महफ़िल में !
कुछ वर्ष पहले एक लेख पढ़ने
मे आया था जिसमें बरेली से बाँसुरी की बिदाई पर चिन्ता प्रकट की गई थी। लेख पढ़कर
मुझे एक और दुर्लभ वाद्य 'नसतरंग' और संभवतः उसके आखिरी 'उस्ताद ' वादक श्री बशीर खाँ की याद हो आई। जिस प्रकार बाँसुरी के निर्माण और
स्वरों से न सिर्फ बरेली बल्कि समूचा संगीत संसार दूर होता जा रहा है उसी तरह
नसतरंग के साथ ऐसा काफी अर्सा पहले घटित हो चुका है। यद्यपि कुछ कला अनुरागी और
समर्थ लोग अपने वैवाहिक या निजी जलसों में यदा कदा अभी भी ‘जलतरंग’ और ‘लोह
तरंग’ जैसे दुर्लभ वाद्य यंत्रों के कलाकारों को बुलाकर
अपने आयोजनों को विशिष्ठ स्वरूप देने का प्रयास करते रहे हैं। किन्तु ‘नसतरंग’ तो प्रायः लुप्त सा ही हो चुका है।
मैं थोड़ा भाग्यशाली रहा हूँ
जिसका गृह नगर देवास है और जहां के बाशिंदे जलतरंग वादक उस्ताद यासिन खां साहब और नसतरंग
के उस्ताद बशीर खां साहब को देखने सुनने का मौक़ा मिला। यद्यपि पंडित कुमार गन्धर्व
जी का देवास में निवास करना और वहां के वातावरण में कला और साहित्य की खुशबू का
विस्तारित होते जाना बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धी है। जिनके कारण सांस्कृतिक विशेषतः
शास्त्रीय संगीत,गायन नृत्य, लोक संगीत के शीर्षस्थ कलाकारों की प्रस्तुतियों को रूबरू देखने सुनने का
मौक़ा बचपन से ही मिलता रहा।
थोड़ी सी बात आज हमारे नगर
की शान रहे बशीर खां साहब की करते हैं। ‘नसतरंग’ एक ऐसा वाद्ययंत्र रहा है जिसे बजाने
के लिए वादक अपने गले की विशिष्ठ नसों पर इसे रखकर धमनियों में कंपन करता है, यही कंपन वाद्य में आवाज पैदा करता है। उस्ताद बशीर खाँ एक ऐसे फनकार थे
जो नसतरंग के अस्तित्व के लिए पूरी उम्र जूझते रहे और अंततः दमे का शिकार होकर
संगीत संसार से कूच कर गए। स्व़ बशीर खाँ के पुत्र आबिद खां के अलावा अजमेर के लोक
कलाकार मनीराम पथरोड के चंद प्रदर्शनों को छोड़ दें तो अब न बशीर खाँ हैं और न
नसतरंग का दुर्लभ वाद्य और न ही उसकी शास्त्रीय संगीत आधारित स्वर लहरियां कहीं
सुनाई देती हैं।
अपने जीवन काल में बशीर खाँ
निरंतर इस प्रयास में थे कि उनसे यह कला कोई ग्रहण कर ले लेकिन वे सफल नहीं हो सके
। उगते सूरज को पूजने की हमारी परंपरा ने बशीर खाँ की बूढ़ी नसों का महत्व नहीं
समझा। नसतरंग की कष्टसाध्य एवं लंबी साधना की बजाए संगीत शिष्यों को लोकप्रियता का
शार्टकट अधिक भाता रहा।वैसे भी इसके वादन में कलाकार की धमनियों और नसों के
प्रभावित होने का खतरा भी बना रहता है।
कर्नाटक के श्री रामअप्पा
के शिष्य उस्ताद बशीर खाँ ने अपनी कला का प्रदर्शन पंडित नेहरू से लेकर मध्यप्रदेश
के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मंडलोई के समक्ष तथा अविभाजित भारत कलकत्ता, लाहोर तथा इंदौर की अनेक संगीत
सभाओं में तथा स्वतंत्र भारत के अनेक संगीत जलसों में करके प्रशंसा पाई थी।उनकी
नसतरंग से भैरवी, अहीर भैरव,तोडी
सारंग,यमन,भीम पलासी जैसी कई स्वर
लहरियां फूट पड़ती थीं। मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि उनके अंतिम
सार्वजनिक कार्यक्रम जो पूर्व 'इन्दौर बैंक' की देवास शाखा में वर्ष 1984 में हुआ था
उपस्थित था। बाद के वषों में वे अपनी बीमारी का इलाज अनेक सामाजिक संस्थाओं तथा
व्यक्तियों की मदद से करवाते रहे।
उम्मीद की जाना चाहिए कि
संगीत-संसार का कोई महर्षी नसतरंग की सुधि लेगा। काश्मीर के लोकवाद्य संतूर के
कल्याण के लिए तो पं शिवकुमार शर्मा मिल गए हैं। नसतरंग तक पहुँचना किसी पंडित या
