प्रदीप दीक्षित
नईदुनिया अखबार से कोई डेढ़ बरस पहले सेवानिवृत्त होकर अब पुनः अपना कुछ नया लिखने
में सक्रिय हुए हैं। नईदुनिया में उनके विदेश और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर लिखे
लेखों को बहुत प्रशंसा मिलती रहती थी। निश्चित ही नई पारी में वे सफल होने के साथ
हमारी भी रास थामे रहेंगे।
उसूलों पर चलता पैदल यात्री
यद्यपि राजा दुबे देवास के
दामाद रहे हैं मगर हमारा परिचय अस्सी के दशक में उनके देवास पदस्थी काल में ही हुआ
था। जब
देवास के सूचना प्रकाशन कार्यालय में ट्रांसफर होकर आए तो उन्होंने देवास की हमारी
मित्र मंडली (ओम,मोहन,प्रदीप,ब्रजेश) से दोस्ती कर ली। हालांकि देवास में उनके अन्य आत्मीय दोस्त भी
रहे जिनमे दिनेश व्यास,अतुल शर्मा जैसे पत्रकार मित्र शामिल
थे।
प्रत्येक रविवार हम लोगों
का मिलना तय रहता था। कभी सुबह उनके घर जाना होता तो शाम को वे हमारे यहां आ जाते।
माँ अक्सर मक्की के पापड़ और आलू के चिप्स सुखाकर बनाकर रखती थी। वही सुलभ नाश्ता
होता था हमारा। हर बार चिप्स पापड़ से कभी कभार ऊबकर आते ही कह देते कि 'आज चिप्स पापड़ मत खिलाना।' फिर कुछ और जतन करना होता।अलबत्ता चाय के बड़े शौकीन हैं। कहकर बनवा लेते
हैं।
राजा दुबे जी की जो खास
बातें उनके व्यक्तित्व का तब हिस्सा हुआ करती थीं उनमे उनके अपने कपड़ों,जूतों,पेन,स्याही और अन्य चीजों के चयन की श्रेष्ठता होती थी,शायद
अब भी हो। वे अक्सर बैगनी स्याही से लिखते थे। उनकी प्रत्येक वस्तु अच्छी क्वालिटी
की या ब्रांडेड कम्पनी की होती थी।
उनका रंग साफ, लगभग दूधिया होने से बहुत हद तक
वे अब भी किसी विदेशी नागरिक की तरह ही दिखाई देते हैं। मन और व्यवहार में अभी भी
पूरी तरह मालवा और निमाड़ कूट कूट कर भरा हुआ रहता है।
सब को चौंका देने वाली एक
बात यह थी कि वे एक्साइज या सेलटैक्स विभाग में अच्छी भली ऑफिसर की नौकरी को त्याग
कर सूचना विभाग जैसे सात्विक विभाग में चले आये थे। वैसे तो अब किसी विभाग को
सात्विक नहीं कहा जा सकता मगर राजा दुबे अपने आदर्शों पर कायम रहे। अपने हुनर और
रचना की कद्र करना और कीमत लगाना वे अच्छी तरह जानते हैं। बिना पारिश्रमिक लिए वे
अपनी किसी रचना को प्रकाशित नहीं करवाते थे। आज भी मानदेय रहित किसी प्रकाशन में
वे अपना रचनात्मक सहयोग नहीं करते। इसी वजह से जब बहुत से नए लेखक हर जगह नजर आते
रहते हैं उन जैसे एक बेहतरीन लेखक की रचनाएं सर्व सुलभ नहीं हो पाती।
राजा दुबे ने कभी कोई वाहन
चलाना नहीं सीखा। साइकिल भी नहीं। जहां जाते पैदल जाते। समय का अनुमान लगाकर घर से
निकलकर गोष्ठियों, कार्यक्रमों
में पहुंच जाते। किसी मित्र के साथ उसके वाहन पर आना जाना होता तो पहले से बताकर
रखते।