उस्ताद के लिए उसके वादन की तरह ही शायद दुःसाध्य हो लेकिन संकल्प से क्या नही हो
सकता।
जलतरंग, नसतरंग या बाँसुरी जैसे भारतीय
वाद्ययंत्रों और उनकी ध्वनियों का भारतीय संगीत से लोप होते जाना क्या हम गंभीरता
से ले पाए हैं? क्या बशीर खाँ जैसे वादकों के जाने के
बाद भारतीय संगीत संसार और सरकारों के संस्कृति विभागों की यह जिम्मेदारी नहीं
बनती कि ‘नसतरंग’ जैसे
दुर्लभ वाद्ययंत्र का संरक्षण तथा इसके वादन की कष्टसाध्य साधना करने वाले
कलाकारों के प्रोत्साहन के लिए समुचित प्रयास किए जाएँ।
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कोई पन्द्रह वर्ष पुरानी
बात होगी। तब मैं देवास में अपने बैंक में जिला समन्वयक के रूप में पदस्थ था लेकिन
इंदौर से ही बस द्वाराआना जाना किया करता था। देवास से तो फिर जिले भर में दौरा
करने के लिए एक टैक्सी मुझे उपलब्ध हो जाती थी।
उसी अपडाउन के तारतम्य में
इंदौर से देवास के लिए बस में सफर कर रहा था। ड्राइवर ने पुराने गानों की ऑडियो
सीडी चला रखी थी। साठ-सत्तर के दशक के फिल्मी गीत बज रहे थे। सोच रहा था, कितनी मेहनत करते थे वे
संगीतकार। कोई न कोई राग या लोक धुन या उसके समकक्ष की मधुरता बनी रहती थी। शब्दों
के अर्थ और संगीत की लय के साथ,बन्द आँखों के बावजूद
अभिनेताओं के हाव-भाव की अनुभूति हो रही थी। अचानक मेरे सहयात्री युवकों ने
चिल्लाकर बस ड्रायवर से कहा-‘अरे यह क्या ‘भजन-कीर्तन’ लगा रखा है, कोई
नई सीडी लगाओ।’
मैं हतप्रभ रह गया। इतने
अच्छे मधुर और रोमांटिक गानों को युवक ‘भजन-कीर्तन’ की संज्ञा दे रहे थे। कुछ समय पहले
के ही मुकेश,मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के लोकप्रिय गीतों
को उन्होने 'भजन' कहा। कम से
कम यह संतोष की बात थी कि उन्होने उन अमर गीतों को बकवास नही कहा। युवकों के चेहरों
पर बोरियत के भाव थे तथा उन तथाकथित भजनों को वे सुनना नही चाहते थे। यद्यपि उन्ही
गीतों के उटपटांग और आधुनिक संगीत साधनों के साथ बनाए रिमिक्सों और
पुनरप्रस्तुतियों पर थिरकने से शायद ही उन्हे कोई आपत्ति होती हो।
हमारे फ़िल्म संगीत के
स्वर्णिम काल के बाद भी मधुर संगीत आता रहा है, लेकिन कुछ तो है जो उन्हे भजन की संज्ञा नही दिलवाता। बाद के गीतों में
कोई ताल अथवा लय अवश्य ऐसी रही होगी, जो उनकी मधुरता को
साठ-सत्तर के दशक की मधुरता से अलग करती है।
अपने बचपन में हम देखते थे
कि अनेक भजन मंडलियाँ मन्दिरों में अखंड भजन कीर्तन किया करती थीं।चौबीसों घंटे
लगातार। सात-सात दिनों तक मंडलियों के भले ही पहरे (आवृत्ति) बदलते रहते थे, लेकिन कीर्तन सतत जारी रहता था।
हम कहते थे 'भजन' हो रहे
हैं। बडा मजा आता था।
ईश्वर की आराधना में गाए
जाने वाले भजनों के अलावा अवतारों की लीलाओं, निर्गुण भजन, संसार-सार और आध्यात्मिक भजनों की
सतत श्रंखलाएँ चला करती थीं।
फिल्मी गीतों की भजन के रूप
में पैरोडियाँ भी चलन में थीं। बहुत अच्छे भजन जब फिल्मों में आते थे तो उन्हे भी 'भजन' नही कहा जाता था, उन्हें फिल्मी गाना या भक्ति
रचनाएँ ही कहा जाता था।
कानडकर बुआ (प्रसिद्ध मराठी
कीर्तनकार) चौमासे में जब कथा समाप्ति के बाद बड़ा बाजार के दत्त मंदिर में भजन–कीर्तन करते थे तो सैकडों श्रोताओं के
साथ उनका भावनात्मक तादात्म्य स्थापित हो जाता था और सबकी आँखों से आँसू बहने लगते
थे। वह होता था 'कीर्तन'। लेकिन
साठ-सत्तर के दशक के मधुर फिल्मी गीतों को भजन–कीर्तन कहना
मुझे कुछ भाया नहीं।
कुमार गन्धर्व जी का गायन
हम बरसों साक्षात सुनते रहे हैं। कबीर,सूर,मीरा और मालवा में प्रचलित भजनों को उन्होने खूब
गाया। वे भजन गाते तो हमें वे 'भजन' ही नही लगते थे। उनकी सभा में हमें शास्त्रीय संगीत की महान ऊँचाइयों और
स्वर साधना की अनुभूति होती थी। उनके गीतों (चाहे वे तथाक्तित भजन ही क्यों न रहे
हों) से गुजरना हमारी स्मृति की धरोहर है।
देवास के मल्हार स्मृति
मंदिर सभागार में अब किसी कार्यक्रम में जाना होता है तो पार्श्व में यकायक कुमार
साहब के स्वर की उपस्थिति अनुभूत होने लगती है।
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कोरोना काल में पहले लॉक डाउन और फिर
अनलॉक के नए नए अनुभव होते रहे। पहला अनलॉक होते ही बदमाशों ने दिन दहाड़े घरों में
घुसकर चाकू की नोक पर लोगों की संपत्ति और धन लूटने की घटनाओं को अंजाम दिया। कुछ
युवकों ने इंदौर की एक बैंक में 'डकैती' करके भारी रकम की
'लूट' की।
इन घटनाओं पर बहुत लोगों ने लिखा। शासन और
व्यवस्थाओं के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त किया। जो जरूरी भी है किंतु मुझे इस 'लूट' ने किसी और
सकारात्मक संदर्भों की ओर विचार करने को मोड़ दिया।
मैं उन 'दिल लूटने वाले जादूगरों' को याद करना
चाहता हूँ जो अपने हुनर या प्रतिभा से महफिलें लूट लिया करते थे। कई बार अखबारों
में सुर्खियां होती थी कि फलां शायर ने तो आज मुशायरा ही लूट लिया। यह ऐसी लूट हुआ
करती थी जिसकी रपट किसी थाने में नहीं लिखवानी पड़ती थी। लुटरे को कभी हथकड़ी नहीं
पड़ती थी बल्कि गले में फूलों की मालाएं पहना दी जाती थीं।
इन महफिलों में शामिल होने और उन्हें
सुनने के पर्याप्त अवसर मिलते रहे। कवि सम्मेलन, मुशायरों के अलावा सुगम और शास्त्रीय संगीत की सभाओं या
महफिलों का बड़ा मजा हुआ करता था। खासकर युवावस्था के दौरान जब देवास के मल्हार
स्मृति मंदिर सभागृह में जब कोई महफ़िल सजती तो शहर भर के कला संस्कृति प्रेमी
लोगों की भीड़ ही उमड़ पड़ती थी।
यहाँ आयोजित किसी भी कार्यक्रम का स्तर और
महत्व केवल इसी बात से बढ़ जाता था कि वह इस सभागार में सम्पन्न हो रहा है।
पंडित कुमार गंधर्व जी के प्रयासों से देश
के ख्याति प्राप्त कलाकारों, गायकों, संगीतकारों की गौरवशाली महफिलें यहां सजतीं
तो जैसे पूरा नगर ही कला मर्मज्ञों की आबादी में तब्दील हो जाया करता था। कुछ बड़े
कलाविन्द तो देशभर से मात्र श्रोता की हैसियत से ही इन महफिलों में शामिल हुआ करते
थे।खासतौर से जब कुमार साहब के गायन की महफ़िल सजती नीचे जमीन पर बिछी चादर पर
वरिष्ठ पत्रकार राहुल बारपुते, चित्रकार विष्णु चिंचालकर,
नवगीतकार प्रो नईम जी सहित पुणे,भोपाल,मुम्बई आदि से आए गुणीजन सबसे आगे की पंक्ति में बैठकर 'दाद' दिया करते थे।
ये वे लोग थे जिनकी 'वाह' बिल्कुल ठीक
समय पर निकलकर गायक की हौसला हफजाई करती थी। उनकी गर्दनों का हिलना और तालियों के
स्वर मंच के स्वरों की संगीत की समझ के साथ संगत किया करते थे।
मुशायरों, कवि सम्मेलनों में तो इन दिनों 'दाद',
'प्रशंसा' और 'तालियां'
मांगकर पाने की प्रथा चल पड़ी है किंतु उस दौर में कवि, शायर की पंक्तियों पर तथा संगीत महफिलों में केवल
स्वर लहरियों की प्रस्तुति पर बिन मांगे ही देर तक सभागृह तालियों की गड़गड़ाहट से
गूंजता रहता था।
ऐसा नहीं है कि अब महफिलें बेजान हो गईं
हैं, आज भी खूब
लूटी जाती हैं महफिलें किन्तु अब पहली पंक्ति में बैठने वाले वैसे
पारखी श्रोता व दिलों की संख्या में बहुत कमी आ गई है। दिल से मिली वास्तविक दाद
दुर्लभ सी लगती है...