उनके अपने मूल्यों की जो
बात मैने ऊपर कही उससे एक प्रसंग मुझे याद आ रहा। देवास के एक सांस्कृतिक केंद्र
मराठा समाज में स्थानीय युवा चित्रकारों की बनाई पेंटिंग और रेखांकन की एक
प्रदर्शनी लगाना प्रस्तावित थी। योजना यह बनी कि देवास के साहित्यकारों, रचनाकारों, कलाकारों के पोट्रेट बनाकर लगाए जाएंगे। जब देवास के तब के सब चर्चित, प्रतिष्ठित विभूतियों के पोट्रेट बनकर लगने को हुए तो उसमें राजा दुबे पर
चित्र तो था मगर मेरा नहीं बना था।
मराठा समाज का प्रदर्शनी
हॉल उनके दफ्तर के नीचे ही था। वे देखने गए तो मेरा चित्र न पाकर दुखी हो गए और
आयोजकों को कहा कि वे उनका पोट्रेट भी न लगाएं। उनका कहना था कि मैं उनसे पहले से
लिखता रहा हूँ और प्रकाशित हूँ। बगैर ब्रजेश के चित्र के उनका लगाना असहजता
उत्त्पन्न करेगा।
प्रदर्शनी शुरू होने में 24 घण्टे शेष थे। इस बीच एक
युवा चित्रकार ने रात भर बैठकर मेरा पोट्रेट तैयार किया। जब प्रदर्शनी का फीता
काटा गया दीवार पर मेरे चित्र के पास राजा दुबे का चित्र भी मुस्कुरा रहा था।
अब राज्य के सूचना प्रकाशन
विभाग के उच्च पद से सेवानिवृत्त होकर भोपाल में ही अपने तरीके और उसूलों के साथ
सृजन रत हैं। इंदौर आते हैं तो मुलाकात के प्रयास होते हैं।
बहुत शुभकामनाएं राजा दुबे
जी।
उजाले का एंगल
मित्र कैलाश सोनी अपने
कैमरे से कविता लिखते हैं। फोटोग्राफी कला यद्यपि उन्हें विरासत में मिली थी लेकिन
उन्होंने उस कला में अपने हुनर और और दृष्टि से नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं।
मुझे याद आता है जब मेरे
बेटे का पहला जन्म दिन आया तो उसकी पहली तस्वीर उतरवाने हम लोग कैलाश जी के पिता
जी के प्रकाश स्टूडियो ही गए थे। सोनी जी उस जमाने में जाने माने और फोटोग्राफी
में गहरी समझ के लिए प्रसिद्ध थे। सोनी जी द्वारा उतारी गई बेटे की वह यादगार
तस्वीर अब भी उनकी याद दिलाती रहती है। कैलाश जी ने भी अपने गुणी फोटोग्राफर पिता
से कला के खास सूत्र समझे और संस्कार पाए हैं।
वैसे कैलाश जी का पेशा
स्टूडियो की स्टिल फोटोग्राफी अवश्य रहा किंतु चित्रकारों और साहित्यकारों की संगत
और मित्रता में उनका मन कलात्मक सृजन में ही अधिक रमता था। साहित्य और कला जगत के
स्थानीय मित्रों के अलावा देशभर के संपादकों और कलाकारों से उनका संवाद बना रहता
था। प्रभु दा, जीवन
काका,नईम जी,प्रकाश कांत भाई साहब के
साथ तो उनका पारिवारिक उठना बैठना रहता था। मुझ से भी वे बहुत आत्मीयता से मिला
करते थे।
एक बार मुझे हमारे संस्थान
की किसी प्रतियोगिता में कोई पुरस्कार मिला था तब अखबार में खबर के साथ मेरा
व्यक्ति चित्र भेजा जाना था। मित्र मोहन वर्मा ने कहा कि तस्वीर उतरवाना ही है तो