सोशल मीडिया के 'लाइक्स' और 'वेलडन' जैसी आभासी प्रशंसाओं के इस जमाने में
महफिलें लूट लेने और दिल लुटाने वाले लोगों की बातें थोड़ी अविश्वसनीय लगें पर यह
होता रहा है हमारे यहां...
आइये इसी 'दाद', 'प्रशंसा' और 'तालियों' की अनुभूतियों पर
लिखी कविता पढ़ लेते हैं....
कविता
वाह ! क्या बात है !
अद्भुत नजारा है सभागार में
सुरों का साम्राज्य पसरा हुआ है चारों तरफ
गायक की भंगिमाओं के साथ
एक आलाप चल रहा है श्रोताओं के भीतर
तानपुरे की मद्दिम लहरों पर सवार
तबले और आवाज की नाँवें दौड़ने लगती है
तो निहाल हो जाते हैं संगीत यात्री
लम्बी दौड़ के बाद जब सफ़र थमता है तो
अचंभित सैंकड़ों स्वर फूट पड़ते हैं-
वाह-वाह ! क्या बात है !
वाह-वाह के दो शब्द
नई ऊर्जा से भर देते हैं कलाकारों को
और वह एक बैठा है
सभागार में बिलकुल चुपचाप
उठती उतराती तरंगों का
हो नहीं रहा कोई असर
किसी कंपनी के ट्रेड मार्क की तरह
जड़ हो गया है उसका चेहरा
इतना तो वह जानता ही होगा
आया है जब महफ़िल में
कि मित्र ही नहीं
शत्रु भी होते हैं तारीफ़ के हकदार
कलाएँ तो फिर दुश्मन भी नहीं रहीं कभी
किसी की
संवेदनाओं के पौधों में प्रशंसा की कलियाँ
खिली नहीं अब तक उसके भीतर
क्या शिकार हो गया है वह
प्रशंसा नहीं करने की किसी कूटनीति का
लगता है उसका कोई दोष नहीं इसमें
कि वह बजा नहीं पा रहा तालियाँ
हो सकता है पहले बहुत की हो उसने मेहनत
खूब लिखी हों जीवन की ख़ूबसूरत कविताएं
और किसी ने बजाई नहीं हों ताली
सुन ही नहीं पाया हो कभी
कि- वाह! क्या बात है !
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व्यस्त रहकर मस्त रहने का
जीवन
बहुत पुराना मुहावरा है कि 'सीखने की कोई उम्र नहीं होती'। ऐसे उदाहरण हमारे आसपास भी बहुत से मिल जाते हैं। एक हमारे साथी हैं
श्री केसरीसिंह चिडार जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद संगीत महाविद्यालय में
बाकायदा प्रवेश लिया और 'वायलिन वादन' विषय के साथ ग्रेजुएशन कर रहे हैं। यद्यपि संगीत का उनका कोई बैकग्राउंड
नहीं रहा। बस मन किया और 'व्यस्त रहकर मस्त' रहने का अभियान शुरू कर दिया। गत वर्ष उन्होंने परीक्षा भी उत्तीर्ण कर
ली। अब अगले वर्ष के पाठ्यक्रम की तैयारी में लगे हैं।
एक अन्य हमारे आदरणीय साथी
हैं श्री उमाशंकर नागर जी। वे तो 'व्यस्त
रहकर मस्त रहने' के मामले में अनुसरण योग्य हैं। जीवन
के 71 वर्ष पूरे करते हुए इस आयु में उन्होंने
हारमोनियम सीखा है। बाकायदा एक उस्तादजी की क्लास में युवाओं के साथ बैठकर न सिर्फ
हारमोनियम सीखा बल्कि राग रागिनियों के प्रारंभिक ज्ञान के बाद सस्वर हारमोनियम की
संगत पर आलाप भी लेते हैं।
पिछले दिनों वरिष्ठ कवि
स्व. बालकवि बैरागी जी को याद करते हुए मैंने फेसबुक पर एक संस्मरण पोस्ट किया था, जिसमें उनके लिखे 'रेशमा और शेरा' फ़िल्म के यादगार गीत ' तू चन्दा मैं चांदनी' का उल्लेख था। नागर जी ने
उसी दिन गूगल पर सर्च करके गीत के बोल ढूंढे और रात तक उसको हारमोनियम पर गा, बजाकर प्रेषित कर मुझे सरप्राइज ही दे डाला 'यह
लीजिये आपका प्रिय गीत, सुनिए इस लॉक डाउन एकांत में।'
बात यहां उनकी गीत संगीत
प्रस्तुति की श्रेष्ठता की कदापि नहीं है किन्तु इस उम्र में उनकी यह लगन देखते ही
बनती है। व्यस्त रहकर मस्त रहने का गुण उनके स्थायी स्वभाव का हिस्सा है। खुशियों
को वे कभी छोड़ते नहीं, पकड़कर
अपने पास बंधक बना लेते हैं।
आपको बड़ा आश्चर्य होगा 71 वर्षीय इस नौजवान का
जीवन भारतीय फौज में एक जवान के रूप में ही शुरू हुआ था। खेत खलिहान से जुड़े नागर
जी ने जमीन पर 'जय जवान, जय किसान' को प्रमाणित किया है।
सेना से सेवानिवृत्ति के
बाद ग्रेजुएशन किया। कॉलेज में सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हुए नाटकों
में हिस्सा लेते रहे। और जब 1977 -78 में राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों का विस्तार होने लगा, नागर जी की भी बैंक में नौकरी लग गई। अब वे हमारे सहकर्मिभी हो गए थे।
मेरी भी नौकरी उनके साथ ही उसी बैंक में लग गई थी।
इसी समय साहित्य जगत के
मित्र कुमार अम्बुज भी बैंक में नौकरी में लगे थे किंतु उनसे तब तक परिचय नहीं हुआ
था। बल्कि बहुत बाद पता चला था कि हम एक ही बैंक में काम करते हैं। जबकि नागर जी
हमारे घर में किराएदार थे जो बड़े भाई की तरह रहते हुए बाद में सहकर्मी बन गए थे।
बात व्यस्त रहकर खुश और
मस्त रहने की ही करते हैं। इस फार्मूले के सफल कार्यान्वयन को नागर जी से सीखा जा
सकता है। बैंक में नौकरी करते हुए वे कवि हुए, व्यंग्य भी लिखने लगे। सीखने में कैसी शर्म। लिखते और दिखाते। लिखे को
सुधारते। फिर गोष्ठियों में रचना भी पढ़ने लगे। कुछ दिनों बाद उन्होंने आयुर्वेद का
रुख किया। आयुर्वेद की परीक्षाएं उत्तीर्ण की और डॉक्टर हो गए। मस्ती और खुशी की
तलाश में व्यस्त रहने का ही परिणाम रहा कि वे अब सम्मान के साथ उनके नाम के आगे
‘डॉक्टर’ लिखा जाने लगा है।
वरिष्ठता की इस वय में
लोकप्रिय कार्यक्रम 'कौन
बनेगा करोड़पति' में प्रविष्ठि के कुछ चरणों के लिए भी
गए। वकीलों की संगत अच्छी लगी तो दोस्त बनाए। एलएलबी तो उन्होंने कर ही रखा था।
काला कोट भी पहन लिया।
सबसे बढ़िया बात तो यह है कि
वे जिनके मित्र बनते, उतने
ही गहरे व आत्मीय वे परिवार के अन्य परिजनों के हो जाते हैं। मेरे दोस्त थे तो उससे
अधिक उनकी मेरे पिता और माँ से पटती रही.
बहरहाल, व्यस्त रहकर मस्त रहने की कला
पर बात करते हुए मुझे लॉक डाउन एकांत में अपने परिजन जैसे पुराने मित्र, सहकर्मी नागर जी अंतर्मन से याद आते रहे हैं.....!
यह वक्त नागर जी जैसे
जिंदादिल इंसानों का ही है।
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