किसी स्टूडियो में जाने की बजाए कैलाश भाई से खिंचवाओ, वे कलात्मक और पत्र पत्रिकाओं
में भेजे जाने वाले चित्रों की प्रकृति और गुणवत्ता को ठीक से समझते हैं।
मोहन भाई की इस बात में
बहुत दम था। कैलाश जी जैसा दृष्टि सम्पन्न और कलागत बारीकियों को समझने वाला कोई
अन्य फोटोग्राफर उस वक्त कोई और हो ही नहीं सकता था।
उन दिनों कैलाश सोनी के
चित्र तमाम अखबारों के अलावा नईदुनिया के विशेषांकों, धर्मयुग और सारिका जैसी
लोकप्रिय पत्रिकाओं में छपने लगे थे। कमलेश्वर जी सहित अन्य बड़े संपादक होली, दिवाली जैसे विशेष अवसरों पर उनसे चित्र मंगवाया करते थे।
कैलाश जी द्वारा खींचे जाने
वाले मेरे चित्र का कलात्मक महत्व तो था लेकिन भविष्य में मेरे किसी संग्रह में
परिचय के साथ उपयोग होने का खयाल मेरे मन में उस वक्त तो कतई नही था।
कैलाश जी के स्टूडियो
पहुंचकर मैंने तस्वीर खिंचवाने की अपनी इच्छा जताई और भीतर लगी कुर्सी पर बैठकर
बाल संवारने लगा। लेकिन कैलाश जी ने मुझे वहां से उठाया और अपने स्कूटर बैठाकर
कहीं और ले जाने लगे। मैं अचरज में पड़ गया। एक साधारण सी पासपोर्ट साइज श्वेत
श्याम तस्वीर के लिए इतनी जद्दोजहद। वे माने नहीं और तालाब किनारे राज परिवार के
समाधि स्थल 'छत्री
बाग' ले गए। काले पत्थरों से बनी एक छत्री की सीढ़ियों
पर बैठा दिया। दोपहर के कोई तीन चार बजे होंगे।
बहुत देर तक वे कैमेरा मेरे
चेहरे पर फोकस करते रहे किन्तु संतुष्ट नहीं हुए। ढलते सूरज के जिस प्रकाश और कोण
की इन्हें दरकार थी वह क्षण अभी आया नहीं था। बोले- 'यार ब्रजेश! उजाले का एंगल नहीं मिल रहा अभी।'
करीब पौने पांच बजे के
आसपास सूरज की गुलाबी और मध्दिम रोशनी चेहरे पर पड़ी और कैलाश भाई ने 'क्लिक' करके तुरंत उस क्षण को कैमरे में कैद कर लिया।
दूसरे दिन वे खुद मेरे बैंक
में उस श्वेत श्याम चित्र की दस प्रतियां बनाकर दे गए। जो बहुत दिनों तक मेरे काम
आती रहीं। वर्षों बाद सन 1995 में आए मेरे पहले व्यंग्य संग्रह 'पुनः पधारें' के फ्लैप पर कैलाश भाई की खींची गई वही तस्वीर छापी गई थी।
फोटोग्राफी कला में किसी
संत की तरह साधना करने वाले इस समर्पित गुणी कला मित्र का जीवन मे आना मेरी
स्मृतियों को समृद्ध करता है। उन्हें भले कई सम्मान प्राप्त हुए हों लेकिन उनकी
विनम्रता फलों से लदे पेड़ की डाली के समतुल्य बनी हुई है।
बाद में जब मैं 1994 से इंदौर में बस गया हूँ
तब भी देवास की प्रत्येक साहित्यिक गतिविधि का हिस्सा अब भी बना रहता हूँ क्योंकि
ओम वर्मा, मोहन वर्मा के साथ साथ हमारे बाद की साहित्यिक,प्रतिभाशाली युवा पीढी के भाई बहादुर पटेल, मनीष
वैद्य, संदीप नाइक जैसे अनुजों का स्नेह बना हुआ है।
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